रविवार, 28 दिसंबर 2014

चोट कुछ अलग सी होती है......

चोट दुखती है बहुत अगर अपनी असावधानी से लग जाती है। चोट दुखती है अगर दूसरे की असावधानी से लग जाती है। अक्सर यह समझ पाना कठिन होता है कि चोट सबसे ज्यादा कब दुखती है? अपनी असावधानी से लग जाने के कारण या दूसरे की असावधानी से लग जाने के कारण। बहरहाल दर्द तो होता है, दुखता तो है ही। दुखना, दुख से उपजा शब्द है शायद। दुख देह में नहीं होता, मन में होता है। जब दुख मन में होता है ताे मन देह घर में ही चुपचाप एक कोने में अकेले बैठे रह जाना चाहता है। पता नहीं मन किस जगह से उठ या हटकर अपना एकान्त चुनता है, एक अंधरी कोठरी चुनता है जहाँ वह हमारी ही तरह घुटने मोड़कर उनमें मुँह छिपाकर बैठ जाया करता है। ऐसा सोचते हुए लगता है कि मन अपनी देह अलग गढ़ लिया करता है या हम अपने मन की देह अलग गढ़ दिया कर देते हैं। मन का इस तरह बैठ जाना और गहरी चुप्पी धारण करना देह से नहीं छूट सकने वाले हाथ को छुड़ाने की कोशिश सा जान पड़ता है। इसकी सफलता या विफलता, जीत या हार हमारे बाहर को प्रभावित करती है। 

चोट का पूरा का पूरा मिजाज अलग तरह का होता है, अक्सर लोग उसे पास-पड़ोस के शब्दों जैसे जख्म या घाव से भी जोड़ते हैं पर सचाई यह है कि चोट इन सबके पहले की अवस्था होती है। जख्म या घाव की तरह चोट प्रकट अवस्था में नहीं होती। उसका अप्रकट होना ही दरअसल हमारी संवेदना को उसकी तरफ एकाग्र करता है। शेष दो अवस्थाओं में हम सब कुछ के एक तरह से भिज्ञ ही होते हैं और उसके निदान को लेकर भी अनावश्यक संशय में नहीं रहते लेकिन चोट के साथ ऐसा नहीं है। चोट हमारे कदमों को पीछे, बहुत पीछे लौटा कर ले आने को होती है। वह दबाव शायद इस तरह का होता है कि हम उसका प्रतिरोध भी नहीं कर पाते। दी हुई चोट किसी भी संवेदनशील मनुष्य को ज्यादा तंग करती है। चोट कई बार छुए से मालूम नहीं देती, कई बार चोट छुए भर से मालूम हो जाती है। चोट के साथ स्पर्श का रिश्ता बहुत नम्र और कई मायनों में असरकारी भी होता है।

मन की चोट बरसों बनी रहती है। ऐसी चोट बढ़ती या घटती नहीं है पर बनी सदैव रहती है। देह से लेकर मन तक दरअसल महीन धागों की बुनी हुई ऐसी चादर भीतर ही भीतर कोई ढाँप कर छोड़ देता है, इस तरह की छुपी पीड़ा अपनी तपन को एक जैसा बनाये रखती है। नम्र स्पर्श, भूल को महसूस करने वाली नन्हीं-नन्हीं ग्लानियाँ चोट का धीमे-धीमे निवारण करने का अगर सच सरीखा प्रयत्न करते हैं तो सम्भवत:  वह चोट भी ठीक होती है जो ऋतुओं और त्यौहारों पर थोड़ी-थोड़ी हरियाई सी रहती है। सहलाहट केवल अँगुलियों या हथेलियों भर का हुनर नहीं है, सहलाहट सच कहा जाये तो सच्चे मन से स्वीकारी गयी भूल और उसी मन से किए जाने वाले प्रायश्चित या पछतावे की फिलॉसफी है। चोट को सहलाकर हम अपने मन तक उसके दर्द या पीड़ा के एहसासी होते हैं, यह एहसास हमें आत्मबोध कराता है और मान लीजिए चोट पहुँचाने की वृत्ति के प्रति थोड़ा-बहुत भी सचेत करता है, तो इससे बड़ी बात क्या हो सकती है! कुछ हो सकती है भला!!

रविवार, 21 दिसंबर 2014

पप्पू का दर्शन शास्त्र


हर बार यही होता है कि जुल्फें जरूरत से ज्यादा बढ़ जाती हैं और उन पर कैंची चलवाने का मौका मुश्किल से आता है। इधर दो-तीन दिन से सुबह बड़े अवसर थे मगर अपनी अलाली और शिथिलताओं से गँवाते रहे। इतवार फिलहाल आखिरी मौका था। मैं यथासम्भव मैले और गन्दे कपड़े पहनकर उसकी दुकान पहुँचा तो उसको सामने एकदम फुरसत में पानी पीते हुए खड़ा देखकर एक्टिवा से ही कूद जाने को हुआ। सेठ है अपनी दुकान का। बहुत व्यस्त रहता है और हर कोई उसी से बाल कटवाना चाहता है। मुझे लगा, ऐसा न हो गाड़ी खड़ी करने से लेकर उसके पास जाने के बीच, बीच से कोई आ जाये और अपना नम्बर लगा दे। बहरहाल ऐसा हुआ नहीं और मैं भी गाड़ी में लदे-लदे ही चिल्ला दिया, पप्पू भाई, अपना नम्बर।

मुझे देखकर या मेरी बात से उसे जैसे कोई खुशी नहीं हुई, वह वाकई फ्री था सो अनौपचारिक रूप से मेरे ही अनुसरण में दुकान में अन्दर चला आया और कहने लगा, कल नहीं आये, इन्तजार करता रहा? मैंने कहा, कल कब आने वाले थे, हमने तो नहीं बताया। वह बोला, संजू भैया आये थे, वो कह रहे थे। मैंने कह दिया, मजबूरी में उत्तर दिया होगा, तुमने उनसे पूछा होगा, यह सोचकर कि कहीं और से तो हम बाल नहीं कटवा रहे। इस पर तम्बाखू खाया पप्पू ही ही करने लगा, नहीं भाई साहब, ऐसी बात थोड़े ही है।

उसने कोने की कुरसी पर मुझे बैठने का इशारा किया और इसी बीच उसके दो आशिक आ गये जो जिद करने लगे, चलो यार, चलो यार, पहले मुझे निपटा दो, मेरे बाल काट दो। उनकी छीना-झपटी के बीच पप्पू ने मेरी ओर इशारा किया, भाई साहब बैठे हैं, इनके बाद ही। मुझे पप्पू के इन्साफ पर गर्व हुआ। दूध का दूध, पानी का पानी। वे पीछे बैंच पर बैठ गये और सामने कोने पर रखे छोटे से रंगीन टीवी में नरेन्द्र चंचल के भजन देखने लगे, इधर पप्पू मुझे ओढ़ा-ढँपाकर शुरू हो गया। बीच में उसका एक नौकर आया, उसको उसने आड़े हाथों लिया, क्यों क्या चक्कर चल रहा है तेरा, सुबह पानी गरम होता रहा और तूने स्विच बन्द नहीं किया, क्या बात है, कोई माशूका पाल ली है क्या? मैं पप्पू का चेहरा शीशे में देखते हुए मुस्कुराया तो कहने लगा, हाँ भाई साहब या तो माशूका आ जाये या उधारी हो, तभी आदमी का दिमाग उलझा रहता है। मुझे लगा इसके दर्शन पर गौर करूँ, फिर सोचा, नहीं गर्व करना ठीक होगा।

बीच में पप्पू से मैंने एक परामर्श भी लिया। मैंने उससे कहा, पिछले दिनों बहन तोहफे में एक बड़ा सा डिब्बा झाग वाली शेविंग क्रीम का दे गयी है, जिन्दगी में कभी देखा नहीं, लगाकर दाढ़ी बनाना तो दूर की बात, कैसे उसका उपयोग करूँ? तब उसने सामने ही शो-केस में रखे उसी तरह के डिब्बे को उठाकर, मुझे प्रशिक्षित किया, पहले गालों में पानी लगाऊँ, फिर डिब्बे को शेक करूँ, थोड़ा हथेली में रखूँ और हल्के-हल्के रगड़कर झाग उठाऊँ, थोड़ी देर बाद दाढ़ी मुलायम हो जायेगी तब रेजर से काट लूँ। नासमझ विद्यार्थी की तरह मैंने पूरा सुना फिर समझ आ जाने वाली समझदारी के साथ उसे यह एहसास भी कराया कि जान गया हूँ।

इस बीच पप्पू ने एक बार बाल काटते हुए आधा काम छोड़कर बाहर जाकर चाय भी पी। तम्बाखू भी फटकार कर खायी और मुझे एक काम भी सौंपा, कहा इस बार मुम्बई जाऊँ तो उससे मिलकर जाऊँ क्योंकि वहाँ क्राफर्ड मार्केट में नाक के बाल कुतरने की छोटी सी इलेक्ट्राॅनिक मशीन मिलती है, वह लेकर जरूर आऊँ। मैंने उससे पूछा, जोखिम भरा उपकरण तो नहीं है, नाक के बाल कुतरने के बजाय अराजक हो जाये तो नाक ही उधेड़ दे, इस पर पप्पू ने कहा नहीं भाई साहब, विदेशी है, एकदम शानदार।

इधर पीछे दो ग्राहक कसमसाकर पप्पू को खूब जल्दी से फ्री होने को कह रहे थे लेकिन पप्पू ने आज पूरी तसल्ली से मुझे महीने-पन्द्रह दिन लायक बना दिया। सब वादे और तमाम शुक्रिया के बाद जब मैं उसके सैलून से बाहर निकला, तो सच कहूँ, बड़ा अच्छा लग रहा था। पप्पू है तो सिर शेप में है, वाकई....................

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

पत्रिकाओं से जन्मजात सरोकार की बात पर..........

पत्रिकाओं को लेकर बचपन से ही बड़ी ललक रही है। छोटे थे तब पापा-मम्मी ने अखबार वाले हॉकर करीम चाचा से तीन पत्रिकाएँ बँधवा दी थीं, चम्पक, नंदन और पराग। प्राय: ये पत्रिकाएँ साप्ताहिक ही हुआ करती थीं। आगे चलकर हमें जब लोटपोट और चन्दामामा के बारे में जानकारी हुई तो हमने मम्मी-पापा की आफत करके ये दोनों पत्रिकाएँ भी करीम चाचा से लगवा लीं। इन पत्रिकाओं की प्रतीक्षा जागते ही करने लगते। 

करीम चाचा बड़े दिलचस्प आदमी थे। सायकिल में अखबार सजाये जब वे मोहल्ले में दाखिल होते थे तो हर घर के लोगों को जानने और नाम-सरनेम से बुलाने, बच्चों को उनके नाम से बुलाने के कारण, जोर से बोलने की वजह से पता चल जाया करता था कि वे आ रहे हैं। मैं अक्सर व्यग्रता में दूर उनके पास पहुँच जाता था अखबार और अपनी पत्रिकाओं के लालच में पर वे मुझे तंग करते थे, कहकर कि भाग जा, घर पहुँच, वहीं मिलेगा अखबार। मैं ठुनकने लगता तो और चिढ़ाते। मैं घर में उनकी शिकायत करता तो शिकायत को तवज्जो न मिलती। करीम चाचा कई बार अचानक बिन आहट आकर आवाज लगा देते और जो पत्रिका नयी आयी होती उसका नाम लेकर बुलाते। कई बार वे पास बुलाते और न देकर आँगन में अखबार और पत्रिकाएँ उछालकर फेंक देते तब भी मैं उन पर बहुत चिढ़ता। 

जो पत्रिकाएँ बचपन में पढ़ने को मिलतीं उनकी आदत सी बन गयी थी। पढ़ लिए अंक व्यवस्थित जमाकर रखता था। मोहल्ले में किसी को पत्रिका नहीं देता था। पड़ोस में सहाय मौसी मम्मी से अक्कसर कहतीं, सुशीला तुम्हारा लड़का बड़े छोटे जी का है। मैं चम्पक के चीकू, नंदन के तेनालीराम और विशेषकर दो चित्रों में दस गल्तियाँ ढूँढ़ने वाले पन्ने पहले खोलता। मुझे चन्दामामा में बेताल कथाएँ बहुत सिहरा देतीं, हठी विक्रमार्क पेड़ के पास फिर लौट आया, पेड़ से शव को उतार कर कंधे पर लादकर चलने लगा, यहाँ से शुरूआत होती और आखिर में बेताल का प्रश्न जिसका उत्तर यदि विक्रमार्क जानते हुए न देगा तो सिर टुकड़े-टुकड़े हो जायेगा और देगा तो बेताल उड़कर फिर पेड़ पर जा बैठेगा। इसको पढ़ने का रोमांच होता। इसी तरह पराग का भी अपना आकर्षण था। उसमें के पी सक्सेना जी का धारावाहिक खलीफा तरबूजी आज भी याद है, उनकी बेगम, पिंजरे में तोता और रेल की लम्बी यात्रा के किस्से, पढ़ा करते। 

जब लोटपोट पढ़ना शुरू किया तो उसमें चाचा चौधरी, मोटू पतलू खूब सुहाते। मोटू पतलू की कहानी के चित्रमयी पन्नों में उनके साथी घसीटाराम, चेलाराम, डॉक्टर झटका, सिस्टर मधुबाला के कारनामे हँसा-हँसाकर वाकई लोटपोट कर दिया करते। बचपन से बाहर आये तो जैसे इस संसार से भी बाहर आ गये या यों कह लीजिए कि यह संसार भी छूट गया। अब चम्पक, नंदन का रूप ही बदल गया है, चन्दामामा कभी-कभार पत्रिकाओं की दुकान पर दिखायी देता है। लोटपोट दुर्लभ है। पराग तो बन्द ही हो गयी।  आज के बचपन को इन पत्रिकाओं का पता भी न होगा और उनकी जिज्ञासाओं में शामिल भी शायद न होती हो। बचपन भी पढ़ने के धीरज और धैर्य से बाहर हो गया प्रतीत होता है। अब नानियों, दादियों के पास भी शायद कहानियाँ नहीं हैं, माँ के पास तो और भी दुर्लभ। 

पत्रिकाओं का अपना चस्का लेकिन आज भी बरकरार है। दो-तीन दिन में यदि भोपाल में घर से कुछ दूर न्यूमार्केट के गुरु तेग बहादुर कॉम्पलेक्स में वैरायटी बुक हाउस न जाओ तो बड़ी बेचैनी महसूस होती है। अब इण्डिया टुडे, तहलका, अहा जिन्दगी, कथादेश, नया ज्ञानोदय, हंस, समास के अंकों को लेकर जिज्ञासा बनी रहती है। मन के अंक खरीदा करता हूँ। मुझे लगता है कि वाकई महँगाई के इस दौर में अखबार और पत्रिकाएँ आज भी जिस मूल्य पर मिला करते हैं वह बहुत कम है। अपने समय, दृश्य और दुनिया में छोटी मोटी पैठ बनाये रखने के लिए, थोड़ा बहुत जाने रहने के लिए पत्रिकाएँ बड़े काम की हुआ करती हैं। पढ़ना आज के कठिन समय को सहने और समझने की अहम प्रक्रिया है। यह ऐसी पगडण्डी है जो दुर्लभ हो चली है, दुरूह भी। क्षमताभर फिर भी मैं उसमें आवाजाही के जतन कर लिया करता हूँ भले ही पढ़ते-पढ़ते सो जाऊँ।

रविवार, 14 दिसंबर 2014

जिन्दगी के कर्टन रेजर

श्रीराम ताम्रकर का नहीं रहना, बहुत सारी स्मृतियों और बातों के पुनर्स्मरण का सबब बन गया है। वे सिनेमा के थे, उनसे सिनेमा को जानने का सौभाग्य मिला था, सब कुछ सिनेमा की रील की तरह ही चल रहा है। ऐसा लगता है इस हृदयविदारक घटना ने अपने आप एक बड़ा सा कर्टन रेजर तैयार कर दिया है, छोटे-छोटे दृश्य उपजते हैं, प्रसंग सामने फिर से घटित होने लगते हैं, संवाद होने लगता है, कहकहे लगते हैं, बात होने लगती है, अपनापन दिखायी देता है, टेलीफोन सुनायी देने लगता है। 

उनका मोबाइल नम्बर बार-बार देखता हूँ। आँखें भीग जाती हैं। अब वे उधर से दो अक्षरों के हैलो का जरा विस्तीर्ण कर थोड़े ही बोलेंगे, हैल्ल्लो....! भोपाल में स्कूटर की यात्राएँ याद आती हैं, शुरू शुरू की जब बैठते ही कहते थे, पेट्रोल पंप ले चलो, जिद माननी होती थी, इकट्ठा पाँच लीटर भरवा दिया करते थे। जितने दिन भोपाल में रहें, साथ खाना खाया, काम किया। त्रिवेन्द्रम गये, मुम्बई गये, दिल्ली गये, पुणे गये और भी कहाँ कहाँ। 

धरम जी से पहली बार मिले तो साथ मिले। उन्होंने ही धरम जी से कहा था कि आप शोले फिल्म का वो सिक्का जो जिसके दोनो ओर हेड है, तिस पर धरम जी ने खड़े होकर उन्हें गले लगा लिया था, कहते हुए, वाह यार क्या बात कही है। वे नईदुनिया के फिल्म सम्पादक रहे तो उन्होंने लिखने की समझ दी, सिखाया, प्रोत्साहित किया। नाना पाटेकर, सुधांशु मिश्र, हृतिक रोशन, राकेश रोशन आदि के बड़े इण्टरव्यू छापे।

भोपाल में वे जब भी आते थे तो यही लगता था कि पास ही रुकें। हमेशा किसी निमंत्रण पर भी वे आये तो यही चाहा कि ऐसी जगह रुकें जहाँ मैं तत्काल पहुँच सकूँ। वे भोपाल में होते थे तो उनको अकेला बिल्कुल नहीं छोड़ता था। भोपाल में वे हमारे प्राय: सभी आत्मीय मित्रों से जुड़ गये थे। सबके साथ समरस। सिनेमा पर उनका बोलना सम्मोहित करता था हमेशा। निरन्तर बिना किसी दोहराव के तथ्यपरक बातें वे करते थे। कई बार वे फिल्म पत्रकारिता सीख रहे छात्रों को शुरू में ही कह देते थे कि मैं आपके लिए ही बताने वाली बात की पूरी तैयारी से आया हूँ, यदि आप गम्भीर न हुए, आपका मन न लगा तो मेरा आना बेकार, आपका सुनना बेकार, आपकी संस्था का यह सारा का सारा उपक्रम बेकार। इसलिए  पहले बता दीजिए, आपकी रुचि है या नहीं तिस पर सभी छात्र नतमस्तक, सर आप बताइये, हम सुनेंगे, बैठेंगे।

आज सुबह जूनी इन्दौर के मुक्तिधाम में उनकी निष्प्राण देह को देखकर सब्र छूट गया। वही सब कर्टन रेजर की तरह, इस तरह तो उनको कभी नहीं देखा था। वे अपनी आँखें, सिनेमा प्रेम में दान कर गये, उनके जाने के बाद भी उनकी आँखें सिनेमा देखती रहें इसलिए। प्रभु जोशी, सरोज कुमार, राकेश मित्तल, मानसिंह परमार वहाँ पर बोल रहे थे, ताम्रकर जी के बारे में, सच-सच। प्रभु जी ने कहा मेरे अविभावक थे, सरोज जी ने कहा कि श्रेय से दूर रहते थे, बहुत सी बातें। 

अक्सर, इन्दौर में उनसे मिलकर भोपाल रवाना होते हुए उनका एक आदेश सुनता था, भोपाल पहुँचते ही खबर करूँ। अब नहीं कहेगा कोई और खबर भी किसे करूँ......?

देवी अहिल्या विश्वविद्यालय इन्दौर में बीस वर्षों से निरन्तर फिल्म पत्रकारिता पढ़ाते रहने वाले ताम्रकर जी के नाम पर वहाँ इस विषय की एक पीठ स्थापित कर दी जाये तो शायद किसी तरह की कठिनाई न होगी। परमार जी, मित्तल जी, कुलपति इस अहम काम को सहजतापूर्वक ही कर सकते हैं।

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2014

हिन्दी में सिनेमा का एनसायक्लोपीडिया


सिनेमा का संसार हिन्द महासागर की तरह है जिसकी अन्तहीनता की सिर्फ कल्पना की जा सकती है। दर्शक को उसका छोर भी बहुत मुश्किल से ढूँढ़े मिलेगा, वह भी अगर उसमें बहुत जतन करने की जिज्ञासा या कौतुहल हो अन्यथा सभी के लिए सिनेमा परदे का मनोरंजन है, चन्द घण्टे बैठकर सपनों की दुनिया की सैर कर आओ, लौटो तो खाली हाथ, कुछ आधे-अधूरे ख्वाबों के संग।

बहरहाल भारत में हिन्दी में एनसायक्लोपीडिया का तैयार होना एक बड़ी घटना है जिसे खासतौर पर ऐसे अवसर पर लोगों के बीच घोषित होना चाहिए जो वास्तव में सिनेमा से गहरे सरोकार रखते हैं। सिने रसिकों के लिए यह अथाह परिश्रम, क्षमताओं और जूझने वाली लगन से भरा काम वरिष्ठ फिल्म आलोचक, सम्पादक, लेखक श्रीराम ताम्रकर ने किया है जो इन्दौर में निवास करते हैं। उनको सिनेमा के संसार का अध्ययन और अनुभव का पाँच दशक से भी अधिक समय का ऐसा तजुर्बा है जिसमें निरन्तर सक्रियता उनका अपने ही से प्रमुख आग्रह रहा है। ऐसे व्यक्तित्व से ही इस तरह के बड़े काम की अपेक्षा की जा सकती है।

हिन्दी सिनेमा: एनसायक्लोपीडिया, श्रीराम ताम्रकर के अनुभवों, पढ़े-लिखे-देखे का जीता-जागता साक्ष्य है। अपने मार्गदर्शन में अनुभवी और दक्ष सम्पादन मण्डल के साथ जिनमें वरिष्ठ पत्रकार विनोद तिवारी, मनमोहन चड्ढा, सुरेश उनियाल, डाॅ. राजीव श्रीवास्तव, गोविन्द आचार्य आदि शामिल थे, यह दुर्लभ काम उन्होंने दो वर्ष के दिन-रात परिश्रम से पूरा किया है। इसमें 1500 प्रविष्टियाँ, 5000 से अधिक सन्दर्भ एवं सूचनाप्रधान प्रामाणिक जानकारी शामिल की गयी है।

इस एनसायक्लोपीडिया में स्टिल कैमरे के 1839 में आविष्कार के साथ ही सिनेमा के जन्म की दिलचस्प दास्तान, ल्यूमिएर ब्रदर्स, सावे दादा, दादा साहब फाल्के, सिनेमा से पहले का सिनेमा और सौ साल की यात्रा पर बहुत ही परिमार्जक ढंग से सावधानी के साथ आलेख, सूचनाएँ और जानकारियाँ संयोजित की गयी हैं। इस एनसायक्लोपीडिया में निर्माण, निर्देशन, अभिनय, कोरियोग्राफी, छायांकन, गीत, संगीतकार, एक्शन, संगीत संयोजन आदि पर बड़े उत्तरदायी ढंग से बात की गयी है। एनसायक्लोपीडिया तैयार करते हुए भारतीय सिनेमा की उन सब श्रेष्ठ और अमर विभूतियों का व्यक्तित्वपरक स्मरण किया गया है जिनकी अहम और आसाधारण भूमिका से ही सिनेमा ने अपने विराटपन को स्थापित किया है। 

इसी एनसायक्लोपीडिया में पहली बार फिल्मों की पारिभाषिक शब्दावली के बारे में समझा और जाना जा सकेगा जैसे क्लोज अप, लांग शाॅट, आॅन स्क्रीन साउण्ड, फ्लैश बैक, मोंताज, मीडियम शाॅट, आॅफ स्क्रीन साउण्ड, मिक्सिंग, डिजाल्व, अन-मेरिड प्रिंट आदि। समग्रता में सिने-व्यक्तित्वों के परिचय एवं योगदान के साथ ही फिल्म संस्थानों के साथ उनकी कार्यप्रणाली, उपयोगिता पर जानकारियाँ इसका हिस्सा हैं। एनसायक्लोपीडिया में सिनेमा से जुड़े सभी प्रमुख पुरस्कारों पर भी विस्तार से जानकारी है।

श्रीराम ताम्रकर इस प्रकल्प के मुख्य रचनात्मक सूत्रधार हैं जो लगभग पिछले दो वर्ष से लक्ष्य लेकर इस काम को पूरा करने में पिछले माह सफल हुए जब सम्पूर्णता में हिन्दी सिनेमा का भारत का यह पहला एनसायक्लोपीडिया उन्होंने पूर्ण किया। इस बीच स्वास्थ्य सम्बन्धी गहन समस्याएँ जिनमें हृदय की शल्य चिकित्सा भी शामिल है, से जूझते-लड़ते, चिकित्सकों द्वारा आराम और विश्राम के अनुशासन को भंग करते हुए उन्होंने इस कार्य को इति तक पहुँचाया। 

श्रीराम ताम्रकर का कहना है कि मेरे लिए यह सपना बहुत बड़ा नहीं था। नईदुनिया अखबार के लिए परदे की परियाँ, सरगम का सफर, नायक-महानायक, दूरदर्शन सिनेमा, फिल्म और फिल्म, विश्व सिनेमा और भारत में सिनेमा जैसे वार्षिक विशेषांकों का सम्पादन करते हुए, भारत के अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों का प्रेक्षक बने रहते हुए और नईदुनिया अखबार के लिए ही प्रतिमाह फिल्म संस्कृति जैसी लोकप्रिय लघु पत्रिका निकालते हुए मेरे लिए अब यही एक काम शेष था कि मैं हिन्दी के पाठकों के लिए उनकी भाषा और सुरुचि में सिनेमा का महाकोष तैयार करूँ। यह काम मेरे चालीस साल के तजुर्बे और सिनेमा माध्यम के प्रति अथाह अनुराग और निष्ठा का सुपरिणाम है। मैं ठहरकर, अपनी रचनात्मक तृप्ति की गहरी साँस लेता हूँ और अपने आपको खुशकिस्मत महसूस करता हूँ कि मायानगरी से बड़ी दूर इन्दौर शहर में रहते हुए मायानगरी के लिए ही यह बड़ा और अहम काम कर सका। 

बुधवार, 3 दिसंबर 2014

भोपाल दो-तीन दिसम्बर उन्नीस सौ चौरासी

बीसवीं सदी की एक बड़ी दुर्घटना जिससे बड़ी मानवीय क्षति हुई, शेष जीवन मानसिक अवसाद, प्रताड़ना, अन्देशों और डर भय से भरे हो गये, उसे आज तीस बरस हो गये हैं पर जी इतना कड़ा नहीं हो पाता कि सब भुलाया जा सके। मन को बहलाने और समझाने के लिए कहा जाता है कि वक्त से बड़ा कोई मरहम नहीं है, सब जख्म धीरे-धीरे भर जाते हैं लेकिन सच्चाई यह है कि जख्मों के धुंधले निशान भी छुओ तो हरे हो जाते हैं। उस समय का स्मरण एक साथ कई बातों का स्मरण कराता है, सहसा उस उम्र का स्मरण हो आता है और तब के मानस का भी।

तब की याद आती है, पढ़ाई-लिखाई मन न लगने के कारण अपनी पूरक चाल से आगे बढ़ रही थी लेकिन लेखन में रुचि हो गयी थी। अखबार श्वेत-श्याम निकला करते थे। उन दिनों रवीन्द्र भवन के खुले मंच पर राष्ट्रीय रामलीला मेला, मध्यप्रदेश आदिवासी लोककला अकादमी ने आयोजित किया था। उस मेले में प्रतिदिन होने वाली रामलीला की समीक्षा बड़े भाई तुल्य अनिल माथुर कर रहे थे जो तब जनसम्पर्क विभाग में अधिकारी थे पर अपनी पूर्ववर्ती संस्था नवभारत समाचार पत्र का युवा जगत पेज देख्‍ाा करते थे। उनको पारिवारिक काम से आगरा जाना हुआ तो मुझे कह गये कि अन्तिम दो दिनों की रामलीला तुम कवर कर के नवभारत को दे आना, तुम्हारे नाम से आयेगी। इस तरह दो दिन 1 और 2 दिसम्बर को रामलीला देखने और लिखने का काम किया था। 2 दिसम्बर को इधर रामलीला देख रहा था, उधर यूनियन कार्बाइड में दुर्घटना हो गयी थी। अगले दिन सुबह के सारे अखबार पहले पेज पर उस बड़ी दुर्घटना का समाचार दे रहे थे।

3 दिसम्बर सुबह से ही खबरें फैल रही थीं। नये भोपाल में किसी को पता न चला कि शहर में बीती रात क्या हो गया है? अगला दिन सच्ची झूठी खबरों का था। घटना इतनी भयानक थी हर बात पर विश्वास करते हुए भोपालवासी भीतर ही भीतर बहुत कमजोर होते जा रहे थे। ऐसा लगता था कि सबका अपना विवेक हार गया है। हर बात पर भरोसा करने को जी चाहता था और हर बात डराने वाली थी। याद है, उम्र तब इक्कीस वर्ष थी, 3 दिसम्बर को साढ़े ग्यारह बजे सुबह अफवाह उड़ी कि यूनियन कार्बाइड से फिर गैस रिस पड़ी है, तब पूरे शहर में बदहवास भगदड़ मच गयी। नये भोपाल के स्थान भी अछूते न रहे। हमारे मोहल्ले के लोग घर से जहाँ रस्ता मिले, भागने लगे, ताला डालने का की होश किसी को न था। एक तरफ मानवीय पहलू यह कि पीड़ितों को सब हर तरह की मदद करने आगे आये वहीं यह भी कि अगले दिन गैस रिसते हुए अपनी जान की परवाह करते भाग रहे लोग पड़ोसी की फिक्र भी नहीं कर रहे थे। एक परिवार तो अपने घर के अति बुजुर्ग की शिथिलता और लाचारी पर भी उनसे झुँझला रहे थे, सब तरह के तजुर्बे।

घण्टे भर बाद यह ऐलान हुआ कि दोबारा गैस नहीं रिसी है, सब घर में रहें, भागें न, कहीं न जायें। लोग बमुश्किल माने पर अगले पन्द्रह दिनों तक हर आदमी रह-रहकर जागता था, कितना सोता था पता नहीं। अगले पन्द्रह दिनों में से ही एक दिन यूनियन कार्बाइड में बचे रसायन से सेविन गोलियों का निर्माण कर रसायन खत्म कर दिया जाना था, वह रसायन जिससे यह भयानक हादसा हुआ। उसके बाद भी बरसों बल्कि कल तक यह खबरें आती रहती हैं कि अभी भी वहाँ जहरीला अपशिष्ट बचा है, पड़ा है, वगैरह वगैरह। सच तो यही था कि दुर्घटना वाली रात जहरीली गैस ने जमकर विनाशलीला की। चपेट में आये बुजुर्ग, बीमार, महिलाएँ, बच्चे, युवा हजारों की संख्या में असमय काल कवलित हो गये। 

हम लोग अपने मुहल्ले से पाँच सात साथी सायकिलों पर हमीदिया अस्पताल जाया करते थे, दूध, डबलरोटी और खाने की दूसरी सामग्रियों के साथ लेकिन वहाँ इस आपदा के शिकार निर्दोषों को भूख की नहीं जीवन और साँसों की जरूरत थी, हम लोग असहाय से उनको तड़पते, विलाप करते, रोते देखते थे और भीतर तक सिहरन तथा दुख से भर जाते थे। हम सबके पास इसकी दवा नहीं थी। हर रोज अस्पताल के दृश्य रुलाया करते थे, हौसले को कमजोर किया करते थे। सालों साल हमने अपनी मानसिकता को कमजोर होते देखा है। मुझे अपनी भी याद है, बहुत डरा करता था। उस समय आकाशवाणी में विनोद तिवारी, गजलकार समाचार पढ़ा करते थे। मैं प्राय: उनके पास बिना जान पहचान के कभी रेडियो स्टेशन तो कभी उनके घर पहुँच जाया करता था, पूछने कि अब तो कुछ नहीं होगा, अब तो कोई खतरा नहीं है। कई बार इस बात पर वे झुँझला जाया करते थे। बाद में एक-दो बार उन्होंने मुझे भगा भी दिया था। कहने का अर्थ यह कि कैसे एक भयावह घटना मनोबल को कमजोर करती है, विश्वास को डिगा देती है, जवाबदारियों के लायक नहीं रहने देती। कैसे हम केवल अपने बारे में सोचने लगते हैं, कैसे मानसिक भरम हर पर डगमगाये रखते हैं। अनुभवों का जखीरा लम्बा है, राजीव गांधी आये थे पीड़ितों को देखने, याद है बहुत कुछ। 

यूनियन कार्बाइड की दुर्घटना का समय देर रात से सतत सुबह तक का है, आगे भी कई दिनों तक जब तक आसमान में गैस मण्डराती रही लेकिन किस तरह इस काल-आक्रमण से सर्वथा बेखबर लोग इस दुनिया से चले गये। भोपाल इस घटना के बाद अनेक वर्षों तक अनेक मुश्किलों से जूझता रहा है। घटना हो जाने के बाद घातक रसायन के उन लोगों और पीढ़ियों में प्रभाव बने हुए हैं जिनके प्राण किसी तरह बच गये। सोच कर मन काँप उठता है कि हम कारखाने से पन्द्रह किलोमीटर दूर होकर महीनों-सालों भयमुक्त नहीं हो पाये, उनका क्या होता रहा होगा, जो जद और हद में रहे होंगे!!