गुरुवार, 28 नवंबर 2013

हिन्दी सिनेमा में गरिमा का अर्थात वहीदा रहमान हैं


वो छठवें दशक के उत्तरार्ध में छोटी सी भूमिका के जरिए हिन्दी सिनेमा में आयीं थीं। कल्पनाशील निर्देशक-फिल्मकार गुरुदत्त ने उनको दक्षिण के सिनेमा में कुछेक छोटी भूमिकाओं के माध्यम से देखा था। उन्हें उस समय अपनी फिल्मों में सहायक भूमिका के लिए एक स्त्री चेहरा मिला था। यह 1955 की बात थी। गुरुदत्त ने अपने प्रतिभाशाली और सम्भावनाशील सहायक राज खोसला को सी.आई.डी. का निर्देशन करने का उत्तरदायित्व दिया था। देव आनंद फिल्म के नायक थे। सी.आई.डी. में वहीदा रहमान को एक कामिनी नाम की एक क्लब डांसर की छोटी सी नकारात्मक भूमिका मिली जो बाद में नायक के प्रति उस वक्त हमदर्दी में बदल जाती है जब उसे लगता है कि यह निर्दोष है और इसे एक षडयंत्र में फँसाया जा रहा है। राज खोसला अपना इम्तिहान दे रहे थे, फिल्म को जो सफलता मिली, सराहना मिली उसमें वहीदा रहमान की भूमिका को भी रेखांकित किया गया।

वहीदा रहमान के समय का आरम्भ यहीं से हुआ। उनका गुरुदत्त की फिल्म प्यासा और कागज के फूल से चकित कर देने वाला विस्तार जो भारतीय दर्शकों ने देखा वो उस दौर में सभी का ध्यान खींचने के लिए बहुत था। वहीदा रहमान के रूप में श्वेत-श्याम सिनेमा में एक अत्यन्त उजला चेहरा, निर्दोष और झंझावाती स्वप्नों के उतार-चढ़ावों के अधूरे-पूरे भावों को देखकर दर्शक मुग्ध होकर रह गये। प्यासा, सी.आई.डी. के प्रदर्शन के एक ही साल बाद प्रदर्शित फिल्म थी। गुलाब की भूमिका में वहीदा रहमान का किरदार मन को छूकर रह गया था। कागज के फूल अपने समय में तीसरी कसम की तरह ही विफल साबित हो चुकी फिल्म थी लेकिन वक्त बीतने के बाद दोनों को ही सार्थकता के मान से सिनेमा में मील का पत्थर कहा जाने लगा। फिल्म में वो दृश्य यादगार है जब नायक प्रिव्यू थिएटर में फिल्म के रशेज देख रहा होता है और कैमरे की परिधि में आ गयी शान्ति के चेहरे को देखकर ठिठक जाता है। उसे उसके चेहरे में अपनी फिल्म की नायिका की तलाश पूरी होती हुई दिखायी देती है। वहीदा रहमान शान्ति के रूप में एक उपकृत लेकिन असमंजस से भरी एक स्त्री की भूमिका में जबरदस्त प्रभाव छोड़ती हैं।

इधर कागज के फूल से तीसरी कसम की हीरा बाई के बीच लगभग सात साल का अन्तराल है। इस बीच वहीदा रहमान हिन्दी सिनेमा का एक स्थापित चेहरा हो गयी थीं। काला बाजार, चौदहवीं का चांद, साहिब बीवी और गुलाम, बीस साल बाद, मुझे जीने दो और गाइड जैसी फिल्म के माध्यम से एक बड़े विस्तार में अपनी अहम जगह पर आ चुकी थीं। ये बीच की सारी फिल्में अपने समय के बड़े प्रतिबद्ध निर्देशकों की थीं जिनमें विजय आनंद, स्वयं गुरुदत्त, अबरार अलवी, सुनील दत्त शामिल थे। तीसरी कसम की हीरा बाई के रूप में हम एक सीधे-सच्चे नायक की उसके साथ कुछ घण्टे की यात्रा देखते हैं जो अपने आपमें बड़ी दार्शनिक अनुभूति प्रदान करती है। कथा और फिल्मांकन के साथ मर्मस्पर्शी प्रभावों की ऐसी बुनावट है कि आप चाहे-अनचाहे नायक से जुड़ जाते हैं। हीरा बाई नौटंकी में नाचने-गाने वाली बाई है जिसे हीरामन क्या कुछ समझ लेता है। टाट से ढँकी बैलगाड़ी में वो एक परी को बैठाकर कहीं दूर ले जा रहा है, बैलगाड़ी चलाते हुए भीतर से आती हुई महक और पायल की आवाज से वह बिना पीछे मुड़कर देखे मन्द-मन्द सम्मोहन महसूस करता है और जैसे ही पहली बार मुड़कर देखता है विस्मय से ठहरा रह जाता है, वहीदा रहमान का यह पहला दर्शन सचमुच खूबसूरती को जस के तस प्रभावों के साथ प्राप्त कर दर्शकों के सामने प्रकट कर देने का अनूठा सृजनात्मक प्रमाण था। बासु भट्टाचार्य ने तीसरी कसम के रूप में सचमुच एक अनूठी और अनगढ़ फिल्म रची थी।

इधर कागज के फूल से लेकर तीसरी कसम के बीच की जिन फिल्मों का जिक्र हुआ उनमें निश्चित ही चौदहवीं का चांद और साहिब बीवी और गुलाम में हम उन्हीं अनुभवों को समृद्ध होते देखते हैं जो एक साथ एक-दो वर्ष के अन्तराल से आयी फिल्मों प्यासा और कागज के फूल से हुए थे। चौदहवीं का चांद और साहिब बीवी और गुलाम दोनों ही गुरुदत्त के प्रभावों, उनकी सृजनात्मक दृष्टि और एक-एक दृश्य को जैसे गहरी आत्मसंलिप्तता के साथ लिखने के जतन का प्रभाव देने वाली फिल्में थीं। मुझे जीने दो एक सशक्त फिल्म है जिसमें वे चमेली जान के रूप में एक और नाचने-गाने वाली स्त्री की भूमिका में हैं जिसे एक डकैत एक महफिल से लूट के माल के साथ उठा लाता है। इस फिल्म का नायक ठाकुर जरनैल सिंह, हीरामन की तरह भोला नहीं है लेकिन अपनी हिफाजत में रखते हुए वह भी खूबसूरत पैर और पायल की आवाज से अपनी एक दुनिया बनाने चलता है। भय, अनिश्चय और अंधेरे कल की बेला में एक जद्दोजहद सी चलती है मुझे जीने दो में। नदी नारे न जाओ श्याम, पैंया पडूँ गाना प्रेम की परिणति है, जिसमें गजब का समर्पण भी है।

गाइड विजय आनंद निर्देशित फिल्म थी जिसकी मिसाल आज भी एक बड़ी सशक्त फिल्म के रूप में दी जाती है और हिन्दी सिनेमा में सौ साल के इतिहास में पहली पाँच फिल्मों में उसकी गिनती है। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1965 का है। विजय आनंद इसके पहले वहीदा रहमान के साथ काला बाजार बना चुके थे। यहाँ वहीदा काला बाजार की अलका से अलग हैं, बिल्कुल अलग नितान्त विपरीत। गाइड में देव आनंद और वहीदा रहमान दोनों की भूमिकाएँ महत्वपूर्ण हैं और निर्देशक खासतौर पर विजय आनंद ने जिस तरह से विषय को निर्वाह के स्तर पर अंजाम देने का काम किया, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर संवेदनाओं को वे व्यक्त करने में सफल हुए। टूटी और बिखरी रोजी के चेहरे से पीड़ा का थमा-ठहरा सागर देखना गहरे विचलन से भर देता है। इस फिल्म में बहुत से क्लोज-शॉट वहीदा रहमान की क्षमताओं पर हतप्रभ करते हैं वहीं नागिन डाँस के दृश्य में एक सपेरन नृत्यांगना के साथ उनका नृत्य करना अद्भुत है।

सातवें दशक में वहीदा रहमान की उपस्थिति लगातार समृद्ध होती दिखायी देती है। वे राजकपूर के साथ-साथ दिलीप कुमार और देव आनंद की भी नायिका बनकर दोहरायी जाती हैं। विशेष रूप से दिलीप कुमार के साथ उनका होना, उनकी पूर्व नायिकाओं मधुबाला, नरगिस, वैजयन्ती माला से अलग एक समरसता परदे पर व्यक्त करता है। हम दिल लिया दर्द लिया को याद कर सकते हैं। इसी के साथ-साथ राम और श्याम तथा आदमी को भी। यह एक ऐसा सामंजस्य है जो हमें बहुत आगे जाकर फिर 1984 की फिल्म मशाल में भी दिखायी देता है जिसे यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था, स्वतंत्र रूप से इस फिल्म को जावेद अख्तर ने लिखा था। 1965 से 85 तक की वहीदा रहमान की यात्रा लगातार सशक्त होती गयी है। मनोज कुमार के साथ पत्थर के सनम, राजेश खन्ना-धर्मेन्द्र के साथ खामोशी, देव आनंद के साथ प्रेम पुजारी, सुनील दत्त के साथ रेशमा और शेरा, धर्मेन्द्र के साथ फागुन जैसी फिल्में वहीदा रहमान को उनके आयामों के विस्मयकारी विस्तार के रूप में व्यक्त करती हैं। रेशमा और शेरा में उन्हें रेशमा के किरदार के लिए नेशनल अवार्ड मिला था। खामोशी में नर्स राधा की उनकी भूमिका मर्माहत करती है। फागुन में वे एक ऐसी प्रेमिका-पत्नी शान्ता की भूमिका में थीं जो अपने पिता की निगाह भाँपकर अपने पति को होली के दिन रंग डालकर साड़ी खराब कर देने के लिए भला-बुरा कहती है। उनकी एक और यादगार फिल्म का जिक्र यहाँ जरूरी है, नील कमल

इधर बाद की फिल्में जिनमें वहीदा रहमान को हम काफी परिपक्व और बड़ा सुरक्षित सा देखते हैं, विशेष रूप से अदालत, कभी-कभी, त्रिशूल, महान, नमक हलाल से लेकर चांदनी, लम्हें, फिफ्टीन पार्क एवेन्यू और दिल्ली छः तक वे चरित्र भूमिकाओं में स्थापित होती हुई गरिमा के ऊँचे शिखर पर स्थापित हुई हैं। वे अमिताभ बच्चन की नायिका से लेकर माँ तक की भूमिका में आयीं हैं। वहीदा रहमान के हिस्से दादी तक की भूमिकाएँ आयीं हैं और उन्होंने ऐसी सभी फिल्मों में अपनी जगह को लेकर आश्वस्त होने के बाद ही ऐसी फिल्मों में काम करना स्वीकार किया है। उनके बारे में यह बिना किसी अतिरिक्त भाव के कहा जा सकता है कि वे किरदार में अपनी भरपूर क्षमताओं के साथ समाहित होती हैं और एक हो जाती हैं। इतने वर्षों में वहीदा रहमान हमें निरन्तर अपने विभिन्न किरदारों की वजह से ही याद हैं। पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे सम्मान उनको समय रहते ही मिल गये थे। शताब्दी गौरव सम्मान की स्थापना के साथ ही पहले सम्मान के लिए उनका नाम चयन किया जाना, वास्तव में इस सम्मान की गरिमा की स्थापना है। वहीदा रहमान के यश के नितान्त अनुकूल है यह सम्मान।


शनिवार, 23 नवंबर 2013

रंगमंच, गिरीश कर्नाड और उत्सव


वे दरअसल अपने को अपनी सम्पूर्ण सृजनात्मक समग्रता में रंगकर्मी कहाना ही पसन्द करते हैं इसलिए विख्यात रंगकर्मी गिरीश कर्नाड बावजूद सिनेमा में अपनी बड़ी प्रतिष्ठा के रंगमंच की अपनी दुनिया में ही लीन रहते हैं। उनका बड़ा समय अध्ययन में व्यतीत होता है। अभी पिछले ही साल बरसों बाद वे यशराज फिल्म्स की एक था टाइगर में दिखायी दिए थे तब भी उन्होंने अनौपचारिकता में यही कहा था कि सिनेमा को लेकर बात नहीं करना चाहता। वास्तव में उनका संसार रंगमंच है, सक्रियता रंगकर्म है। फिल्मों को लेकर उनके मन में स्वतः कोई आकर्षण नहीं है, वे अधिक सशक्त माध्यम और विशेषकर जो उनको रचनात्मक संतृप्ति दे, रंगमंच में अपनी सन्तुष्टियाँ और बहुधा असन्तुष्टि भी तलाश करते हैं।

लेकिन हाल ही में सुखद विस्मय तब हुआ जब गिरीश कर्नाड नई दिल्ली में एक बड़े समारोह में मुख्य वक्ता के रूप में एक लम्बा उद्बोधन देने जिस विषय पर आये वह सिनेमा से ही जुड़ा हुआ था। उन्होंने भारतीय सिनेमा और राष्ट्र निर्माण पर एक लम्बा उद्बोधन दिया। उन्होंने इस बात को कहा कि हिन्दी सिनेमा ने अपनी स्वाभाविक गति और प्रभाव से राष्ट्र निर्माण के काम में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। यह दिलचस्प था उनका कहना कि भारतीय सिनेमा में गीत और संगीत की वो शक्ति रही है कि उसने हमारे यहाँ हॉलीवुड को निष्प्रभावी बनाये रखा। वे यह मानते थे कि हमारी फिल्मों में गीत-संगीत और नृत्य का होना अहम था। यदि हम महान फिल्मकार सत्यजित रे की तरह बिना गानों की फिल्में बनाते रहते तो हॉलीवुड का वर्चस्व यहाँ स्थापित हो जाता। इसके पक्ष में वे कहते हैं कि हॉलीवुड के प्रभाव के कारण ही इतालवी सिनेमा, फ्रांसीसी सिनेमा और जापानी सिनेमा अपनी खूबियों और श्रेष्ठताओं के बावजूद अपने अस्तित्व के साथ दिखायी नहीं देता।

गिरीश कर्नाड भारतीय सिनेमा की सफलता-विफलता की तुलना पश्चिमी सिनेमा की सफलता-विफलता से करना उचित नहीं मानते। ऑस्कर को लेकर हमारे यहाँ पायी जाने वाली ललक को भी उन्होंने व्यर्थ बताया और कहा कि हमारे लिए वह कोई मील का पत्थर नहीं है। हिन्दी सिनेमा के वजूद को ज्ञानपीठ सम्मान और पद्मभूषण से सम्मानित गिरीश कर्नाड ने सकारात्मक रूप से अपने विचारों के साथ समर्थन दिया और कहा कि इसके माध्यम से हिन्दी गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रों तक पहुँची है।

अनेक महत्वपूर्ण नाटकों के रचयिता और निर्देशक गिरीश कर्नाड को हिन्दी क्षेत्र के दर्शक फिल्म स्वामी से पहली बार जान पाये जिसका निर्माण जया चक्रवर्ती, हेमा मालिनी की माँ ने किया था। इस फिल्म में शाबाना आजमी ने भी प्रमुख भूमिका निभायी थी। हिन्दी की कई फिल्मों में उन्होंने अभिनय किया जैसे श्याम बेनेगल की निशान्त, भूमिका, मंथन और सम्सकारा, उम्बरठा, सुर संगम, चेलुवी, इकबाल आदि अनेक। गिरीश कर्नाड ने सत्यदेव दुबे, श्यामानंद जालान, इब्राहिम अल्काजी, विजया मेहता, अमाल अल्लाना, ब.व. कारंत के साथ अपनी रंगयात्रा में अनेक महत्वपूर्ण स्थापनाएँ की हैं। कर्नाड ने ही शशि कपूर के लिए क्लैसिक एपिक मृच्छकटिकम पर केन्द्रित फिल्म उत्सव का निर्देशन किया था। इस फिल्म के निर्माण को इस साल बीस वर्ष पूरे हुए हैं।

गहरे जीवट के धनी डॉ. श्रीराम लागू

डॉ. श्रीराम लागू को हमने लम्बे समय से परदे पर नहीं देखा है। कुछ वर्ष पहले वे मराठी नाटक नटसम्राट के माध्यम से लम्बे अन्तराल के बाद मंच पर अवतरित हुए थे। उनके बारे में कहा जाता था कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, ज्यादा मिलते-जुलते भी नहीं हैं। उम्र काफी हो चुकी है, उनकी सक्रियता को लेकर कोई जानकारी भी नहीं है। ऐसे ही समाचारों और कयासों के बीच वे पुणे में जब नटसम्राट के माध्यम से मंच पर दिखायी दिए तो सुखद विस्मय होना स्वाभाविक था। 

हम जैसे हिन्दी दर्शकों ने जिन्होंने डॉ. लागू को हिन्दी सिनेमा के परदे पर ज्यादातर देखा है, वो उन्हें उतना ही जानते हैं और उतनी ही उनकी जानकारी है कि परदे पर कमजोर या शारीरिक रूप अस्वस्थ दिखायी देने वाले किरदार करने वाले इस शख्स की सीमा यहीं तक होगी। लोग नहीं जानते होंगे कि डॉ. श्रीराम लागू का मतलब है मराठी रंगमंच की समृद्ध परम्परा और उस परम्परा के वटवृक्ष हैं डॉ. लागू जो हो सकता है फिल्मों में काम न करने का निर्णय पूरी तरह ले चुके हों लेकिन रंगमंच उनके प्राण है या रंगमंच में उनके प्राण बसते हैं। यही कारण है कि जब नटसम्राट नाटक उन्होंने किया था तब परिवेश का रंग-जगत अचम्भित था और उनकी मंच उपस्थिति पर गौरवान्वित था।

19 नवम्बर को डॉ. श्रीराम लागू ने छियासीवें वर्ष में प्रवेश किया है। उनकी उपस्थिति न केवल मराठी रंगमंच बल्कि मराठी और हिन्दी सिनेमा के भी समृद्ध इतिहास का सम्बल है। हिन्दी सिनेमा के दर्शकों में उनका पहला परिचय सम्भवतः घरौंदा से है जिसमें उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। वे बड़ी उम्र के हृदयरोगी पति मोदी की भूमिका में थे जिसकी पत्नी का अपने प्रेमी से यह वचन है कि पति के नहीं रहने के बाद वो उसके पास धन-सम्पदा के साथ चली आयेगी। अभाव और सपनों के वशीभूत एक स्त्री किस तरह पति के अर्थ को समझती है, इस बात को छाया की भूमिका निबाह रही जरीना वहाब ने क्लायमेक्स में अपने एक वाक्य के उत्तर से व्यक्त भी किया था, जाना होता, तो आती ही क्यों!!

डॉ. श्रीराम लागू ने इसके बाद बहुत सारी हिन्दी फिल्मों में काम किया। तब के सभी नायकों और नायिकाओं में उनका बहुत आदर रहा है। वे गुलजार के साथ किताब, किनारा, मीरा आदि फिल्मों में आये। सावन कुमार ने उनको फिल्म सौतन में उस समय की उनकी तमाम आम हो चुकी भूमिकाओं से हटकर पद्मिनी कोल्हापुरे के पिता की भूमिका दी। वे प्रकाश मेहरा की फिल्म लावारिस में इसलिए बेहद प्रभावित कर गये क्योंकि उन्होंने अपनी छबि से विपरीत एक संवेदनहीन शराबी गंगू गनपत की भूमिका निभायी। उनकी उल्लेखनीय हिन्दी फिल्मों में एक दिन अचानक, मुकद्दर का सिकन्दर, मंजिल, जुर्माना, सरगम, गजब, देस परदेस आदि शामिल हैं वहीं मराठी फिल्मों में सामना, सिंहासन, पिंजरा आदि का भी जिक्र होता है। डॉ. श्रीराम लागू बीसवीं सदी में सिनेमा और रंगमंच की जीती-जागती अनमोल विरासत हैं। समाज अपने पितृ-पुरुषों को सदैव याद करे, उनका आदर करे यह बहुत जरूरी है। हम सबके बीच उनका होना अत्यन्त मूल्यवान है।

बुधवार, 13 नवंबर 2013

बच्चों के लिए सिनेमा

बच्चों के लिए सिनेमा की बात हो रही थी। आजकल ठीक से नजर नहीं आता। बच्चों का सिनेमा कौन बनाता है, पता नहीं चलता। बच्चों का सिनेमा कैसे प्रदर्शित होता है, मालूम नहीं होता। बच्चों का सिनेमा कहाँ देखने में आता है, इसकी भी जानकारी प्रायः अब नहीं मिल पाती। दृश्य यह है कि बच्चों के लिए रचनात्मक जगहें और परिस्थितियाँ अब धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही हैं। हम देखते हैं कि जो बच्चे टेलीविजन के विभिन्न चैनलों में तथाकथित कला को सँवारने का दावा करते हुए चार निर्णायकों को बैठाये तख्तियाँ उठाकर नम्बरों से फैसला सुनाने वाले जजों के सामने अपनी क्षमताओं के साथ पेश होते हैं वे सब के सब वयस्कों के मनोरंजन के दायरे में आने वाली चीजों को तैयार करके आते हैं।

पता नहीं कितने सारे माता-पिता अपने बच्चों को, बेटियों को बाजारू सिनेमा का आयटम सांग सिखाकर ले आते हैं। कम उम्र की बच्चियाँ अपने अविभावकों, उनके ट्रेनरों और चैनलों के क्रिएटिव हेड की समझ के मुताबिक मंच पर उन गानों पर डांस करने लगती हैं जो आयटम सांग कहाते हैं और जिन्हें हिन्दी फिल्मों में चवन्नी छाप दर्शकों की दृष्टि-क्षुधा शान्त करने के लिए रखा जाता है। हिन्दी फिल्मों में आयटम सांग की अवधारणा के पीछे दिल थाम कर बैठने की दर्शकों को पहले से ही ऐसी प्रचारात्मक चेतावनी दे दी जाती है जैसे दिल का दौर पड़ने का खतरा हो। बहरहाल यही अपसंस्कृति नन्हें बच्चों पर आरोपित है, महात्वाकांक्षाओं के चलते, समृद्धि की लालसा के चलते। यही कारण है कि हमें अपने ही बीच छोटे-छोटे बच्चे अचानक बड़े से लगने लगते हैं। हम सभी इस प्रचलित बिन्दासपन पर ठगे से रह जाते हैं। हमारी आँखें आश्चर्य से खुली रह जाती हैं। नन्हों के संसार में यह कैसा आक्रमण हो गया है?

बच्चों के लिए फिल्मों की सम्भावनाएँ बरसों पहले समाप्त होकर रह गयी हैं। कुछ वर्ष पहले विशाल भारद्वाज ने यह पहल बड़ी अच्छी सम्भावना के साथ की थी। उनकी दो फिल्में मकड़ी और खासकर ब्ल्यू अम्ब्रेला इन्हीं वजहों से याद है बल्कि ब्ल्यू अम्ब्रेला ऐसी फिल्म है जिसे बच्चों को दिखाया भी जाना चाहिए। श्रेष्ठ अभिनेता पंकज कपूर ने कमाल का किरदार निभाया है उस फिल्म में। बच्चों के लिए सिनेमा बनाने की संवेदना अमोल गुप्ते में भी हमने देखी है जो वास्तव में तारे जमीं पर जैसी फिल्म को परदे पर रचने वाले थे। उनकी बाद की एक फिल्म स्टेनली का डिब्बा भी उल्लेखनीय है जो ठीक से देश में प्रदर्शित भी नहीं हो सकी।

कभी राजकपूर ने बूट पॉलिश, व्ही. शान्ताराम ने दो आँखें बारह हाथ, नितिन बोस ने जागृति, मेहबूब खान ने सन ऑफ इण्डिया जैसी अविस्मरणीय फिल्में बनायीं थीं। बहुत से घराने आज भी ऐसे हैं जो फिल्म व्यवसाय में खूब धन अर्जित करते हैं। वे चाहें तो दो-चार साल में बच्चों के लिए लाभ-हानि की परवाह किए बिना एकाध फिल्म बना सकते हैं लेकिन वे शायद भावी पीढ़ी के प्रति ऐसे नैतिक सोच से कोसों दूर हैं। आज सौ-दो सौ करोड़ का सिनेमा की प्रथम और अन्तिम लक्ष्य हो गया है। ऐसे में बच्चों के लिए सिनेमा...........कौन सोचे?


सोमवार, 11 नवंबर 2013

अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का धुंधला परिदृश्य

भारत सरकार का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय हर साल नवम्बर माह में अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का आयोजन करता है। इस समारोह का बड़ा पुराना इतिहास है। किसी समय यह समारोह खासा परवान चढ़ा था। तब इसका एक साल नई दिल्ली और एक साल भारत के किसी राज्य की राजधानी में आयोजित किए जाने की परम्परा थी। हालाँकि इस समारोह को लेकर समर्थन और आलोचना की दो दृष्टियाँ रही हैं लेकिन उसके बावजूद इसके आयोजन में वे फिल्मी हस्तियाँ भी उपस्थित हुआ करती थीं और फिल्म देखा करती थीं जो फिल्म चयन को लेकर, व्यवस्था को लेकर, तवज्जो को लेकर तरह-तरह के प्रश्न उठाया करती थीं।

जिस समय हिन्दी में सत्तर के दशक से नया सिनेमा उद्घाटित हुआ और एक साथ सात-आठ प्रतिभाशाली निर्देशकों में तब के चलते हुए व्यावसायिक परिदृश्य में ध्यान आकृष्ट किए जाने योग्यन हस्तक्षेप किया तब उन सभी की भागीदारी को ऐसे समारोह में बड़ा महत्व दिया जाता था। हैदराबाद, कोलकाता, मुम्बई, तिरुअनन्तपुरम, चण्डीगढ़, चेन्नई, बैंगलोर में फिल्म समारोह को और प्रभाव इसलिए भी मिलता था कि वहाँ फिल्म संस्कृति को लेकर जितनी ज्यादा जागरुकता थी उतना ही ज्यादा सम्मान भी। दक्षिण के राज्यों में तो सरकार और सिनेमा दोनों जगह सिनेमा के ही प्रतिनिधि हुआ करते थे इसलिए मेजबानी भी ज्यादा अच्छे ढंग से होती थी। सिनेमा के प्रति सुरुचि, ज्ञान और जिज्ञासा रखने वालों को सौ पचास श्रेष्ठ फिल्मों को देखने के अवसर मिलते थे, बेशक यह दुनिया का अच्छा सिनेमा हुआ करता था। इस तरह बहुत सारे खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ सिनेमा के हिन्दुस्तान के इस सबसे बड़े समारोह ने अपनी लम्बी यात्रा की। राज्यों की राजधानियों के बाद हर अगले साल यह समारोह नई दिल्ली में होता था, वहाँ भी इसको ऐसा ही वातावरण मिलता था।

कुछ वर्ष पहले आयोजक संस्था सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने इसका स्थायी केन्द्र गोवा को बना दिया। गोवा इस समारोह की स्थायी जगह हो जाने के कारण, अपेक्षाकृत सभी व्यवस्थाएँ अत्यन्त व्ययसाध्य होने के कारण इस निर्णय की आलोचना हुई और दीगर राज्यों के सिनेमा से जुड़े लोग इससे दूर होते गये। गोवा में नियमित रूप से आयोजित होते रहने के कारण यह मुम्बई के ग्लैमर और हीरो-हीरोइनों की चमकदार उपस्थिति भर का उत्सव बनकर रह गया। गोवा राज्य ने इसकी मेजबानी ले तो ली लेकिन बिना इस दूरदृष्टि के कि कैसे यह पिछले उत्सवों की तरह देश का प्रतिनिधि सिनेमा उत्सव बने, इस पर विचार की जगह ही नहीं छोड़ी गयी।

बहरहाल ऐसी ही आलोचनाओं तथा अपनी आभा और प्रतिष्ठा को दाँव पर लगा चुका यह उत्सव गोवा में इस बार भी 20 नवम्बर से आयोजित हो रहा है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इसी परिप्रेक्ष्य में सिनेमा के योगदान के लिए एक शताब्दी पुरस्कार भी घोषित कर दिया है जो इस वर्ष से प्रदान किया जायेगा। इस बार के इस समारोह में सिनेमा की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति की दो हस्तियाँ प्रमुख अतिथि के रूप में पधार रही हैं, इनमें से एक हैं बहुप्रतिष्ठित ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी और अमेरिकी अभिनेत्री सूसान सैरंडन।

रविवार, 10 नवंबर 2013

विजयदान देथा की कृतियों का सिनेमा

विजयदान देथा, साहित्य के एक बड़े आदमी थे जिनका सत्यासी वर्ष की आयु में निधन हो गया। कुछ समय पहले एक बड़ी पत्रिका में उन पर एक अनुपम पठनीय फीचर प्रकाशित हुआ था जिसमें तकलीफों, बीमारियों और कुछेक अपने दुखों से तप्त दानदेथा ने आयुगत धीमेपन और आखिरी समय के अपने मानस के साथ कुछ बातें कहीं थीं। उस फीचर को पढ़ते हुए ही उनके अवदान के विलक्षणपन को लेकर कुछ बातें आती-जाती रही थीं। देथा, राजस्थानी लेखक थे, मूल भाषा के प्रति असीम आत्मीयता और आदर के वशीभूत शुरू से ही उसी भाषा में लिखने वाले लेकिन जब उनका साहित्य हिन्दी में अनूदित होकर प्रकाशित हुआ तब जाकर हिन्दी साहित्य जगत, हिन्दी का पाठक वर्ग उनके कृतित्व को लेकर चमत्कृत हुआ।

एक बड़े फिल्मकार मणि कौल ने जो कि उनकी कहानी दुविधा से बेहद प्रभावित हुए थे और उस कहानी पर फिल्म बनाने का निश्चय कर चुके थे, कहा, तुम अपनी जगह पर ही ठीक हो, बाहर आओगे तो लोग नोच खायेंगे। इस बात के पीछे उनका आशय साहित्य और उसके व्याप्त बाजार के बीच गलाकाट और राजनीति से था। मणि कौल ने दुविधा पर इसी नाम से 1973 में फिल्म बनायी जिसमें रवि मेनन, रायसा पदमसी, भोला राम और मनोहर ललास ने काम किया था। निर्देशक ने फिल्म बनाते हुए कृति की संवेदनाओं और परिवेश का बड़ा ख्याल रखा था। फिल्म का संगीत भी परिवेशजनित था जिसे रमजान हम्मू, लतीफ और साकी खान ने तैयार किया था। दुविधा के लिए मणि कौल को बेस्ट डायरेक्टर का नेशनल अवार्ड भी प्राप्त हुआ था। दुविधा से अमोल पालेकर तीस साल बाद प्रभावित हुए थे और उन्होंने पहेली नाम से एक खराब फिल्म बनायी थी जिसमें आधुनिक सितारों शाहरुख खान और रानी मुखर्जी ने काम किया था। अपनी प्रामाणिकता और कार्य-उत्कृष्टता में हम पहेली से दुविधा को उत्कृष्ट और सार्थक फिल्म मान सकते हैं।

इधर हिन्दी क्षेत्र में बल्कि कहा जाये तो पूरे भारतीय रचनात्मक परिदृश्य में विजयदान देथा की कहानी पर विख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर द्वारा खेले नाटक चरणदास चोर और उनके ही सहयोग से श्याम बेनेगल द्वारा 1975 में बनायी गयी फिल्म चरणदास चोर की बड़ी पहचान है। निस्सन्देह यह ख्याति विश्वस्तरीय भी है क्योंकि हबीब तनवीर इस नाटक को दुनिया के अनेक देशों में भी मंचित कर चुके थे। सम्भवतः इसके कई सौ प्रदर्शनों का कीर्तिमान होगा और आज भी विजयदान देथा और हबीब तनवीर का नाम क्रम से लो तो तत्काल चरणदास चोर भी कहना होता है। पढ़ने में इतनी प्रेरक, देखने में इतनी दिलचस्प और सीख के लिए शायद हमारे पूरे जीवनमूल्यों की बात कहती यह रचना अनूठी है। प्रकाश झा ने 1989 में उनकी कृति पर परिणति का निर्माण किया था जो झा की फिल्मोग्राफी में एक महत्वपूर्ण फिल्म है। इस फिल्म को उत्कृष्ट वेशभूषा के लिए नेशनल अवार्ड प्राप्त हुआ था। फिल्म में नंदिता दास, सुरेखा सीकरी और सुधीर कुलकर्णी ने काम किया था।

विजयदान देथा का निधन इस साल के अवसान की बेला में मन्नाडे, राजेन्द्र यादव, रेशमा की तरह ही अपूरणीय क्षति है। सृजन के शीर्षस्तम्भ की उपस्थिति हमारी रचनात्मक अस्मिता को निरन्तर ऊष्मित किए रहती है। एक तरह की आश्वस्ति वह समाज जीता-करता है जो पितृ-पुरुषों और पूर्वजों के यश को शिरोधार्य करने की भावना या संस्कार रखता है। विजयदान देथा का जाना साहित्य को अनमोल विरासत प्रदान करने वाले गुणी सर्जक का जाना है।

शनिवार, 9 नवंबर 2013

बाजार का आक्रामक गणित और सिनेमा


सिनेमाघरों में कृष 3 के पोस्टर लगे हैं। विशेष रूप से स्याह रंग का चयन किया गया है। हमारे समय का एक चमकदार हीरो है जिसकी अपनी साख बहुत बड़ी है मगर पोस्टर में उसका चेहरा ही छुपा दिया गया है। मास्क लगाये हीरो के केवल ओंठ दिखायी दे रहे हैं और सब तरफ से घिरी आँखें जो अपेक्षाकृत उग्र दीख रही हैं। चूँकि चेहरा नहीं दिख रहा इसलिए भाव समझ में नहीं आ रहा है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जिस सिनेमाघर में यह पोस्टर लगा है उसका आँगन छोटी-बड़ी गाडि़यों से पटा पड़ा है, पुलिस लाठी भांज रही है अनुशासन के लिए और टिकिट खिड़की के सामने ईमानदार लाइन लगे धक्का खाते हुए मंजिल तक बढ़ रहे हैं और बीच में घुस जाने वाले, पीछे से आ जाने वाले और जान-पहचान से तुरन्त टिकिट प्राप्त करने वाले गर्वोन्मत्त हैं, सिनेमा देखने भीतर चले जा रहे हैं।

ऐसे दृश्य कृष 3 से पहले चेन्नई एक्सप्रेस के समय भी रहे हैं। सिनेमा को जाँचने-परखने में दक्षता को जीने वाले आलोचक कहते ही रह गये कि फिल्म साधारण है लेकिन चेन्नई एक्सप्रेस ने दो सौ करोड़ से ज्यादा कमा लिया और एक सौ दस करोड़ की उम्मीद रखने वाली कृष 3 भी इस टिप्पणी के लिखे जाते तक सौ करोड़ की घोषणा से आगे निकल गयी थी। इन फिल्मों की सफलताएँ यह प्रमाणित करती हैं कि हमारे समय में तेजी से बाजार और लाभ का ऐसा गणित स्थापित होता चला जा रहा है जिसके प्रभाव में सार्थकताएँ, सच्चे परिश्रम और लीक से अलग हटकर किए जाने वाले कामों की सम्भावनाएँ लगातार धीमी और कम होती जा रही हैं। सारे वातावरण में बाजार का गणित काम कर रहा है। हफ्तों की एडवांस बुकिंग से टिकिट खिड़की पर जमा होने वाला सारा धन निर्माता की जेब में जा रहा है जिसे दर्शकों ने अग्रिम चुकता कर दिया है।

हम उस समय से परे चले गये हैं जब खरीदार के रूप में हम पहले एक हाथ से सामान प्राप्त करते थे और दूसरे हाथ से उसके पैसे चुकाते थे लेकिन अब हमें सामान प्राप्त करने से पहले पैसे चुकाने की जल्दी और व्याकुलता है। हम वंचित रह जाने और पीछे रह जाने के डर से अपना धन पहले छोड़ देना चाहते हैं। यही कारण है कि अपने जोखिम सुरक्षित रखने वाले निर्माता के सामने हम अपनी जेब खाली कर देते हैं। सिनेमा हमारे आनंद के संसार में अपनी एक खास जगह रखता है लेकिन अब हम उसमें हारकर भी किसी से कुछ कह नहीं पाते। फिल्म देखने के बाद हमारा आकलन जाहिर होने वाला पछतावा भी तो नहीं है। बेहतर सिनेमा के लिए निश्चित ही यह मुश्किल समय है। सार्थक हस्तक्षेप को हम दर्शक नजरअन्दाज नहीं करें, यह सचमुच ध्यान देने वाली बात है।







   

शनिवार, 2 नवंबर 2013

स्तम्भ और स्तम्भकार दोनों के आदर्श मायने थे के.पी. सक्सेना

क्योंकि वे बहुत बड़े स्तम्भकार थे। उनकी क्षमताओं और ऊर्जा का कोई सानी नहीं था। हास्य-व्यंग्य की दुनिया में उनकी उपस्थिति उत्कृष्टता में एकमेव ही थी। पीढि़याँ अपने बचपन को याद करती होंगी तो उनको तमाम जीवित पत्रिकाओं का युग याद आता होगा। बच्चों को बाल पत्रिकाएँ याद आती होंगी, युवाओं को अपनी पत्रिकाएँ, अलग-अलग दुनिया में रुझान रखने वालों को अपने हिस्से की पत्रिकाएँ याद आती होंगी। अपने शहर से लेकर देश के अखबार पढ़ने वाले सक्सेना जी को जानते थे। सक्सेना जी इतने लोकप्रिय, इतने प्रासंगिक रहा करते थे कि प्रायः हर जगह उपस्थित रहा करते थे। पराग, लोटपोट, मायापुरी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, मनोरमा, धर्मयुग के दौर में सक्सेना जी इतने लोकव्यापी हुआ करते थे कि ताज्जुब होता था, किस तरह एक शख्स इतने सारे पन्नों पर, इतनी विविधताओं के साथ, ऐसी रंजक उपस्थिति में हुआ करता है! पराग में खलीफा तरबूजी का किस्सा चालीस साल पहले कितने अंकों तक चला था, याद आता है।

वो एक पूरा का पूरा जमाना जिसके अवसान के बरसों बाद भी उसकी स्मृतियाँ हम सभी के मनो-मस्तिष्क में हैं, जीवित और अखबार-पत्रिका स्टाल में सजी रहने वाली पत्रिकाओं का दौर और उस दौर में के.पी. सक्सेना जी। गजब की सोचने की शक्ति, विलक्षण किस्सा-गो और प्रस्तुतिकरण की सुरुचि से अलग ही आकर्षित करने वाले ये व्यंगकार पत्रिकाओं और अखबारों के तीज-त्यौहारों के विशेषांकों के सिरमौर हुआ करते थे। सक्सेना जी ने सृजनात्मक जीवन्तता का एक लम्बा दौर जिया है जिसकी आवृत्ति आधी सदी से भी बहुत ज्यादा है। पिछले वर्ष ही भोपाल आये थे, सक्सेना जी, शरद जोशी सम्मान ग्रहण करने तब ही उन्होंने बतलाया था कि कुछ समय पहले आशुतोष गोवारीकर को उन्होंने एक पटकथा लिखकर दी है, डिटेक्टिव फिल्म की जिसमें मुख्य भूमिका अमिताभ बच्चन निबाहेंगे। सक्सेना जी चाहते थे कि फिल्म जल्द शुरू हो, उनकी यह इच्छा अधूरी रह गयी।

के.पी. सक्सेना की सृजनात्मकता को पिछले पन्द्रह वर्षों में सबसे ज्यादा सार्थकता के साथ नवाजने का काम आशुतोष गोवारीकर ने ही किया था। उन्होंने सक्सेना जी से फिल्म लगान के संवाद अवधी में लिखने का प्रस्ताव किया था। यह उनका पहला बड़ा काम था, खास सिनेमा के क्षेत्र में। फिर आशुतोष से उनके सरोकार ऐसे जमे कि उन्होंने स्वदेस और जोधा-अकबर फिल्मों के संवाद भी लिखे। ये तीन फिल्में सक्सेना जी के उत्तरार्ध के सृजन में लैण्डमार्क मानी जायेंगी। यों उन्होंने दूरदर्शन और चैनलों के लिए कई धारावाहिक लिखे, एक बीबी नातियों वाली बड़ा लोकप्रिय हुआ था जो लखनऊ दूरदर्शन से देश भर में प्रसारित होता था।

सक्सेना जी की उपस्थिति से हास्य-व्यंग्य में मौलिकता की उपस्थिति को लेकर एक विश्वास हमेशा बना रहता था। वे कैंसर जैसी बीमारी से जूझते हुए भी अपने लेखन के प्रति, जीवन के प्रति कभी हतोत्साहित नहीं हुए। अपने आपमें उनका गजब का आश्वस्त बने रहना बड़ा प्रेरक लगता था। स्मृतियों में भी उनकी उपस्थिति उसी आश्वस्त छबि के साथ बनी रहेगी। उनका सृजन तो खैर पुख्ता और चिरस्थायी है ही................।