वो छठवें दशक के उत्तरार्ध में छोटी सी भूमिका के जरिए हिन्दी सिनेमा में आयीं थीं। कल्पनाशील निर्देशक-फिल्मकार गुरुदत्त ने उनको दक्षिण के सिनेमा में कुछेक छोटी भूमिकाओं के माध्यम से देखा था। उन्हें उस समय अपनी फिल्मों में सहायक भूमिका के लिए एक स्त्री चेहरा मिला था। यह 1955 की बात थी। गुरुदत्त ने अपने प्रतिभाशाली और सम्भावनाशील सहायक राज खोसला को सी.आई.डी. का निर्देशन करने का उत्तरदायित्व दिया था। देव आनंद फिल्म के नायक थे। सी.आई.डी. में वहीदा रहमान को एक कामिनी नाम की एक क्लब डांसर की छोटी सी नकारात्मक भूमिका मिली जो बाद में नायक के प्रति उस वक्त हमदर्दी में बदल जाती है जब उसे लगता है कि यह निर्दोष है और इसे एक षडयंत्र में फँसाया जा रहा है। राज खोसला अपना इम्तिहान दे रहे थे, फिल्म को जो सफलता मिली, सराहना मिली उसमें वहीदा रहमान की भूमिका को भी रेखांकित किया गया।
वहीदा रहमान के समय का आरम्भ यहीं से हुआ। उनका गुरुदत्त की फिल्म प्यासा और कागज के फूल से चकित कर देने वाला विस्तार जो भारतीय दर्शकों ने देखा वो उस दौर में सभी का ध्यान खींचने के लिए बहुत था। वहीदा रहमान के रूप में श्वेत-श्याम सिनेमा में एक अत्यन्त उजला चेहरा, निर्दोष और झंझावाती स्वप्नों के उतार-चढ़ावों के अधूरे-पूरे भावों को देखकर दर्शक मुग्ध होकर रह गये। प्यासा, सी.आई.डी. के प्रदर्शन के एक ही साल बाद प्रदर्शित फिल्म थी। गुलाब की भूमिका में वहीदा रहमान का किरदार मन को छूकर रह गया था। कागज के फूल अपने समय में तीसरी कसम की तरह ही विफल साबित हो चुकी फिल्म थी लेकिन वक्त बीतने के बाद दोनों को ही सार्थकता के मान से सिनेमा में मील का पत्थर कहा जाने लगा। फिल्म में वो दृश्य यादगार है जब नायक प्रिव्यू थिएटर में फिल्म के रशेज देख रहा होता है और कैमरे की परिधि में आ गयी शान्ति के चेहरे को देखकर ठिठक जाता है। उसे उसके चेहरे में अपनी फिल्म की नायिका की तलाश पूरी होती हुई दिखायी देती है। वहीदा रहमान शान्ति के रूप में एक उपकृत लेकिन असमंजस से भरी एक स्त्री की भूमिका में जबरदस्त प्रभाव छोड़ती हैं।
इधर कागज के फूल से तीसरी कसम की हीरा बाई के बीच लगभग सात साल का अन्तराल है। इस बीच वहीदा रहमान हिन्दी सिनेमा का एक स्थापित चेहरा हो गयी थीं। काला बाजार, चौदहवीं का चांद, साहिब बीवी और गुलाम, बीस साल बाद, मुझे जीने दो और गाइड जैसी फिल्म के माध्यम से एक बड़े विस्तार में अपनी अहम जगह पर आ चुकी थीं। ये बीच की सारी फिल्में अपने समय के बड़े प्रतिबद्ध निर्देशकों की थीं जिनमें विजय आनंद, स्वयं गुरुदत्त, अबरार अलवी, सुनील दत्त शामिल थे। तीसरी कसम की हीरा बाई के रूप में हम एक सीधे-सच्चे नायक की उसके साथ कुछ घण्टे की यात्रा देखते हैं जो अपने आपमें बड़ी दार्शनिक अनुभूति प्रदान करती है। कथा और फिल्मांकन के साथ मर्मस्पर्शी प्रभावों की ऐसी बुनावट है कि आप चाहे-अनचाहे नायक से जुड़ जाते हैं। हीरा बाई नौटंकी में नाचने-गाने वाली बाई है जिसे हीरामन क्या कुछ समझ लेता है। टाट से ढँकी बैलगाड़ी में वो एक परी को बैठाकर कहीं दूर ले जा रहा है, बैलगाड़ी चलाते हुए भीतर से आती हुई महक और पायल की आवाज से वह बिना पीछे मुड़कर देखे मन्द-मन्द सम्मोहन महसूस करता है और जैसे ही पहली बार मुड़कर देखता है विस्मय से ठहरा रह जाता है, वहीदा रहमान का यह पहला दर्शन सचमुच खूबसूरती को जस के तस प्रभावों के साथ प्राप्त कर दर्शकों के सामने प्रकट कर देने का अनूठा सृजनात्मक प्रमाण था। बासु भट्टाचार्य ने तीसरी कसम के रूप में सचमुच एक अनूठी और अनगढ़ फिल्म रची थी।
इधर कागज के फूल से लेकर तीसरी कसम के बीच की जिन फिल्मों का जिक्र हुआ उनमें निश्चित ही चौदहवीं का चांद और साहिब बीवी और गुलाम में हम उन्हीं अनुभवों को समृद्ध होते देखते हैं जो एक साथ एक-दो वर्ष के अन्तराल से आयी फिल्मों प्यासा और कागज के फूल से हुए थे। चौदहवीं का चांद और साहिब बीवी और गुलाम दोनों ही गुरुदत्त के प्रभावों, उनकी सृजनात्मक दृष्टि और एक-एक दृश्य को जैसे गहरी आत्मसंलिप्तता के साथ लिखने के जतन का प्रभाव देने वाली फिल्में थीं। मुझे जीने दो एक सशक्त फिल्म है जिसमें वे चमेली जान के रूप में एक और नाचने-गाने वाली स्त्री की भूमिका में हैं जिसे एक डकैत एक महफिल से लूट के माल के साथ उठा लाता है। इस फिल्म का नायक ठाकुर जरनैल सिंह, हीरामन की तरह भोला नहीं है लेकिन अपनी हिफाजत में रखते हुए वह भी खूबसूरत पैर और पायल की आवाज से अपनी एक दुनिया बनाने चलता है। भय, अनिश्चय और अंधेरे कल की बेला में एक जद्दोजहद सी चलती है मुझे जीने दो में। नदी नारे न जाओ श्याम, पैंया पडूँ गाना प्रेम की परिणति है, जिसमें गजब का समर्पण भी है।
गाइड विजय आनंद निर्देशित फिल्म थी जिसकी मिसाल आज भी एक बड़ी सशक्त फिल्म के रूप में दी जाती है और हिन्दी सिनेमा में सौ साल के इतिहास में पहली पाँच फिल्मों में उसकी गिनती है। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1965 का है। विजय आनंद इसके पहले वहीदा रहमान के साथ काला बाजार बना चुके थे। यहाँ वहीदा काला बाजार की अलका से अलग हैं, बिल्कुल अलग नितान्त विपरीत। गाइड में देव आनंद और वहीदा रहमान दोनों की भूमिकाएँ महत्वपूर्ण हैं और निर्देशक खासतौर पर विजय आनंद ने जिस तरह से विषय को निर्वाह के स्तर पर अंजाम देने का काम किया, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर संवेदनाओं को वे व्यक्त करने में सफल हुए। टूटी और बिखरी रोजी के चेहरे से पीड़ा का थमा-ठहरा सागर देखना गहरे विचलन से भर देता है। इस फिल्म में बहुत से क्लोज-शॉट वहीदा रहमान की क्षमताओं पर हतप्रभ करते हैं वहीं नागिन डाँस के दृश्य में एक सपेरन नृत्यांगना के साथ उनका नृत्य करना अद्भुत है।
सातवें दशक में वहीदा रहमान की उपस्थिति लगातार समृद्ध होती दिखायी देती है। वे राजकपूर के साथ-साथ दिलीप कुमार और देव आनंद की भी नायिका बनकर दोहरायी जाती हैं। विशेष रूप से दिलीप कुमार के साथ उनका होना, उनकी पूर्व नायिकाओं मधुबाला, नरगिस, वैजयन्ती माला से अलग एक समरसता परदे पर व्यक्त करता है। हम दिल लिया दर्द लिया को याद कर सकते हैं। इसी के साथ-साथ राम और श्याम तथा आदमी को भी। यह एक ऐसा सामंजस्य है जो हमें बहुत आगे जाकर फिर 1984 की फिल्म मशाल में भी दिखायी देता है जिसे यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था, स्वतंत्र रूप से इस फिल्म को जावेद अख्तर ने लिखा था। 1965 से 85 तक की वहीदा रहमान की यात्रा लगातार सशक्त होती गयी है। मनोज कुमार के साथ पत्थर के सनम, राजेश खन्ना-धर्मेन्द्र के साथ खामोशी, देव आनंद के साथ प्रेम पुजारी, सुनील दत्त के साथ रेशमा और शेरा, धर्मेन्द्र के साथ फागुन जैसी फिल्में वहीदा रहमान को उनके आयामों के विस्मयकारी विस्तार के रूप में व्यक्त करती हैं। रेशमा और शेरा में उन्हें रेशमा के किरदार के लिए नेशनल अवार्ड मिला था। खामोशी में नर्स राधा की उनकी भूमिका मर्माहत करती है। फागुन में वे एक ऐसी प्रेमिका-पत्नी शान्ता की भूमिका में थीं जो अपने पिता की निगाह भाँपकर अपने पति को होली के दिन रंग डालकर साड़ी खराब कर देने के लिए भला-बुरा कहती है। उनकी एक और यादगार फिल्म का जिक्र यहाँ जरूरी है, नील कमल।
इधर बाद की फिल्में जिनमें वहीदा रहमान को हम काफी परिपक्व और बड़ा सुरक्षित सा देखते हैं, विशेष रूप से अदालत, कभी-कभी, त्रिशूल, महान, नमक हलाल से लेकर चांदनी, लम्हें, फिफ्टीन पार्क एवेन्यू और दिल्ली छः तक वे चरित्र भूमिकाओं में स्थापित होती हुई गरिमा के ऊँचे शिखर पर स्थापित हुई हैं। वे अमिताभ बच्चन की नायिका से लेकर माँ तक की भूमिका में आयीं हैं। वहीदा रहमान के हिस्से दादी तक की भूमिकाएँ आयीं हैं और उन्होंने ऐसी सभी फिल्मों में अपनी जगह को लेकर आश्वस्त होने के बाद ही ऐसी फिल्मों में काम करना स्वीकार किया है। उनके बारे में यह बिना किसी अतिरिक्त भाव के कहा जा सकता है कि वे किरदार में अपनी भरपूर क्षमताओं के साथ समाहित होती हैं और एक हो जाती हैं। इतने वर्षों में वहीदा रहमान हमें निरन्तर अपने विभिन्न किरदारों की वजह से ही याद हैं। पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे सम्मान उनको समय रहते ही मिल गये थे। शताब्दी गौरव सम्मान की स्थापना के साथ ही पहले सम्मान के लिए उनका नाम चयन किया जाना, वास्तव में इस सम्मान की गरिमा की स्थापना है। वहीदा रहमान के यश के नितान्त अनुकूल है यह सम्मान।