क्योंकि वे बहुत बड़े स्तम्भकार थे। उनकी क्षमताओं और ऊर्जा का कोई सानी नहीं था। हास्य-व्यंग्य की दुनिया में उनकी उपस्थिति उत्कृष्टता में एकमेव ही थी। पीढि़याँ अपने बचपन को याद करती होंगी तो उनको तमाम जीवित पत्रिकाओं का युग याद आता होगा। बच्चों को बाल पत्रिकाएँ याद आती होंगी, युवाओं को अपनी पत्रिकाएँ, अलग-अलग दुनिया में रुझान रखने वालों को अपने हिस्से की पत्रिकाएँ याद आती होंगी। अपने शहर से लेकर देश के अखबार पढ़ने वाले सक्सेना जी को जानते थे। सक्सेना जी इतने लोकप्रिय, इतने प्रासंगिक रहा करते थे कि प्रायः हर जगह उपस्थित रहा करते थे। पराग, लोटपोट, मायापुरी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, मनोरमा, धर्मयुग के दौर में सक्सेना जी इतने लोकव्यापी हुआ करते थे कि ताज्जुब होता था, किस तरह एक शख्स इतने सारे पन्नों पर, इतनी विविधताओं के साथ, ऐसी रंजक उपस्थिति में हुआ करता है! पराग में खलीफा तरबूजी का किस्सा चालीस साल पहले कितने अंकों तक चला था, याद आता है।
वो एक पूरा का पूरा जमाना जिसके अवसान के बरसों बाद भी उसकी स्मृतियाँ हम सभी के मनो-मस्तिष्क में हैं, जीवित और अखबार-पत्रिका स्टाल में सजी रहने वाली पत्रिकाओं का दौर और उस दौर में के.पी. सक्सेना जी। गजब की सोचने की शक्ति, विलक्षण किस्सा-गो और प्रस्तुतिकरण की सुरुचि से अलग ही आकर्षित करने वाले ये व्यंगकार पत्रिकाओं और अखबारों के तीज-त्यौहारों के विशेषांकों के सिरमौर हुआ करते थे। सक्सेना जी ने सृजनात्मक जीवन्तता का एक लम्बा दौर जिया है जिसकी आवृत्ति आधी सदी से भी बहुत ज्यादा है। पिछले वर्ष ही भोपाल आये थे, सक्सेना जी, शरद जोशी सम्मान ग्रहण करने तब ही उन्होंने बतलाया था कि कुछ समय पहले आशुतोष गोवारीकर को उन्होंने एक पटकथा लिखकर दी है, डिटेक्टिव फिल्म की जिसमें मुख्य भूमिका अमिताभ बच्चन निबाहेंगे। सक्सेना जी चाहते थे कि फिल्म जल्द शुरू हो, उनकी यह इच्छा अधूरी रह गयी।
के.पी. सक्सेना की सृजनात्मकता को पिछले पन्द्रह वर्षों में सबसे ज्यादा सार्थकता के साथ नवाजने का काम आशुतोष गोवारीकर ने ही किया था। उन्होंने सक्सेना जी से फिल्म लगान के संवाद अवधी में लिखने का प्रस्ताव किया था। यह उनका पहला बड़ा काम था, खास सिनेमा के क्षेत्र में। फिर आशुतोष से उनके सरोकार ऐसे जमे कि उन्होंने स्वदेस और जोधा-अकबर फिल्मों के संवाद भी लिखे। ये तीन फिल्में सक्सेना जी के उत्तरार्ध के सृजन में लैण्डमार्क मानी जायेंगी। यों उन्होंने दूरदर्शन और चैनलों के लिए कई धारावाहिक लिखे, एक बीबी नातियों वाली बड़ा लोकप्रिय हुआ था जो लखनऊ दूरदर्शन से देश भर में प्रसारित होता था।
सक्सेना जी की उपस्थिति से हास्य-व्यंग्य में मौलिकता की उपस्थिति को लेकर एक विश्वास हमेशा बना रहता था। वे कैंसर जैसी बीमारी से जूझते हुए भी अपने लेखन के प्रति, जीवन के प्रति कभी हतोत्साहित नहीं हुए। अपने आपमें उनका गजब का आश्वस्त बने रहना बड़ा प्रेरक लगता था। स्मृतियों में भी उनकी उपस्थिति उसी आश्वस्त छबि के साथ बनी रहेगी। उनका सृजन तो खैर पुख्ता और चिरस्थायी है ही................।
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