बुधवार, 13 नवंबर 2013

बच्चों के लिए सिनेमा

बच्चों के लिए सिनेमा की बात हो रही थी। आजकल ठीक से नजर नहीं आता। बच्चों का सिनेमा कौन बनाता है, पता नहीं चलता। बच्चों का सिनेमा कैसे प्रदर्शित होता है, मालूम नहीं होता। बच्चों का सिनेमा कहाँ देखने में आता है, इसकी भी जानकारी प्रायः अब नहीं मिल पाती। दृश्य यह है कि बच्चों के लिए रचनात्मक जगहें और परिस्थितियाँ अब धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही हैं। हम देखते हैं कि जो बच्चे टेलीविजन के विभिन्न चैनलों में तथाकथित कला को सँवारने का दावा करते हुए चार निर्णायकों को बैठाये तख्तियाँ उठाकर नम्बरों से फैसला सुनाने वाले जजों के सामने अपनी क्षमताओं के साथ पेश होते हैं वे सब के सब वयस्कों के मनोरंजन के दायरे में आने वाली चीजों को तैयार करके आते हैं।

पता नहीं कितने सारे माता-पिता अपने बच्चों को, बेटियों को बाजारू सिनेमा का आयटम सांग सिखाकर ले आते हैं। कम उम्र की बच्चियाँ अपने अविभावकों, उनके ट्रेनरों और चैनलों के क्रिएटिव हेड की समझ के मुताबिक मंच पर उन गानों पर डांस करने लगती हैं जो आयटम सांग कहाते हैं और जिन्हें हिन्दी फिल्मों में चवन्नी छाप दर्शकों की दृष्टि-क्षुधा शान्त करने के लिए रखा जाता है। हिन्दी फिल्मों में आयटम सांग की अवधारणा के पीछे दिल थाम कर बैठने की दर्शकों को पहले से ही ऐसी प्रचारात्मक चेतावनी दे दी जाती है जैसे दिल का दौर पड़ने का खतरा हो। बहरहाल यही अपसंस्कृति नन्हें बच्चों पर आरोपित है, महात्वाकांक्षाओं के चलते, समृद्धि की लालसा के चलते। यही कारण है कि हमें अपने ही बीच छोटे-छोटे बच्चे अचानक बड़े से लगने लगते हैं। हम सभी इस प्रचलित बिन्दासपन पर ठगे से रह जाते हैं। हमारी आँखें आश्चर्य से खुली रह जाती हैं। नन्हों के संसार में यह कैसा आक्रमण हो गया है?

बच्चों के लिए फिल्मों की सम्भावनाएँ बरसों पहले समाप्त होकर रह गयी हैं। कुछ वर्ष पहले विशाल भारद्वाज ने यह पहल बड़ी अच्छी सम्भावना के साथ की थी। उनकी दो फिल्में मकड़ी और खासकर ब्ल्यू अम्ब्रेला इन्हीं वजहों से याद है बल्कि ब्ल्यू अम्ब्रेला ऐसी फिल्म है जिसे बच्चों को दिखाया भी जाना चाहिए। श्रेष्ठ अभिनेता पंकज कपूर ने कमाल का किरदार निभाया है उस फिल्म में। बच्चों के लिए सिनेमा बनाने की संवेदना अमोल गुप्ते में भी हमने देखी है जो वास्तव में तारे जमीं पर जैसी फिल्म को परदे पर रचने वाले थे। उनकी बाद की एक फिल्म स्टेनली का डिब्बा भी उल्लेखनीय है जो ठीक से देश में प्रदर्शित भी नहीं हो सकी।

कभी राजकपूर ने बूट पॉलिश, व्ही. शान्ताराम ने दो आँखें बारह हाथ, नितिन बोस ने जागृति, मेहबूब खान ने सन ऑफ इण्डिया जैसी अविस्मरणीय फिल्में बनायीं थीं। बहुत से घराने आज भी ऐसे हैं जो फिल्म व्यवसाय में खूब धन अर्जित करते हैं। वे चाहें तो दो-चार साल में बच्चों के लिए लाभ-हानि की परवाह किए बिना एकाध फिल्म बना सकते हैं लेकिन वे शायद भावी पीढ़ी के प्रति ऐसे नैतिक सोच से कोसों दूर हैं। आज सौ-दो सौ करोड़ का सिनेमा की प्रथम और अन्तिम लक्ष्य हो गया है। ऐसे में बच्चों के लिए सिनेमा...........कौन सोचे?


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