विजयदान देथा, साहित्य के एक बड़े आदमी थे जिनका सत्यासी वर्ष की आयु में निधन हो गया। कुछ समय पहले एक बड़ी पत्रिका में उन पर एक अनुपम पठनीय फीचर प्रकाशित हुआ था जिसमें तकलीफों, बीमारियों और कुछेक अपने दुखों से तप्त दानदेथा ने आयुगत धीमेपन और आखिरी समय के अपने मानस के साथ कुछ बातें कहीं थीं। उस फीचर को पढ़ते हुए ही उनके अवदान के विलक्षणपन को लेकर कुछ बातें आती-जाती रही थीं। देथा, राजस्थानी लेखक थे, मूल भाषा के प्रति असीम आत्मीयता और आदर के वशीभूत शुरू से ही उसी भाषा में लिखने वाले लेकिन जब उनका साहित्य हिन्दी में अनूदित होकर प्रकाशित हुआ तब जाकर हिन्दी साहित्य जगत, हिन्दी का पाठक वर्ग उनके कृतित्व को लेकर चमत्कृत हुआ।
एक बड़े फिल्मकार मणि कौल ने जो कि उनकी कहानी दुविधा से बेहद प्रभावित हुए थे और उस कहानी पर फिल्म बनाने का निश्चय कर चुके थे, कहा, तुम अपनी जगह पर ही ठीक हो, बाहर आओगे तो लोग नोच खायेंगे। इस बात के पीछे उनका आशय साहित्य और उसके व्याप्त बाजार के बीच गलाकाट और राजनीति से था। मणि कौल ने दुविधा पर इसी नाम से 1973 में फिल्म बनायी जिसमें रवि मेनन, रायसा पदमसी, भोला राम और मनोहर ललास ने काम किया था। निर्देशक ने फिल्म बनाते हुए कृति की संवेदनाओं और परिवेश का बड़ा ख्याल रखा था। फिल्म का संगीत भी परिवेशजनित था जिसे रमजान हम्मू, लतीफ और साकी खान ने तैयार किया था। दुविधा के लिए मणि कौल को बेस्ट डायरेक्टर का नेशनल अवार्ड भी प्राप्त हुआ था। दुविधा से अमोल पालेकर तीस साल बाद प्रभावित हुए थे और उन्होंने पहेली नाम से एक खराब फिल्म बनायी थी जिसमें आधुनिक सितारों शाहरुख खान और रानी मुखर्जी ने काम किया था। अपनी प्रामाणिकता और कार्य-उत्कृष्टता में हम पहेली से दुविधा को उत्कृष्ट और सार्थक फिल्म मान सकते हैं।
इधर हिन्दी क्षेत्र में बल्कि कहा जाये तो पूरे भारतीय रचनात्मक परिदृश्य में विजयदान देथा की कहानी पर विख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर द्वारा खेले नाटक चरणदास चोर और उनके ही सहयोग से श्याम बेनेगल द्वारा 1975 में बनायी गयी फिल्म चरणदास चोर की बड़ी पहचान है। निस्सन्देह यह ख्याति विश्वस्तरीय भी है क्योंकि हबीब तनवीर इस नाटक को दुनिया के अनेक देशों में भी मंचित कर चुके थे। सम्भवतः इसके कई सौ प्रदर्शनों का कीर्तिमान होगा और आज भी विजयदान देथा और हबीब तनवीर का नाम क्रम से लो तो तत्काल चरणदास चोर भी कहना होता है। पढ़ने में इतनी प्रेरक, देखने में इतनी दिलचस्प और सीख के लिए शायद हमारे पूरे जीवनमूल्यों की बात कहती यह रचना अनूठी है। प्रकाश झा ने 1989 में उनकी कृति पर परिणति का निर्माण किया था जो झा की फिल्मोग्राफी में एक महत्वपूर्ण फिल्म है। इस फिल्म को उत्कृष्ट वेशभूषा के लिए नेशनल अवार्ड प्राप्त हुआ था। फिल्म में नंदिता दास, सुरेखा सीकरी और सुधीर कुलकर्णी ने काम किया था।
विजयदान देथा का निधन इस साल के अवसान की बेला में मन्नाडे, राजेन्द्र यादव, रेशमा की तरह ही अपूरणीय क्षति है। सृजन के शीर्षस्तम्भ की उपस्थिति हमारी रचनात्मक अस्मिता को निरन्तर ऊष्मित किए रहती है। एक तरह की आश्वस्ति वह समाज जीता-करता है जो पितृ-पुरुषों और पूर्वजों के यश को शिरोधार्य करने की भावना या संस्कार रखता है। विजयदान देथा का जाना साहित्य को अनमोल विरासत प्रदान करने वाले गुणी सर्जक का जाना है।
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