शनिवार, 9 नवंबर 2013

बाजार का आक्रामक गणित और सिनेमा


सिनेमाघरों में कृष 3 के पोस्टर लगे हैं। विशेष रूप से स्याह रंग का चयन किया गया है। हमारे समय का एक चमकदार हीरो है जिसकी अपनी साख बहुत बड़ी है मगर पोस्टर में उसका चेहरा ही छुपा दिया गया है। मास्क लगाये हीरो के केवल ओंठ दिखायी दे रहे हैं और सब तरफ से घिरी आँखें जो अपेक्षाकृत उग्र दीख रही हैं। चूँकि चेहरा नहीं दिख रहा इसलिए भाव समझ में नहीं आ रहा है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जिस सिनेमाघर में यह पोस्टर लगा है उसका आँगन छोटी-बड़ी गाडि़यों से पटा पड़ा है, पुलिस लाठी भांज रही है अनुशासन के लिए और टिकिट खिड़की के सामने ईमानदार लाइन लगे धक्का खाते हुए मंजिल तक बढ़ रहे हैं और बीच में घुस जाने वाले, पीछे से आ जाने वाले और जान-पहचान से तुरन्त टिकिट प्राप्त करने वाले गर्वोन्मत्त हैं, सिनेमा देखने भीतर चले जा रहे हैं।

ऐसे दृश्य कृष 3 से पहले चेन्नई एक्सप्रेस के समय भी रहे हैं। सिनेमा को जाँचने-परखने में दक्षता को जीने वाले आलोचक कहते ही रह गये कि फिल्म साधारण है लेकिन चेन्नई एक्सप्रेस ने दो सौ करोड़ से ज्यादा कमा लिया और एक सौ दस करोड़ की उम्मीद रखने वाली कृष 3 भी इस टिप्पणी के लिखे जाते तक सौ करोड़ की घोषणा से आगे निकल गयी थी। इन फिल्मों की सफलताएँ यह प्रमाणित करती हैं कि हमारे समय में तेजी से बाजार और लाभ का ऐसा गणित स्थापित होता चला जा रहा है जिसके प्रभाव में सार्थकताएँ, सच्चे परिश्रम और लीक से अलग हटकर किए जाने वाले कामों की सम्भावनाएँ लगातार धीमी और कम होती जा रही हैं। सारे वातावरण में बाजार का गणित काम कर रहा है। हफ्तों की एडवांस बुकिंग से टिकिट खिड़की पर जमा होने वाला सारा धन निर्माता की जेब में जा रहा है जिसे दर्शकों ने अग्रिम चुकता कर दिया है।

हम उस समय से परे चले गये हैं जब खरीदार के रूप में हम पहले एक हाथ से सामान प्राप्त करते थे और दूसरे हाथ से उसके पैसे चुकाते थे लेकिन अब हमें सामान प्राप्त करने से पहले पैसे चुकाने की जल्दी और व्याकुलता है। हम वंचित रह जाने और पीछे रह जाने के डर से अपना धन पहले छोड़ देना चाहते हैं। यही कारण है कि अपने जोखिम सुरक्षित रखने वाले निर्माता के सामने हम अपनी जेब खाली कर देते हैं। सिनेमा हमारे आनंद के संसार में अपनी एक खास जगह रखता है लेकिन अब हम उसमें हारकर भी किसी से कुछ कह नहीं पाते। फिल्म देखने के बाद हमारा आकलन जाहिर होने वाला पछतावा भी तो नहीं है। बेहतर सिनेमा के लिए निश्चित ही यह मुश्किल समय है। सार्थक हस्तक्षेप को हम दर्शक नजरअन्दाज नहीं करें, यह सचमुच ध्यान देने वाली बात है।







   

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