सोमवार, 30 अप्रैल 2012

मुद्दे से पहले भूमिका

मुद्दे पर आने से पहले भूमिका बांधना हमारे यहाँ का स्थायी मानवीय रिवाज है। सीधी बात कोई कहना नहीं चाहता। घूम-फिर कर विषय पर आते हैं। अचानक आपके पास किसी का फोन आता है, पहले शुरूआत यहीं से होती है, और क्या हाल-चाल है, एक अक्सर जुमला होता है, क्या चल रहा है, एक और है, और क्या खबर। आप अपने हाल-चाल बताइये, जो कुछ चल रहा है, नहीं चल रहा है, वो बताइये, कोई खबर हो तो बताइये। फिर सामने वाला कहता है, फोन दरअसल इसलिए किया था.. .. ..फिर वो बात पूरी बताता है, किसलिए किया था, कोई जानकारी, कोई सूचना, कोई मदद या कोई काम। 

आपने सब-कुछ साध दिया तो बात करने वाला खुश, फोन बन्द करते-करते यह भी कहेगा, बहुत दिनों से मिले नहीं यार, व्यस्त रहते हो, हाँ तुम्हारा काम ही ऐसा है, अपने को भी कहाँ वक्त है, लेकिन ऐसा नहीं है, मिला-विला करो, मिलते हैं, कभी। फोन कट जाता है। आप सोचते रह गये। मुद्दे से पहले भूमिका इसी को कहा जाता है। एक प्रसिद्ध चैनल के प्रसिद्ध इन्टरव्यू कार्यक्रम की तरह सीधी बात कोई नहीं करता। हैलो करते ही बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो सीधी बात करते हैं। आज के समय में जिस क्षण कोई आदमी किसी के लिए महत्व का हो जाता है, उसी क्षण वो उसके सम्पर्क में आता है, वह भी ऐसे तमाम उलाहने, लानते-मलामतें करते हुए। 

क्या चल रहा है, यह वास्तव में बड़ा विकट सा प्रश्र है। जितनी भी चलायमान स्थितियाँ हैं या चीजें हैं वे सब की सब चल ही रही होती हैं। अपन खुद भी चल रहे होते हैं, सिक्के की तरह, जब तक चल सकते हैं। घिस-घिसा गये सो बात अलग है, तब चलने की स्थितियाँ नहीं रह जायेंगी लेकिन तब तब चलते ही रहेंगे, जब तक चलने लायक हालात हैं। सिनेमाघरों में फिल्में आजकल जरूर ज्यादा नहीं चलतीं, जल्दी उतर जाती हैं। बनाने वाला फार्मूले के सच तक जा ही नहीं पाता, कि क्यों नहीं चल पा रहीं, बस बनाने में लगा रहता है। क्या चल रहा है, यह ऐसा सवाल हुआ जैसे पूछने वाले का मतलब अधिक से अधिक चलने वाली चीजों और वस्तुओं के बारे में जान लेना हो। 

ऐसा शायद अब कोई नहीं करता कि मात्र हालचाल, कुशलक्षेम, माता-पिता, भाभी-बच्चों के बारे में जानने के लिए ही फोन करे, उतनी ही बात करे और फोन बन्द करे। फिल्म से पहले न्यूजरील और ट्रेलर का महत्व ज्यादा हो गया है। छोटी उम्र की याद है, पास के रंगमहल सिनेमाघर में फिल्म देखने जाते थे। हॉल में बैठने के बाद का पूरा माहौल जैसे याद हो गया था। पहले दो गाने बजते थे, फिर तीसरा गाना आधे से ज्यादा होने पर हॉल की एक-एक करके लाइट बन्द हो जाया करती थी। खुशी के मारे सब सीटी बजाने लगते थे। गाना पूरा होते-होते अंधेरा और फिर मुहासों, दाँत की बीमारियों और तंदुरुस्ती की रक्षा करने वाले साबुन के विज्ञापन की फिल्में। उसके बाद समाचार दर्शन और फिर फिल्म। 

अब हमारा जीवन-व्यवहार भी इसी तरह हो गया है। समय, जद्दोजहद, आत्मलिप्तता और जमाने की दौड़ में पसीना बहाते हुए मेल-मिलाप अपना अस्तित्व खो रहा है। अब हम जरूरत पर ही अपनों-परायों को याद करते हैं। क्या चल रहा है, यह सवाल एक तरह का स्टार्टर जैसा है, भोजन में सूप या वेलकम जूस की तरह।

शनिवार, 28 अप्रैल 2012

मौसम और मस्तक


हमारी मानसिकता पर मौसम का प्रभाव बड़ा मायने रखता है। अक्सर हम मानसिकता को अपने शरीर और उसके आकार-प्रकार से भी आँकते हैं। लोग कहा करते हैं कि दुबले दिखाई देने वाले व्यक्ति को गुस्सा बड़ी जल्दी आता है। अच्छे सेहतमंद और कमोवेश मोटे लोगों को क्रोध नहीं आता या कम आता है या कम से कम उन्हें अपने क्रोध पर काबू रखना तो ज़रूर ही आता है। 

मैं अभिनेता और निर्देशक सतीश कौशिक को विलक्षण क्षमताओं वाला कलाकार मानता हूँ। मैं पहले उनका मुरीद हुआ फिर मित्र भी। ऐसा नहीं कि यह धारणा मित्र-भाव या मुरीद होने के कारण बनी हो, वास्तव में उनका स्वभाव ही उनके करीब लाने की वजह साबित हुआ। उनसे अक्सर बात हुआ करती है, एक बार जब वे “बधाई हो बधाई” नाम की फिल्म बना रहे थे, तब उसमें उन्होने अभिनेता अनिल कपूर को लेकर एक तरह का गल्प-लोक रचा था और कुछ समय के लिए उन्हें ख़ासा मोटा दिखाया था। इस प्रयोग पर बातचीत करते हुए उन्होंने कहा था कि मोटे लोग दिल के बड़े साफ़ होते हैं, उनमें सहनशीलता औरों की अपेक्षा ज़्यादा हुआ करती है। उन्होने यह भी जोड़ा कि ऐसा नहीं है कि मैं मोटा हूँ इसलिए यह बात कह रहा हूँ, मगर मेरा अपना तजुरबा है कि कठिन परिस्थितियाँ, ख़तरे, दुख, तनाव, परेशानियाँ, विफलताएं आने पर भी जाने कहाँ से संयत रहने का मंत्र मिलता है। 

सतीश कौशिक कहते हैं कि मेरा किसी से विवाद नहीं होता। किन्हीं कारणों से विवाद खड़े भी हुए तो अपने आप उनका रास्ता निकल गया। शायद दो साल पहले की बात होगी, उन्होंने एक फिल्म अंजना मुमताज के बेटे रुसलान और साधना सिंह की बेटी को लेकर बनाई। उसमें संगीतकार अनु मालिक को साइन किया। अनु ने तीन गाने सतीश कैशिक को बनाकर दिये, जिनसे वे संतुष्ट न हो सके, इस पर उन्होंने किसी नई संगीतकारों की जोड़ी से वे गाने करवा लिए। अनु मालिक नाराज़। वकील का नोटिस भेज दिया। सतीश कौशिक इस बात से बड़े दुखी हुए। कहने लगे, अनु मेरा इतना पुराना दोस्त है, घर आकर लड़ लेता, नोटिस देने की क्या ज़रूरत आन पड़ी? अब वकील कोर्ट, कचहरी से क्या हासिल होगा? कहने लगे, इतना अच्छा दोस्त है और ऐसा किया। हालांकि सतीश कौशिक ने अनु मालिक को पूरा मानदेय दिया, लेकिन इस व्यवहार से दुखी हुए। बाद में उन्होंने ही पहल करके अनु को मनाया और मुक़दमा वापिस हुआ। 

बहरहाल, हम मौसम की बात कर रहे थे। मौसम और मस्तक का भी एक-दूसरे के परस्पर आवेगों से बड़ा रिश्ता है। इन दिनों भरपूर गर्मी का मौसम चल रहा है। जिस तरह मौसम का पारा चढ़ता-उतरता रहता है वैसे ही आदमी के दिमाग का भी। सुबह से ही सूरज चढ़ने लगता है। मनुष्य का भी कई बार मौसम के साथ ही तापमान बढ़ जाया करता है। गर्मी बर्दाश्त करने की क्षमता हर एक में एक जैसी नहीं होती। बेचैनी में तुरंत पंखा चाहिए होता है, तुरंत कूलर की ज़रूरत पड़ती है, तुरंत एसी चालू करना होता है, अन्यथा मूड पर उसका तुरंत प्रभाव पड़ता है। बात बर्दाश्त के बाहर गई तो फिर किसी के भी लेने के देने पड़ सकते हैं। सरे राह सड़क पर आते-जाते गाड़ी-घोड़े में जल्दबाज़ी और अफरा-तफरी से छोटी-मोटी भिड़ंत, रगड़ खा जाने वाली घटनाएँ तुरंत एक-दूसरे का गिरेबान हासिल करने में मददगार साबित होती हैं। 

ऐसे मंज़र देखकर कई बार लगता है, हर तरह के उधर लौटाने से बचने वाला हर आदमी यहाँ जैसे तत्काल परस्पर चुकता करने में देर नहीं करना चाहता। मौसम का मस्तक पर यहाँ अजब ही प्रभाव देखने में आता है। जीवन में ऐसे बहुत सारे मसले होते हैं, जिनके समाधान का परिवेश मानसिक और वैचारिक शीतलता की अपेक्षा करता है। जीवन बेतकल्लुफ़ी में हम जिये चले जाते हैं, अगर जीवन को पढ़ते हुए, जीते चलें तो एक अच्छी दुनिया गढ़ने में हम सबके साथ हो सकते हैं, वह भी मिलकर............

रविवार, 15 अप्रैल 2012

सतही फिल्म की सफलता का जश्र


इन दिनों देश के सिनेमा प्रेमी हाउसफुल टू फिल्म को देखने के लिए टूटे पड़ रहे हैं। यह ठीक उस समय हो रहा है जब देश में खेल भी चल रहा है। ऐसा खेल जो हर बार फिल्म निर्माताओं को डराकर रखता है। ऐसी हवा बन्द करके रखता है कि जब तब खेल खेला जा रहा होता है तब तक कोई भी निर्माता अपनी फिल्म प्रदर्शित करने का दुस्साहस नहीं करता। वह निर्माता खासतौर पर सावधान रहता है जिसने अपनी फिल्म में भारी पैसा लगा रखा होता है, बड़े सितारे शामिल किए होते हैं। आयटम सांग डालकर रखा होता है अर्थात अपनी निगाह में वह जितनी रंगीन फिल्म बनाता है, उतना ही सतर्क रहता है। 

गर्मी का मौसम फिल्मों के लिए आफत का मौसम होता है। ठण्डे सिनेमाघर में फिल्में देखने के लिए घर से धूप में तो निकलना होता ही है, ऐसे में दर्शक संख्या तो घटी रहती ही है ऊपर से आई पी एल जैसे टूर्नामेंट से रही-सही कसर और पूरी हो जाती है। सिनेमाघरों में परिन्दा भी पर नहीं मारता। कई बार भूले-भटके चन्द दर्शकों के पैसे लौटाकर शो रद्द भी कर दिए जाते हैं। लेकिन इस साल ऐसे माहौल में साजिद खान की फिल्म हाउसफुल टू टिकिट खिडक़ी पर सफल हो गयी है। कल एक मनोरंजन चैनल पर एक फिल्म विश£ेषक लगभग बधाई गाने की तर्ज पर फिल्म की सफलता पर कसीदे काढ़ रहे थे। वे दुनिया भर के आयामों से आकलन करते हुए कमाई का कु ल योग लगा रहे थे। इतनी फिक्र देखकर लग रहा था कि वे निर्माता और निर्देशक के खासे शुभचिन्तक होंगे। बहरहाल उन्होंने पूरा जोड़ लगाकर यह साबित कर ही दिया कि फिल्म की कमाई लागत से काफी आगे तक निकल जायेगी। 

जहाँ तक फिल्म का सवाल है तो प्रश्र यही है कि क्या यही सिनेमा है? हाउसफुल टू ऐसा लगता है हिन्दी सिनेमा की एक ऐसी प्रतिनिधि फिल्म बन गयी है जहाँ सारी श्रेष्ठता, दृष्टि, बुद्धि और विचार अपने अस्तित्व के सबसे भोथरेपन में दिखायी देते हैं। एक प्रबुद्ध और बेबाक फिल्म समीक्षक ने हाउसफुल टू की सैद्धान्तिक ढंग से आलोचना की है और यह प्रमाणित किया है कि किस तरह एक निरर्थक फिल्म इतने सारे बड़े, पुराने और नये, खारिज और उपयोगी सितारों को लेकर गढ़ी जाती है। मनोरंजन जिसे सिनेमा के अंग्रेजीदां इण्टरटेनमेंट कहते हैं, अब इसी स्तर पर आकर जाँचा और परखा जाने लगा है। मनोरंजन फूहड़ता से परिभाषित है। 

सफल सिनेमा का गुण जैसे उसका सतही होना ही हो गया है। जरा हम अपनी चेतना को खंगालें, मनोरंजन की अपनी जरूरत को परखें, दुनिया और समाज से हम क्या इतना निराश और उकताये हैं कि ऐसी फिल्म पर हँस रहे हैं, मुग्ध हो रहे हैं और देखने के लिए टूटे पड़ रहे हैं? ऐसे परीक्षक बनकर क्या कभी आत्मग्लानि नहीं होती जिसमें किसी गँवार को मैरिट के नम्बर देकर फक्र महसूस किया जाता हो...........?

गुरुवार, 12 अप्रैल 2012

हास्य नाटक छुट्टी अर्थात एक झूठ और हजार मुसीबतें


इधर हिन्दी में मनोरंजक और दिलचस्प हास्य नाटकों का एक नया मौलिक शास्त्र विकसित हुआ है। इसके लिए कथानक छोटे-छोटे घटनाक्रमों अथवा मानवीय स्वभाव की विभिन्न रंगतों से लिए जाते हंै। अपने भोपाल में आज शहीद भवन में अभिनेत्री, निर्देशक नीति श्रीवास्तव के नाटक छुट्टी को देखना ऐसे ही अनुभवों से गुजरना हुआ है। यहाँ पर पहले ही दो बातें कह देने की इच्छा होती है, एक यह कि शहीद भवन सभागार सांस्कृतिक चहल-पहल का अब एक अच्छा केन्द्र बनता जा रहा है, दूसरी बात सुलझे हुए और ऊर्जावान रंगकर्मियों की पीढ़ी जिस प्रकार की सक्रियता से जानी जाती है, उसका योगदान आज के चलन और सुरुचि के नाटक गढऩे के साथ ही अपनी भी एक जगह को रेखांकित करने के लिए जाना जायेगा।

छुट्टी नाटक एक छोटे से झूठ और उससे उत्पन्न परिस्थितियों से उपजा है। पति-पत्नी के बीच नोंकझोंक हुई है, पत्नी रूठकर मायके चली गयी है। पति इन कुछ दिनों को अपने मित्रों के साथ मौज-मस्ती में व्यतीत करना चाहता है लिहाजा अपने बॉस से झूठ बोल देता है कि छुट्टी चाहिए क्योंकि पत्नी बीमार है और वे दो से तीन होने वाले हैं अर्थात परिवार में तीसरे की आमद होने को है। बॉस से फोन पर जिस तरह से घटना बयान की जाती है, बॉस कहता है कि वो शाम को घर आ रहा है, बीमार पत्नी को देखने। यहाँ पर अब सारी जुगत इस बात की है कि बॉस जब घर पर आये तो उसे बीमार पत्नी से कैसे मिलवाया जाये क्योंकि पत्नी तो मायके गयी हुई है। 

राज, अपनी नौकरानी से मनुहार करता है, दोस्त से कहता है जो अपनी प्रेमिका को इस बात के लिए राजी करने की कोशिश करता है, फैशन शो आयोजित करने वाले दोस्त से बात करता है कि ऐसा इन्तजाम हो जाये कि कोई दो घण्टे के लिए पत्नी बन जाये। घर में अचानक अपना सामान बेचने आ गयी सेल्स गर्ल से भी अपील की जाती है। बहरहाल किस्सा यह बनता है कि बमुश्किल सेल्स गर्ल इस बात के लिए तैयार हो जाती है मगर बाद में वे तीन-चार युवतियाँ भी एक-एक करके राज के घर दो घण्टे की भूमिका करने आ जाती हैं। दिलचस्प यह होता है कि उसी वक्त रूठी बीवी भी लौट आती है।

छुट्टी, स्वभावगत खामियों को उजागर करते हुए ऐसी प्रवृत्ति वाले इन्सान की मुसीबतों को रोचक ढंग से रेखांकित करता है। संजय श्रीवास्तव ने यह नाटक लिखा है और राज की भूमिका भी निभायी है। वे मुसीबतजदा पति के रूप में बहुत अच्छे ढंग से अपने काम को निबाहते हैं। सेल्स गर्ल बनी महुआ चटर्जी, बॉस बने शिलादित्य, सकू बाई बनी रोजी सतपथी और राज के दोस्त के रूप में उज्जवल सिन्हा नाटक को बांधे रखते हैं। नाटक में फिल्मों के लोकप्रिय और अब के गानों की धुनों का इस्तेमाल राज और प्रियंका तथा सकू बाई की शख्सियत को मंच पर स्थापित करने के लिए बखूबी किया गया है। 

नीति इस नाटक की निर्देशक हैं जो स्वयं अच्छी कलाकार हैं, कई नाटकों में उन्होंने श्रेष्ठ भूमिकाएँ निभायी हैं, मगर यहाँ वे एक परिकल्पनाकार के रूप में इस मौलिक नाटक की सर्जक बनकर सामने आती हैं। आखिर में वे मंच पर आकर कहती भी हैं कि यह एक हल्की-फुल्की परिकल्पना और ड्राइंगरूम कॉमेडी की तरह दर्शकों को मनोरंजन प्रदान करने के उद्देश्य रचा गया है। दर्शक परिस्थितियों और संवादों का खूब आनंद उठाते हैं और कहकहे, ठहाके गूँजते रहते हैं, कुल मिलाकर एक अच्छा नाटक।

बुधवार, 11 अप्रैल 2012

शिल्प और पेंटिंग के विलक्षण कलाकार जेराम पटेल


श्वेत-श्याम रंगों से अपनी कलाकृतियों को एक विशिष्ट पहचान देने वाले विख्यात कलाकार जेराम पटेल का जन्म 1930 में सोजित्र, गुजरात में हुआ। आपने सर जे. जे. स्कूल ऑफ आर्ट्स से कला की शिक्षा प्राप्त की। उसके पश्चात दो वर्ष सेंट्रल स्कूल ऑफ आर्ट एण्ड क्राफ्ट लन्दन में रहे।

जेराम पटेल ने अपनी निरन्तर कला साधना में डिज़ाइनिंग को एक प्रमुख आयाम के रूप में विकसित किया। कला में आकल्पन और परिकल्पना के मौलिक आग्रहों और प्रयोगधर्मी रचनाशीलता के माध्यम से आपने एक बड़ी सम्भावना का प्राकट्य खोजा और प्रेक्षकों को भी इस माध्यम के प्रति आकृष्ट किया। पटेल अध्यापन से जुड़े रहे हैं। आप एम.एस. यूनिवर्सिटी बड़ौदा में कला के प्रभाग के विभिन्न पदों पर काम करते हुए फेकल्टी ऑफ फाइन आर्ट्स के डीन के पद से सेवानिवृत्त हुए।

जेराम पटेल ने अब तक अनेक समूह एवं एकल प्रदर्शनियों में अपनी कलाकृतियों के माध्यम से सहभागिता की है। आपकी अब तक बयालीस एकल प्रदर्शनियाँ भारत एवं दुनिया के विभिन्न देशों की प्रतिष्ठित कलादीर्घाओं में आयोजित हुई हैं। विशेष रूप से चेमोल्ड आर्ट गैलरी, जहाँगीर आर्ट गैलरी, दिल्ली आर्ट गैलरी में आपकी प्रदर्शनियाँ हमेशा चर्चित रही हैं। कई कला दीर्घाओं में आपकी प्रदर्शनियाँ एक से अधिक बार भी आयोजित हुई हैं। ललित कला अकादमी, नई दिल्ली द्वारा आयोजित पहली, तीसरी, चौथी तथा पाँचवीं अन्तर्राष्ट्रीय कला त्रैवार्षिकी में आपकी महत्वपूर्ण उपस्थिति प्रशंसनीय रही है।

जेराम पटेल ने कला में अपना लंबा अनुभव जिया है। छह दशकों की उनकी सर्जना, कलात्मक एकाग्रता और दृष्टि ने समकालीन कला जगत में उनकी जगह को ऊँचे मापदंडों के साथ स्थापित किया है। वे कला में अपनी परिकल्पनाओं के एक तरह से स्वतंत्र-चेता रहे हैं। उनका काम सृजनात्मक परिवेश में अपनी अलग ही अहमियत रखता है। उन्होंने जटिलताओं को अपने जटिल कामों के माध्यम से ही दर्शाना चाहा है। उनका रंग-चयन श्वेत-श्याम रंगों की परिधि में भी अपने आवेगों और समय को चिन्हांकित करने में प्रबल रूप से सक्षम रहा है।

कला जगत में लम्बे समय से निरन्तर सक्रिय उपस्थिति और योगदान के बीच आपको अनेक मान-सम्मान और पुरस्कार मिले हैं जिनमें इमेरिट्स फैलोशिप, रॉयल सोसायटी ऑफ आर्ट्स लन्दन की फैलोशिप, अहमदाबाद का कालिदास अवार्ड शामिल हैं। आपकी कलाकृतियाँ देश-विदेश के अनेक महत्वपूर्ण कला संग्रहालयों में संग्रहीत हैं जिनमें आधुनिक कला संग्रहालय एवं ललित कला दीर्घा नई दिल्ली, आर्ट सोसायटी ऑफ इण्डिया मुम्बई, भारत भवन, स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर अहमदाबाद, म्युजियम ऑफ मॉडर्न आर्ट बगदार आदि प्रमुख हैं। जेराम पटेल को मध्यप्रदेश सरकार ने रूपंकर कलाओं के क्षेत्र में राष्ट्रीय कालिदास सम्मान से विभूषित किया है।

शुक्रवार, 6 अप्रैल 2012

रंगास्वामी वेडार : दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध टेराकोटा शिल्पी


रंगास्वामी वेडार, दक्षिण भारत के सुप्रसिद्ध टेराकोटा शिल्पी हैं। उनका जन्म तमिलनाडु राज्य में मलईउर ग्राम, तालुका आलंगुड़ी जिला पुदुक्कोटई में पारम्परिक कुम्हार परिवार में हुआ। तमिलनाडु के अंचलों में, स्थानीय भाषा में मिट्टी के पारम्परिक कामों से जुड़े लोगों को वेडार कहा जाता है। रंगास्वामी वेडार को छोटी उम्र से ही परिवार के कार्यों में गहरी रुचि और रूझान रहा है लेकिन पारम्परिक कार्य के साथ-साथ उन्होंने अपनी सर्जना को कला से जोड़कर अपनी एक अलग पहचान बनायी और इस माध्यम के वरिष्ठ कलाकारों का ध्यान आकृष्ट किया।

रंगास्वामी वेडार ने मुख्यतया घरेलू उपयोग के मिट्टी के बरतन, कोठी तथा अन्य दैनन्दिन उपयोग की वस्तुओं के साथ-साथ अय्यनार देवालयों में मिट्टी की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ बनाने के काम को अपने शिल्प ज्ञान और नवाचार के माध्यम से प्रतिष्ठित किया है। वेडार को पारम्परिक मिट्टी शिल्प में अपने हुनर के प्रदर्शन के लिए अनेक कार्यशालाओं और प्रदर्शनियों में सहभागिता के लिए निमंत्रित किया गया है। ऐसे अवसरों पर उन्होंने अपनी कला से प्रेक्षकों और जानकारों को बहुत प्रभावित किया है। लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व वेडार ने भोपाल स्थित राष्ट्रीय मानव संग्रहालय में रहकर अय्यनार देवालय के प्रादर्शन निमा्रण हेतु मिट्टी की विशालकाय मूर्तियों का निर्माण किया था। तब से लेकर अब तक वे ऐसे अनेक शिविरों में सक्रिय सहभागिता दर्शा चुके हैं।

रंगास्वामी वेडार की अपनी कला और शिल्प के साथ उपस्थिति अनेक समारोहों का साक्ष्य भी बनी है जिसमें संस्कृति विभाग का प्रतिष्ठित आयोजन लोकरंग सहित संस्कृति संस्थान और शिल्प संग्रहालय, दिल्ली और अन्य अनेक उत्सव शामिल हैं। आप अपनी कलाकृतियों का प्रदर्शन जापान, ताइवान आदि देशों में भी कर चुके हैं। उनके द्वारा गढ़े गये मिट्टी शिल्पों में देखने वाले को उनके सजीव और प्राणवान होने का अहसास होता है, यह कौतुहल उनके सृजन का एक प्रमुख आयाम है।

स्वभाव से एकदम भोले और अतिविनम्र रंगास्वामी वेडार कुछ दिन पहले ही मध्यप्रदेश सरकार का तुलसी सम्मान ग्रहण करने भोपाल आए थे। संस्कृति मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने उन्हें एक गरिमामयी समारोह में दो लाख रुपये की राशि और सम्मान पट्टिका भेंट करके सम्मान से विभूषित किया। अलंकरण समारोह के अवसर पर उनके शिल्प भी प्रदर्शित किए गए थे। प्रदर्शित तीन शिल्पों में से एक शिल्प तो रंगास्वामी ने भोपाल में ही नव-निर्मित जनजातीय संग्रहालय में दो दिन रहकर बना डाला था।

गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

धुंधली स्मृतियों में मोटी अम्माँ

मुझे मोटी अम्माँ की याद धुंधली स्मृतियों में है। मम्मी अक्सर उनके बारे में बताया करती रही हैं। मोटी अम्माँ को मैंने अपनी चार-पाँच साल की उम्र तक देखा है पर मम्मी ने मुझे बाद में बताया था कि मेरे जन्म के दो महीने बाद जब उन्होंने फिर से स्कूल में पढ़ाना जाने शुरू किया था, तब स्कूल से अन्दर जाते हुए वो मुझे मोटी अम्माँ के सुपुर्द कर दिया करती थीं। 

यह बात भोपाल की है, बाल विहार स्कूल की जो उस जगह पर बना हुआ था, जहाँ बाद में उसे तोडक़र कृष्णा टॉकीज बना दिया गया था। टॉकीज से पहले स्कूल ही बरसों से लगा करता था। चौंसठ का साल था। छप्पन में बने मध्यप्रदेश में दूर-दूर से लोग आकर रह रहे थे। हमारे पिताजी और माँ भी, जो कि कानपुर के रहने वाले थे, पहले छोटी बुआ के पास ग्वालियर फिर उसके बाद नौकरी की तलाश में भोपाल आ गये थे। यहाँ पहले मम्मी की नौकरी लगी सरकारी स्कूल में शिक्षिका के रूप में, पापा को नौकरी बाद में मिली आदिम जाति कल्याण विभाग में।

शुरूआत में सरकारी घर नहीं था। चौक में शान्तिलाल जैन जी के यहाँ नव-विवाहित माता-पिता किराये पर रहते थे। वहीं एक-दो घर बदले, इसी बीच मेरा जन्म हुआ। बाद में दक्षिण तात्या टोपे नगर में मम्मी के नाम सरकारी मकान हुआ, छत्तीस बटे चौबीस नम्बर का। यह नम्बर हम सभी को खूब रटा हुआ है। यहीं से मम्मी प्रधान अध्यापिका होते हुए रिटायर हुईं। 

बात मोटी अम्माँ की हो रही थी। नाम के अनुरूप वे मोटी नहीं थीं मगर इसी तरह उनको सब बुलाते थे। बाल विहार स्कूल के मुख्य दरवाजे के किनारे वो एक बाँस की डलिया में बेर, इमली बेचा करती थीं। वो बड़ी दूर पुट्ठा मील के पास रहा करती थीं। जीवनयापन के लिए बच्चों के खाने-पीने का सामन बेचने वो रोज आया करती थीं। मम्मी बतलाती हैं कि मोटी अम्माँ के बेर बड़े स्वादिष्ट हुआ करते थे। वे उन्हें घर में उबालकर डलिया में कपड़े से ढँककर लाती थीं। पूरे समय गीले और मुलायम बने रहने वाले बेर कागज की चुंगी बनाकर उसमें नमक-मिर्च डालकर बेचा करती थीं, जिसे सब खूब चटखारे ले-लेकर खाते थे। 

इन्हीं मोटी अम्माँ की गोद में मैं बना रहता। आधी छुट्टी स्कूल लगने के दो घण्टे बाद हुआ करती थी तब मम्मी तेजी से बाहर आकर मुझे उठा ले जातीं और मुझे दूध पिलाती, फिर मोटी अम्माँ के पास छोड़ जातीं और फिर उसके दो-ढाई घण्टे बाद पूरी छुट्टी होने पर साथ घर ले जाया करतीं। चार-पाँच साल की उम्र में मम्मी का स्कूल बदल गया था, तब मोटी अम्माँ बड़ी दूर पुराने भोपाल से घर महीना-पन्द्रह दिनों में आया करतीं, तो मम्मी से उनकी खूब बातें होतीं। मम्मी उनसे सबके हाल लेतीं और वो भी सबके हाल मम्मी को बतातीं। अक्सर मैं खेल रहा होता या उनके पास बैठता तो बड़े लाड़ से मुझे अपने पास बैठा लेतीं, अपने पान रचे मुँह से खूब चुम्मी लिया करतीं। मुझे उनके मुँह से मद्रासी पान की खुश्बू बड़ी अच्छी लगती। मैं उनसे पान माँगता, वे बड़े प्यार से अपने डोरी वाले बटुए से टुकड़ों-टुकड़ों में कत्था-चूना लगे पान से जरा सा तोडक़र मेरे मुँह में रख दिया करतीं। 

यह मद्रास पान अपनी खुश्बू के साथ आज तक मेरे जहन में बना हुआ है। यों मुझे पान खाने की जरा भी आदत नहीं है मगर यदि आग्रहवश खाना ही पड़ गया तो मद्रास पान ही खाता हूँ। उसका वही पहचाना स्वाद जैसे मुझे उसी छोटी उम्र में ले जाकर खड़ा कर देता है, जहाँ महसूस होता है, मोटी अम्माँ डोरी वाले बटुए को खींचकर खोल रही हैं, पान का टुकड़ा निकाला है और मेरे मुँह में रख दिया है। मैं अपने बचपन, मोटी अम्माँ के उस निश्छल और अगाध स्नेह और दो साल तक अपने आँचल में महफूज़ रखे रहने की याद करके सजल हो उठता हूँ। बरसों पहले मोटी अम्माँ अल्लाह को प्यारी हो गयीं थीं। मुझे लेकिन वो हमेशा याद रहती हैं। ठेठ भोपाली बोली में बात करने वालीं, काला गहरा रंग, हँसी लाजवाब और आसपास से निकलूँ तो भींचकर गोद में बिठा लेने वालीं। मैं कहूँ, मोटी अम्माँ पान दो, इस पर अभी ले मेरे बेटे, फिर उसी तरह छोटा सा बिना सुपारी का कत्था-चूना लगा टुकड़ा और हिदायत यह भी कि बच्चे ज्यादा पान नहीं खाते...............।
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गुणी, धुनी और कुछ औघड़ से अलखनंदन


विख्यात रंगकर्मी अलखनन्दन का अकस्मात निधन पिछले दिनों भोपाल में हो गया। स्वास्थ्य की दृष्टि से पिछले दो साल उनके लिए बड़े कठिन और पीड़ादायी रहे। इसी अवधि में उनको पहली बार फेफड़ों की बीमारी की शिकायत हुई। रंगसमाज में उनके अस्वस्थ होने की खबर एक अचम्भे से कम न थी क्योंकि पिछले चार-पाँच साल से अलखनन्दन अपनी सेहत और फिटनेस को लेकर बड़े सजग रहने लगे थे। घर के पास ही रवीन्द्र भवन था जहाँ वे रोज शाम को छ: बजे आ जाया करते थे। वहाँ वे लगातार तेज चाल गोलाई में कई चक्कर लगाया करते। मेल-मुलाकात-बातचीत-बहस भी इसी बीच हो जाया करती थी। न केवल भोपाल बल्कि वरीयता और गुणों के कारण मध्यप्रदेश के रंगजगत के वे दादा थे, अलख जी या दादा, आदर और प्यार का सम्बोधन था। उनकी बीमारी ने जल्दी ही उनको हतोत्साहित कर दिया वरना रचनात्मक दृष्टि से वे बहुत सशक्त और सबल थे। उनका स्वास्थ्य तेजी से गिरा, अलखजी के स्वास्थ्य की फिक्र उनके सभी चाहने वालों ने की मगर मृत्यु बीमारी के बहाने एक दिन सुबह उनको ले ही चली।

भोपाल और खासकर मध्यप्रदेश में एक वरिष्ठ और प्रतिभासम्पन्न रंगकर्मी के रूप में अलखनन्दन को मिली मान्यता उनके, जाहिर है, काम के आधार पर ही थी। उनका हर काम जिज्ञासा के साथ-साथ बड़ी उम्मीद के साथ देखा जाता था। उनकी सक्रियता लम्बी थी लेकिन उनके सृजनात्मक सरोकारों को जानने के अपने लगभग छब्बीस साल के समय की अनेक अलग-अलग घटनाएँ और बातचीत के प्रसंग याद आ रहे हैं, जो उनके साथ जुड़े थे। भारत भवन, रंगमण्डल में अलखनन्दन लम्बे समय रहे और भारत भवन से हटने के बाद अब तक निरन्तर खूब सक्रियता बनाये भी रखी। डिफेन्स ऑडिट में नौकरी करने और उससे अवकाश लेने के बाद रचनात्मक सक्रियता में आते हुए, देशबन्धु अखबार में पत्रकारिता से अपना कैरियर शुरू करने वाले अलख जी का एक कविता संग्रह घर नहीं पहुँच पाता, भी प्रकाशित है और उनके दो श्रेष्ठ और उत्कृष्ट उल्लेखनीय नाटक चन्दा बेडऩी और उजबक राजा तीन डकैत भी पाँच वर्ष पहले दिल्ली से प्रकाशित हुए हैं।

अलख जी चन्दा बेडऩी और महानिर्वाण से बखूबी और हमेशा जाने गये। इरफान, उनके प्रिय कलाकार जो पच्चीस साल की उम्र से इन नाटकों के अहम किरदार बने और आज भी उसे निभा रहे हैं। इरफान के बगैर ये दो नाटक और रंजना के बगैर चन्दा बेडऩी की कल्पना ही व्यर्थ है। अलखनन्दन ही थे जो अपने नाटकों मेें सन्तूर वादक ओमप्रकाश चौरसिया का संगीत अपरिहार्य मानते थे। बाद के उनके म्युजिकल नाटकों के लिए तालवाद्य के गुणी कलाकार सुरेन्द्र वानखेड़े अपरिहार्य रहे। उन्नीस सौ छियासी में भारत भवन और रवीन्द्र भवन में होने वाले कार्यक्रमों पर एक प्रमुख स्थानीय अखबार के लिए टिप्पणी लिखते हुए अलख जी से परिचय हुआ था, जो उनके हर नये काम के पूर्वरंग और प्रस्तुति से जुड़ा रहा। अपनी बेबाकी और स्नेहिल बरताव से ही वे लोगों से जुड़े रहे। उजबक राजा, सुपनवा के सपना, जगर मगर, सुपरिमो, मगध, गोडाला देखत हन, आगरा बाजार आदि बहुत नाटक हैं उनके, एकदम से याद नहीं आते। अलख जी को शिखर सम्मान मध्यप्रदेश से मिला था और अभी संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार घोषित हुआ था।

अलखनन्दन, कुछ नया, कुछ खास करते समय यदि उनको समाज तक ठीक से पहुँचाने का मन होता था, तो फोन करके बुला लिया करते थे। वे कहते थे, तुमसे बात करके अच्छा लगता है, जो मैं सोचता हूँ, करना चाहता हूँ, तुमको बताकर यह भरोसा होता है कि अखबार में भी ठीक ढंग से आ जायेगा। अपने नाटकों के रिपीट शो या नये प्रदर्शनों के बारे में वे हमेशा बता दिया करते थे। उनका लगभग अन्तिम सशक्त और मर्म में गहरे उतर जाने वाला नाटक चारपायी था जिसमें उन्होंने एक प्रमुख भूमिका के लिए रंगमण्डल भारत भवन के वरिष्ठ कलाकार जावेद जैदी को लिया था। आजाद ख्याल और अरसो-बरसों में अभिनय करने वाले जावेद उनके नाटक में काम कर रहे हैं, यह बात अलख जी ने हँसते हुए बतायी थी। चारपायी एक अभावग्रस्त परिवार की कठिनाइयों और झुंझलाहट को उसके विषाद के साथ प्रस्तुत करता था। इसके भोपाल सहित देश में अनेक प्रदर्शन हुए और सराहा भी गया। यह नाटक अलखनन्दन के अच्छे मित्र नाटककार रामेश्वर प्रेम का लिखा था, जिनके दो और नाटक अजातघर और सुपरिमो वे पहले खेल चुके थे।

नाटकों के आंचलिक भाषाओं में प्रयोग प्रस्तुति को लेकर उनकी अपनी विशेषज्ञता थी। चन्दा बेडऩी इसी तरह का नाटक है, पूरा बुन्देलखण्डी में। विषय भी वहीं का, एक बेडऩी की कहानी जिसको प्रेम हो जाता है, कैसे वह कूटनीति, षडयंत्र और व्यवस्था का शिकार होती है, पूरा नाटक दिलचस्प ढंग से अपनी गति के साथ चलता है मगर जब अन्त में रस्सी पर नाचती चन्दा की मौत रस्सी काट दिए जाने से होती है, एक सन्नाटा व्याप जाता है। यह नाटक अलखनन्दन की रंग-सर्जना का सशक्त पर्याय माना जायेगा। सतीश आलेकर का महानिर्वाण अलखनन्दन ने खेला जिसमें भाऊ का किरदार कभी कारन्त जी ने निभाया था, उनके बाद इस चुनौती को इरफान सौरभ ने लिया सो आज तक निभाते आ रहे हैं। ऐसे ही अलखनन्दन की संस्था नटबुन्देले से जुड़े कलाकार आनंद मिश्रा, उनके देहावसान के समय उनके पास ही थे। सुबह साँस की तकलीफ महसूस होने पर उन्होंने आनंद को बुला लिया था। चारपायी नाटक में आनंद एक अहम भूमिका निभाते हैं। अलख जी को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिलने की सूचना तब मिली जब उनकी बीमारी जितनी बढ़ी हुई थी हौसला उतना ही घट गया था। फिर भी इस अवसर के लिए दिल्ली में चन्दा बेडऩी की प्रस्तुति के लिए उन्होंने अपना मानस बना लिया था।

अलखनन्दन, सचमुच इस दुनिया से बड़े बे-मन से गये, यह न जाने क्यों भीतर से लगता है। उनको बहुत सा काम करना था। जानलेना बीमारी का सबसे बड़ा गुनाह यही था कि उसने अलख जी को भरपूर ऊर्जा के साथ थिएटर करने से वंचित कर दिया। वे अपनी असहमतियाँ बेलाग ढंग से व्यक्त करते थे। यहाँ लेकिन असहमतियों ने एक तरह से कारुणिक अवसाद का रूप ले लिया था। हमने उनको और उनके सामने अपने को भी अलग-अलग धरातल पर इतना विवश नहीं देखा था। मुम्बई में फिल्मों में अब कला निर्देशक के रूप में प्रतिष्ठित जयन्त देशमुख, रंगमण्डल भारत भवन में उनके शिष्य थे जो आखिरी समय तक उनसे जुड़े रहे। जयन्त का कहना था, कि दादा असाधारण को अपने अनुशासन के दायरे में लाकर चैन लेते थे, यह उनका एक महत्वपूर्ण गुण था। उन्होंने उत्कृष्ट रंगकर्म और उसकी सार्थकता को प्रतिष्ठापित किया। अलखनन्दन ने अपने जीते-जी नट बुन्देले नाम की संस्था खड़ी की थी। उनके सारे के सारे रंग-उपक्रम उसकी ही देन हैं। नट बुन्देले की सम्हाल और उसकी निरन्तर सक्रियता एक बड़ी चुनौती है, पर फिलहाल अलखनन्दन की अनुपस्थिति के सच से ऊबरना कठिन लगता है।
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