मुद्दे पर आने से पहले भूमिका बांधना हमारे यहाँ का स्थायी मानवीय रिवाज है। सीधी बात कोई कहना नहीं चाहता। घूम-फिर कर विषय पर आते हैं। अचानक आपके पास किसी का फोन आता है, पहले शुरूआत यहीं से होती है, और क्या हाल-चाल है, एक अक्सर जुमला होता है, क्या चल रहा है, एक और है, और क्या खबर। आप अपने हाल-चाल बताइये, जो कुछ चल रहा है, नहीं चल रहा है, वो बताइये, कोई खबर हो तो बताइये। फिर सामने वाला कहता है, फोन दरअसल इसलिए किया था.. .. ..फिर वो बात पूरी बताता है, किसलिए किया था, कोई जानकारी, कोई सूचना, कोई मदद या कोई काम।
आपने सब-कुछ साध दिया तो बात करने वाला खुश, फोन बन्द करते-करते यह भी कहेगा, बहुत दिनों से मिले नहीं यार, व्यस्त रहते हो, हाँ तुम्हारा काम ही ऐसा है, अपने को भी कहाँ वक्त है, लेकिन ऐसा नहीं है, मिला-विला करो, मिलते हैं, कभी। फोन कट जाता है। आप सोचते रह गये। मुद्दे से पहले भूमिका इसी को कहा जाता है। एक प्रसिद्ध चैनल के प्रसिद्ध इन्टरव्यू कार्यक्रम की तरह सीधी बात कोई नहीं करता। हैलो करते ही बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जो सीधी बात करते हैं। आज के समय में जिस क्षण कोई आदमी किसी के लिए महत्व का हो जाता है, उसी क्षण वो उसके सम्पर्क में आता है, वह भी ऐसे तमाम उलाहने, लानते-मलामतें करते हुए।
क्या चल रहा है, यह वास्तव में बड़ा विकट सा प्रश्र है। जितनी भी चलायमान स्थितियाँ हैं या चीजें हैं वे सब की सब चल ही रही होती हैं। अपन खुद भी चल रहे होते हैं, सिक्के की तरह, जब तक चल सकते हैं। घिस-घिसा गये सो बात अलग है, तब चलने की स्थितियाँ नहीं रह जायेंगी लेकिन तब तब चलते ही रहेंगे, जब तक चलने लायक हालात हैं। सिनेमाघरों में फिल्में आजकल जरूर ज्यादा नहीं चलतीं, जल्दी उतर जाती हैं। बनाने वाला फार्मूले के सच तक जा ही नहीं पाता, कि क्यों नहीं चल पा रहीं, बस बनाने में लगा रहता है। क्या चल रहा है, यह ऐसा सवाल हुआ जैसे पूछने वाले का मतलब अधिक से अधिक चलने वाली चीजों और वस्तुओं के बारे में जान लेना हो।
ऐसा शायद अब कोई नहीं करता कि मात्र हालचाल, कुशलक्षेम, माता-पिता, भाभी-बच्चों के बारे में जानने के लिए ही फोन करे, उतनी ही बात करे और फोन बन्द करे। फिल्म से पहले न्यूजरील और ट्रेलर का महत्व ज्यादा हो गया है। छोटी उम्र की याद है, पास के रंगमहल सिनेमाघर में फिल्म देखने जाते थे। हॉल में बैठने के बाद का पूरा माहौल जैसे याद हो गया था। पहले दो गाने बजते थे, फिर तीसरा गाना आधे से ज्यादा होने पर हॉल की एक-एक करके लाइट बन्द हो जाया करती थी। खुशी के मारे सब सीटी बजाने लगते थे। गाना पूरा होते-होते अंधेरा और फिर मुहासों, दाँत की बीमारियों और तंदुरुस्ती की रक्षा करने वाले साबुन के विज्ञापन की फिल्में। उसके बाद समाचार दर्शन और फिर फिल्म।
अब हमारा जीवन-व्यवहार भी इसी तरह हो गया है। समय, जद्दोजहद, आत्मलिप्तता और जमाने की दौड़ में पसीना बहाते हुए मेल-मिलाप अपना अस्तित्व खो रहा है। अब हम जरूरत पर ही अपनों-परायों को याद करते हैं। क्या चल रहा है, यह सवाल एक तरह का स्टार्टर जैसा है, भोजन में सूप या वेलकम जूस की तरह।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें