रविवार, 6 सितंबर 2015

करोड़ों की कमायी में दर्शकों का हासिल

इस समय प्रचार-प्रसार और तमाम तकनीकी माध्यमों में दो तरह के उदाहरण देखने को खूब मिल रहे हैं। एक तो कौन सी फिल्म कितने जल्दी करोड़ों के अर्जन से शुरूआत करती नजर आ रही है यह फिर किस तरह वह सौ करोड़ के नजदीक पहुँच रही है यह और सौ करोड़ के पार हो गयी तो फिर किस पिछली सौ-दो सौ-तीन सौ करोड़ी फिल्म के आगे-पीछे है, आसपास है या उसे कूद-फांदकर आगे जाये बगैर रुक ही नहीं रही है यह। पहली बात यह हुई। इसी के समानान्तर मसान फिल्म को देखने किस तरह तमाम बड़े सितारे गये और तारीफों के पुल बांधकर आये, यह दूसरी बात। पिछले लम्बे समय से अभिनेत्री रिचा चड्ढा ने अपनी इस नयी फिल्म के प्रति लोगों को आकृष्ट करने का काम बड़े सलीके और तरीके से किया। यह फिल्म कुछ समय पहले सिनेमाघरों में आकर गयी है। यह बात और कि इसको उतने अधिक सिनेमाघरों में नहीं लगाया गया जिस तरह दूसरी बड़ी फिल्मों को लगाया जाता है। मेरे ही शहर में एक किसी बड़े व्यावसायिक केन्द्र में प्रतिदिन अधिकतम दो या तीन प्रदर्शन इस फिल्म के शुरू हुए लेकिन देखते ही देखते इसकी दर्शक संख्या में इजाफा हुआ। सारे बड़े सितारों को मसान देखने के लिए फिल्म के निर्माता अनुराग कश्यप, निर्देशक नीरज घैवान और अभिनेत्री रिचा चड्ढा ने आमंत्रित किया। बड़े ही तरीके से उनका स्वागत किया और फिल्म प्रदर्शन के अवसरों के छायाचित्र विभिन्न प्रचार माध्यमों, समाचार पत्रों को प्रकाशन हेतु जारी किए। सबके विचारों को भी उप शीर्षक की तरह प्रस्तुत किया गया। इस तरह वास्तव में एक अच्छी फिल्म, समझदार और ऊर्जावान रिचा चड्ढा जैसे सितारों के माध्यम से जाया होने से बच गयी। समीक्षकों ने इस फिल्म को अच्छा समर्थन दिया। 

सार्थक परिश्रम निरर्थक न हो, इसके लिए रिचा चड्ढा जैसे कितने सितारे होंगे जो इस बात का ख्याल रखते होंगे कि अपनी फिल्म को दर्शकों तक कैसे ले जाना है!! मैं प्रतिदिन रिचा चड्ढा के कम से कम बीस-पच्चीस ट्वीट तो पढ़ता ही रहा हूँ और मसान पर उनका निरन्तर संवाद मुझे उनकी सूझ का कायल बनाता रहा है। वास्तव में अच्छे सिनेमा को दर्शकों तक पहुँचाना जितना कठिन है, उतना ही आसान भी और उतना ही सूझ भरा भी। प्रख्यात पटकथा लेखक एवं गीतकार जावेद अख्तर ने मसान की बहुत तारीफ की और कहा है कि यह हिन्दी की अब तक की सबसे उम्दा फिल्मों में से एक है। शाबाना आजमी का भी कहना मायने रखता था कि मसान हिन्दी सिनेमा में आने वाले युग की फिल्म है। उन्होंने यह भी कहा कि मुझे गर्व है कि मैं ऐसे वक्त में जी रही हूँ जब हमारे यहाँ मसान जैसी फिल्में बनायी जा रही हैं। 

यह तो खैर एक उद्देश्यपूर्ण और सार्थक फिल्म का पक्ष हुआ। इसके कुछ समय पहले दक्षिण से एक फिल्म आयी बाहुबली। एक साथ कई भाषाओं में तैयार की गयी यह फिल्म हिन्दी में भी प्रदर्शित हुई। हिन्दी में इसके वितरक करण जौहर थे जिन्हें बाहुबली की सफलता के प्रति अगाध विश्वास था इसीलिए वे भी प्रदर्शन के पहले सामाजिक सक्रियता के माध्यमों के जरिए फिल्म का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। बाहुबली फिल्म की सफलता पिछले कुछ समय की दूसरी बाजार की फिल्मों की सफलता से बड़ा कीर्तिमान है, यह बात अलग है कि हिन्दीभाषी क्षेत्रों में उस फिल्म को उतने बड़े स्तर और कामना अनुसार दर्शक नहीं मिले जैसा सोचा गया था लेकिन इतना जरूर हुआ कि बाहुबली की कमायी ने मुम्बइया सिनेमा में करोड़ों की स्पर्धा लेकर चलने वाले सितारों, निर्माताओं और निर्देशकों में हड़कम्प जरूर  मचा दिया। यह कम दिलचस्प नहीं है कि पिछले कुछ वर्षों से तेलुगु की सुपरहिट फिल्मों को हिन्दी में बनाकर मुम्बइया निर्माता और सितारों ने अपनी जगह बहुत मजबूत कर ली है फिर चाहे वो आमिर खान हों, सलमान खान हों, अक्षय कुमार हों या अजय देवगन हों। इतना ही नहीं ये सितारे और इनके निर्देशक लगातार दक्षिण से ऐसी ही सफल फिल्मों पर निगाह लगाये रहते हैं और हिन्दी में इन्हें बनाने के अधिकार हासिल करते हैं। ऐसी फिल्मों में बहुत सारा मूलभूत बिना किसी परिश्रम के दोहराया जाता है, हाँ मुम्बइया सिनेमा के दर्शकों के मिजाज के अनुरूप उतने परिवर्तन या नवाचार किए जाते हैं जितने जरूरी होते हैं। बाहुबली ने लेकिन दक्षिण से अनेक भाषाओं में ऐसा हस्तक्षेप किया कि मुम्बई फिल्म जगत को सोचने पर जरूर मजबूर किया।

कुछ समय पहले ही लोकप्रिय सिनेमा के एक बड़े सितारे सलमान खान की फिल्म बजरंगी भाईजान का प्रदर्शन हुआ। इसका रूपक ही अलग था। प्रत्येक शहर में पहले से ही इसके स्वागत की तैयारियाँ कर ली गयी थीं। वास्तव में निर्माता से लेकर वितरक तक सभी ने समय से पहले सिनेमाघर, प्रदर्शन आदि की दैनन्दिन सुनिश्चित कर ली थी। सभी का मानना था कि फिल्म सफल है ही, वह कहीं नहीं जाने वाली। इतना बुलन्द सितारा है जिसका परदे पर पहले दृश्य में आना ही सिनेमाघर में बैठे दर्शक का धीरज छुड़ा देता है। दर्शक खुशी के मारे किलकारी भरने लगता है, सीटी, ताली बजाने लगता है। फिल्म के आने के पूर्व समर्थन में लेख भी उस तरह के प्रचारात्मक ढंग से खूब छपे। सभी का मानना था कि सिनेमा व्यावसाय में एक अन्तराल के बाद फिर आंधी आने वाली है, पैसा बरसने वाला है। हुआ भी ऐसा ही। फिल्म लगी और दो-तीन दिनों में ही करोड़ों के आँकड़े उछलने लगे। जोड़-बाकी में माहिर बाजार पर नजर रखने वालों ने उसकी वृद्धि की रफ्तार का भी उसी तरह का आकलन किया और करोड़ के ऊपर करोड़ रखते हुए सैकड़ों करोड़ का महायोग प्रस्तुत कर वंचित दर्शकों को जैसे इस तरह प्रेरित किया कि घर बैठे क्या कर रहे हो, उठो और जाओ जाकर फिल्म देखो। यह प्रयोग भी सफल हुआ और दर्शकों ने बाजार के लारी-लप्पा खेल का सफल सम्मोहन प्राप्त किया। यह फिल्म भी हिट। कमायी बढ़ती ही चली गयी। जब तक फिल्म लगी रहेगी बढ़ती रहेगी। थमेगी तभी जब कोई दूसरी फिल्म आकर उसका स्थान लेगी। हालाँकि इस बात से इन्कार फिर भी नहीं किया जा सकता कि यह फिल्म बाहुबली के बाजार के आँकड़ों से प्रभावित हुए बगैर न रह सकेगी फिर भी सफलता को बाजार से तौलने वाले व्यावसायी यह खबर उड़ाकर भी खुश है कि इस फिल्म ने आमिर खान की धूम-3 से भी ज्यादा धन कमा लिया है। 

बाहुबली, मसान और बजरंगी भाई जान हमारे सामने अलग-अलग किस्म के तीन उदाहरण हैं। इनमें से दो फिल्में बड़े सपाट ढंग से बाजार की चिन्ता करती हैं, बाजार का गणित लगाती हैं, बाजार की भाषा में ही गुणा-भाग करती हैं। ये दोनों फिल्में अपनी खूबियों पर शायद खुद ही नहीं जातीं। कहीं भी तरीके से हमें किसी भी अखबार में यह पढ़ने को नहीं मिलता कि इन फिल्मों की अपनी सार्थकता क्या है? ये फिल्में बेशक करोड़ों कमाये तो ले रही हैं लेकिन कितने हजार या लाख दर्शकों तक वास्तव में इनकी पहुँच हुई है इस पर वे भी बात नहीं कर पाते जो इन फिल्मों के समर्थन में व्यावसायिक आँकड़े पेश करते हैं। करोड़ों की कमायी की आँकड़ेबाजी में कहीं न कहीं दर्शक, उसका मानस या मंशा और उसकी चाहत नगण्य या गौण होकर रह गये हैं। यह अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता। सिनेमा का वजूद दर्शकों से ही है। मनोरंजन का माध्यम वह बाजार नहीं हो सकता जिसमें एक को माल बेचने के बाद तुरन्त दूसरे ग्राहक की तरफ मुँह कर के आवाज लगायी जाने लगती है। आपका दर्शक वही है और उसे आपको हर बार बुलाना है इसलिए जरूरी है कि दर्शकों के दिलों को भी छुआ जाये केवल जेब में हाथ डालने से काम नहीं चलेगा। करोड़ों कमाते, करोड़ों छुड़ाते एक समय के बाद ऐसा न हो कि इस तरह का सन्तृप्तीकरण आ जाये कि सिनेमा दर्शकों को भी कुछ ज्यादा ही विश्वसनीय ढंग से पैसे बहाने भर का माध्यम लगने लगे, इसके आगे दर्शक फिर कुछ सोचना ही बन्द कर दे। 

जरूरी होगा कि मर्यादित सफलता से आगे चलकर करोड़ों अर्जन के इस वासनापूर्ण फितूर को अपने दिमाग से धीरे-धीरे दूर कर लिया जाये और जनमानस में सिनेमा के प्रति सार्थक दृष्टिकोण और विश्वास को फिर से जगाया जाये। आखिर सिनेमा का सम्बन्ध सपनों से यूँ ही नहीं जोड़ा गया। हमारे देश में जब सिनेमा का आविष्कार हुआ था और पहली बार दर्शक इकट्ठा करके अंधेरे में अचम्भा प्रकट करने वाला चलता-फिरता संसार उसके सामने प्रकट किया गया था तब हैरान आदमी की आँखें आश्चर्य से खुली की खुली रह गयी थीं। वह परदे पर आती हुई ट्रेन को देखकर डरकर जान बचाकर भागने को हुआ था। अब दर्शक सिनेमा को बखूबी समझ चुका है। क्या हमारे निर्माता, निर्देशक और सितारे भी दर्शक को उतना समझ पाये हैं?

गुरुवार, 6 अगस्त 2015

॥ बिना पैराग्राफ ॥

पता नहीं होता, कई बार दिखायी पड़ता है कि रास्ता खुद अपनी चाल चल रहा है। हम यह सोचते लिया करते हैं कि हम ही रास्ते पर चल रहे हैं। एक जगह खड़े रहकर यह भरम मिटने लगता है जब हम से आगे रास्ता बहुत दूर तक जाता हुआ दिखायी देता है, उस समय हमारी आँखें हम से आगे पैदल, लगभग दौड़ती हुई रास्ते को उस पूरे दूर में देख आना चाहती हैं। होता अक्सर यही है कि दूर तक दिखायी देता रास्ता कहीं आगे जा कर हम से ओझल हो जाता है। 

न जाने क्यों कभी लगता है कि हमारी पैदल चलती, दौड़ती, भागती आँखें भी उस अछोर के साथ चली गयी हैं। ऐसे रास्तों को देखता हुआ मैं अक्सर कामना किया करता हूँ,‍ विफल सी कामना कि मुझसे आगे, मेरे लिए ही पैदल भागती चली गयी दृष्टि शायद लौटकर आये और उस अछोर का सच्चा ‍ठिया बतलाये। बहुत देर तक बाट जोहते हुए मैं अपने आप से थकने लगता हूँ। मैं बीच रास्ते पर बैठ जाना चाहता हूँ। न जाने कैसे इसी क्षण घोर व्यग्रता में मुझे कोई पीछे लौटाना चाहता है। किसी का हाथ पीछे से मेरी आँखें मूँद लेना चाहता है। मैं तत्क्षण अनेक असहजताओं के बीच उसे हथेलियों और उनकी महक से भी नहीं पहचान पाता। मैं कुछ बोल भी नहीं पाता। परायी या अपनी, कई बार हथेलियों से मुँदी आँखें कुछ भी पहचान नहीं पातीं। 

मैं एक बड़े खाली से, एक बड़े दूर से आगे चलकर न जाने कहाँ मुड़ गये रास्ते के छोर को देखने गयी आँखों के लौटने की प्रतीक्षा करता हूँ, देह में गड़ी आँखें दूसरी हैं, वे अभी भी हथेलियों से मुँदी हैं और मैं पहचान नहीं पा रहा हूँ...........................

रविवार, 26 जुलाई 2015

एक महीने बाद........

एक महीना हो गया है आज। आज ही के दिन माँ नहीं रहीं थी। यकीन लेकिन एक पल भी नहीं होता। हम अपने जीवन में हर नींद न जाने कितनी बार अच्छे-बुरे सपने देखते हैं। अच्छा सपना देखने के बाद जागने पर कामना करते हैं कि यह जरूर पूरा हो। बुरा सपना देखकर अधरात ही घबराकर जाग जाते हैं और कामना करते हैं कि यह कभी सच न हो। यथार्थ में स्थितियाँ अलग हैं। अच्छा सच, सच ही रहे सपना न हो, इसकी कामना होती है और बुरा सच, सच न हो, सपना हो, यह विफल सी कामना हम करने लगते हैं। 

चेतन-अवचेतन के इसी फर्क को तौलते हुए माँ स्मृतियों में अनेक छबियों, प्रसंगों, संवादों और अपने अनेक रंगों का पुनर्स्मरण करा रही हैं। कई बार आभास होता है कि आवेग थमेंगे नहीं, फूट चलेंगे, बहने लगेंगे। बमुश्किल रोके से रुकते हैं पर जो बहकर प्रकट हो गये होते हैं वो देर तक नहीं सूखते। बिछोह में रोने की स्थितियाँ भी कम कठिन नहीं होतीं। हम रोना तो चाहते हैं पर अपनों के बीच रोते हुए पकड़ाना नहीं चाहते। आखिर आँसुओं का अथाह भी सब बच्चों में माँ की तरह ही बराबर बँटा होता है। सच है, माँ अपने बच्चों में बराबर बँटी होती है, न किसी में कम और न ही किसी में ज्यादा। माँ में सब बच्चे जीते हैं और सब बच्चों में माँ। 

स्मृतियों का लेखा हमारे पास बन्द किताबों सा हुआ करता है जिसके पन्ने एक के ऊपर एक तहे रखे होते हैं। ऐसा लगता है कि उन पन्नों में हमारा एक-एक पल अपनी बेसुधी में सोया हुआ है। हम जीवन के प्रत्येक दिन को व्यतीत करने के साथ ही उन पन्नों की संख्या में इजाफा किए जाते हैं। हमारे पास शायद कभी उन पन्नों को छूने तक का समय नहीं होता, देखने या पढ़ने की बात और भी अलग है। हमारी उपेक्षा कह लीजिए या रंग-रोगन में रचे-बसे संसार का मोह कि वे बन्द किताबें हमारी ओर से भी मुँह मोड़ लिया करती हैं। घटनाएँ, संत्रास, ठोकरें और बिछोह हमें जब अस्थिर कर दिया करते हैं तब हम देह के सन्दूक में उन किताबों को टटोलने चले जाते हैं, गिरते-पड़ते। फिर उन किताबों से पन्नों को ढूँढ-ढूँढकर हमारा पढ़ना पछतावे के सिवा शायद और कुछ नहीं होता। बहरहाल...........

जीवन का अर्थ अपने कड़वे सच के साथ हर इन्सान की जिन्दगी में कभी न कभी प्रगटता है। यही सच जीवन या देह में फिर साथ-साथ चलता है। याद आता है, माँ शायद 47-48 की होंगी जब नानी नहीं रही थीं। उनको याद करते हुए वे तब ही नहीं बाद में भी और अब तक भी रोया करती थीं। 

हम लोग भी ऐसे ही................................................

शनिवार, 20 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : सांझ और सवेरा (1964)

जीवन में हर सांझ के बाद सवेरा होता है



हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा देखते हुए यह बात गौर करने की होती है कि उनके साथ अपने समय के लगभग सभी बड़े नायकों ने काम किया था। नायिकाएँ भी प्रायः सभी उनकी फिल्मों में नजर आती हैं। सांझ और सवेरा में गुरुदत्त और मीना कुमारी ने प्रमुख भूमिकाएँ निभायी हैं। मेहमूद, हृषिकेश मुखर्जी के मित्र रहे हैं, वे बीवी और मकान में भी आगे चलकर नजर आये और इस फिल्म में भी उनको अच्छी सकारात्मक भूमिका देते हुए निर्देशक ने उत्तरार्ध की फिल्म का उनको एक तरह से केन्द्र बिन्दु ही बना दिया है। 

यह फिल्म एक सहृदय वकील मधुसूदन, मनमोहन कृष्ण की उदारता से शुरू होती है जो अपने दिवंगत मित्र की अकेली बेटी गौरी मीना कुमारी को अपने साथ शहर ले आता है और अपनी बेटी की तरह ही उसे घर में जगह देता है। उनके साथ उनका भांजा प्रकाश मेहमूद उनके साथ ही रहता है जिसे संगीत का बेहद शौक है और हर समय वह गाने-बजाने का रियाज किया करता है। उसकी अपनी एक बेटी माया, जेब रहमान है जो दिल्ली में पढ़ रही है लेकिन उसका मन पढ़ने में न होकर अपने प्रेमी रमेश के साथ सपने बुनने में है। पे्रमी के मन में खोट है यह उसे नहीं पता। उसके पिता वकील उसकी शादी एक डाॅ. शंकर से तय कर देते हैं। जब माया अपने पिता के घर आती है और यह जानती है कि उसकी शादी की तैयारी है तो वह अपने प्रेमी को खत लिखकर उसके साथ चले जाने और शादी की योजना बनाती है। शादी को लेकर ही पिता-बेटी में विवाद होता है। पिता नहीं मानते और शादी का दिन नजदीक आ जाता है। इधर गौरी ने मधुसूदन के घर में अपने व्यवहार से सबका दिल जीत लिया है। वह उनसे उपकृत भी महसूस करती है। 

जिस रात शादी होने को होती है, फेरे लेते वक्त माया चक्कर आने का बहाना करके गिर जाती है और रात को सभी को बताये बिना अपने प्रेमी के साथ भाग जाती है। हालाँकि रास्ते में उसे अपने प्रेमी की नीयत का पता चलता है लेकिन तभी उनकी गाड़ी दुर्घटनाग्रस्त हो जाती है जिसमें प्रेमी की मौत हो जाती है और वह गम्भीर घायल होकर अपनी याददाश्त खो बैठती है। उसका इलाज उसी अस्पताल में चल रहा है जहाँ शंकर डाॅक्टर है। इधर अपनी बेटी के भाग जाने से व्यथित वकील मधुसूदन बेहोश हो जाते हैं और उनकी तबियत ज्यादा खराब हो जाती है। प्रकाश स्थिति सम्हालने के लिए गौरी से माया की जगह डाॅ. शंकर की दुल्हन बनकर चले जाने को कहता है। वह मना करती है लेकिन वकील के उपकार में दबी गौरी अन्त में यह बात स्वीकार कर लेती है।

गौरी, शादी की पहली रात ही डाॅ. शंकर चैधरी को अपने व्रत की बात कहकर कुछ दिन अपने से दूर रहने की प्रार्थना करती है। इधर वकील बनारस जाकर रहने लगते हैं। डाॅ. शंकर और गौरी, वकील से मिलने बनारस जाते हैं वहीं वकील के कहने पर मन्दिर में उनका विवाह फिर होता है। अब गौरी, शंकर को अपना पति मानती है। उनके दिन अच्छे व्यतीत हो रहे होते हैं लेकिन एक दिन सारे रहस्यों का एक-एक करके खुलासा होने लगता है, शंकर को पता चल जाता है कि जिसे वो माया समझ रहा था वह गौरी है। वह मानता है कि उसके साथ धोखा हुआ है। प्रकाश, गौरी को बहन की तरह मानता है, वह गर्भवती गौरी को लेकर परेशानियाँ दूर होने तक अलग ले जाकर रहने लगता है जिस पर उसे भी लांछित किया जाता है। अन्त में वकील डाॅ. शंकर को पूरी बात बताते हैं और सच सामने आता है। शंकर, गौरी से अपने किए की माफी मांगता है और अपने साथ ले आता है। प्रकाश, राधा से प्रेम करता है, उसके जीवन में वह आ जाती है। फिल्म पूरी होती है।

इस फिल्म की कहानी जगदीश कँवल की लिखी हुई है। उन्होंने ही संवाद भी लिखे हैं। पटकथा पर तीन लेखकों ध्रुव चटर्जी, डी. एन. मुखर्जी और अनिल घोष ने काम किया है। सांझ और सवेरा फिल्म की कहानी को नाम से इस कामना के साथ जोड़ा गया है कि जीवन में हर सांझ के बाद सवेरा होता है। एक तरफ एक सहृदय वकील मित्र है जो मित्र की अकेली हुई बेटी को अपने घर ले आता है और बड़े दिल के साथ कहता है, बेटी ये सारा घर तुम्हारा है दूसरी तरह गौरी है जो इस उदारता से उपकृत है और अपनी जिन्दगी के साथ एक बड़ा समझौता करती है। मनमोहन कृष्ण अपनी इस भूमिका को मन को छू जाने वाली क्षमताओं के साथ निबाहते हैं। एक डाॅक्टर है जो भावुक है और थोड़ी-बहुत नैतिकताएँ भी साथ लेकर चलता है, जैसे एक फीस देने वाले से कहता है कि वो विधवा से पैसे नहीं लेता। जिद करने पर वह पैसा ट्रस्ट में जमा कर देने की सलाह देता है। एक मुँहबोला भाई है, मामा के यहाँ रहता है, संगीत की धुन है, स्वभाव से फक्कड़ है मगर संवेदनाओं से भरा हुआ। मेहमूद अपनी इस भूमिका में कमाल करते हैं। वह दृश्य बहुत भावनात्मक है जब खाने के लिए कुछ न होने पर गौरी के हार बेच देने पर वह शहर में गाना गाता निकल जाता है और सब उसे मांगने वाला समझकर पैसे देते हैं। मेहमूद पर अजहुँ न आये बालमा, सावन बीता जाये गाना, शुभा खोटे के साथ फिल्माया गया है, फिल्म का कर्णप्रिय गीत है जो मोहम्मद रफी और सुमन कल्याणपुर के स्वर में है। वहीं गुरुदत्त और मीना कुमारी पर फिल्माया यही है वो सांझ और सवेरा भी बहुत प्रभावित करता है। इसमें रफी के साथ आशा भोसले का स्वर भी शामिल है। लता मंगेशकर के स्वर में मनमोहन कृष्ण मुरारी भी बहुत खूबसूरत गाना है। शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी ने गाने लिखे हैं और शंकर-जयकिशन ने फिल्म का संगीत दिया है। जयवन्त पाठारे ने सिने-छायांकन किया है। 

यह फिल्म प्रमुख रूप से मूल्याें, उपकार, नैतिकता और सहनशीलता की बात एक मर्मस्पर्शी कहानी के माध्यम से कहती है। इसमें अनावश्यक दृष्टान्त नहीं है और न ही किसी तरह का घुमाव-फिराव। हृषिकेश मुखर्जी वैसे भी कहानी को अगले प्रसंगों और दृश्यों की रोचकता से बखूबी जोड़ते रहे हैं, सांझ और सवेरा में भी वही शैली का प्रयोग उन्होंने किया है। फिल्म में गुरुदत्त की भूमिका अपनी जगह सीमित है। उनके चरित्र में उस तरह की विशेषता नहीं दिखायी गयी जो परिस्थितियों के अनुरूप उनको उनकी दक्षता के साथ निखार सके। इसमें मीना कुमारी ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। वे त्रासदी को जीते हुए गहरी व्यथा और परेशानी के भाव बहुत गहराई के साथ व्यक्त करती हैं वहीं विवाह के बाद के एक प्रसंग में जब वे अपने पति को अपनी बीमारी के बहाने से घर बुला लेती हैं, उस वक्त उन पर फिल्माया गाना उनके रूमानी मनोभावों को सुन्दरता के साथ व्यक्त करता है। मेहमूद के साथ शुभा खोटे की जोड़ी है। राधा शुभा खोटे के मामा के रूप में हरेन्द्रनाथ चटोपाध्याय छोटी मगर दिलचस्प भूमिका में हैं। फिल्म का सम्पादन दास धैमादे ने किया है। अपनी जगह फिल्म सधी हुई है, स्वाभाविक है, हृषिकेश मुखर्जी ने भी एक सम्पादक की तरह भी फिल्म पर ध्यान रखा है। मध्यान्तर के बाद यह फिल्म मेहमूद के अच्छे और मन को छू जाने वाले अभिनय के कारण भी जोड़े रखती है, उन्होंने यह चरित्र अपने विलक्षण हास्य-हुनर के साथ निभाया है। 

गुरुवार, 18 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : बीवी और मकान (1966)

और दोस्तों में कोई एहसान नहीं होता.... 



बीवी और मकान एक सरल सी हास्य फिल्म है और इसे बनाया भी बेहद सहजता के साथ गया है। महानगरीय जीवन में रोजी-रोटी की आपाधापी, घर का सपना और घर बसाने का ख्याल तथा इन सबके बीच आने वाली मुश्किलों को दिलचस्प ढंग से प्रस्तुत करने का काम हृषिकेश मुखर्जी ने बतौर निर्देशक किया है। उन्होंने शैलेष डे की कहानी को फिल्म का आधार बनाया और हास्य कलाकारों के साथ इस फिल्म को रचा जिनमें मेहमूद, केश्टो मुखर्जी, विश्वजीत, आशीष कुमार आदि शामिल हैं। बीवी और मकान सितारा सजी फिल्म न होने के बावजूद अपनी सुरुचि को नहीं खोती और आकर्षण बना रहता है। गायक, संगीतकार हेमन्त कुमार ने अपने दायित्वों को निबाहते हुए इस फिल्म के निर्माण का बीड़ा भी उठाया था।

बीवी और मकान पाँच दोस्तों की कहानी है जो विभिन्न जगहों से मुम्बई आकर एक साथ रह रहे हैं। इनमें एक गाँव-देहात में अपनी ब्याहता को माता-पिता की सेवा में छोड़ शहर में नौकरी कर रहा है। दूसरा चित्रकार है। तीसरा एक अच्छा गायक है। चैथा नौकरी की तलाश कर रहा है और पाँचवा अपनी सेहत बनाया करता है। सबमें आपस में खूब प्रेम है और वे हमेशा साथ रहना चाहते हैं। अब तक वे जिस छोटे से लाज में रह रहे थे, उसका मालिक एक दिन उन सबको भगाने में सफल हो जाता है। वे एक दूसरा घर किराये पर लेते हैं मगर बुजुर्ग बीमार मकान मालिक की एक अजीब सी शर्त में फँस जाते हैं जिसमें उसका आग्रह यह होता है कि वह विवाहितों को ही घर किरायेपर देना चाहेगा। मित्रों का नेतृत्व करने वाला पाण्डे मेहमूद एक युक्ति निकालता है, अपने दो मित्रों अरुण विश्वजीत और किशन केश्टो मुखर्जी को औरत बनने के लिए प्रेरित करता है। इसके बाद औरत बने केश्टो को अपनी तथा विश्वजीत को चित्रकार शेखर आशीष कुमार की पत्नी बताकर मकान मालिक के सामने प्रस्तुत होता है। उनको रहने के लिए घर मिल जाता है लेकिन कुछ समय बाद उनके लिए इस झूठ का निर्वाह कर पाना मुश्किल हो जाता है। 

दोनों औरत बने उनके साथी तंग हो जाते हैं। इधर मकान मालिक की बेटी गीता कल्पना और भांजी लीला शबनम आ जाती हैं। वे औरत बने दोनों से मेलजोल बढ़ाती हैं लेकिन औरत बना अरुण गीता को चाहने लगता है और शेखर लीला से प्रेम करता है लेकिन परिस्थितियों के चलते वे जाहिर नहीं कर पाते। वे कुछ युक्ति करते हैं। पहले पाण्डे, औरत बने केश्टो और अरुण को मायके भेज देने का चक्कर चलाता है फिर औरत बने अरुण की मायके में मौत की खबर फैलाता है। इसी बीच गाँव से पाण्डे के पिता का नौकर उसको मिलने आता है तो उसकी पत्नी बने केश्टो को देखकर चकरा जाता है, लौटकर उसके पिता को बताता है। इस पर पिता अपने विवाहित बेटे के शहर में फिर ब्याह कर लेने की बात पर आगबबूला होकर उसकी पिटायी करने शहर पहुँचता है। जब पाँचों दोस्त बुरी तरह से उलझ जाते हैं तो फिर पाण्डे सब सच्चाई बतला देता है। फिल्म पूरी होती है। 

बीवी और मकान फिल्म का प्रस्तुतिकरण बिना किसी अतिरेक के जिन्दगी की बहुत सी बातों को सादगीपूर्वक स्थापित करता है। मसलन ऐसे समय और समाज में जब दोस्ती में संवेदना और अपनत्व का संकट खड़ा रहता हो, पाँच दोस्त एक कमरे में भी रहने को तैयार हैं मगर एक-दूसरे का साथ नहीं छोड़ना चाहते। इसी तरह बेरोजगार दोस्तों के गिरते मनोबल और निराशा को सम्हालने के लिए सब मिलकर तैयार हो जाते हैं। संगत में कोई उदास नहीं रह सकता। आपस में सबके स्वभाव अलग-अलग हैं पर कोई विरोधाभास नहीं है। एक-दूसरे की ताकत और कमजोरी दोनों को सब मिलकर समझते हैं और जिन्दगी में हार नहीं मानना चाहते। फिल्म में घूम-घूमकर किराये के मकान की तलाश करने, होटल मालिक के क्षुद्र से षडयंत्र और उसको सबक सिखाने का तरीका, दो मित्रों को औरत बनने के लिए राजी करना और आखिरी में व्यर्थ के तमाम सन्देहों से घिर जाने वाले प्रसंग दिलचस्प हैं। 

यों तो यह फिल्म पूरी तरह मेहमूद के हाथ में रहती है लेकिन बड़ी के रूप में औरत बने केश्टो मुखर्जी और छोटी के रूप में औरत बने विश्वजीत ने खूब अच्छे से फिल्म को रोचक बनाया है। विश्वजीत का औरत के वेश में लोच-लचक के साथ चलना, स्त्री आवाज में बात करना और खास बात सुन्दर दिखना बहुत असरदार है वहीं केश्टो औरत बनकर अजीब सी बदहवासी का परिचय देते हैं। दोनों का मित्रों के बीच उसी भेस में बैठकर सिगरेट पीना, सिर खुजाने के लिए नकली बाल सिर से हटा लेना खूब हँसाता है। किशन केश्टो मुखर्जी जो बड़ी अर्थात पाण्डे की पत्नी बना है, को मकान मालिक की पत्नी बच्चा न होने के कारण गण्डा आदि बांधती है, वह दृश्य भी हास्य पैदा करता है। इस फिल्म में कल्पना और शबनम दो नायिकाएँ हैं। दोनों ही अपने नायकों के बीच घालमेल का शिकार हैं मगर उनको सच की जानकारी नहीं है इसलिए उनका बेवकूफ बनना फिल्म के आनंद को बढ़ाता है। इसके अलावा पाण्डे मेहमूद की देहाती बीवी के रूप में गाँव में रहने वाली पद्मा खन्ना ने भी अच्छा काम किया है। 

मेहमूद के पिता की भूमिका निभाने वाले कलाकार का परिचय नहीं है, वह तो अपनी उपस्थिति के दृश्यों में सहज अदायगी के कारण आप दृश्य में बने रहते हैं। फिल्म में हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों के चिर-परिचित कलाकार ब्रम्ह भारद्वाज और बिपिन गुप्ता भी मकान मालिक मिश्रा और होटल मालिक की भूमिकाओं में नजर आते हैं। बीवी और मकान में खूब गाने हैं और खूब गायकों की भागीदारी है, मोहम्मद रफी, मुकेश, तलत मन्नाडे, हेमन्त कुमार, लता, आशा, ऊषा मंगेशकर आदि। सभी गानों में परिस्थितियाँ हैं, विडम्बनाएँ हैं, मुसीबतें हैं। इन गानों की रचना गुलजार ने की है। इस फिल्म के संवाद राजिन्दर सिंह बेदी ने लिखे हैं, पटकथा सचिन भौमिक की है। सिने-छायांकन टी. बी. सीताराम ने किया है। हृषिकेश मुखर्जी ने इस मनोरंजक फिल्म का निर्माण अनुपमा को बनाते हुए साथ-साथ किया था। फिल्म में वे एक दृश्य में पाण्डे मेहमूद से रूबरू भी होते हैं जब वो शहर में गाना गाते हुए मकान ढूँढ़ रहा होता है। बड़ी सफलता न मिलने के बावजूद दर्शकों में इस फिल्म को पसन्द किया गया था। 

बुधवार, 17 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : अनुराधा (1960)

पिया जाने न...........



अनुराधा, हृषिकेश मुखर्जी की एक संवेदनशील फिल्म है जिसकी आत्मा में संगीत बसा हुआ है। सिनेमा को पसन्द करने वाला ऐसा कोई भी दर्शक जो संगीत के प्रति जरा सा भी रुझान या आकर्षण रखता होगा उसे अनुराधा अपनी मर्मस्पर्शी संवेदना के साथ अलग ही प्रभावित करेगी। यह एक ऐसी स्त्री की कहानी है जिसके नजदीक एक डाॅक्टर को उसका संगीत ही लाता है। दोनों में प्रेम होता है, नायिका, पिता की मरजी के खिलाफ इस डाॅक्टर से शादी करती है। डाॅक्टर मूल्यों के साथ जीने वाला आदमी है, वह अच्छी खासी दक्षता के साथ गाँव और गरीबों की सेवा का लक्ष्य लेकर एक छोटी सी जगह आकर रहने लगता है और दिन-रात अपने दायित्वों का निर्वहन करता है। गाँव में उसका बड़ा आदर और सम्मान है। लोग उसे देवता की तरह मानते हैं क्योंकि सबकी मदद और सहायता के लिए वह हर वक्त तत्पर है। उसके छोटे से संसार में एक बेटी भी है जो बहुत बातूनी है। 

नायिका अनुराधा लीला नायडू ने पति डाॅ. निर्मल चैधरी के साथ गाँव की जिन्दगी और उसके जुनून के प्रति सकारात्मक बने रहने को ही अपनी खुशियों का पर्याय मान लिया है। ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब वह अपने पति से शाम को जल्दी लौट आने का आग्रह करती है। पति आश्वस्त करके जाता है लेकिन बहुत देर से आता है। एक बार शादी की सालगिरह के दिन भी जल्दी लौटने का वादा करता है मगर डाॅक्टर का फर्ज और आकस्मिक परिस्थितियों के चलते अगले दिन सुबह वापस आता है। ऐसे ही एक दिन शहर से गाँव की तरफ गुजर रही गाड़ी के दुर्घटनाग्रस्त हो जाने के बाद उसमें बैठी एक स्त्री और एक पुरुष दीपक अभि भट्टाचार्य घायल हो जाते हैं। डाॅ. निर्मल, दीपक को अपने घर ले आता है और उसकी होने वाली पत्नी को आॅपरेशन के लिए गाँव के जमींदार के घर भेज देता है। दीपक और कोई नहीं अनुराधा का पूर्व परिचित है जो उसके पिता ब्रजेश्वर प्रसाद राय के मित्र का बेटा होता है। अनुराधा के पिता उसकी शादी दीपक से करना चाहते थे जो अनुराधा और उसके संगीत को बहुत पसन्द करता था लेकिन अनुराधा उसे इस बात से अवगत कराती है कि उसे डाॅ. निर्मल से प्यार हो गया है और वह उसी से शादी करेगी। इस बात से दीपक का दिल टूट जाता है लेकिन उसके मन से अनुराधा नहीं जा पाती।

दीपक अनुराधा का एकाकी और उदास जीवन देखकर समझ जाता है कि वह डाॅ. निर्मल चैधरी के घर में घुट-घुटकर रह रही है। उसका काम केवल पति का बिस्तर बिछाना, खाना बनाना और घर की देखभाल करना रह गया है। निर्मल डाॅक्टरी के पेशे और मरीजों में इतना मसरूफ है कि घर आकर भी वह किताबों में मर्ज का इलाज और दवाएँ ही पढ़ता रहता है। अनुराधा के प्रति उसका आकर्षण न जाने कहाँ चला गया है। दीपक इन बातों को भाँप कर अनुराधा से निर्मल का घर छोड़कर शहर, पिता के वापस चलने और फिर से गीत-संगीत की दुनिया में लौट आने प्रेरित करता है। उसका लहजा बहुत ज्यादा विद्रोही होने के बावजूद अनुराधा उसकी बातों में आना नहीं चाहती बल्कि उससे ये बातें नहीं करने के लिए भी कहती है लेकिन उस दरम्यान निर्मल और बढ़ती उपेक्षा और दीपक का प्रलोभन उसे आखिर डिगा देता है।

इसी बीच दीपक के साथ आयी उसकी प्रेमिका के चेहरे का सफल आॅपरेशन करके निर्मल अपनी उपलब्धियों पर खुश हो रहा होता है। शहर से दीपक की प्रेमिका के पिता और उनके वरिष्ठ चिकित्सक दोस्त गाँव आकर उस आॅपरेशन की तारीफ करते हैं। वरिष्ठ चिकित्सक नजीर हुसैन, डाॅ. निर्मल को शाबाशी देते हैं और बड़े अपनत्व के साथ उसके घर अगले दिन खाना खाने आने की बात कहते हैं। इधर निर्मल घर लौटता है तो अनुराधा उससे कह देती है कि वो उसे छोड़कर हमेशा के लिए अपने पिता के पास जा रही है। निर्मल, अनुराधा की बात से टूट जाता है, हालाँकि वह यह भी समझ जाता है कि इसकी वजह वह खुद है और उसकी ओर से अनुराधा की लगातार हो रही उपेक्षा भी। वह अनुराधा से गुजारिश करता है कि वो सिर्फ एक दिन के लिए रुक जाये क्योंकि उसने खाने पर खास मेहमानों को निमंत्रित किया है। अनुराधा उसकी बात मान लेती है।

अगले दिन डाॅक्टर और उसके मित्र निर्मल के घर आते हैं। डाॅक्टर, निर्मल का पूरा घर देखते हैं, अनुराधा से मिलते हैं। वे अनुराधा की दीवार पर लगी तस्वीर देखकर जान जाते हैं कि यह और कोई नहीं मशहूर गायिका अनुराधा राय है। उनकी निगाह अनुराधा की धूल खाती वीणा पर पड़ती है, वे अनुराधा की नोटबुक पढ़ते हैं और सब समझ जाते हैं। अनुराधा जब उनसे पहली बार मिलती है तो वे उसे बेटी कहकर पुकारते हैं और करुणा से भर जाते हैं। वे उससे गाने की जिद करते हैं। अनुराधा मना करती है पर उसे गाना पड़ता है। वे अनुराधा के खाने की भी तारीफ करते हैं। वे सब समझ जाते हैं कि किन वजहों से अनुराधा का दिल टूटा हुआ है। वे डाॅ. निर्मल को नसीहत देते हैं और उसके द्वारा किए आॅपरेशन की एवज में बीस हजार रुपए का चेक अनुराधा के हाथ में यह कहकर दे जाते हैं कि डाॅ. निर्मल की जो सफलता, प्रशंसा और नाम है उसके पीछे तुम्हारा ही त्याग है। डाॅ. निर्मल अगले दिन सुबह सोकर उठता है तो इस आशंका से घबरा जाता है कि अनुराधा उसे छोड़कर चली जायेगी लेकिन अनुराधा तो उसके क्लीनिक की सफाई कर रही है। एक सुखद अन्त के साथ फिल्म पूरी होती है।

हृषिकेश मुखर्जी की इस फिल्म की खासियत इसकी खूबसूरत कहानी है जो सचिन भौमिक ने लिखी है। पटकथा में राजिन्दर सिंह बेदी, डी. एन. मुखर्जी और समीर चैधरी का सृजनात्मक श्रम है। फिल्म के संवाद राजिन्दर सिंह बेदी ने लिखे हैं। यह उस समय की फिल्म है जब हमारे सिनेमा में आदर्शवाद को लेकर एक भावनात्मक आग्रह प्रबल ढंग से फिल्मकारों के बीच बना रहता था। गाँवों से बीस कोस दूर तक अस्पताल न होना, गरीबों और ग्रामीणों के इलाज की समस्या, डाॅक्टर का भगवान होना और ऐसी अनेक बातें सिनेमा का विषय बना करती थीं। अनुराधा का नायक निष्ठुर नहीं है, उसके मन में सेवा का जुनून है, वह अपने जीवन और अपने मिशन में नैतिकता को जगह देता है लेकिन परिवार का वो अटूट हिस्सा उसकी पत्नी जिससे उसने कभी प्रेम करके सब रस्मों को तोड़कर विवाह किया था, वही इस जुनून में उपेक्षित होकर रह गयी है। निर्देशक ने इस बात को बड़ी गहरी संवेदना के साथ उठाया है। लीला नायडू ने नायिका की भूमिका को जिस गहराई से जिया है वह कमाल है। वे सामंजस्य और धीरज को हर पल अपनी खुशी और सपनों का विकल्प मानकर घुटती हुई मन को छू जाती हैं। डाॅक्टर के रूप में बलराज साहनी बीमारों और रोगियों के लिए देवता हैं मगर पत्नी के साथ निर्मम नहीं हैं। वे उस इन्सान को बखूबी जीते हैं जो जज्बे और संवेदना को बराबर की तवज्जो नहीं दे पाता। उत्तरार्ध में पत्नी के लौट जाने के उत्तर में अपनी गल्ती को तत्काल मान लेना और भूल की ग्लानि को जीने का दृश्य कमाल का है। बलराज साहनी अपनी भूमिका में उतने ही सक्षम नजर आते हैं।

निर्देशक ने सहायक भूमिकाओं में अच्छे चरित्र गढ़े हैं। हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में प्रायः छोटी भूमिकाएँ करने वाले हरि शिवदासानी, नायिका के पिता की भूमिका में देर तक हैं। अपनी नातिन रानू के साथ उनके दृश्य कमाल के हैं खासकर जमीन में झुक-बैठकर उसके घर-संसार में जाना जो उसने अपने गुड्डे-गुडि़या के लिए बना रखा है। बच्ची रानू की भूमिका बड़े आत्मविश्वास से रानू मुखर्जी ने निभायी है। जमींदार असित सेन, अपनी पत्नी की बीमारी को खुद में जीकर फरियाद लेकर आने वाला किरदार जो मुकरी ने निभाया है, दिलचस्प है। इस फिल्म में डेविड भी हैं एक उद्घोषक की भूमिका में आरम्भ में जरा सी देर के लिए। 

अनुराधा मन में उतर जाने वाली फिल्म है जिसकी स्मृतियाँ निरन्तर बनी रहती हैं। हृषिकेश मुखर्जी ने इसको मनोयोग से बनया है। फिल्म में सचिन शंकर की कोरियोग्राफी और पण्डित रविशंकर का संगीत होना बहुत बड़ी बात है, तभी शैलेन्द्र के लिखे गाने परदे पर देखना और गहराई से सुनना बहुत सुहाता है। फिल्म के पाश्र्व संगीत में रह-रहकर सितार बजता है। नायिका अनुराधा की मनोदशा, उसकी खुशी, उसकी व्यथा और एक-एक सूक्ष्म आवेगों को जिस तरह सितार से जोड़कर हम भावनात्मक संवेदनाओं में खो जाते हैं, सच पण्डित रविशंकर का तेजस्वी व्यक्तित्व दिमाग में कौंध जाता है। लता मंगेशकर, महेन्द्र कपूर और मन्नाडे ने फिल्म में गाया है। जाने कैसे सपनों में खो गयीं अखियाँ, साँवरे साँवरे, कैसे दिन बीते कैसे बीती रतियाँ, हाय रे वो दिन क्यों न आये गाने परिस्थितियों के एकदम अनुकूल लगते हैं। अनुराधा, अपनी समग्रता में एक अनूठी और स्मरणीय फिल्म है। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ था। 

मंगलवार, 16 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : मुसाफिर (1957)

एक घर में सारी दुनिया


प्रख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी ने महान फिल्मकार स्वर्गीय बिमल राय के सहायक और उनकी फिल्मों के सम्पादक के रूप में अपनी शुरूआत की थी। बिमल राय निरन्तर उत्कृष्ट सिनेमा बना रहे थे। उनकी फिल्मों में निर्देशन और अन्य श्रेष्ठताओं के साथ सम्पादन पक्ष की विशेष सराहना होती थी। लम्बे समय काम करते हुए हृषिकेश मुखर्जी को स्वतंत्र रूप से फिल्म निर्देशन के लिए अनेक कलाकारों ने प्रेरित और प्रोत्साहित किया जिनमें दिलीप कुमार प्रमुख थे। हृषिकेश मुखर्जी ने दिलीप कुमार से कहा भी कि यदि मैं फिल्म बनाऊँ भी तो आप जैसे कलाकार के साथ काम कैसे कर पाऊँगा क्योंकि आप जो पैसा अपनी प्रतिभा और लोकप्रियता का प्राप्त करते हैं उतना दे सकने में मैं सक्षम नहीं हूँ। तब दिलीप कुमार ने उनको आश्वस्त किया था कि आप जब भी अपनी फिल्म बनाओगे, मैं बिना पैसे लिए ही काम करूँगा। हृषि दा की पहली फिल्म की बात करते हुए इतनी बातें स्वाभाविक हैं क्योंकि 1957 में जब उनकी पहली फिल्म मुसाफिर बनी तो उसमें दिलीप कुमार ने काम किया था, बिना पैसा लिए।

मुसाफिर की कहानी हृत्विक घटक ने आरम्भिक रूप से लिखकर हृषिकेश मुखर्जी को सौंप दी थी। दरअसल इस फिल्म में तीन कहानियाँ हैं, केन्द्र में एक घर है किराये का जिसमें एक के बाद एक तीन किरायेदार आकर रहते हैं। सबकी अपनी अलग-अलग परिस्थितियाँ हैं, जीवन में कुछ घटा है, कुछ घट रहा है। दुनिया बस रही है, जीवन एक उम्मीद की तरह है और अन्त में एक प्रस्थान कथा है। मुसाफिर शब्द संसार में मनुष्य के होने और जीने के यथार्थ से लिया गया है। फिल्म की शुरूआत में अभिनेता बलराज साहनी की आवाज हमें इस फिल्म के कथ्य का आरम्भ बताती है। परदे पर घर के मालिक महादेव चैधरी डेविड का एक छुपे-सहमे से नये किरायेदार को मकान दिखाना और किराये पर लिया जाना तय होना पहला दृश्य है। यह पहली कहानी है जिसमें शकुन्तला सुचित्रा सेन अपने प्रेमी अजय शेखर के साथ अपना घर छोड़ आयी है। वह डरी सहमी है। अजय के पिता और समाज में उसको स्वीकारा जायेगा कि नहीं। अजय चोरी छुपे एक पुरोहित को घर ले आता है और दोनों का विवाह हो जाता है। इस और आगे की भी दोनों कहानियों में डाकिए और चिट्ठी की अहम भूमिका है। अजय ने अपने माता-पिता को चिट्ठी लिख दी है और इस बात का इन्तजार है कि वे उन्हें आकर ले जायेंगे और स्वीकार भी कर लेंगे। एक दिन वे आ जाते हैं। गुस्से में भरे पिता अपने बेटे से सम्बन्ध तोड़ने की बात करने आते हैं पर बेटे की अनुपस्थिति में बहू के द्वारा किया गया आदर-सत्कार और बनाकर खिलाया खाना उनका मन बदल देता है। बेटा लौटकर आता है तो वे दोनों को अपने साथ लिवा जाते हैं।

दूसरी कहानी बड़े बेटे के नहीं रहने के बाद गर्भवती बहू और छोटे बेटे के साथ उस घर में किराये पर रहने आने वाले बुजुर्ग की है जो अपनी संचित पूंजी से परिवार चला रहा है। असमय बेटे के दिवंगत हो जाने के बाद उसकी जवाबदारी बहू के दुख को कम करने और छोटे बेटे की परीक्षा और नौकरी से अपने संसार के सम्हलने की कामना भी है। बेटा भानु किशोर कुमार और बहू निरुपा राय भी दुख के दिन बीतने की कामना करते हैं। बहू गर्भ में पल रहे बच्चे को कोसती है पर देवर भानु भाभी को हमेशा समझाता है और वक्त का इन्तजार करने को कहता है। आगे चलकर वह परीक्षा में पास होता है। अब उसे नौकरी की चिट्ठी आने का इन्तजार है। नौकरी की तलाश में संघर्ष करते हुए एक दिन पैसों की जरूरत होने पर भाभी अपनी गुल्लक फोड़कर उसे पैसे देती है। इस पर पिता भानु को भला-बुरा कहते हैं। तैश में आकर भानु जहर ले आता है और पीकर सो जाता है लेकिन जहर में मिलावट है, भानु मरता नहीं है। अगले दिन सुबह डाकिया एक चिट्ठी के जरिए उसकी नौकरी लग जाने की सूचना ले आता है। इधर बहू भी पुत्र को जन्म देती है। यह परिवार भी इस खुशी के साथ घर से विदा होता है।

तीसरा किरायेदार एक वकील पाल महिन्द्रा है जो अपनी विधवा बहन उमा ऊषा किरण और पैरों से चल पाने में असमर्थ अपने बातूनी भांजे राजा डेजी ईरानी के साथ वहाँ रहने, भांजे का इलाज कराने आता है। राजा का पैर ठीक हो जाये इसके लिए उसकी बीमारी की जाँच करायी गयी है और रिपोर्ट का इन्तजार है। एक दिन डाकिया वकील के डाॅक्टर दोस्त का पत्र ले आता है जिसमें लिखा होता है कि राजा कभी पैरों से चल नहीं पायेगा। उमा इस बात से निराश हो जाती है। उमा अक्सर वायोलिन की आवाज सुनती है। वह सामने चाय वाले लड़के मोहन चोटी से बजाने वाले के बारे में पूछती है तो वह बताता है कि एक पगला बाबू है, अपने में मगन रहने वाला, वह कभी भी किसी भी वक्त आता है और जब तक जी करता है, बजाता है। पगला बाबू दरअसल राजा दिलीप कुमार है। कभी वह उमा से प्रेम करता था लेकिन जब उसको यह पता चलता है कि उसको एक जानलेवा बीमारी है तो वह पत्र लिखकर उमा से शादी के लिए मना कर देता है और उसको दोबारा नहीं मिलता। उमा और उसका भाई राजा को धोखेबाज समझते हैं। यह रहस्य राजा के आखिरी पत्र से खुलता है जिसके साथ फिल्म का अन्त होता है। इस बीच उमा के बेटे राजा के मन बहलाव और उसमें ठीक होने का उत्साह पैदा करने का काम राजा करता है, उसको कहानी सुनाता है, उसके साथ खेलता है और वायोलिन बजाकर सुनाता है। वह बच्चे में हौसला भरता है कि एक दिन तुम जरूर अपने पैरों पर चलोगे। राजा की मृत्यु होने और उसके बाद बच्चे राजा का अपने पैरों पर चलना फिल्म का अन्त है। एक बार फिर घर खाली हो गया है।

मुसाफिर फिल्म को पटकथा के स्तर पर मुकम्मल करने का काम राजिन्दर सिंह बेदी ने किया था। फिल्म के संवाद भी उन्होंने ही लिखे थे। एक तरह से इस कहानी के सूत्रधार के रूप में डेविड का चरित्र खूब जहन में बना रहता है। जिस घर में किरायेदार आकर रहते हैं वह घर उन्हीं का है। महादेव चैधरी बहुत बातूनी है, सहृदय भी और अपने किराये से बराबर मतलब रखने वाला आदमी है। अपने घर के सामने ऊपर टू लेट लिखी तख्ती को अपनी छड़ी से किरायेदार के आ जाने पर पलट देना और चले जाने पर फिर उलटकर सामने कर देना अच्छा प्रसंग है। डाकिए को लेकर शुरू में जिक्र हुआ ही है। डाकिए का घर के सामने क्षण भर को ठिठककर उम्मीद जगाना और फिर बिना चिट्ठी के आगे बढ़ जाना किसी समय चिट्ठी, मजमून और इन्सान के रिश्ते की व्यग्रता को रेखांकित करता है। मोहन चोटी के रूप में एक बैरा है जो हर किरायेदार को शुरू में एक-दो दिन चाय लाकर पिलाता है, पगला बाबू के बारे में बतलाता है। पाश्र्व में चलता हुआ गीत-संगीत दो होटलों की परस्पर स्पर्धा का परिचायक है जिसके मूल में ग्राहकी है। 

अजय और शकुन्तला की कहानी में शकुन्तला का भावुक बने रहना और बचपन से माता-पिता को खो देने के कारण पति के माता-पिता में अपनेपन की कामना बहुत ही मन-स्पर्शी है। सुचित्रा सेन ने यह अभिव्यक्ति बहुत मन से की है। अजय के पिता का गुस्से में आना, माँ का बार-बार समझाना और फिर बहू शकुन्तला के व्यवहार से नरम पड़ना दिलचस्प प्रसंग हैं। इसी तरह दूसरी कहानी में भानु का चरित्र किशोर कुमार ने पूरे दिल से जिया है। ऐसा लगता है कि उस किरदार को केवल वे ही निभा सकते थे। उन पर अपनी भाभी के होने वाले बच्चे के लिए, मुन्ना बड़ा प्यारा गाना फिल्माया गया है, स्वर भी उन्हीं का है, कमाल की चुहल-चंचलता के साथ उन्होंने इस गाने को परदे पर जिया है। जहर खाकर सो जाना, पिता का छाती पर विलाप करना और उनका जाग उठना कमाल का दृश्य है जो नकली जहर के कारण दिलचस्प बन गया है। बच्चे का जन्म जीवन की सम्भावनाओं का उदय है जो व्यथित और अशान्त परिवार की जिन्दगी में खुशियाँ बिखेर देता है। तीसरी कहानी में प्रेम की त्रासदी है। यह अन्त उदास करता है। एक साम्य डाकिए के प्रसंग की तरह और है जो ध्यान आकृष्ट करता है, वह यह कि तीनों कहानी की स्त्रियाँ बारामदे से सामने देर रात होटल को धुलते-साफ होते अगले दिन के लिए तैयार होते देख रही हैं। फिल्म में शकुन्तला के द्वारा घर में बोये गये बीज, उससे अंकुरित पौधे और उसके पुष्पित-पल्लवित होने की अवस्था भी तीनों किरायेदारों की जिन्दगी में खुशियों की समरसता का बोध कराती हैं। 

इस फिल्म में दिलीप कुमार, किशोर कुमार, निरुपा राय, सुचित्रा सेन, ऊषा किरण, नजीर हुसैन, डेविड जैसे मँझे कलाकारों ने यादगार किरदार निभाये हैं। यह फिल्म बाजार के लिहाज से भले उस तरह सफल न हुई हो लेकिन मन को छूने में बहुत अधिक सफल है। इस फिल्म के सिनेछायाकार कमल बोस हैं जिन्होंने एक-एक दृश्य बहुत सधे प्रभावों के साथ लिया है। शैलेन्द्र ने फिल्म के गीत लिखे हैं, सलिल चैधरी का संगीत है। एक अविस्मरणीय गाना लागी नाहीं छूटे रामा, चाहे जिया जाये दिलीप कुमार की आवाज में लता मंगेशकर के साथ है जो इतिहास में दर्ज है। फिल्म में और भी सहायक कलाकार हैं छोटी-छोटी उपस्थिति के साथ केश्टो मुखर्जी, बेबी नाज, दुर्गा खोटे आदि। उनका होना भी दिमाग में ठहरा रहता है। हृषिकेश मुखर्जी भी अपनी पहली फिल्म में इस माध्यम में सृजन की निष्ठा का बड़ी ईमानदारी के साथ परिचय देते हैं। मुसाफिर कुल मिलाकर एक यादगार फिल्म है। 


सोमवार, 15 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : छाया (1961)

मैं एक बादल आवारा.........


अपनी निर्देशकीय सक्रियता के पाँचवें साल में हृषिकेश मुखर्जी ने फिल्म छाया का निर्देशन किया। इसके निर्माता दक्षिण के थे, ए. वी. मयप्पन, निर्माण संस्था थी एवीएम प्रोडक्शन्स जिसकी ख्याति पारिवारिक, सामाजिक फिल्मों के निर्माण के लिए फैल रही थी। इस फिल्म की कहानी भी कुछ उसी तरह की थी जिसमें एक गरीब परिवार की विधवा स्त्री को अपनी बेटी एक अमीर के घर की सीढि़यों पर रखनी पड़ती है और बाद में वह उसी घर में आया की तरह रहकर बेटी की परवरिश करती है। सेठ जगत नारायण चैधरी नजीर हुसैन लखनऊ के अपने घर की सीढि़यों में पड़ी रोती बच्ची को अपनी बेटी बनाकर मुम्बई ले आते हैं साथ ही बेसहारा आया को भी। इधर सेठ जगत नारायण के यहाँ उनकी दूर के रिश्ते की बहन रुक्मिणी ललिता पवार और उसका बेवकूफ सा बेटा लाली मोहन चोटी अपनी विपदाएँ बताते हुए रहने को आ जाते हैं। रुक्मिणी लोभी-लालची और बात-बात में घर में विध्वंस के बहाने खोजा करती है जिसका शिकार प्रायः आया हुआ करती है। आया दरअसल मनोरमा निरुपा राय है जिसके पति कृष्ण धवन की दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है और नन्हीं बच्ची की परवरिश के लिए उसके पास सिवा इसके कोई चारा नहीं होता कि उसकी जिम्मेदारी किसी तरह कोई ले ले। सेठ जगत नारायण के यहाँ यह बच्ची लाड़-प्यार से पलकर बड़ी होती है। सेठ अपनी बेटी सरिता आशा पारेख की पढ़ाई और संगीत की शिक्षा के लिए शिक्षक की तलाश में हैं। 

एक बेरोजगार, पढ़ा-लिखा, गरीब शायर-लेखक अरुण सुनील दत्त, सरिता का शिक्षक बनकर आता है। अरुण राही के नाम से कविताएँ लिखता है और सरिता राही की प्रशंसक है। ऐसे में अरुण अपनी शायर वाली पहचान छिपाकर रखता है। नायिका के सामने एक प्रत्यक्ष व्यक्तित्व अरुण का है और कल्पनाओं में राही। अरुण सरिता को यह भी बताता है कि राही उसका अच्छा दोस्त है। सरिता के लिए अरुण को दो चरित्र जीना होते हैं। अरुण के घर में उसकी एक बड़ी और एक छोटी बहन भी हैं जिनके साथ घर की भी जवाबदारी उसी की है। अरुण के लिए तब मुश्किलें होती हैं जब सरिता उससे राही से मिलने की जिद करती है। हकीकत को छुपाने के कारण कुछ विसंगतियाँ भी खड़ी होती हैं। एक दिन अपने जन्मदिन के दिन सरिता, अरुण को अपमानित करती है तब अरुण एक गाना गाकर अपने दिल का दर्द बयाँ करता है। अगले दिन जब सरिता, अरुण से माफी मांगने उसके घर जाती है तब उसको अरुण की छोटी बहन से पता चल जाता है कि अरुण ही राही है। सच जानने के बाद अरुण और सरिता में प्रेम हो जाता है। सरिता की माँ, आया बनी मनोरमा भी चाहती है कि अरुण की शादी सरिता से जाये। इधर अरुण की बड़ी बहन अचला सचदेव, उसके और सरिता के रिश्ते की बात करने सेठ जगत नारायण के पास जाती है तो वे अमीरी-गरीब का हवाला देकर, उसे बेइज्जत करते हैं। सेठ, मनोरमा के समझाने पर उससे भी नाराज होकर उसे अपनी हैसियत में रहने को कहते हैं।

सेठ सरिता का रिश्ता बड़ी जगह अपनी हैसियत के मुताबिक करना चाहते हैं पर यह पता चलने पर कि सरिता उनकी बेटी नहीं है, रिश्ता टूट जाता है। ऐसे में सेठ जगत नारायण को अपनी गल्ती का एहसास होता है और वे अरुण को मनाने जाते हैं। अरुण शुरू में अपनी बहन के अपमान की बात का जिक्र करके शादी को तैयार नहीं होता लेकिन मान-मनौव्वल के बाद राजी हो जाता है। शादी के मौके पर ही आया मनोरमा का सच भी सामने आता है कि वो सरिता की माँ है। फिल्म का सुखद अन्त होता है।

छाया की कहानी डी. एन. मुखर्जी ने लिखी है। सचिन भौमिक ने फिल्म की पटकथा। संवाद एवं गीत लेखन राजेन्द्र कृष्ण ने किया है और संगीत सलिल चैधरी ने दिया है। इस फिल्म की कहानी भी हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म सृजन प्रक्रिया की परिपाटी का ही अनुसरण करती है जिसमें किसी तरह का घुमाव नहीं है। एक गरीब दम्पत्ति, मुखिया जिसे नौकरी की तलाश है, नौकरी मिलने के दिन ही उसका दुर्घटनाग्रस्त हो जाना और उसके बाद बेसहारा औरत का अपनी बच्ची के साथ दर-दर भटककर बेटी को एक अमीर के घर की चैखट पर छोड़ देने का कदम उठाना। कहानी यहीं से आगे बढ़ती है। सुनील दत्त अपने किरदार को दूसरे भेद के साथ बखूबी जीते हैं। उनके साथ आशा पारेख के पढ़ाई और पढ़ाई के बहाने शेरो-शायरी और राही की बात-प्रसंग वाले दृश्य बहुत अच्छे हैं। इस फिल्म के गाने मुख्यतः तलत महमूद की मखमली आवाज के कारण बहुत प्रभावित करते हैं। नायिका के लिए स्त्री स्वर लता मंगेशकर का है। एक गाना मुकेश के साथ और एक गाना मोहम्मद रफी ने भी गाया है। इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा, आँसू समझ के क्यूँ मुझे आँख से तुमने गिरा दिया, आँखों में मस्ती शराब की गाने वाकई तलत की आवाज का मुरीद बना देते हैं। सुनील दत्त के ऊपर ये गाने उनके व्यक्तित्व, किरदार और दृश्य में भद्र उपस्थिति के साथ बड़े समरस होते हैं। सलिल चैधरी ने सभी गानों को मद्धम लय का प्रवाह देकर संगीतबद्ध किया है जो उनके सांगीतिक सरोकारों से सीधा जोड़ता है। इस फिल्म में भी जयवन्त पाठारे सिने-छायाकार हैं मगर साथ में एक नाम टी. वी. सीताराम भी जोड़ा गया है। फिल्म में असित सेन, अखबार के सम्पादक दर्द और बेवकूफ भान्जे की भूमिका में मोहन चोटी वातावरण को हल्का किए रहने का काम करते हैं। निर्देशक ने मनोरमा-सरिता, अरुण और उसकी बड़ी-छोटी बहनों के बीच कुछेक भावनात्मक दृश्य रखे हैं जो रिश्तों और उनके मूल्य को रेखांकित करते हैं।

छाया को एक मनोरंजक पारिवारिक फिल्म की श्रेणी में रखा जा सकता है। हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में नायक अपने मूल्यों और भद्रता से खूब पहचाने जाते हैं, अनाड़ी में महफिल के बीच सब कुछ सीखा हमने गाने का फिल्मांकन हो या अनुपमा में या दिल की सुनो दुनियावालों या फिर छाया में आँसू समझ के क्यूँ गाने का फिल्मांकन हो, दृश्य पहचाने और परिचय के लगते हैं, जाहिर है, सुखद लगते हैं। उनकी फिल्मों में प्रायः खलनायक की उपस्थिति नहीं होती बल्कि परिस्थितियाँ ही खलनायक होती हैं। उनकी फिल्मों के रसूखदार आदमी भी हद दर्जे के सख्त नहीं होते बल्कि उनके हृदय में भी कोई न कोई कोना संवेदनशीलता का होता है। यही कारण है कि असली नकली हो या छाया हो दादा हों या पिता हो, अन्त में गरीब के घर जाकर अपनी भूल का प्रायश्चित करता है और फिल्म को एक अच्छे उपसंहार तक ले आता है। छाया उस दृष्टि से एक अच्छी फिल्म है। 

गुरुवार, 11 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : असली नकली (1962)

बंधी मुट्ठी से फिसलती रेत


देव आनंद की मुख्य भूमिका वाली फिल्म असली नकली हृषिकेश मुखर्जी की एक और उल्लेखनीय फिल्म है, खासकर उस कालखण्ड में जब वे पहली फिल्म दिलीप कुमार को लेकर बना चुके थे और राजकपूर को लेकर अनाड़ी आदि। इस त्रिवेणी में से एक देव आनंद के साथ भी काम करते हुए उनको अच्छे अनुभव हुए। समय वो था जब हृषिदा की साख बन चुकी थी और श्रेष्ठता तथा सफलता दोनों मापदण्डों पर वे प्रमाणित थे। असली नकली एक अमीर दादा के दिशाहीन पोते की कहानी है जो अपने दादा से तब ही मिलता है जब उसके पास पैसे खत्म हो जाते हैं और उसे अपने ऐशो-आराम के लिए और पैसों की जरूरत होती है। दादा सेठ द्वारकादास बड़े कारोबारी हैं और बढ़ती उम्र में अपना कारोबार और बढ़ाना चाहते हैं इसी लालच में उन्होंने पोते आनंद का रिश्ता एक अमीर आदमी की नासमझ सी लड़की से तय कर दिया है। आनंद अपनी आजादी में इस तरह का खलल बर्दाश्त नहीं कर पाता लेकिन उसके पास अपने दादा के विरोध का ठोस आधार भी नहीं है। उसके दादा उसकी अर्कमण्यता और बिना दौलत के उसके वजूद को लेकर बुरा-भला कहते हैं जिसके कारण वो एक दिन बड़ा सा घर छोड़कर चला जाता है। दादा को लगता है कि नाराजगी दूर होने पर पोता लौट आयेगा लेकिन कोई ठिकाना न होने के कारण बैंच पर सोते हुए हवलदार द्वारा उठाकर भगाये जाने पर काम से लौटता एक सहृदय आदमी मोहन उसे मित्र बनाकर घर ले आता है। 

मोहन गरीब है, गरीबों की बस्ती में एक छोटे से घर में रहता है जहाँ उसके साथ उसकी छोटी बहन शान्ति भी रहती है जो स्वभाव से तुनकमिजाज है मगर दिल की कोमल और दयालु। यहीं पर बस्ती वालों के अपनेपन से उसको यह वातावरण और जीवन रास आने लगता है। वह कोई काम करना चाहता है मगर काम मिलना आसान नहीं है। जब तक काम नहीं मिलता, मोहन और उसकी बहन शान्ति उसको अपना भाई बनाकर प्यार से रखते हैं और खाना भी खिलाते हैं। इसी बस्ती के बच्चों और प्रौढ़ों को पढ़ाने रात में रेनू आती है जो दिन में एक दफ्तर में काम भी करती है। आनंद उससे प्रेम करने लगता है। रेनू की ही वजह से आनंद को उसके दफ्तर में काम मिल जाता है। यहाँ पर रेनू आनंद की मदद भी करती है क्योंकि आनंद को टाइपिंग और शाॅर्टहैण्ड नहीं आता और रेनू ने यही बताकर उसको नौकरी पर रखवाया है। एक दिन यह नौकरी भी छूट जाती है। आनंद और भी कोशिशें करता है। बस्ती के ही एक मैकेनिक नंदू की वजह से उसको एक स्कूल में ड्रायवर की नौकरी मिल जाती है लेकिन वह भी नाहक भूल में अगले दिन छूट जाती है।

आनंद से प्यार करने वाली रेनू को नहीं पता है कि वह एक रईस आदमी का पोता है। रेनू की अपनी परेशानियाँ हैं। उसकी माँ बीमार रहती है जिसे इस भ्रम में ही रखा गया है कि उसके पति जीवित हैं। रेनू की एक छोटी बहन भी है। उसका मकान भी गिरवी है। इधर सेठ द्वारकादास को पता चल जाता है कि मोहन गरीबों की बस्ती में रह रहा है। उसकी शादी का इरादा फिर प्रबल होने लगता है। जब उनको पता चलता है कि आनंद रेनू से प्यार करता है तो वे रेनू का घर अपने पास गिरवी रख लेते हैं और रेनू को अपने घर बुलाकर आनंद की जिन्दगी से चले जाने को कहते हैं। इधर आनंद भी अपने दादा से जिरह करता है मगर दादा की जिद और रेनू के घर के लिए वह समझौता कर लेता है। आनंद के इस कदम से उसका दोस्त मोहन बहुत नाराज होता है। वह बस्ती के साथियों के साथ सेठ द्वारकादास की हवेली की तरफ जाता है और आनंद को ललकार कर बाहर बुलाता है, उससे मारपीट करता है। आखिर आनंद अपने दादा का घर छोड़कर बस्ती के अपने साथियों के साथ वापस लौट जाता है। बस्ती में उसकी शादी रेनू से हो रही है। अन्तिम दृश्य में आनंद के दादा बस्ती में आकर अपनी सारी जायदाद रेनू के नाम कर देते हैं और आनंद तथा रेनू को आशीर्वाद देते हैं।

असली नकली वह फिल्म है जिसमें हृषिकेश मुखर्जी केवल निर्देशक का दायित्व सम्हालते हैं। फिल्म का लेखकीय पक्ष इन्दर राज आनंद ने सम्हाला है। जयवन्त पाठारे अब तक हृषिकेश मुखर्जी के लगभग स्थायी सिने-छायाकार हो गये थे। इस फिल्म का भी सिने-छायांकन उन्होंने ही किया है। यह फिल्म बहुत स्पष्ट रूप से अमीरी और गरीबी के संसार में सन्तुष्टि, खुशियाँ और मूल्यों की पड़ताल करती है। जब तक आनंद अपने दादा की छत्रछाया में रह रहा है तब तक उसके पास चापलूसों और खुशामदगीरों की कमी नहीं है। इस तरह का एक दृश्य है जब वह एक आलीशान होटल में जाता है और पीने के लिए सिगरेट निकालता है। जैसे वह सिगरेट मुँह को लगाता है, एक साथ चार-पाँच हाथों में लाइटर जल उठते हैं। यह अमीरों की दुनिया में चाटुकारों की उपस्थिति का यथार्थभरा चित्रण है। ऐसे ही एक दृश्य में वह छोटी सी मगर बहुत अहम भूमिका में नजर आने वाले कलाकार मोतीलाल से रूबरू होता है जिनके साथ वह शादी के लिए पीछे पड़ने वाली औरत से बचता हुआ बेमन से बिलियर्ड खेलने चला जाता है। यह शायद दस मिनट का दृश्य है जिसमें इस खेल के साथ ही समय के साथ मनुष्य के बरताव और जीवन की गति को लेकर कर्नल मिश्रा कुछ बातें कहते हैं, आनंद की हथेली पर रेत रखकर मुट्ठी बांधने को कहते हैं और फिसलती हुई रेत से जीवन के अर्थ को समझाने का प्रयत्न करते हैं। आनंद के चकाचैंध भरे संसार से मोहभंग होने के ऐसे कारणों के बीच बस्ती का जीवन उसे एक अलग ही संसार से रूबरू कराता है। निर्देशक ने कला निर्देशक सुधेन्दु राय और अजीत बैनर्जी की सहायता से बस्ती, महानगर के प्रतीकों के ऐसे सेट बनवाये हैं जो अपनी स्थिरता में ही बहुत कुछ बोलते हुए प्रतीत होते हैं। बस्ती में रहने वाले परिवारों की रहगुजर, उनके कष्ट और सहनशीलता के प्रसंगों के बीच ही आनंद जीवन की सार्थकता को पहचानता है।

इस फिल्म में साधना के साथ देव आनंद के प्रेम प्रसंगों को देखना दिलचस्प लगता है। साधना इसमें बाल काढ़े हुए हैं, साधना को इसमें साधना कट नहीं रखा गया जिससे वे बहुत सुन्दर लगती हैं। चरित्र के अनुकूल सौम्यता का प्रदर्शन, प्रेम की परिणति को लेकर अनजाना भय और उसके बीच कुछ गीतात्मक क्षण जिनमें खूबसूरत गानों को देखकर आनंद होता है, तुझे जीवन की डोर से बांध लिया है, एक बुत बनाऊँगा तेरा और पूजा करूँगा, तेरा मेरा प्यार अमर वगैरह। खासकर, एक बुत बनाऊँगा गाने में बाहर बरसता पानी, भीतर एक ब्लैकबोर्ड के सामने स्लेट लेकर बेटा नायक अपनी प्रेमिका को जिस तरह निहारते हुए यह कामना कर रहा है, बहुत ही खूबसूरत फिल्मांकन है। फिल्म का एक गाना, कल की दौलत आज की खुशियाँ शैलेन्द्र ने लिखा है और शेष सभी गाने हसरत जयपुरी ने। शंकर-जयकिशन फिल्म के संगीतकार हैं। मोहम्मद रफी ने अपनी आवाज देव आनंद के लिए खासतौर पर एक प्रभाव और बेचैन स्वरमहक की खूबियों के साथ अनुकूल बनायी है। लता मंगेशकर का स्वर तो खैर कहने ही क्या! मोहन अनवर हुसैन ने बड़े और साफ दिल दोस्त का सकारात्मक किरदार निभाया है जो हर हारे हाल में अपने दोस्त को हौसला दिया करता है। उसकी बहन शान्ति संध्या राय का चरित्र भी इसी तरह खिलकर उभरा है। संध्या पर फिल्माया गाना लाख छुपाओ छुप न सकेगा राज तो इतना गहरा भी बड़ा मनभावन है। निर्देशक ने यहाँ भी छोटे छोटे कलाकारों के लिए भी गुंजाइश बनायी है। नंदू मैकेनिक मुकरी के प्रसंग हास्य उपजाने के लिए हैं जिनका अपना देशज प्रभाव है। 

हम लगातार ऐसी फिल्म देखते हुए यह अनुभव करते हैं कि देश की स्वतंत्रता के पन्द्रह साल बाद (1962 की यह फिल्म है) ही महानगरीय जीवन में गगनचुम्बी इमारतों और गरीब की बस्ती परस्पर विरोधाभासी स्थितियों के साथ अवस्थित हैं। हमारे सामने रंगीनियाँ और रौनक भी हैं और खाने का इन्तजाम करने के लिए बहन भाई को अपने हाथ की चूड़ी बेच आने को भी कहती है। फिल्म का नायक है जिसके खानदान में सिर से लेकर पैर तक अपार दौलत है मगर उसके वृद्ध पितामह को और दौलत चाहिए। हृषिकेश मुखर्जी अपनी फिल्म में निरन्तर किरदारों-चरित्रों के साथ प्रवृत्तियों को भी लेकर चलते हैं। उनकी कुछ फिल्में समाधान के साथ खत्म होती हैं तो कुछ बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्नों को छोड़कर। यही अनुत्तरित प्रश्न हमारा पीछा लगातार करते हैं। सवाल केवल आनंद की जिन्दगी, रेनू के सपनों और मोहन के दिल चीन्हें-न चीन्हें जाने का नहीं है, प्रश्न है इन विरोधाभासों के न केवल बने रहने का बल्कि अपने-अपने धरातल पर निरन्तर विस्तृत होते जाने का। असली नकली का गहरा अर्थात यही है।  

मंगलवार, 9 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : अनाड़ी (1959)

किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार


हृषिकेश मुखर्जी और राज कपूर की बड़ी गहरी दोस्ती थी। राज, उन्हें बाबू मोशाय कहा करते थे। 1957 में अपनी पहली फिल्म मुसाफिर बनाने के दो साल बाद उन्होंने अनाड़ी बनायी। इस फिल्म में राज कपूर, नूतन, मोतीलाल और ललिता पवार प्रमुख कलाकार थे। सहायक कलाकारों में शुभा खोटे, मुकरी, नाना पलसीकर आदि की अहम भूमिकाएँ थीं। इस फिल्म का नायक राजकुमार, राजू शीर्षक के अनुरूप अनाड़ी है। वह पढ़ा-लिखा है, चित्रकार, कलाकार है पर उसे नौकरी नहीं मिलती। वह एक दयालु ईसाई बुजुर्ग महिला मिसेज डीसा के यहाँ एक कमरे में किराये पर रहता है पर महीनों से उसने किराया नहीं चुकाया है। ऊपर से सख्त हृदय मिसेज डीसा उसकी कामनाओं और विवशताओं को संवेदनापूर्वक समझती है। वही बहाने से उसकी बनायी तस्वीरें खरीदकर अपने दराज में रख लेती है और उसे पैसे देती है। मिसेज डीसा उसके लिए चाय और खाना भी बनाती है, उसके देर से आने पर फिक्र भी करती है, बात-बात पर उसको डाँटकर अपना असीम प्यार भी लुटाती है क्योंकि वह राजू में अपना दिवंगत बेटा देखती है। राजू भी मिसेज डीसा के मन और ऊपरी आवरण को बखूबी समझता है और उसको माँ की तरह प्यार करता है। वह मिसेज डीसा से अपना सारा दुखड़ा रोता है, देश और समाज के साथ दुनियादारी की बात करता है, अपनी विफलतओं की बात करता है और उनके ढांढस से अपना मन हल्का करता है। कहने का अर्थ यह कि दो गरीब और अभाव से भरे टूटे हुए दुखी मनुष्य आपस में एक-दूसरे से संवेदनाओं को बाँटकर मुश्किल में भी जीते हैं मगर बुरे रास्ते पर चलने, बेईमानी करने या किसी को चोट पहुँचाने की कल्पना भी नहीं करते।

एक दिन अपनी परेशानियों में बदहाल राजू एक रईस बिजनेसमैन रामनाथ सोहनलाल की आलीशान गाड़ी से टकराते हुए बचता है। पहले रामनाथ को लगता है कि यह आदमी पैसे झटकने के लिए गाड़ी के सामने आ गया है लेकिन जल्द ही राजू की असलियत जानने के बाद उसको कुछ रुपए देना चाहता है जिसे वो लेने से इन्कार कर देता है। गाड़ी में बैठकर जाते हुए रामनाथ का बटुवा नीचे गिर जाता है जिसे उठाकर राजू गाड़ी की तरफ दौड़ता है लेकिन गाड़ी चली जाती है। बड़ी मुश्किल से गुण्डों-उठायीगीरों से बचते, मिसेज डीसा को अपनी ईमानदारी का यकीन दिलाते राजू उस होटल में पहुँचता है जहाँ सेठ रामनाथ खा-पी रहे होते हैं। राजू उनको बटुवा लौटाता है। वह उसकी ईमानदारी की कद्र करते हुए कुछ ईनाम देना चाहते हैं जिसे राजू विनम्रतापूर्वक इन्कार कर देता है। रामनाथ, राजू से सामने बैठे और नाच रहे लोगों के बारे में यह कहकर समाज की स्थिति और यथार्थ पर गहरी चोट करते हैं कि ये वे लोग हैं जिन्होंने सड़क पर पड़ा बटुवा पाने के बाद लौटाया नहीं। यह जानने पर कि उसको नौकरी की तलाश है, वे अपने यहाँ उसे काम दे देते हैं।

जीवन की जद्दोजहद के समानान्तर राजू की जिन्दगी में एक रूमानी संसार का प्रवेश होता है जब उसका प्रेम रामनाथ की भतीजी आरती से हो जाता है। आरती शुरूआती मुलाकातों में यह जान जाने के बाद कि राजू को रईसों से नफरत है, अपने आपको उस घर की नौकरानी बताकर उसका प्रेम पाने में सफल होती है। राजू भी उसके साथ अपने सपने बुनने लगता है। एक बड़ी घटना से राजू की जिन्दगी में भूचाल आ जाता है जब सेठ रामनाथ की कम्पनी की जहरीली दवा से बीमार मिसेज डीसा की मौत हो जाती है। जब वो जानता है कि कम्पनी ने दवाओं की पेटियों के साथ जहर की की पेटी भी वैसी ही शीशियों में बाजार में रखवायी जिसके कारण मिसेज डीसा की जान गयी तो वह रामनाथ के खिलाफ हो जाता है। इस बीच राजू, आरती का सच भी जान जाता है। रामनाथ भी आरती और राजू के रिश्ते के खिलाफ हैं। स्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि रामनाथ के षडयंत्र से राजू ही मिसेज डीसा को घर के लालच में मार डालने वाला गुनहगार बनकर अदालत के कटघरे में खड़ा कर दिया गया है और उस पर मुकदमा चल रहा है। आखिर में राजू की नैतिकता, आरती का प्रेम, सेठ रामनाथ को ग्लानिबोध कराता है और वे सारा सच अदालत को बताते हैं। राजू को इन्साफ मिलता है।

अनाड़ी को बनाते हुए निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी के साथ बड़े गुणी और लोकप्रिय सितारे थे जिनसे वे बहुत अच्छा काम ले सके, इतना अच्छा कि एक-एक कलाकार आपको चरित्र में गुँथा हुआ नजर आता है। फिल्म एक नायक को रूप में आपको एक ऐसे आदमी से परिचित कराती है जो अपने सिद्धान्तों और धारणाओं में नैतिकता को प्रबल जगह देने वाला है मगर दुनिया की दौड़ में विफल है। वह हर जगह से टूट कर जब अपने किराये के घर में लौटता है तो एक बूढ़ी औरत अपनी अच्छी-खासी स्नेहिल लानत-मलामत से उसकी सारी टूट-फूट पर भावनाओं का अनूठा मलहम लगाती है। वह उसके लिए भूखी बैठी रहती है। राजकपूर और ललिता पवार ने परदे पर इस रिश्ते को जिस उच्चतर संवेदनाओं के साथ जिया है वह अनेक संवादों में सजल कर देता है। खास बात यह है कि इस फिल्म का रूमानी कोण अपनी जगह है जिसमें राजू का एक खूबसूरत लड़की आरती से प्रेम हो गया है, दोनों मिल रहे हैं, प्यार की बातें कर रहे हैं, गाना गा रहे हैं, सपने बुन रहे हैं लेकिन माँ-बेटे का एक निस्वार्थ रिश्ता जो एक हिन्दू युवक और एक ईसाई वृद्धा जीते हैं, वह बड़ा उदाहरण है। मिसेज डीसा, राजू को जब कहती हैं कि ये हिन्दू, मुसलमान और ईसाई तो हमने बनाये हैं, सच तो यह है कि सभी भगवान के बेटे हैं तो बात कहीं गहरे मन को छू जाती है। एक प्रसंग में राजू का यह कहना कि हम भगवान को एक बार झूठ बोल सकता है मिसेज डीसा मगर तुमको नहीं तो पता चलता है कि मूल्य और मर्यादाओं का मतलब क्या होता है। नौकरी के लिए इण्टरव्यू देने जाते वक्त प्रेस करते समय राजू के कोट का जल जाना और फिर मिसेज डीसा का दराज से अपने बेटे का कोट निकालकर राजू को पहनाना संवेदनाओं का चरम है। राजू की पहली तनख्वाह पर उसका खुशी-खुशी मिसेज डीसा के पास आना और फिर दोनों का होटल में खाना खाने जाना बहुत सुखद और आनंद प्रदान करने वाला प्रसंग बनता है। मिसेज डीसा आखिरी वक्त में अपना मकान भी राजू के नाम कर देती है। 

फिल्म पर हृषिकेश मुखर्जी की पकड़ ऐसी है कि वे हर किरदार को कलाकार की सारी क्षमताओं के साथ खोलते हैं। आरती का अपनी नौकरानी सहेली आशा के साथ नाम और रुतबा बदलकर राजू को लम्बे समय भ्रम में रखना अनेक हास्यपरक परिस्थितियों से होकर आगे बढ़ता है। निर्देशक की खूबी है कि वे इसे धोखे की तरह दर्शक के सामने आने देने के बजाय प्रेम के लिए किया जाने वाला सहज सा छल ही प्रतीत होने देते हैं। कुछ अच्छे दृश्य हैं जो नूतन, शुभा खोटे, राजकपूर और मोतीलाल के बीच घटित होते हैं, खासकर आशा और आरती की बेहोशी का दृश्य या राजू और सेठ रामनाथ सोहनलाल के बीच का संवाद जब राजू उनके घर के सामने खड़ा होकर उनकी बुराई करता है बिना यह जाने कि इस घर के मुखिया वही हैं। फिल्म के समापन अवसर पर जब सेठ रामनाथ बने मोतीलाल सारे गुनाह अपने ऊपर ले रहे होते हैं तो अपनी प्रभावी संवाद क्षमता, शख्सियत और हावभाव से वे पूरे माहौल को अपने पक्ष में करते हैं, जब उनका कहना होता है कि मुझे कोई हरा नहीं सकता और खासकर एक अनाड़ी। अनाड़ी सोयी-जागी और उनींदी आत्माओं और उनकी नैतिकताओं की फिल्म है। हम अनाड़ी देखते हुए दरअसल अपने ही आसपास का संसार देखते हैं जिसमें भाँति-भाँति के लोग हैं। 

इस फिल्म का सम्पादन भी निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी ने किया है। वे दोनों ही स्तरों पर कसावट का ध्यान रखते हैं। एक भी दृश्य या संवाद व्यर्थ नहीं लगता। फिल्म की कहानी, पटकथा और संवाद इन्दर राज आनंद ने लिखे हैं। एक गाना, बन के पंछी गाये प्यार का तराना हसरत जयपुरी का लिखा हुआ है और शेष गाने दिल की नजर से, सब कुछ सीखा हमने, वो चांद खिला, किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, तेरा जाना दिल के अरमानों का मिट जाना, नाइण्टीन फिफ्टी सिक्स शैलेन्द्र ने। शंकर-जयकिशन ने इन सभी गानों को मीठा संगीत दिया है तभी ये आज तक मन में ताजा बने हुए हैं। मुकेश, लता मंगेशकर, मन्नाडे के स्वर में ये गीत कालजयी हैं। जयवन्त पाठारे इस फिल्म के सिने-छायाकार हैं जिन्होंने सचमुच अनेक खूबसूरत दृश्य और दृश्यबन्द गढ़े हैं। भावनात्मक दृश्य हों या रूमानी, नूतन के बिखरे-उड़ते बालों के साथ उनकी छबि खासी मोहक लगती है। आरती की सहेलियों के सामने सायकिल चलाते हुए राजू के टकराने का दृश्य याद रह जाता है जब अगले पहिए के उस पार नूतन की छबि दिखायी देती है। एक नकारात्मक किरदार जीते हुए नाना पलसीकर भी प्रभावित करते हैं जो देश में बीमारियों के फैलने की कामना करता है तभी दवाओं की खपत ज्यादा होगी। पचपन-छप्पन साल पहले का देशकाल जिसमें बुराई इस मनौती के साथ अपने डैने फैला रही है, देखना आज के समय की कल्पना के साथ हैरतअंगेज लगता है। अनाड़ी अपनी सम्रगता में महत्व के सन्देश देने वाली फिल्म है जिन्हें तब भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता था और अब भी नहीं। इस फिल्म को अपने प्रदर्शन काल में श्रेष्ठ फिल्म का रजत पदक, राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ था। 

सोमवार, 8 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : अनुपमा (1966)

दर्द सहने की नियतियाँ


अनुपमा की गणना हृषिकेश मुखर्जी की श्रेष्ठ फिल्मों में की जाती है। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1966 का है। हम उस समय की कल्पना कर सकते हैं जब महानगरों के अपने अलग आकर्षण थे। छोटे शहर अधिक थे। श्वेत-श्याम फिल्मों का जमाना था और अच्छी फिल्में बना करती थीं। एक सभ्य, शिष्ट और सुलझी हुई स्पर्धाओं में प्रायः मनोरंजनप्रधान फिल्मों का आना लगा ही रहता था। जिस समय हृषिकेश मुखर्जी अनुपमा बना रहे थे उस समय तक उनकी आश्वस्ति समृद्ध होती ऊर्जा का परिचय दे रही थी। यह फिल्म उसी का प्रमाण देती है जिसमें निर्देशक एक पिता और बेटी के बीच एक संवेदनशील घटना से समाप्त हो गये रिश्ते और उसकी ग्लानियों को देखता है। यह फिल्म हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों के चिर-परिचित अभिनेता तरुण बोस को एक बड़ी भूमिका के साथ उनकी क्षमताओं को भी देखती है।

फिल्म की शुरूआत महानगर के एक दफ्तर से होती है जहाँ एक महिला टेलीफोन आॅपरेटर अपनी सहेलियों के साथ बैठी फोन पर अपने बाॅस और उसकी पत्नी की रोमांटिक बातें सुन रही है। अधेड़ उम्र के बाॅस मोहन शर्मा का अभी-अभी विवाह हुआ है और पत्नी के प्रेम में इस तरह डूबे हुए हैं कि दफ्तर के काम में मन ही नहीं लगता। यह पहला दृश्य एक व्यक्ति के विवाहित प्रेम और संसार में रमे होने को बखूबी प्रकट करता है। पत्नी के कहने पर घर चले आने वाले मोहन बाबू बाहर से ही पियानों की आवाज से आकृष्ट हुए भीतर खिंचे चले आते हैं जहाँ उनकी पत्नी ने अभी-अभी एक गाना, गाना शुरू किया है, धीरे-धीरे मचल ऐ दिले बेकरार, कोई आता है। यह गाना अनुपमा फिल्म की एक प्रबल गीतात्मक पहचान बन गया था। इस गाने का फिल्मांकन बड़ा खूबसूरत है जिसमें मोहनबाबू और उनकी पत्नी के बीच एक-दूसरे को देखते हुए प्रेमभरी असीम भावनाओं को आते-जाते महसूस किया जा सकता है। 

कहानी में पति-पत्नी के प्रेम को जितने खूबसूरत ढंग से स्थापित किया गया है, कुछ क्षण बाद जब एक बेटी के जन्म के साथ ही पत्नी की मृत्यु हो जाती है तो मोहन बाबू की खुशियों का संसार ही उजड़ जाता है। मोहन बाबू की बेटी के जन्म का दिन ही उनकी पत्नी की मृत्यु का दिन है जब वो उन्हें छोड़कर हमेशा-हमेशा के लिए चली गयी थी। वो इस आघात को बर्दाश्त नहीं कर पाते और उनकी सारी कुण्ठा, सारा गुस्सा, सारी नफरत का शिकार बेटी उमा होती है। बचपन से ही उसे अपने पिता की उपेक्षा, हिकारत और गुस्सा मिला है। पिता का यह व्यवहार उस चरम पर है कि उमा बोलने तक में घबराती है और इस तरह व्यवहार करती है जैसे उसकी बोलने-बात करने की क्षमता ही खत्म हो गयी हो।

निर्देशक ने इन परिस्थितियों के विरुद्ध कुछ किरदार प्रस्तुत किए हैं जैसे मोजेज़ जो किरदार डेविड ने निभाया है, बुजुर्ग लेकिन जिन्दादिली से भरपूर, कपोल-कल्पित प्रसंगों को, खुद को केन्द्र में रखकर सुनाना और महफिल को जिन्दा बनाये रखने का शगल, वैसे वकील। मोजेज़ के मित्र का बेटा अरुण देवेन वर्मा जो विदेश से आया है और मोजेज़ ने मोहन बाबू से बात करके उसका रिश्ता उमा से कराने की पहल की है। मोहन के एक दोस्त की बेटी अनिता है जो दिल की साफ है मगर बातचीत और नाज-नखरों में खासा बचपना। अरुण का एक कवि-लेखक दोस्त अशोक है जो गरीब है, अपनी माँ तथा बहन के साथ रहता है लेकिन दोनों की दोस्ती में बड़े-छोटे का फर्क जरा भी नहीं। कहानी अरुण और उमा के रिश्ते के इरादों के साथ आगे बढ़ती है लेकिन एक तरफ अरुण और अनिता करीब आ जाते हैं दूसरा एक समय में अशोक जो किरदार धर्मेन्द्र ने निभाया है, उसकी मुलाकात उमा से होती है। अशोक का लेखक मन अनुपमा की छबि और सुन्दरता को देखकर अवाक रह जाता है, वह उसको सुरम्य वादियों में गाते हुए सुनता है लेकिन घर में दहशत से भरी उमा को देखकर परेशान रहता है। उमा अभी भी पिता के प्रेम से वंचित है।

हृषिकेश मुखर्जी की खासियत रही है कि वे बिना किसी उलझाव के कहानी को सीधे-सादे ढंग से विस्तार देने का काम करते हैं। यदि अरुण का विवाह उमा से होने की स्थिति बने, उसके पहले उसका प्रेम अनिता से हो जाता है तो कुछ मुश्किल नहीं है। अरुण मोजेज़ अंकल को अपने मन की बात बताकर उनकी सलाह और मदद से अनिता के पिता को राजी कर लेता है। इधर अशोक निरन्तर उमा के व्यक्तित्व और उसकी स्थितियों को पढ़ते हुए उस पर एक उपन्यास लिखता है जिसका नाम होता है, अनुपमा। उत्तरार्ध में धर्मेन्द्र और शर्मिला टैगोर के बातचीत और मनोभावों को व्यक्त करने वाले दृश्य बहुत भावनात्मक प्रभावों के साथ गढ़े गये हैं, नायक के प्रति अपने सकारात्मक और प्रेम भरे दृष्टिकोण से ही उमा बोलना भी शुरू करती है। अरुण की अनिता से शादी की स्थितियों से गुस्साए मोहन बाबू एक-दो रिश्ते देखते हैं लेकिन परिस्थितियाँ ऐसी बन जाती हैं कि एक दिन अशोक शहर छोड़कर अपने गाँव वापस जा रहा है। उमा को फैसला करना है कि वो उसके साथ जायेगी या नहीं। थोड़े और छोटे प्रतिरोध के साथ कमजोर पड़ चुके मोहन बाबू आखिर में चुप हो जाते हैं और अशोक के पास जाने के लिए पैर छूती अपनी बेटी के सिर पर रोते हुए हाथ रख देते हैं। आखिरी दृश्य रेल्वे स्टेशन का है, रेल में अशोक बैठा है, जाने के लिए रेल ने सीटी दे दी है तभी उमा सामने से दौड़कर आती है और रेल के डिब्बे में चढ़कर अशोक के सामने बैठ जाती है। रेल चल पड़ती है। जाती हुई रेल से कैमरा प्लेटफाॅर्म पर स्थिर होता है, हम खम्भे की आड़ में उमा के पिता मोहन बाबू को रोते हुए देखते हैं। पत्नी के बिछोह के न भुला सकने वाले दुख के साथ बेटी के साथ ताजिन्दगी किए व्यवहार का अपराधबोध और प्रायश्चित भाव ज्यादा प्रबल ढंग से उनके चेहरे पर व्यक्त हो रहा है।

इस फिल्म की कहानी बहुत प्रभावशाली है जो स्वयं हृषिकेश मुखर्जी ने लिखी है। इसकी पटकथा उन्होंने बिमल दत्त और डी. एन. मुखर्जी से लिखवायी थी और संवाद राजिन्दर सिंह बेदी से। अनुपमा की कहानी में मोहन बाबू का पत्नी प्रेम और बिछोह में अपना आपा खो बैठने के साथ ही बेटी को उसका उत्तरदायी मानकर बेटी की शक्ल और आवाज तक से नफरत करने वाला भाव उस चरम पर जाता है कि दर्शक की भी नायिका से सहानुभूति होने लगती है। सहमी नायिका के सौन्दर्य और प्रकृति के साथ उसके मन के रिश्ते को अशोक द्वारा परिभाषित करना फिल्म को एक तरह से सकारात्मक गति प्रदान करता है। निर्देशक ने प्रत्येक दृश्य की रचना बड़े मनोयोग से की है। जयवन्त पाठारे उनके सिनेछायाकार ने जिस तरह से प्रसंगों और दृश्यों को अपनी दृष्टि से संयोजित किया है, श्वेत-श्याम फिल्मों में वह कलात्मकता सचमुच अनूठी है। धीरे-धीरे मचल ऐ दिले बेकरार गाने का फिल्मांकन हो या मोहन बाबू की पत्नी के प्रसव के समय अस्पताल में उनकी बेचैनी, डाॅक्टर और नर्स का आना-जाना, घर की नौकरानी सरला जिसकी भूमिका दुलारी ने निभायी है आकर बताना कि बेटी हुई है, बाद में डाॅक्टर का सीढि़याँ उतरते हुए कहना कि हम आपकी पत्नी को नहीं बचा सके इन सब दृश्यों में कैमरा बेहद दक्षता का परिचय देता है। या दिल की सुनो दुनिया वालो, हेमन्त कुमार का यह गीत जब धर्मेन्द्र पर फिल्माया जा रहा है तब की पूरी कश्मकश सधे दृश्य संयोजन से ही सार्थक होती है, जाहिर है अन्तिम दृश्य तो सबसे सार्थक है ही जब उमा, अशोक के साथ चली गयी है और कैमरा मोहन बाबू के चेहरे पर ठहर गया है।

पिता की भूमिका में तरुण बोस ने एक पूर्णकालिक किरदार बखूबी निभाया है। वे पूरी फिल्म में प्रायश्चितहीन पिता के भाव से ग्रस्त प्रभावी दीखते हैं। नशे में रोज रात को लड़खड़ाते हुए अपनी बेटी के कमरे में जाना, सहमी, डरी जागती-सोती बेटी को देखना और अगले दिन वही नफरत का बरताव, एक तरह से अपने निबाह में वे बहुत सफल हैं। शर्मिला टैगोर का सौन्दर्य अच्छे सिने-छायांकन से खूब खिलता है क्योंकि संवादरहित चेहरे पर कितनी ही तरह के भावों को लाने में वे कामयाब रही हैं, खासकर मुस्कुराते हुए तो कमाल है। फिल्म में नायक धर्मेन्द्र की नैतिक उपस्थिति है, एक लेखक जो मूल्यों और सिद्धान्तों से समझौता नहीं करता, वह आत्मा और स्वाभिमान का पक्का है और आन्तरिक दृढ़ताओं से भरा। नायिका के प्रति उसके आकर्षण के मूल में नैतिकता और न्याय मुख्य हैं, धर्मेन्द्र ने अपनी सौम्यता, स्वर सम्मोहन से अपने किरदार को महत्वपूर्ण बनाया है। शशिकला ने अनिता की भूमिका को अच्छे से जिया है, अंकल मोजेज़ डेविड अपने आपमें आश्वस्त करता चरित्र, देवेन वर्मा सहज सकारात्मक उपस्थिति लेकिन घर की नौकरानी सरला के रूप में दुलारी के लिए भी निर्देशक ने बेहतर और भावपूर्ण दृश्य रखे हैं। फिल्म के गीत कैफी आजमी के लिखे जिन्हें हेमन्त कुमार ने संगीतबद्ध किया, एक गाना खुद गाया भी, उनका अपना श्रवणीय प्रभाव है। अनुपमा, सचमुच एक भावनात्मक, मन को छू लेने वाला औपन्यासिक अनुभव है जिसका फिल्मांकन भी जीवन के गहरे सच से जुड़कर किया गया है। 
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गुरुवार, 4 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : मेम दीदी (1961)

सबकी खुशी में अपनी खुशी ढूँढ़ना


साठ के दशक की मेम दीदी वो फिल्म है जिसमें तब की नकारात्मक चरित्रों को निबाहने में सबसे ज्यादा स्थापित अभिनेत्री ललिता पवार को हम एक सहृदय स्त्री के रूप में देखते हैं। यहाँ इस बात का उल्लेख स्वाभाविकतः होता है कि हृषिकेश मुखर्जी ने अपनी फिल्मों में ललिता पवार को सकारात्मक भूमिकाओं में ही लिया और वह भी ऐसे वक्त में जब खासकर दुष्ट सास के रूप में उनके किरदार सामाजिक और समकालीन फिल्मों में देखते ही दर्शकों में नकारात्मक भाव उपजाते थे। इन मायनों में मेम दीदी हो या अनाड़ी हो या फिर आनंद, ललिता पवार की अलग ही छाप छोड़ने में ये फिल्में सफल होती हैं और निश्चित ही इसका श्रेय हृषिकेश मुखर्जी को जाता है।

मेम दीदी की कहानी सचिन भौमिक ने लिखी थी और संवाद राजिन्दर सिंह बेदी ने। फिल्म की कहानी कुछ विशेष नहीं है सिवाय इसके कि पृष्ठभूमि एक चाल की है जहाँ पर सब तरह के लोग रहते हैं। दो दादा भी, बहादुर सिंह और शेर खान जो आपस में दोस्त भी हैं और साथ मिलकर सकारात्मक किस्म की रंगदारी करते हैं। वे बस्ती के रक्षक भी हैं और माँ-बेटियों की इज्जत भी करना जानते हैं। ये भूमिकाएँ क्रमशः डेविड और जयन्त ने निबाही हैं। इस बस्ती में एक अधेड़ स्त्री मिसेज रोजी रहने आती है। वो रौबीली है, बस्ती में आते ही उसका सामना बहादुर सिंह और शेर खान से होता है जिनको पहली मुलाकात में ही एक-एक थप्पड़ लगाकर वह अपना वजन स्थापित करती है लेकिन वह सहृदय है और दोनों दादा उसे अपनी बहन बना लेते हैं और मेम दीदी नाम रख देते हैं। इस तरह वो बस्ती की मेम दीदी हो जाती है।

मेम दीदी का पाश्र्व यह है कि वह एक अमीर परिवार के यहाँ आया थी लेकिन उस परिवार के मुखिया और उसकी पत्नी के न रहने के बाद उसकी छोटी सी बच्ची रीता को वह अपनी जिम्मेदारी समझकर पालती है और शिमला में पढ़ाती है। इसके लिए वह बड़ी, पापड़ और अचार बनाकर बेचने का काम करती है, कपड़ों की सिलाई करती है। उसकी ख्वाहिश यही रहती है कि उसकी शादी अच्छे से हो जाये। रीता तनूजा वहीं एक अमीर युवक दिलीप केयसी मेहरा से प्यार भी करती है। उत्तरार्ध में इस शादी को पक्का कराने के लिए बहादुर सिंह और शेर खान शिमला जाते हैं और दिलीप के लालची पिता को भरमाकर मुम्बई बुलाकर शादी करा देते हैं। क्लायमेक्स में मेम दीदी का शादी की जगह पर आकर सब सच और साफ बता देना, अमीर-गरीब, लोभ और प्रेम के द्वन्द्व और अन्त में सबकुछ ठीकठाक। बहादुर सिंह और शेर खान इस बात के गुनहगार होते हैं कि उन्होंने दिलीप के अमीर पिता को धोखे में रखा। पुलिस उनको पकड़कर ले जाती है और फिल्म खत्म होती है।

हृषिकेश मुखर्जी की यह फिल्म व्यावसायिक रूप से यों सफल नहीं थी। इस फिल्म में सितारा आकर्षण न होना भी एक वजह हो सकती है। निर्देशक ने ललिता पवार, जयन्त और डेविड को प्रमुख भूमिकाओं में लेकर उनके चरित्रों को खूब अच्छे से स्थापित किया जिसमें स्वाभाविक रूप से इन गुणी कलाकारों का अपना भी योगदान था। तीनों के बीच भाई-बहन का रिश्ता तब के समय के हिसाब से आपसी सद्भाव और सौहार्द्र को भी स्थापित करने के लिए भी एक भावनात्मक समन्वय कहा जा सकता है जिसमें एक हिन्दू, एक मुस्लिम और एक ईसाई किस तरह संवेदनाओं के धागों मे बँध जाते हैं। इस फिल्म में ऐसे बहुत से अच्छे दृश्य हैं जो भावुक करते हैं जैसे बहादुर सिंह और शेर खान की फटी कमीजों को मेम दीदी द्वारा सिया जाना, मेम दीदी का बटुवा और पैसे बाहर के मुहल्ले के बदमाशों द्वारा छुड़ा लिए जाने पर दोनों भाइयों द्वारा उन गुण्डों से मारपीट कर के पैसे और बटुवा ले आना, तीन सौ रुपए के बदले पाँच सौ रुपए लौटाना जिसमें मेम दीदी का नैतिकतापूर्वक दो सौ रुपए स्वीकार न करना प्रभावित करते हैं। मेम दीदी की बीमारी पर बहादुर सिंह और शेर खान का दो दिन बिना खाये जागे रहना एक अच्छे जज्बे का परिचय देता है। 

निर्देशक ने इस फिल्म को आरम्भ से ही बड़ी सहजता से प्रस्तुत किया है। यह सहजता, छोटे-छोटे प्रसंगों के माध्यम से रोचकता में बदलती जाती है। शुरू में चाल का जीवन बखूबी दर्शाया गया है जिसमें मंजन करता आदमी, पानी के लिए लगने वाली लाइन और संघर्ष, छोटी-मोटी चुहल और साधारण नोकझोंक, यह सब महानगरीय जीवनशैली में गरीब और झोपड़ी बस्तियों की जद्दोजहद को प्रस्तुत करता है। आपसी भाईचारा और अपनापन महत्वपूर्ण है कि एक घर में बेटी की शादी हो रही है तो पिता सबको यह कहकर निमंत्रित करता और काम सौंपता है कि तुम्हारी बेटी की शादी है। शादी के वक्त बिजली न मिलने पर शेर खान और बहादुर सिंह की वजह से एक साथ दसियों ट्रक आकर खड़े हो जाते हैं और अपनी हेडलाइट खोल देते हैं। यह सामुदायिकता और सामाजिकता एक अच्छा संदेश प्रस्तुत करती है।

जैसा कि शुरू में जिक्र आया, ललिता पवार, जयन्त और डेविड तीनों ही कलाकार अपने किरदारों को अपनी क्षमताओं से सार्थक करते हैं। ललिता पवार तो खैर शीर्षक भूमिका में थीं ही और दृश्य में वे कई बार मुख्य हो जाती रहीं। वे जब यह कहती हैं कि दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूँढ़ना चाहिए तो बात मन तक जाती है। इसी बात से जुड़े प्रसंग में शेर खान के ट्रक में बस्ती के लोगों को शहर घुमाने का मेम दीदी का विचार एक अच्छा और समरस दृश्य रचता है। इधर जयन्त ने तब की अपनी नकारात्मक छबि के विरुद्ध एक विस्थापित आदमी को बखूबी जीवन्त किया है जो अपने दोस्त बहादुर सिंह के प्रेम और अपनेपन से ऐसा घुलमिल गया है कि बस्ती और उसे छोड़कर जाना नहीं चाहता। डेविड ने बहादुर सिंह के रूप में थोड़े समझदार से दादा का किरदार जिया है। डेविड, हृषिकेश मुखर्जी निर्देशित और भी बाद की फिल्मों का हिस्सा रहे हैं। तनूजा को हम एकदम अठारह साल की उम्र में देखकर आकर्षित होते हैं, उनकी भूमिका एक नटखट युवती को बखूबी पेश करती है। हृषिकेश मुखर्जी की फिल्में निरन्तरता में देखते हुए इस बात पर भी ध्यान केन्द्रित होता है कि अनेक प्रमुख, सहायक और सहयोगी कलाकार प्रायः अगली फिल्म में भी दिखायी देते हैं। उस दौर में फिल्मकार का बरसों-बरस काम करना और अपने सहायक कलाकारों को अच्छे मासिक वेतन पर रखना भी अच्छी परम्परा रही थी।

इस फिल्म में सिनेछायाकार जयवंत पाठारे हैं जो हृषिकेश मुखर्जी की प्रायः अनेक फिल्मों में यह दायित्व निबाहते रहे। उन्होंने तकनीकी परिपक्वता और तब के माहौल के अनुरूप अच्छे दृश्य लिए हैं। विशेष रूप से एक दृश्य का उल्लेख इस फिल्म के नाम पर जरूरी होता है, यह है तनूजा का पहला दृश्य जिसमें वो शाॅवर के नीचे खड़ी हैं, चेहरा और सिर पूरा का पूरा साबुन के झाग से ढँका है, अचानक ऊपर से शाॅवर चालू होता है, पानी गिरना शुरू होता है और धीरे-धीरे बालों और फिर चेहरे से साबुन का झाग हटकर बह जाता है, तनूजा का परदे पर इस तरह परिचित होना कल्पनाशीलता का बड़ा कमाल है। मेम दीदी के गाने शैलेन्द्र ने लिखे थे और संगीत सलिल चैधरी का था फिर भी न जाने कैसे एक भी गाने का पुनर्स्मरण नहीं होता। 


बुधवार, 3 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : आशीर्वाद (1968)

बहीखाते में कविता


आशीर्वाद, हृषिकेश मुखर्जी की एक मर्मस्पर्शी फिल्म है जो एक सहृदय और कलाप्रेमी नायक के चरित्र को सामने लाने का काम करती है। इसकी कहानी, पटकथा, संवाद लेखन और सम्पादन भी हृषिकेश मुखर्जी का ही उपक्रम है। आशीर्वाद का नायक जोगी ठाकुर अपने नाम के अनुरूप अलमस्त है और उसकी संगीत और गाने में बड़ी रुचि है। जोगी ठाकुर कविताएँ और गीत लिखता है। वह जमींदार का घरजमाई है जो जीवित नहीं हैं मगर उनकी बेटी, जोगी ठाकुर की पत्नी वीना अपने पिता के दमनकारी और संवेदनहीन व्यक्तित्व का निर्वाह कर रही है। उसे अपने पति का गाँव की गरीब बस्ती में जाकर गाने-बजाने में मगन रहना बिल्कुल पसन्द नहीं है। अपने पति के कारण ही वो गाँव वालों से लगान वसूल नहीं कर पाती, उसके लठैत जोगी ठाकुर की फटकार खाकर लौट आते हैं। वीना, अपने मुनीम की सहायता से शोषण जारी रखती है। 

जोगी ठाकुर, बस्ती के ढोलकिए और गायक बैजू से गाना-बजाना सीखता है। बैजू की एक जवान बेटी भी है। जोगी ठाकुर अपने मन की व्यथा कई बार व्यक्त करता है कि भगवान ने उसे इस उम्र में एक छोटी सी बेटी नीना दे दी है, उसका मोह उसको सताता है अन्यथा वो जुल्म और दमन के घर, अपने ससुराल से कभी का चला जाता। ससुर की वसीयत के मुताबिक वीना के किसी भी फैसले का अमल, जोगी ठाकुर के हस्ताक्षर के बगैर मान्य नहीं हो सकता। एक बार वीना के एक षडयंत्र को मुनीम अंजाम देता है और जोगी ठाकुर से धोखे से उस फैसले पर हस्ताक्षर करवा लेता है जिसमें गरीबों की बस्ती जला देने का हुक्म है। त्राहि-त्राहि करते, भीषण अग्निकाण्ड से मरते गरीबों और किसानों को देखकर जोगी ठाकुर का मन विचलित हो जाता है और वह घर छोड़कर चला जाता है। कुछ समय बाद वह जब वापस आता है तो गरीबों की उजड़ी बस्ती और आग तथा उसी के साथ बेटी को मुनीम द्वारा अगवा कर लिए जाने के कारण हादसे से पागल हो गये बैजू को देखकर उसका हृदय द्रवित हो जाता है। वह मुनीम से रुक्मिणी को छुड़ाकर लाने का वचन देकर जाता है। जहाँ मुनीम ने उसे बंधक बना रखा है, वहाँ जोगी ठाकुर का उससे झगड़ा होता है और उसके हाथ से मुनीम का कत्ल हो जाता है। मुकदमा चलता है। जोगी ठाकुर को लम्बी सजा हो जाती है। 

समय बीतता है। जोगी ठाकुर बूढ़ा हो गया है। वह जिस जेल में सजा काट रहा है, वहीं पर एक डाॅक्टर नौकरी करने आता है। उसके घर की देखरेख में जोगी को रख दिया जाता है। इसी डाॅक्टर से जोगी की बेटी प्रेम करती है। इस बीच जोगी की पत्नी वीना की भी मृत्यु हो चुकी है। उसकी बेटी को उसके मामा ने पाल-पोसकर बड़ा किया है। बचपन से उसे चित्रकारी का शौक है और वह गाना भी गाती है। अपनी बेटी को जोगी ठाकुर प्यार से बिट्टू बुलाता है। जेल में जोगी से मिलने वीना के भाई आते हैं जो उसे नीना की शादी डाॅक्टर से करने की बात कहते हैं। बेटी की कामना है कि उसके पिता, जो कि सन्यासी बन गये हैं, उसे बचपन से यही बताया गया, उसके विवाह के समय जरूर, जहाँ कहीं भी होंगे, जरूर आयेंगे और उसको आशीर्वाद देंगे। नीना की शादी गाँव के उसी घर में होती है और जोगी ठाकुर गम्भीर बीमार और जीवन का संकट होने के बावजूद भिखारियों के समूह में शामिल होकर वहाँ जाता है और उसे आशीर्वाद देता है। वहीं उसकी मृत्यु भी होती है।

हृषिकेश मुखर्जी ने एक बिल्कुल सीधी-सादी और सहज कथा का तानाबाना आशीर्वाद के माध्यम से बुना है। इसमें धन-दौलत, आतंक और जुल्म के बीच एक सीधे-सच्चे और दयालु आदमी की गुजर-बसर के संकट को बहुत संवेदनशील तरीके से प्रकट किया गया है। नायक अपनी ही पत्नी के रुपये चुराकर बस्ती में बैजू को दे आता है ताकि वो मुनीम को कर चुका सके लेकिन खजांची रुपये पर हस्ताक्षर देखकर यह चोरी पकड़ लेता है और मुनीम नीना को इसकी चुगली कर देता है। नीना, जोगी को भला-बुरा कहती है, बेइज्जत करती है। जोगी ठाकुर कविताएँ और गीत लिखता है। उसकी नन्हीं बेटी उसको बही-खाते की काॅपी चोरी-छुपे लाकर देती है, लिखने के लिए। यह एक संवेदना और संवेदनहीनता के बीच छोटी सी बच्ची के माध्यम से बना एक सेतु जैसा लगता है कि जिस बही खाते में किसानों के शोषण और जुल्म की भाषा लिखी जाती हो, उसमें एक संवेदनशील और भावुक कवि कविता और गीत लिख रहा है। बही-खाते की यह किताब और नायक की जीवन संघर्ष यात्रा अक्षर दर अक्षर, शब्द दर शब्द ऐसे ही आगे बढ़ती है। गरीबों की बस्ती में बैजू की संगत में, खुले आसमान के नीचे बैठकर जोगी का गाना-बजाना सीखना उसके निर्मल हृदय का परिचय है। बैजू के साथ वह जिस तरह मनुष्यता और मानवधर्म की बात करता है, वह मन में गहरे उतर जाती है। 

निर्देशक इस फिल्म को बनाते समय अपना दृष्टिकोण बेहद साफ रखते हैं। वे बाप-बेटी के प्रेम, परस्पर पति-पत्नी के प्रतिरोध, अमानवीय परिवेश और उससे महसूस की जाने वाली नायक की घुटन को बखूबी प्रस्तुत कर पाते हैं। उत्तरार्ध में जेल को इन्सान के सुधार की ऐसी संस्था के रूप में स्थापित किया गया है जहाँ जेलर सज्जन और दूरदृष्टि से भरा हुआ है। वह जेल के भीतर अपराधियों को काम पर लगाये रखता है। उसका मानना है कि कैदी भी इन्सान हैं कोई पशु नहीं। जिस तरह अस्पताल मनुष्य के शरीर की चिकित्सा के लिए होते हैं उसी तरह जेल उसके मन की चिकित्सा के लिए। इसी अवधारणा के परिणाम में हम जेल के भीतर सजा काटकर रिहा हो रहे एक कैदी का रोते हुए प्रायश्चित देखते हैं। इसी के चलते हमें दूसरे कैदी बागवानी करते दिखायी देते हैं। 

आशीर्वाद, पूरी तरह अशोक कुमार की विलक्षण अभिनय क्षमता का प्रमाण बनकर हमारे दिलो-दिमाग में घर कर जाती है। अशोक कुमार ने जोगी ठाकुर के पात्र को भरपूर जिया है, इस तरह कि वे उस चरित्र की विशेषताओं, संवेदनशीलताओं और इन्सान-इन्सान में समानता पर परम विश्वास रखने वाले व्यक्ति के रूप में एकाकार हो जाते हैं। वे अपने अभिनय, संवेदनात्मक पक्षों से जितना मन को छूते हैं उतना ही आश्चर्यजनक ढंग से गाते भी हैं। इसके लिए निश्चय ही उन्होंने खूब तैयारी की होगी, खास रियाज किया होगा। बैजू ढोलकिया का किरदार निबाहने वाले महान लेखक-कलाकार हरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय ने उन दृश्यों में कई आर अशोक कुमार को भी मुश्किल में डाल दिया है जब वे अपनी बदहवासी और विशेषकर अन्त में भिखारियों के समूह में पहचान छिपाये जोगी ठाकुर को पहचान लेते हैं। अपने दृश्यों में उनका इतना आश्वस्त होना भी कमाल का अनुभव कराता है। डाॅक्टर संजीव कुमार, बेटी नीना की भूमिका में बचपन की भूमिका बेबी दीपाली और वयस्क भूमिका में सुमिता सान्याल, जेलर अभि भट्टाचार्य, वीना लीला चैधरी, मामा एस. एन. बैनर्जी अपनी भूमिकाओं में एक मर्मस्पर्शी फिल्म का खूबसूरत हिस्सा बनते हैं।

फिल्म के गीत गुलजार ने लिखे हैं। बिमल राॅय स्कूल का वे भी हिस्सा रहे हैं जिसका अहम हिस्सा हृषिकेश मुखर्जी हुआ करते थे। वसन्त देसाई ने गीतों को संगीत दिया है। रेलगाड़ी छुकछुक गाड़ी, अशोक कुमार की आवाज का अप्रतिम गीत है। लता मंगेशकर का गाया, इक था बचपन, इक था बचपन भावुक स्मृतियों का साक्षी बनता है। सबसे अहम फिल्म का अन्तिम गीत है, जीवन से लम्बे हैं बन्धु, इस जीवन के रस्ते जिसे मन्नाडे ने मन को छू लेने वाले दार्शनिक भाव से गाया है। आशीर्वाद अपने आपमें उस तरह की मर्मस्पर्शी फिल्म लगती है जिसे देखते हुए आत्मसाक्षात्कार हुआ सा प्रतीत होता है।