सोमवार, 8 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : अनुपमा (1966)

दर्द सहने की नियतियाँ


अनुपमा की गणना हृषिकेश मुखर्जी की श्रेष्ठ फिल्मों में की जाती है। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1966 का है। हम उस समय की कल्पना कर सकते हैं जब महानगरों के अपने अलग आकर्षण थे। छोटे शहर अधिक थे। श्वेत-श्याम फिल्मों का जमाना था और अच्छी फिल्में बना करती थीं। एक सभ्य, शिष्ट और सुलझी हुई स्पर्धाओं में प्रायः मनोरंजनप्रधान फिल्मों का आना लगा ही रहता था। जिस समय हृषिकेश मुखर्जी अनुपमा बना रहे थे उस समय तक उनकी आश्वस्ति समृद्ध होती ऊर्जा का परिचय दे रही थी। यह फिल्म उसी का प्रमाण देती है जिसमें निर्देशक एक पिता और बेटी के बीच एक संवेदनशील घटना से समाप्त हो गये रिश्ते और उसकी ग्लानियों को देखता है। यह फिल्म हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों के चिर-परिचित अभिनेता तरुण बोस को एक बड़ी भूमिका के साथ उनकी क्षमताओं को भी देखती है।

फिल्म की शुरूआत महानगर के एक दफ्तर से होती है जहाँ एक महिला टेलीफोन आॅपरेटर अपनी सहेलियों के साथ बैठी फोन पर अपने बाॅस और उसकी पत्नी की रोमांटिक बातें सुन रही है। अधेड़ उम्र के बाॅस मोहन शर्मा का अभी-अभी विवाह हुआ है और पत्नी के प्रेम में इस तरह डूबे हुए हैं कि दफ्तर के काम में मन ही नहीं लगता। यह पहला दृश्य एक व्यक्ति के विवाहित प्रेम और संसार में रमे होने को बखूबी प्रकट करता है। पत्नी के कहने पर घर चले आने वाले मोहन बाबू बाहर से ही पियानों की आवाज से आकृष्ट हुए भीतर खिंचे चले आते हैं जहाँ उनकी पत्नी ने अभी-अभी एक गाना, गाना शुरू किया है, धीरे-धीरे मचल ऐ दिले बेकरार, कोई आता है। यह गाना अनुपमा फिल्म की एक प्रबल गीतात्मक पहचान बन गया था। इस गाने का फिल्मांकन बड़ा खूबसूरत है जिसमें मोहनबाबू और उनकी पत्नी के बीच एक-दूसरे को देखते हुए प्रेमभरी असीम भावनाओं को आते-जाते महसूस किया जा सकता है। 

कहानी में पति-पत्नी के प्रेम को जितने खूबसूरत ढंग से स्थापित किया गया है, कुछ क्षण बाद जब एक बेटी के जन्म के साथ ही पत्नी की मृत्यु हो जाती है तो मोहन बाबू की खुशियों का संसार ही उजड़ जाता है। मोहन बाबू की बेटी के जन्म का दिन ही उनकी पत्नी की मृत्यु का दिन है जब वो उन्हें छोड़कर हमेशा-हमेशा के लिए चली गयी थी। वो इस आघात को बर्दाश्त नहीं कर पाते और उनकी सारी कुण्ठा, सारा गुस्सा, सारी नफरत का शिकार बेटी उमा होती है। बचपन से ही उसे अपने पिता की उपेक्षा, हिकारत और गुस्सा मिला है। पिता का यह व्यवहार उस चरम पर है कि उमा बोलने तक में घबराती है और इस तरह व्यवहार करती है जैसे उसकी बोलने-बात करने की क्षमता ही खत्म हो गयी हो।

निर्देशक ने इन परिस्थितियों के विरुद्ध कुछ किरदार प्रस्तुत किए हैं जैसे मोजेज़ जो किरदार डेविड ने निभाया है, बुजुर्ग लेकिन जिन्दादिली से भरपूर, कपोल-कल्पित प्रसंगों को, खुद को केन्द्र में रखकर सुनाना और महफिल को जिन्दा बनाये रखने का शगल, वैसे वकील। मोजेज़ के मित्र का बेटा अरुण देवेन वर्मा जो विदेश से आया है और मोजेज़ ने मोहन बाबू से बात करके उसका रिश्ता उमा से कराने की पहल की है। मोहन के एक दोस्त की बेटी अनिता है जो दिल की साफ है मगर बातचीत और नाज-नखरों में खासा बचपना। अरुण का एक कवि-लेखक दोस्त अशोक है जो गरीब है, अपनी माँ तथा बहन के साथ रहता है लेकिन दोनों की दोस्ती में बड़े-छोटे का फर्क जरा भी नहीं। कहानी अरुण और उमा के रिश्ते के इरादों के साथ आगे बढ़ती है लेकिन एक तरफ अरुण और अनिता करीब आ जाते हैं दूसरा एक समय में अशोक जो किरदार धर्मेन्द्र ने निभाया है, उसकी मुलाकात उमा से होती है। अशोक का लेखक मन अनुपमा की छबि और सुन्दरता को देखकर अवाक रह जाता है, वह उसको सुरम्य वादियों में गाते हुए सुनता है लेकिन घर में दहशत से भरी उमा को देखकर परेशान रहता है। उमा अभी भी पिता के प्रेम से वंचित है।

हृषिकेश मुखर्जी की खासियत रही है कि वे बिना किसी उलझाव के कहानी को सीधे-सादे ढंग से विस्तार देने का काम करते हैं। यदि अरुण का विवाह उमा से होने की स्थिति बने, उसके पहले उसका प्रेम अनिता से हो जाता है तो कुछ मुश्किल नहीं है। अरुण मोजेज़ अंकल को अपने मन की बात बताकर उनकी सलाह और मदद से अनिता के पिता को राजी कर लेता है। इधर अशोक निरन्तर उमा के व्यक्तित्व और उसकी स्थितियों को पढ़ते हुए उस पर एक उपन्यास लिखता है जिसका नाम होता है, अनुपमा। उत्तरार्ध में धर्मेन्द्र और शर्मिला टैगोर के बातचीत और मनोभावों को व्यक्त करने वाले दृश्य बहुत भावनात्मक प्रभावों के साथ गढ़े गये हैं, नायक के प्रति अपने सकारात्मक और प्रेम भरे दृष्टिकोण से ही उमा बोलना भी शुरू करती है। अरुण की अनिता से शादी की स्थितियों से गुस्साए मोहन बाबू एक-दो रिश्ते देखते हैं लेकिन परिस्थितियाँ ऐसी बन जाती हैं कि एक दिन अशोक शहर छोड़कर अपने गाँव वापस जा रहा है। उमा को फैसला करना है कि वो उसके साथ जायेगी या नहीं। थोड़े और छोटे प्रतिरोध के साथ कमजोर पड़ चुके मोहन बाबू आखिर में चुप हो जाते हैं और अशोक के पास जाने के लिए पैर छूती अपनी बेटी के सिर पर रोते हुए हाथ रख देते हैं। आखिरी दृश्य रेल्वे स्टेशन का है, रेल में अशोक बैठा है, जाने के लिए रेल ने सीटी दे दी है तभी उमा सामने से दौड़कर आती है और रेल के डिब्बे में चढ़कर अशोक के सामने बैठ जाती है। रेल चल पड़ती है। जाती हुई रेल से कैमरा प्लेटफाॅर्म पर स्थिर होता है, हम खम्भे की आड़ में उमा के पिता मोहन बाबू को रोते हुए देखते हैं। पत्नी के बिछोह के न भुला सकने वाले दुख के साथ बेटी के साथ ताजिन्दगी किए व्यवहार का अपराधबोध और प्रायश्चित भाव ज्यादा प्रबल ढंग से उनके चेहरे पर व्यक्त हो रहा है।

इस फिल्म की कहानी बहुत प्रभावशाली है जो स्वयं हृषिकेश मुखर्जी ने लिखी है। इसकी पटकथा उन्होंने बिमल दत्त और डी. एन. मुखर्जी से लिखवायी थी और संवाद राजिन्दर सिंह बेदी से। अनुपमा की कहानी में मोहन बाबू का पत्नी प्रेम और बिछोह में अपना आपा खो बैठने के साथ ही बेटी को उसका उत्तरदायी मानकर बेटी की शक्ल और आवाज तक से नफरत करने वाला भाव उस चरम पर जाता है कि दर्शक की भी नायिका से सहानुभूति होने लगती है। सहमी नायिका के सौन्दर्य और प्रकृति के साथ उसके मन के रिश्ते को अशोक द्वारा परिभाषित करना फिल्म को एक तरह से सकारात्मक गति प्रदान करता है। निर्देशक ने प्रत्येक दृश्य की रचना बड़े मनोयोग से की है। जयवन्त पाठारे उनके सिनेछायाकार ने जिस तरह से प्रसंगों और दृश्यों को अपनी दृष्टि से संयोजित किया है, श्वेत-श्याम फिल्मों में वह कलात्मकता सचमुच अनूठी है। धीरे-धीरे मचल ऐ दिले बेकरार गाने का फिल्मांकन हो या मोहन बाबू की पत्नी के प्रसव के समय अस्पताल में उनकी बेचैनी, डाॅक्टर और नर्स का आना-जाना, घर की नौकरानी सरला जिसकी भूमिका दुलारी ने निभायी है आकर बताना कि बेटी हुई है, बाद में डाॅक्टर का सीढि़याँ उतरते हुए कहना कि हम आपकी पत्नी को नहीं बचा सके इन सब दृश्यों में कैमरा बेहद दक्षता का परिचय देता है। या दिल की सुनो दुनिया वालो, हेमन्त कुमार का यह गीत जब धर्मेन्द्र पर फिल्माया जा रहा है तब की पूरी कश्मकश सधे दृश्य संयोजन से ही सार्थक होती है, जाहिर है अन्तिम दृश्य तो सबसे सार्थक है ही जब उमा, अशोक के साथ चली गयी है और कैमरा मोहन बाबू के चेहरे पर ठहर गया है।

पिता की भूमिका में तरुण बोस ने एक पूर्णकालिक किरदार बखूबी निभाया है। वे पूरी फिल्म में प्रायश्चितहीन पिता के भाव से ग्रस्त प्रभावी दीखते हैं। नशे में रोज रात को लड़खड़ाते हुए अपनी बेटी के कमरे में जाना, सहमी, डरी जागती-सोती बेटी को देखना और अगले दिन वही नफरत का बरताव, एक तरह से अपने निबाह में वे बहुत सफल हैं। शर्मिला टैगोर का सौन्दर्य अच्छे सिने-छायांकन से खूब खिलता है क्योंकि संवादरहित चेहरे पर कितनी ही तरह के भावों को लाने में वे कामयाब रही हैं, खासकर मुस्कुराते हुए तो कमाल है। फिल्म में नायक धर्मेन्द्र की नैतिक उपस्थिति है, एक लेखक जो मूल्यों और सिद्धान्तों से समझौता नहीं करता, वह आत्मा और स्वाभिमान का पक्का है और आन्तरिक दृढ़ताओं से भरा। नायिका के प्रति उसके आकर्षण के मूल में नैतिकता और न्याय मुख्य हैं, धर्मेन्द्र ने अपनी सौम्यता, स्वर सम्मोहन से अपने किरदार को महत्वपूर्ण बनाया है। शशिकला ने अनिता की भूमिका को अच्छे से जिया है, अंकल मोजेज़ डेविड अपने आपमें आश्वस्त करता चरित्र, देवेन वर्मा सहज सकारात्मक उपस्थिति लेकिन घर की नौकरानी सरला के रूप में दुलारी के लिए भी निर्देशक ने बेहतर और भावपूर्ण दृश्य रखे हैं। फिल्म के गीत कैफी आजमी के लिखे जिन्हें हेमन्त कुमार ने संगीतबद्ध किया, एक गाना खुद गाया भी, उनका अपना श्रवणीय प्रभाव है। अनुपमा, सचमुच एक भावनात्मक, मन को छू लेने वाला औपन्यासिक अनुभव है जिसका फिल्मांकन भी जीवन के गहरे सच से जुड़कर किया गया है। 
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