गुरुवार, 4 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : मेम दीदी (1961)

सबकी खुशी में अपनी खुशी ढूँढ़ना


साठ के दशक की मेम दीदी वो फिल्म है जिसमें तब की नकारात्मक चरित्रों को निबाहने में सबसे ज्यादा स्थापित अभिनेत्री ललिता पवार को हम एक सहृदय स्त्री के रूप में देखते हैं। यहाँ इस बात का उल्लेख स्वाभाविकतः होता है कि हृषिकेश मुखर्जी ने अपनी फिल्मों में ललिता पवार को सकारात्मक भूमिकाओं में ही लिया और वह भी ऐसे वक्त में जब खासकर दुष्ट सास के रूप में उनके किरदार सामाजिक और समकालीन फिल्मों में देखते ही दर्शकों में नकारात्मक भाव उपजाते थे। इन मायनों में मेम दीदी हो या अनाड़ी हो या फिर आनंद, ललिता पवार की अलग ही छाप छोड़ने में ये फिल्में सफल होती हैं और निश्चित ही इसका श्रेय हृषिकेश मुखर्जी को जाता है।

मेम दीदी की कहानी सचिन भौमिक ने लिखी थी और संवाद राजिन्दर सिंह बेदी ने। फिल्म की कहानी कुछ विशेष नहीं है सिवाय इसके कि पृष्ठभूमि एक चाल की है जहाँ पर सब तरह के लोग रहते हैं। दो दादा भी, बहादुर सिंह और शेर खान जो आपस में दोस्त भी हैं और साथ मिलकर सकारात्मक किस्म की रंगदारी करते हैं। वे बस्ती के रक्षक भी हैं और माँ-बेटियों की इज्जत भी करना जानते हैं। ये भूमिकाएँ क्रमशः डेविड और जयन्त ने निबाही हैं। इस बस्ती में एक अधेड़ स्त्री मिसेज रोजी रहने आती है। वो रौबीली है, बस्ती में आते ही उसका सामना बहादुर सिंह और शेर खान से होता है जिनको पहली मुलाकात में ही एक-एक थप्पड़ लगाकर वह अपना वजन स्थापित करती है लेकिन वह सहृदय है और दोनों दादा उसे अपनी बहन बना लेते हैं और मेम दीदी नाम रख देते हैं। इस तरह वो बस्ती की मेम दीदी हो जाती है।

मेम दीदी का पाश्र्व यह है कि वह एक अमीर परिवार के यहाँ आया थी लेकिन उस परिवार के मुखिया और उसकी पत्नी के न रहने के बाद उसकी छोटी सी बच्ची रीता को वह अपनी जिम्मेदारी समझकर पालती है और शिमला में पढ़ाती है। इसके लिए वह बड़ी, पापड़ और अचार बनाकर बेचने का काम करती है, कपड़ों की सिलाई करती है। उसकी ख्वाहिश यही रहती है कि उसकी शादी अच्छे से हो जाये। रीता तनूजा वहीं एक अमीर युवक दिलीप केयसी मेहरा से प्यार भी करती है। उत्तरार्ध में इस शादी को पक्का कराने के लिए बहादुर सिंह और शेर खान शिमला जाते हैं और दिलीप के लालची पिता को भरमाकर मुम्बई बुलाकर शादी करा देते हैं। क्लायमेक्स में मेम दीदी का शादी की जगह पर आकर सब सच और साफ बता देना, अमीर-गरीब, लोभ और प्रेम के द्वन्द्व और अन्त में सबकुछ ठीकठाक। बहादुर सिंह और शेर खान इस बात के गुनहगार होते हैं कि उन्होंने दिलीप के अमीर पिता को धोखे में रखा। पुलिस उनको पकड़कर ले जाती है और फिल्म खत्म होती है।

हृषिकेश मुखर्जी की यह फिल्म व्यावसायिक रूप से यों सफल नहीं थी। इस फिल्म में सितारा आकर्षण न होना भी एक वजह हो सकती है। निर्देशक ने ललिता पवार, जयन्त और डेविड को प्रमुख भूमिकाओं में लेकर उनके चरित्रों को खूब अच्छे से स्थापित किया जिसमें स्वाभाविक रूप से इन गुणी कलाकारों का अपना भी योगदान था। तीनों के बीच भाई-बहन का रिश्ता तब के समय के हिसाब से आपसी सद्भाव और सौहार्द्र को भी स्थापित करने के लिए भी एक भावनात्मक समन्वय कहा जा सकता है जिसमें एक हिन्दू, एक मुस्लिम और एक ईसाई किस तरह संवेदनाओं के धागों मे बँध जाते हैं। इस फिल्म में ऐसे बहुत से अच्छे दृश्य हैं जो भावुक करते हैं जैसे बहादुर सिंह और शेर खान की फटी कमीजों को मेम दीदी द्वारा सिया जाना, मेम दीदी का बटुवा और पैसे बाहर के मुहल्ले के बदमाशों द्वारा छुड़ा लिए जाने पर दोनों भाइयों द्वारा उन गुण्डों से मारपीट कर के पैसे और बटुवा ले आना, तीन सौ रुपए के बदले पाँच सौ रुपए लौटाना जिसमें मेम दीदी का नैतिकतापूर्वक दो सौ रुपए स्वीकार न करना प्रभावित करते हैं। मेम दीदी की बीमारी पर बहादुर सिंह और शेर खान का दो दिन बिना खाये जागे रहना एक अच्छे जज्बे का परिचय देता है। 

निर्देशक ने इस फिल्म को आरम्भ से ही बड़ी सहजता से प्रस्तुत किया है। यह सहजता, छोटे-छोटे प्रसंगों के माध्यम से रोचकता में बदलती जाती है। शुरू में चाल का जीवन बखूबी दर्शाया गया है जिसमें मंजन करता आदमी, पानी के लिए लगने वाली लाइन और संघर्ष, छोटी-मोटी चुहल और साधारण नोकझोंक, यह सब महानगरीय जीवनशैली में गरीब और झोपड़ी बस्तियों की जद्दोजहद को प्रस्तुत करता है। आपसी भाईचारा और अपनापन महत्वपूर्ण है कि एक घर में बेटी की शादी हो रही है तो पिता सबको यह कहकर निमंत्रित करता और काम सौंपता है कि तुम्हारी बेटी की शादी है। शादी के वक्त बिजली न मिलने पर शेर खान और बहादुर सिंह की वजह से एक साथ दसियों ट्रक आकर खड़े हो जाते हैं और अपनी हेडलाइट खोल देते हैं। यह सामुदायिकता और सामाजिकता एक अच्छा संदेश प्रस्तुत करती है।

जैसा कि शुरू में जिक्र आया, ललिता पवार, जयन्त और डेविड तीनों ही कलाकार अपने किरदारों को अपनी क्षमताओं से सार्थक करते हैं। ललिता पवार तो खैर शीर्षक भूमिका में थीं ही और दृश्य में वे कई बार मुख्य हो जाती रहीं। वे जब यह कहती हैं कि दूसरों की खुशी में अपनी खुशी ढूँढ़ना चाहिए तो बात मन तक जाती है। इसी बात से जुड़े प्रसंग में शेर खान के ट्रक में बस्ती के लोगों को शहर घुमाने का मेम दीदी का विचार एक अच्छा और समरस दृश्य रचता है। इधर जयन्त ने तब की अपनी नकारात्मक छबि के विरुद्ध एक विस्थापित आदमी को बखूबी जीवन्त किया है जो अपने दोस्त बहादुर सिंह के प्रेम और अपनेपन से ऐसा घुलमिल गया है कि बस्ती और उसे छोड़कर जाना नहीं चाहता। डेविड ने बहादुर सिंह के रूप में थोड़े समझदार से दादा का किरदार जिया है। डेविड, हृषिकेश मुखर्जी निर्देशित और भी बाद की फिल्मों का हिस्सा रहे हैं। तनूजा को हम एकदम अठारह साल की उम्र में देखकर आकर्षित होते हैं, उनकी भूमिका एक नटखट युवती को बखूबी पेश करती है। हृषिकेश मुखर्जी की फिल्में निरन्तरता में देखते हुए इस बात पर भी ध्यान केन्द्रित होता है कि अनेक प्रमुख, सहायक और सहयोगी कलाकार प्रायः अगली फिल्म में भी दिखायी देते हैं। उस दौर में फिल्मकार का बरसों-बरस काम करना और अपने सहायक कलाकारों को अच्छे मासिक वेतन पर रखना भी अच्छी परम्परा रही थी।

इस फिल्म में सिनेछायाकार जयवंत पाठारे हैं जो हृषिकेश मुखर्जी की प्रायः अनेक फिल्मों में यह दायित्व निबाहते रहे। उन्होंने तकनीकी परिपक्वता और तब के माहौल के अनुरूप अच्छे दृश्य लिए हैं। विशेष रूप से एक दृश्य का उल्लेख इस फिल्म के नाम पर जरूरी होता है, यह है तनूजा का पहला दृश्य जिसमें वो शाॅवर के नीचे खड़ी हैं, चेहरा और सिर पूरा का पूरा साबुन के झाग से ढँका है, अचानक ऊपर से शाॅवर चालू होता है, पानी गिरना शुरू होता है और धीरे-धीरे बालों और फिर चेहरे से साबुन का झाग हटकर बह जाता है, तनूजा का परदे पर इस तरह परिचित होना कल्पनाशीलता का बड़ा कमाल है। मेम दीदी के गाने शैलेन्द्र ने लिखे थे और संगीत सलिल चैधरी का था फिर भी न जाने कैसे एक भी गाने का पुनर्स्मरण नहीं होता। 


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