बुधवार, 30 जनवरी 2013

हारने के लिए लगायी जाने वाली रेस


ऐसा लगता है कि सैफ अली खान जिनके पास उपलब्धियाँ कुछ भी नहीं हैं, गजब आत्मविश्वास से भरे हुए हैं। आरम्भ से ही उनका कैरियर ऊपर वाले के हवाले रहा है। हालांकि उनके साथ ऐसा राजयोग नहीं रहा कि अभिषेक बच्चन की तरह उनके कैरियर की स्पेशल फिक्र की जाती हो। अच्छी-अच्छी फिल्में सिर्फ बैकग्राउण्ड के आधार पर ही मिल जाती हों। सैफ के पिता क्रिकेटर थे और अपनी एक अलग हस्ती रखते थे। उन्होने सैफ की सिनेमा में जमने-जमाने के लिए कोई फिक्र नहीं की और न ही माँ शर्मिला ने ही इस बात को लेकर कोई परेशानी महसूस की कि उनके बेटे के सितारा कैरियर का क्या हो रहा है या क्या होगा?

सैफ अली खान के पुरुषार्थ का ढंग ही अलग रहा है। उन्हें उमेश मेहरा से लेकर यश चोपड़ा कैम्प तक की फिल्में मिलीं और उन्होंने सभी फिल्मों में अपने किरदार भी बखूबी अदा किये मगर वे सभी फिल्में विफल रहीं। आवाज या अन्दाज, पर्सनैलिटी या कोई भी ऐसी सितारा पहचान जो उनके समकालीनों या बाद के सितारों को उनके काम विशेष या प्रभाव विशेष से हासिल हुई, ऐसा कुछ उनके साथ नहीं घटा। सैफ अपने से बड़ी उम्र की अभिनेत्री के साथ शादी या बाद के इटेलियन रोमांस और उसके बाद करीना से जुड़ने और अन्ततः उनसे शादी कर लेने की गतिविधियों से ही इतने चर्चित होते रहे कि उनको सफल फिल्मों से जुड़कर चर्चित होने की शायद खास जरूरत ही न रही। कभी-कभार रेस्त्रां में मार-पिटाई जैसी घटना ने भी दो-चार दिन उनको खबरों में बनाकर रखा।

बात इधर वैसे रेस फिल्म के दूसरे भाग के बुरी तरह असफल हो जाने को लेकर ही है। नहीं पता कि रेस फिल्म जब दो साल पहले आयी थी तब वह किस तरह हिट हो गयी थी या अभी दोबारा रेस टू होकर आयी तो किसी तरह चल निकली। हम अपने सामने सिनेमाघर के आँगन खाली पड़े देख रहे हैं। फन सिनेमा में दर्शक नहीं है या उतना कि अंगुलियों में गिन लिया जाये फिर भी डंका बज रहा है कि फिल्म हिट है। न जाने ऐसा और इतना भ्रम किसलिए खड़ा किया जाता है? दर्शक की स्थिति यह है कि वह अच्छा सिनेमा देखने को तरसता है। हिन्दी सिनेमा, मुम्बई में बनने वाला हिन्दी सिनेमा तादात में सबसे ज्यादा है और वह जितना ज्यादा है उसका मूल्यांकन भी उतना ही निरर्थक है।

हमारे लिए साल की बारह अच्छी फिल्में गिनकर निकालना ही बड़ा कठिन काम है। अच्छी फिल्में नहीं बन रही हैं। अच्छी फिल्में यदि बड़े घराने बना रहे हैं तो अपनी मार्केटिंग किये जा रहे हैं और मुनाफे के जोखिम से भी उबर पा रहे हैं वरना बहुत से अच्छे सिनेमा के सामने एप्रोच का संकट है। निर्देशक फिल्म बनाकर निर्माता के मत्थे मढ़ कर निश्चिंत है, अब सारी चिन्ता उसकी है। पैसे लगाने वाला निर्माता अपने ही देश की जड़ों को नहीं जानता। उसे अपने लिए बनी फिल्म को सभी के सामने अच्छा ही ठहराना है और मन ही मन यह दुआ करना है कि उसका धन लौट आये भले मुनाफा न हो। अच्छी पटकथाएँ और कल्पनाशील निर्देशक गलियारों में हैं पर उनके पारखी नहीं हैं।

शनिवार, 19 जनवरी 2013

अशोक जी (अशोक वाजपेयी) का सृजनात्मक आभा-मण्डल


कल सुबह हबीबगंज रेल्वे स्टेशन पर कवि-लेखक और मेरे लिए बड़े भाई से आदरणीय ध्रुव शुक्ल मिले जो भोपाल एक्सप्रेस से नई दिल्ली से लौटकर आये थे। यह अन्दाजा लगा लेना सहज था कि वे अशोक जी के जन्मदिन के अवसर पर दिल्ली में थे। भाई साहब हमेशा अशोक जी के जन्मदिन पर दिल्ली में होते हैं। बातचीत करते हुए उनके चेहरे पर दो-तीन दिन अशोक जी के रचनात्मक सान्निध्य का ऊर्जस्व प्रभाव दिखायी दे रहा था। मुझे उस समय ऐसा लगा था कि ऐसे अवसर पर कभी मुझे भी वहाँ रहना चाहिए। 

अशोक जी से जिन लोगों का असाधारण मोह है, उसके कारण वही बता सकता है। उन तक, उनसे जुड़े, वक्त-वक्त पर उनके साथ काम किये हुए या उनसे जुड़े, सभी पहुँचे हैं पर सभी की अपनी-अपनी शिद्दत तय है। कौन कितना और खासकर कितना निर्भीक और निडर होकर उनका बना रहा, उसके ही जुड़ाव उनसे पक्के और स्थायी हैं वरना नमस्कार से लेकर पाँव छूने की औपचारिकता में भीड़ भर लोग हैं। सभी के सभी नापे-तौले हुए, वक्त के साथ झेंपे, खिसियाये हुए भी। हालाँकि अशोक जी सबको सबके हाल पर छोड़ते हैं क्योंकि उनको अपेक्षाएँ नहीं रही हैं। दरबारी, खुशामदी और अतिरिक्त फिक्र का प्रदर्शन करने वाले लोग उनके आसपास कभी फटक नहीं सके। रिश्ते-नातों का अशोक जी का अन्तरंग भिन्न है, निजी है और भलीभाँति समझा-जिया हुआ है।

कई बार इस बात को सोचकर हँसी आती है कि एक समय में हमारे आगे-पीछे के कितने ही लोगों के नियुक्ति पत्र ही उनके आदेश से जारी हुए हैं जो कालान्तर में बड़े अधिकारी होते गये। अशोक जी ने मध्यप्रदेश में संस्कृति विभाग के सचिव रहते हुए और उसी समय में संस्कृति विभाग के अन्य अनेक अनुषंगों के भी अधिकारी रहते हुए सबसे अपनी दृष्टि और उसकी अनुकूलता का खूब काम लिया है। सारे रचनात्मक कामों जिनमें प्रकाशन खासतौर पर शामिल है, से जुड़े लोग भले अशोक जी से दिये गये काम के अच्छी तरह जँच जाने तक भयभीत रहा करते हों मगर उन्होंने कभी किसी को डराया या दण्डित नहीं किया। किसी पत्र, किसी प्रारूप या स्वच्छ प्रति पर उनका कई बार कॉमा लगा देना या कलम से स्पेस या पैरा निर्देशित कर देना ही सामने वाले के लिए परम प्रायश्चित का कारण बन जाता था। लेकिन यही वो स्कूल था जिसने प्रतिबद्ध और संजीदा लोगों को सिखाया और कुछ भाव-पारखियों को उस तरह बात करना सिखा दिया। दोनों ही तरह के उदाहरण हमें आज भी मिलते हैं, कुछ के सेवानिवृत्त होने के बाद भी।

ध्रुव जी की अशोक जी तक बड़ी निश्छल पहुँच है। याद है, भारत भवन के दिनों में जब संस्कृति के सचिव होते हुए अशोक जी ठीक एक बजे भारत भवन आ जाया करते थे और फिर ढाई बजे वापस मंत्रालय जाया करते थे तो उस समय सूट और टाई में उनका व्यक्तित्व एकदम अलग दीखता था। शाम मंत्रालय से घर लौटकर एक घण्टे बाद अशोक जी चटख रंग का कुरता और पायजामा पहनकर रश्मि जी के साथ फिर भारत भवन आते थे और कार्यक्रम हो तो पूरे समय रुका करते थे और न हो तो कुछ समय रहा करते थे। ऐसे में एक बार धु्रव जी ने कहा था, अशोक जी जब दिन में आते हैं तो उनसे बात करने में डर लगता है, शाम को वे एकदम अपने दिखायी देते हैं, यह बात वे हँसते हुए एक बार अशोक जी से कह भी गये थे जिस पर बढि़या ठहाका लगा था।

भोपाल में अशोक जी के विरोधियों की संख्या, समर्थकों से ज्यादा थी। खास बात यह कि वे सभी के उपक्रमों में सहभागी होने में संकोच नहीं करते थे। हो सकता है विरोधी संस्कृति विभाग या भारत भवन के प्रति धारणा बनाकर वहाँ कदम न रखने के बयान जारी करे लेकिन अशोक जी, संस्थाओं या ऐसे लोगों की गतिविधियों पर निस्संकोच श्रोता हो जाया करते थे। भोपाल में पीठ पीछे बात करने वालों का ऐसा समूह लगातार बना रहा मगर सामने कभी कोई अप्रिय होकर नहीं आया। जब भोपाल में अशोक जी कबीर सम्मान से विभूषित हुए तो भारत भवन में उस अवसर पर सारे ही लोग सब कुछ त्यागकर इस क्षण के सहभागी बने। तब जनसत्ता में कभी-कभार स्तम्भ में टिप्पणी लिखते हुए अशोक जी ने शरद जोशी से लेकर भगवत रावत सभी को अपना मित्र और प्रेरक कहते हुए याद किया था।

हम जैसे लोग अशोक जी से बड़ी दूर रहकर अपनी वेबलेन्थ मिलाने की कोशिश करते थे। अस्सी के दशक में नईदुनिया अखबार में कला समीक्षक रहते हुए मैं भारत भवन की नौकरी में आया था। बाद में सिनेमा जैसी विधा में लिखना शुरू कर दिया जो अब तक जारी है, यह जानता था कि अशोक जी को यह जताना या यह उनको बताना या उनको पता होने का कोई मतलब नहीं है लेकिन उन पर होने का भाव हमेशा एक जैसा रहा है। उनकी वाणी में गजब की ओजस्विता है जो गहरी संवेदना, सच्चे ज्ञान और उससे अर्जित प्रबल नैतिक आत्मविश्वास से उनके व्यक्तित्व की अपरिहार्यता बनी है। इन्हीं सबसे उनका एक जो आभा मण्डल बनता है वह सचमुच उनकी सृजनात्मकता का ही है।

अशोक जी का वक्तव्य सुनना, तब के समय में जब सम्मान अलंकरण समारोह भारत भवन में हुआ करते थे, उनका प्रशस्ति वाचन और सबसे यादगार विश्व कविता समारोह के अवसर पर मंच पर दुनिया के बौद्धिक प्रतिनिधियों और देश के बड़े राष्ट्रनेताओं की उपस्थिति में उनका स्वागत भाषण आज भी रोमांचित कर देता है। अशोक जी का कविता पाठ हमेशा जितना सुना, उतना ही अधूरा अनुभव रहा है। लगता है पाठ चलता रहे। अक्सर माँ पर लिखी कविता सुनाते हुए उनका गला रुंधते देखा है। अशोक जी संवेदनाओं से पगे एक ऐसे सृजनशील व्यक्ति हैं जिनको पढ़ते हुए ऊष्मा का संचार होता है और जो कि बड़ा दुर्लभ सा हो गया है, उनको अपने बीच पाना अनमोल क्षण का साक्ष्य हो जाता है। अविभावक हमेशा हमारा बल-सम्बल होते हैं, कामना यही है कि अशोक जी यशस्वी हों, हमेशा स्वस्थ रहें और अपने लिखे-बोले में हमेशा ऐसे ही रहें कबीर की तरह................

गुरुवार, 3 जनवरी 2013

रतन थियम : आन्दोलित परिवेश का उद्वेलित रंग-सर्जक


भारतीय रंगमंच वर्तमान में अपनी श्रेष्ठता के चरमोत्कर्ष की खोज कर रहा है। हमारे सामने ऐसा परिदृश्य उपस्थित है जहाँ शीर्ष स्तर पर एक किस्म की बेचैनी है और अपनी साधना भूमि के पुनरावलोकन की छटपटाहट भी। साठ के आसपास और उसके उत्तरार्ध की उम्र अपनी निधियों को देख रही है। कड़ी स्पर्धा और लगातार उत्कृष्टता का प्रश्न जीवन के साथ लगा रहा है। बहुत सारा शोध, सावधानियाँ और श्रेष्ठों के बीच श्रेष्ठता प्रमाणित करने के रोमांच से एक धारा निकलकर आयी है, पीछे दो दशक के अन्तर से दृश्य कुछ दूसरा है। बहुत सारा काम दिखायी दे रहा है मगर मापदण्ड और परख दोनों ही स्तरों पर बहुत सारी असहमतियाँ हैं। देखने का धीरज और संयम बिना देखे आकलन का पारंगतेय हो गया है। ऐसा लगता है कि वर्क आॅफ एक्सीलेंस समय-समय पर अपनी निगाहों के सामने होते रहना इस समय को बेहतर करने के लिए आवश्यक है, धीरज और संयम की फिर स्थापना भी जरूरी है।

ऐसे ही परिपे्रक्ष्य में भोपाल में 5 जनवरी से नये साल के पहले सप्ताह संस्कृति विभाग विख्यात रंगकर्मी रतन थियम की रंगदृष्टि का पुर्नआकलन करने जा रहा है। रतन थियम देश के शीर्ष रंग निर्देशक हैं जो अपने स्वप्न और सर्जना का रंगमंच पिछले चार दशकों में रचते आ रहे हैं। वे आन्दोलित परिवेश के उद्वेलित व्यक्तित्व हैं जो निरन्तर उस अशान्त समय का रचनात्मक प्रतिवाद करते आ रहे हैं जो उनके सिरहाने उनको लगातार विचलित करता रहा है। मणिपुर में रतन थियम को अपनी जमीन और उसकी नब्ज का पता है, वे वहाँ बिताये अपने पूरे जीवन के एक तरह से सम्वेदनशील साक्ष्य की तरह हैं जो अपने आसपास से अत्यन्त विचलित रहते हुए, तमाम खतरों में रहते हुए भी रंगकर्म की लौ को बचाये हुए हैं।


रतन थियम नाटकों की समीक्षा करते हुए नाटक करने लगे थे। उनके पिता मणिपुरी नृत्य शैली के प्रतिबद्ध कलाकार थे। रतन थियम पेंटिंग करते थे, लघु कहानियाँ, कविताएँ और नाटक भी उन्हांेने लिखे। नाट्य समीक्षक होते हुए ही उन्हांेने इस बात को महसूस किया कि पूर्णकालिक रंग-शिक्षा की उनको जरूरत है। यही जरूरत उनको राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय पढ़ने के लिए ले गयी। सत्तर के दशक के आरम्भ में वे दिल्ली आये और पाँच-छः वर्षों में ही उन्होंने अपनी क्षमताओं की एक बड़ी लकीर खींची। रतन थियम की यहाँ तारीफ यह कि वे यह समय व्यतीत करके फिर अपनी जमीन, मणिपुर लौट गये और अपनी खुद की थिएटर रेपर्टरी कोरस की स्थापना की। रतन थियम अपनी जरूरत के लिए दो एकड़ की पर्याप्त जमीन का इन्तजाम किया और कलाकारों के साथ यहीं अपनी दुनिया खड़ी की। एक थिएटर, तीन सौ लोगों के नाटक देखने के लिए और कलाकारों के लिए उगाने-बनाने-खाने और रहने का बन्दोबस्त। इस ढंग की परिकल्पना शायद सबसे पहले उन्होंने ही की।

रतन थियम जहाँ से अपनी सक्रियता के लिए पहचाने जाते हैं वो मणिपुर, भूटान, बंगलादेश और म्यांमार से घिरा पहाड़ी क्षेत्र है। यह विश्व के सबसे अलग-थलग अनजाने क्षेत्रों में से एक है। यह शताब्दियों से नृत्य, कला, संगीत और युद्धकलाओं के लिए जाना जाता है। इस परिवेश ने अनेक वर्षों तक अशान्ति के माहौल को देखा है। रतन थियम इस माहौल में एक उत्तरदायी नागरिक की भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। उनके भीतर-बाहर निरन्तर एक द्वन्द्व चल रहा है जो अपने आसपास अस्तित्व, जीवन और पीढि़यों की दिशाहीनता के जोखिम से बाबस्ता है मगर बहुत सारे अनुत्तरित प्रश्नों के साथ वे हमारे सामने सार्थक रूप में उपस्थित हैं। एक जगह पर रतन थियम कहते हैं कि विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में तेज गति से विकास करने के बावजूद हम उसी तेजी से पीछे जा रहे हैं। परिणाम यह है कि हमारा आध्यात्मिक और मानसिक सन्तुलन खोता जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र तथा मानव अधिकारों के लिए लड़ने वाली संस्थाओं की उपस्थिति के बावजूद हिंसा और युद्ध निरन्तर बढ़ रहे हैं। मानव के भीतर बुरे गुण, शान्ति और धैर्य जैसे अच्छे गुणों को पराजित करने में सफल हो रहे हैं। 


रतन थियम के नाटकों में भाषा कथ्य के बाहर जाती हुई प्रतीत होती है। उन्होंने मणिपुरी रंगजगत में अपनी एक तरह से अविकल्प रंग-उपस्थिति दर्शायी है। शब्द उनकी कर्णज शक्ति के लिए उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने वे अपने वास्तविक अर्थ के लिए। रतन थियम कहते हैं कि मैंने हमेशा मानवीय शक्ति को ही ज्यादा विश्वसनीय माना है, खासकर जब उसका शारीरिक चित्रण किया जा सके और देह में लय हो। वे इस बात पर भी जोर देते हैं कि तकनीकी और शारीरिक नियंत्रण पर ध्यान होने के कारण पात्रों को अपनी शारीरिक शक्ति को खींचकर आगे ले जाने की क्षमता होनी चाहिए। रतन थियम के नाटकों के कलाकारों का मार्शल आर्ट का सघन प्रशिक्षण, एक तरह का गहरा अभ्यास बड़े मायने रखता है। देहगतियों के साथ-साथ शारीरिक सौष्ठव-कौशल और वार करने-वार बचाने का शौर्य और चातुर्य पूरी तरह जाग्रत मस्तिष्क का परिचय देता है। रतन थियम प्रस्तुति में प्रकाश का उपयोग विशेष रूप से नाटकीय प्रभाव को समृद्ध करने के लिए करते हैं। रंगों के प्रति भी उनका विशेष आग्रह हुआ करता है। वे कहते हैं कि मेरे काम में रक्त जैसा लाल रंग सबसे महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं कि मैं अपने नाटकों में स्थायी पृष्ठभूमि का उपयोग नहीं करता हूँ। प्रत्येक दृश्य के लिए भिन्न पृष्ठभूमि होती है जो दृश्य को भव्य बनाती है।

रतन थियम के रंग अवदान पर केन्द्रित यह समारोह रंग सोपान उन अर्थों में महत्वपूर्ण है जिसमें सबसे पहला तो यह कि लगभग दस दिन रतन थियम भोपाल में रहेंगे, अपने छः नाटकों के मंचन के साथ जिसमें उरुभंगम, किंग आॅफ द डार्क चेम्बर, अंधा युग, व्हेन वी डेड अवेकन, नाइन हिल्स वन वैली और उत्तर प्रियदर्शी शामिल हैं, दूसरा बीच में एक दिन उन पर निर्मित एक फिल्म का प्रदर्शन होगा और उनके लम्बे सृजन-सक्रिय रंग-अवदान पर बातचीत की जायेगी। एक बड़ी प्रदर्शनी उनके काम पर तथा कुछ महत्वपूर्ण प्रकाशन भी रतन थियम पर किये जा रहे हैं जिनमें उनसे लम्बी बातचीत, उनकी दुर्लभ और अब तक सम्भवतः प्रकाशित-प्रसारित नहीं हुई कविताओं के चयन भी शामिल हैं।