शनिवार, 19 जनवरी 2013

अशोक जी (अशोक वाजपेयी) का सृजनात्मक आभा-मण्डल


कल सुबह हबीबगंज रेल्वे स्टेशन पर कवि-लेखक और मेरे लिए बड़े भाई से आदरणीय ध्रुव शुक्ल मिले जो भोपाल एक्सप्रेस से नई दिल्ली से लौटकर आये थे। यह अन्दाजा लगा लेना सहज था कि वे अशोक जी के जन्मदिन के अवसर पर दिल्ली में थे। भाई साहब हमेशा अशोक जी के जन्मदिन पर दिल्ली में होते हैं। बातचीत करते हुए उनके चेहरे पर दो-तीन दिन अशोक जी के रचनात्मक सान्निध्य का ऊर्जस्व प्रभाव दिखायी दे रहा था। मुझे उस समय ऐसा लगा था कि ऐसे अवसर पर कभी मुझे भी वहाँ रहना चाहिए। 

अशोक जी से जिन लोगों का असाधारण मोह है, उसके कारण वही बता सकता है। उन तक, उनसे जुड़े, वक्त-वक्त पर उनके साथ काम किये हुए या उनसे जुड़े, सभी पहुँचे हैं पर सभी की अपनी-अपनी शिद्दत तय है। कौन कितना और खासकर कितना निर्भीक और निडर होकर उनका बना रहा, उसके ही जुड़ाव उनसे पक्के और स्थायी हैं वरना नमस्कार से लेकर पाँव छूने की औपचारिकता में भीड़ भर लोग हैं। सभी के सभी नापे-तौले हुए, वक्त के साथ झेंपे, खिसियाये हुए भी। हालाँकि अशोक जी सबको सबके हाल पर छोड़ते हैं क्योंकि उनको अपेक्षाएँ नहीं रही हैं। दरबारी, खुशामदी और अतिरिक्त फिक्र का प्रदर्शन करने वाले लोग उनके आसपास कभी फटक नहीं सके। रिश्ते-नातों का अशोक जी का अन्तरंग भिन्न है, निजी है और भलीभाँति समझा-जिया हुआ है।

कई बार इस बात को सोचकर हँसी आती है कि एक समय में हमारे आगे-पीछे के कितने ही लोगों के नियुक्ति पत्र ही उनके आदेश से जारी हुए हैं जो कालान्तर में बड़े अधिकारी होते गये। अशोक जी ने मध्यप्रदेश में संस्कृति विभाग के सचिव रहते हुए और उसी समय में संस्कृति विभाग के अन्य अनेक अनुषंगों के भी अधिकारी रहते हुए सबसे अपनी दृष्टि और उसकी अनुकूलता का खूब काम लिया है। सारे रचनात्मक कामों जिनमें प्रकाशन खासतौर पर शामिल है, से जुड़े लोग भले अशोक जी से दिये गये काम के अच्छी तरह जँच जाने तक भयभीत रहा करते हों मगर उन्होंने कभी किसी को डराया या दण्डित नहीं किया। किसी पत्र, किसी प्रारूप या स्वच्छ प्रति पर उनका कई बार कॉमा लगा देना या कलम से स्पेस या पैरा निर्देशित कर देना ही सामने वाले के लिए परम प्रायश्चित का कारण बन जाता था। लेकिन यही वो स्कूल था जिसने प्रतिबद्ध और संजीदा लोगों को सिखाया और कुछ भाव-पारखियों को उस तरह बात करना सिखा दिया। दोनों ही तरह के उदाहरण हमें आज भी मिलते हैं, कुछ के सेवानिवृत्त होने के बाद भी।

ध्रुव जी की अशोक जी तक बड़ी निश्छल पहुँच है। याद है, भारत भवन के दिनों में जब संस्कृति के सचिव होते हुए अशोक जी ठीक एक बजे भारत भवन आ जाया करते थे और फिर ढाई बजे वापस मंत्रालय जाया करते थे तो उस समय सूट और टाई में उनका व्यक्तित्व एकदम अलग दीखता था। शाम मंत्रालय से घर लौटकर एक घण्टे बाद अशोक जी चटख रंग का कुरता और पायजामा पहनकर रश्मि जी के साथ फिर भारत भवन आते थे और कार्यक्रम हो तो पूरे समय रुका करते थे और न हो तो कुछ समय रहा करते थे। ऐसे में एक बार धु्रव जी ने कहा था, अशोक जी जब दिन में आते हैं तो उनसे बात करने में डर लगता है, शाम को वे एकदम अपने दिखायी देते हैं, यह बात वे हँसते हुए एक बार अशोक जी से कह भी गये थे जिस पर बढि़या ठहाका लगा था।

भोपाल में अशोक जी के विरोधियों की संख्या, समर्थकों से ज्यादा थी। खास बात यह कि वे सभी के उपक्रमों में सहभागी होने में संकोच नहीं करते थे। हो सकता है विरोधी संस्कृति विभाग या भारत भवन के प्रति धारणा बनाकर वहाँ कदम न रखने के बयान जारी करे लेकिन अशोक जी, संस्थाओं या ऐसे लोगों की गतिविधियों पर निस्संकोच श्रोता हो जाया करते थे। भोपाल में पीठ पीछे बात करने वालों का ऐसा समूह लगातार बना रहा मगर सामने कभी कोई अप्रिय होकर नहीं आया। जब भोपाल में अशोक जी कबीर सम्मान से विभूषित हुए तो भारत भवन में उस अवसर पर सारे ही लोग सब कुछ त्यागकर इस क्षण के सहभागी बने। तब जनसत्ता में कभी-कभार स्तम्भ में टिप्पणी लिखते हुए अशोक जी ने शरद जोशी से लेकर भगवत रावत सभी को अपना मित्र और प्रेरक कहते हुए याद किया था।

हम जैसे लोग अशोक जी से बड़ी दूर रहकर अपनी वेबलेन्थ मिलाने की कोशिश करते थे। अस्सी के दशक में नईदुनिया अखबार में कला समीक्षक रहते हुए मैं भारत भवन की नौकरी में आया था। बाद में सिनेमा जैसी विधा में लिखना शुरू कर दिया जो अब तक जारी है, यह जानता था कि अशोक जी को यह जताना या यह उनको बताना या उनको पता होने का कोई मतलब नहीं है लेकिन उन पर होने का भाव हमेशा एक जैसा रहा है। उनकी वाणी में गजब की ओजस्विता है जो गहरी संवेदना, सच्चे ज्ञान और उससे अर्जित प्रबल नैतिक आत्मविश्वास से उनके व्यक्तित्व की अपरिहार्यता बनी है। इन्हीं सबसे उनका एक जो आभा मण्डल बनता है वह सचमुच उनकी सृजनात्मकता का ही है।

अशोक जी का वक्तव्य सुनना, तब के समय में जब सम्मान अलंकरण समारोह भारत भवन में हुआ करते थे, उनका प्रशस्ति वाचन और सबसे यादगार विश्व कविता समारोह के अवसर पर मंच पर दुनिया के बौद्धिक प्रतिनिधियों और देश के बड़े राष्ट्रनेताओं की उपस्थिति में उनका स्वागत भाषण आज भी रोमांचित कर देता है। अशोक जी का कविता पाठ हमेशा जितना सुना, उतना ही अधूरा अनुभव रहा है। लगता है पाठ चलता रहे। अक्सर माँ पर लिखी कविता सुनाते हुए उनका गला रुंधते देखा है। अशोक जी संवेदनाओं से पगे एक ऐसे सृजनशील व्यक्ति हैं जिनको पढ़ते हुए ऊष्मा का संचार होता है और जो कि बड़ा दुर्लभ सा हो गया है, उनको अपने बीच पाना अनमोल क्षण का साक्ष्य हो जाता है। अविभावक हमेशा हमारा बल-सम्बल होते हैं, कामना यही है कि अशोक जी यशस्वी हों, हमेशा स्वस्थ रहें और अपने लिखे-बोले में हमेशा ऐसे ही रहें कबीर की तरह................

2 टिप्‍पणियां:

shashiprabha.tiwari ने कहा…

Sunilji aapne Ashokji ke baare me bahut achcha likha.

सुनील मिश्र ने कहा…

dhanyvad shashi jee, aapko achchha laga. ashok jee par likhne ko bahut sara hai, ve apne aapme icon hain, samruddh sanskrutik soch aur drushti ke.