ऐसा लगता है कि सैफ अली खान जिनके पास उपलब्धियाँ कुछ भी नहीं हैं, गजब आत्मविश्वास से भरे हुए हैं। आरम्भ से ही उनका कैरियर ऊपर वाले के हवाले रहा है। हालांकि उनके साथ ऐसा राजयोग नहीं रहा कि अभिषेक बच्चन की तरह उनके कैरियर की स्पेशल फिक्र की जाती हो। अच्छी-अच्छी फिल्में सिर्फ बैकग्राउण्ड के आधार पर ही मिल जाती हों। सैफ के पिता क्रिकेटर थे और अपनी एक अलग हस्ती रखते थे। उन्होने सैफ की सिनेमा में जमने-जमाने के लिए कोई फिक्र नहीं की और न ही माँ शर्मिला ने ही इस बात को लेकर कोई परेशानी महसूस की कि उनके बेटे के सितारा कैरियर का क्या हो रहा है या क्या होगा?
सैफ अली खान के पुरुषार्थ का ढंग ही अलग रहा है। उन्हें उमेश मेहरा से लेकर यश चोपड़ा कैम्प तक की फिल्में मिलीं और उन्होंने सभी फिल्मों में अपने किरदार भी बखूबी अदा किये मगर वे सभी फिल्में विफल रहीं। आवाज या अन्दाज, पर्सनैलिटी या कोई भी ऐसी सितारा पहचान जो उनके समकालीनों या बाद के सितारों को उनके काम विशेष या प्रभाव विशेष से हासिल हुई, ऐसा कुछ उनके साथ नहीं घटा। सैफ अपने से बड़ी उम्र की अभिनेत्री के साथ शादी या बाद के इटेलियन रोमांस और उसके बाद करीना से जुड़ने और अन्ततः उनसे शादी कर लेने की गतिविधियों से ही इतने चर्चित होते रहे कि उनको सफल फिल्मों से जुड़कर चर्चित होने की शायद खास जरूरत ही न रही। कभी-कभार रेस्त्रां में मार-पिटाई जैसी घटना ने भी दो-चार दिन उनको खबरों में बनाकर रखा।
बात इधर वैसे रेस फिल्म के दूसरे भाग के बुरी तरह असफल हो जाने को लेकर ही है। नहीं पता कि रेस फिल्म जब दो साल पहले आयी थी तब वह किस तरह हिट हो गयी थी या अभी दोबारा रेस टू होकर आयी तो किसी तरह चल निकली। हम अपने सामने सिनेमाघर के आँगन खाली पड़े देख रहे हैं। फन सिनेमा में दर्शक नहीं है या उतना कि अंगुलियों में गिन लिया जाये फिर भी डंका बज रहा है कि फिल्म हिट है। न जाने ऐसा और इतना भ्रम किसलिए खड़ा किया जाता है? दर्शक की स्थिति यह है कि वह अच्छा सिनेमा देखने को तरसता है। हिन्दी सिनेमा, मुम्बई में बनने वाला हिन्दी सिनेमा तादात में सबसे ज्यादा है और वह जितना ज्यादा है उसका मूल्यांकन भी उतना ही निरर्थक है।
हमारे लिए साल की बारह अच्छी फिल्में गिनकर निकालना ही बड़ा कठिन काम है। अच्छी फिल्में नहीं बन रही हैं। अच्छी फिल्में यदि बड़े घराने बना रहे हैं तो अपनी मार्केटिंग किये जा रहे हैं और मुनाफे के जोखिम से भी उबर पा रहे हैं वरना बहुत से अच्छे सिनेमा के सामने एप्रोच का संकट है। निर्देशक फिल्म बनाकर निर्माता के मत्थे मढ़ कर निश्चिंत है, अब सारी चिन्ता उसकी है। पैसे लगाने वाला निर्माता अपने ही देश की जड़ों को नहीं जानता। उसे अपने लिए बनी फिल्म को सभी के सामने अच्छा ही ठहराना है और मन ही मन यह दुआ करना है कि उसका धन लौट आये भले मुनाफा न हो। अच्छी पटकथाएँ और कल्पनाशील निर्देशक गलियारों में हैं पर उनके पारखी नहीं हैं।
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