मंगलवार, 31 मार्च 2015

मछलीघर की मछलियाँ



हमारी परिवेश और स्मरणों में कुछ महत्व या कम महत्व की चीजें भी इस तरह मौजूद रहती हैं कि हमारा उनकी तरफ यदि बहुत ध्यान न भी गया हुआ तो उसका विशेष फर्क उन अर्थों में नहीं पड़ता कि वे अपनी गति से ही सही चलायमान हैं। यदि यह गति मंथर भी है तो कुछ मुश्किल नहीं है और यहाँ तक कि उनमें ठहराव भी आ गया है तो उससे कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ जा रहा। उनको खड़े हुए देखना भी बुरा नहीं लगता।

भोपाल का मछलीघर भी इसी तरह की एक पहचान था, शहर की पहचान और शायद चालीस से अधिक वर्षों से स्थापित एक ऐसा देखने जाने योग्य स्थान जहाँ जाने का लोभ संवरण भोपाल आने वाला कोई भी नहीं कर पाता था। मुझे अपनी याद है जब मछली घर के बारे में बहुत बचपन में जानने के बाद, उस समय की अपनी उम्र और क्षमताओं में बड़ी दूर होने पर भी वहाँ जाना अच्छा लगता था। शायद चार-आठ आने के टिकिट पर उस मछली घर में पली हुई रंग-बिरंगी, किस्म-किस्म की मछलियों को देखना बड़ा सुहाता था। छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी मछलियाँ। अनेक प्रजातियों वाली मछलियाँ। उन्हें इठलाकर तैरते देख अच्छा लगता था। वहाँ मौजूद निगरानीकर्ता के लाख कहने के बावजूद हम काँच को छूकर मछलियों को महसूस करते थे, हमारे स्पर्श से उनका इधर-उधर भागना बड़ा सुहाता था।

भोपाल के बाहर कानपुर अपनी ननिहाल या ग्वालियर बुआ के यहाँ जाने पर और वहाँ लोगों के पूछने पर कि भोपाल में क्या है, देखने लायक, हम प्रायः मछलीघर का ही नाम लिया करते। बिड़ला मन्दिर से लगे-लगे मछलीघर का नाम आ जाता। छुटपन से बड़े होने तक पैदल, बस से, सायकल से, लूना और स्कूटर से अपने परिजनों, रिश्तेदारों, भैया, भाभी सबको ही मछलीघर दिखाया। जिसे नहीं दिखा पाये एक बार उसे अगली बार दिखाया क्योंकि वे इस बात का बुरा भी मानकर जाते थे कि मछलीघर देखना तो रह ही गया।

रोशनपुरा की ढलान से नीचे राजभवन को जाते हुए मुड़ने पर मछली के ही मुँह जैसे अग्रभाग का सफेद पुता हुआ विशालकाय भवन मछलीघर की पहचान था। समय-समय पर उसको जिस तरह के परिवर्तन, परिष्कार और आधुनिकीकरण की जरूरत थी वैसा उसके साथ नहीं हुआ सो वह धीरे-धीरे अपनी पहचान खोता गया। हालाँकि उसके बावजूद वह जिस हालत में चलता रहा, कुछ न कुछ लोगों का आकर्षण उसके प्रति बना ही रहता था और लोग जाया करते थे।

मध्यप्रदेश सरकार ने अब उस मछलीघर को बन्द कर दिया है। इस आशय का निर्णय तो पहले ही हो चुका था। 31 मार्च को अन्तिम रूप से इस निर्णय पर मुहर लग गयी और मछलीघर में ताला लगा दिया गया। हम सब सूचित हुए हैं कि यह भूमि और भवन पर्यटन विभाग को हस्तांतरित कर दिया गया है। पर्यटन विभाग इसका कुछ बड़ा महात्वाकांक्षी उपयोग करेगा। यहाँ पली मछलियों के बारे में पता चला है कि उन्हें भदभदा स्थित मत्स्य विभाग के नवीन भवन के एक्वेरियम एवं पोखरों में रखा जायेगा। मछलियों का क्या है, वे क्या जाने किस विरासत को विस्मृत करके वे जा रही हैं। उनका नया पड़ाव कहाँ है। 

चार दशकों से भी ज्यादा समय में किस तरह मछलियों शान्त और सुहावनी गतियों से देखने वाले आनंदित हुआ करते थे। पलक रहित चमकदार आँखों के साथ उनको पानी में कभी बहना, कभी तैरना, कभी नृत्य करना, कभी इठलाना, खेलना और खिलखिलाना, वह सब जो बचपन से महसूस होता रहा था, अब वह आनंद जाता रहा है। एक याद है जो मिटते हुए भावुक कर रही है। भोपाल में क्या देखने योग्य है, यह बताते हुए अब ध्यान रखना पड़ेगा कि मछलीघर का नाम न आये..................

गुरुवार, 19 मार्च 2015

करते, देखते, छोड़ते हुए भूलें

उस रात जब नींद नहीं आ रही थी, तब पड़े-पड़े मैं यही सोचता रहा कि लिखे हुए पैराग्राफों और कम्पोज़ की हुई कितनी ही किताबों के प्रूफ़ पढ़ने में अपनी दक्षता हासिल करने के बाद भी बहुत सी बातें मैं खुद न समझ पाया। जब नया-नया सीखा था तब प्रायः गल्तियाँ छूट जाया करती थीं। उन छूटी हुई गल्तियों को मुझे बड़े पकड़ लिया करते थे जो स्वाभाविक रूप से मुझसे ज़्यादा ज्ञानी थे। वे मुझे उन गल्तियों का एहसास कराया करते थे।
अधिकतर तो मेरे साथ यही हुआ कि जब-जब गल्तियाँ चिन्हित हुईं, मुझे उन्होंने इंगित करते हुए यही बताया कि इस सही शब्द का ज्ञान तुम्हें अब हो जाना चाहिए और अगली बार जब यह शब्द तुम्हारी निगाह से गुजरे तब सही-सही ही जाये। मैं एक तरह से, इसे अपने बच जाने का एक अवसर ही माना करता था। हाँ लेकिन वह भी सोच लिया करता था कि अब की बार यह शब्द उस ही सच की तरह जायेगा जैसा बता दिया गया है। अगर नहीं गया तो शायद लज्जित होना पड़ेगा।
कुछ डर कह लीजिए और कुछ अपने लिए सबक भी कह सकते हैं कि धीरे-धीरे वे गल्तियाँ सुधारता गया जो किया करता था। तब मैं यह भी सोचता था कि जिस तरह से जानकार और मेरी गल्तियों पर पेंसिल रखकर जताने वाले मुझे सही का ज्ञान कराया करते हैं, जब मैं इन सब बातों को अच्छी तरह समझने लगूँगा और फिर मुझे किसी की गल्ती जाँचने का मौका मिलेगा तो मैं भी इसी तरह उन्हें चिन्हित करूँगा और जिससे गल्ती हुई होगी, वह आगे चलकर उन्हें ठीक करने के अवसर पाये, इतनी उदारता रखूँगा।
यह भी कहने की बात ही है कि एक समय बाद वह दौर भी आ गया। पढ़ा हुआ इस बात का भी प्रूफ़ होता था कि कोई सी भी प्रूफ मिस्टेक नहीं है। लेकिन इधर यह भी देखने का बोध नहीं हो पाया कि अपने कहे-बोले में कितने प्रूफ सुधार की गुंजाइश है? बरसों ही बीत गये, कहिए तब यह बात प्रश्नवाचक चिन्ह लगाकर लिख पा रहा हूँ। ऐसा लगता है कि जीवन में प्रूफ की गल्तियाँ कभी भी हो जाया करती हैं। समय के साथ मैं यह उदारता बरत रहा हूँ कि छपे हुए में प्रूफ की भूलों को देखकर कुछ नहीं कहता। एकाध बार इस तरह का उत्तर मिला कि मैंने देखा तब सही था या सही तो लिखा था, पता नहीं कैसे हो गया? अबोध उत्तरों पर यही लगा कि व्यवहार में अब इसकी बहुत जरूरत नहीं रह गयी है। प्रूफ़ की भूलों से तैयार छपे हुए का भी स्वागत किया जाना चाहिए।
देखता हूँ कि अब अपनी जि़न्दगी में सब लिखे, अधलिखे फलसफों के प्रूफ ठीक से देखे जाना चाहिए। बहुत जल्दी हुआ करती है लिखने की, पन्नों को भरते रहने की और पता नहीं इसी में शब्दों का हिसाब-किताब गलत हो जाता है। हिसाब-किताब शब्द का अर्थ गुणा-भाग सा नहीं है, ज़ाहिर है पर मन करता है, फिर जैसे पन्ने उलटने की कोशिश करूँ। अब तक सारी आपाधापी पन्ने पलटने की रही है। मन करता है कि ठहर जाऊँ और पलटना बन्द करके, पन्ने लिखने के बजाय पन्ने उलटकर ध्यान से प्रूफ देखूँ। व्यवहार और चलन दोनों के ही इस बदल चुके ज़माने में उन सारी पटरियों को, जितना बन सके, दूर तक देख लेना चाहता हूँ, मुड़ने के बाद जिनका पता नहीं चलता। मुझे मोड़ के पश्चात उस अदृश्य से घबराहट महसूस होती है।
रात गहराती है, वे पंछी अपनी आवाज़ से भ्रम पैदा करते हैं जो सुबह-सुबह आकाश में उड़ते हुए अपने पुरुषार्थ को समूह में जाया करते हैं। भौंकते हुए कुत्ते अचानक रोने लगते हैं, उनके रूदन पर न गुस्सा आता है और न ही डर लगता है। नींद में ही समझने की कोशिश करता हूँ कि वे जरूर पीड़ा महसूस कर रहे होंगे, असहृय पीड़ा जिस बर्दाश्त न कर पाने के कारण वो रो रहे हैं....................

शुक्रवार, 13 मार्च 2015

मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक विरासत की आकाशीय छबियाँ


मध्यप्रदेश सरकार का इस साल का शासकीय कैलेण्डर सभी सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों के घर और दफ्तर की दीवार की शोभा बढ़ा रहा है। आपका ध्यान क्या इस बात पर गया है कि इस बार के कैलेण्डर का विषय कुछ खास है, जी हाँ यह साल पर्यटन वर्ष के रूप में मनाते हुए मध्यप्रदेश देश-दुनिया के सैलानियों को अपने यहाँ की कला विरासत को देखने और नजदीक से उसका चाक्षुष अनुभव करने के लिए आमंत्रित कर रहा है।

यदि आपके पास इस समय यह कैलेण्डर है तो आप जनवरी से लगाकर एक-एक करके पन्ने पलटना शुरू कीजिए, महसूस कीजिए कि आप हवाई जहाज या हैलीकाॅप्टर में मध्यप्रदेश की सांस्कृतिक परिक्रमा कर रहे हैं, एक-एक करके आपकी आँखों के सामने भारत के इस हृदयप्रदेश का इतिहास, अनमोल कला विरासत और सदियों पुरानी सांस्कृतिक चेतना के साक्ष्य रहे स्थान आते चले जायेंगे।



ये स्थल हैं, अमरकंटक जहाँ आपको कपिलधारा दिखायी देगी फिर विश्व धरोहर स्थल खजुराहो, ओरछा की छत्रियाँ, ग्वालियर स्थित मोहम्मद गौस का मकबरा, बौद्ध स्तूप सांची, उज्जैन की पुण्य सलिला शिप्रा, भोपाल की ताजुल मसाजिद, जहाज महल माण्डू, भेड़ाघाट जबलपुर का धुँआधार मारबल राॅक्स, खरगोन महेश्वर का अहिल्या घाट, प्रागैतिहासिक शैलाश्रय भीमबैठका, पचमढ़ी का चैरागढ़। इस छबियों को पहली बार एक बिल्कुल नये अन्दाज में प्रस्तुत किया गया है। इस तरह के बर्ड आई व्यू से आमतौर पर हम अपने प्रदेश को नहीं देख पाते। ये छबियाँ हमारी परिचित जगहों को एक नये कोण, एक नये सौन्दर्यबोध के साथ सामने लाती हैं।



यह साहसिक काम प्रदेश के दो वरिष्ठ कलाकारों ने बड़े साहस के साथ सम्पन्न किया है, ये हैं ख्यात फिल्मकार, सिनेमेटोग्राफर और छायाकार राजेन्द्र जांगले और कलाकार-पेंटर हेमन्त वायंगणकर। जांगले, मध्यप्रदेश माध्यम में सिनेमा प्रभाग के निदेशक हैं। उन्होंने एक फिल्मकार तथा सिनेछायाकार के रूप में विगत चार दशकों में समय-समय पर मध्यप्रदेश को गौरवान्वित किया है, राज्य का नाम रोशन किया है। राजेन्द्र जांगले, पुणे फिल्म संस्थान से प्रशिक्षित हैं। अपने सृजन के श्रेष्ठ परिणामों के लिए उनका जतन बहुत प्रभावित करता है। हमारे समय में बहुधा ऐसा कम देखने को आता है जब प्रतिभाएँ लगातार काम करते हुए अपनी सर्जना में उत्कृष्ट को लेकर चिन्तित रहा करती हों। आमतौर पर संघर्ष के समय में अथवा स्थापित होेने तक दिखायी देने वाले श्रेष्ठ सर्जना में आगे कई बार ठहराव ही इसी वजह से आता है कि सृजनधर्मी अपने आपमें संतुष्ट हो चुकता है, उसकी पहचान, प्रतिष्ठापना भी हो चुकती है, फिर कहीं न कहीं यदि उसकी गम्भीरता, प्रतिबद्धता प्रभावित हुई तो नवोन्मेष की अनुपस्थिति, नवाचार की ऊर्जा का अनुपस्थित होना ठहराव को प्रमाणित करता है। 


राजेन्द्र जांगले के व्यक्तित्व में, इससे अलग, परफेक्शन को लेकर चिन्ता देखना बहुत सुखद लगता है। अनेक अवसरों का साक्षी हुआ हूँ जब वे बड़ी देर में अपनी प्रस्तुति, अपने प्रदर्शन से संतुष्ट हुए हैं। जांगले अपने किए गये कार्य को भी एक सृजनात्मक वातावरण में प्रदर्शित कर संतुष्ट होते हैं। उनकी यही चेतना समकालीनों से उनको अलग रखती है। उनकी बनायी अनेक लघु फिल्मों को नेशनल अवार्ड मिला है जिनमें तत्काल तो बैगा आदिवासियों पर बनायी गयी फिल्म याद आती है। कुछ समय पहले ही राजेन्द्र जांगले ने नर्मदा नदी पर एक खूबसूरत फिल्म बनायी है जो उसके उद्गम अमरकंटक से भरुच तक समुद्र में मिलने तक की अनुपम यात्रा को प्रदर्शित करती है। फिल्म देखते हुए सचमुच नर्मदा के पथगामी होने का अनुभव होता है। शासकीय कैलेण्डर में उनके दस छायाचित्र शामिल हैं। 

इसी प्रकार उप महाप्रबन्धक के रूप में मध्यप्रदेश माध्यम में ही कार्यरत हेमन्त वायंगणकर मालवा की सांस्कृतिक परम्परा से आये एक ऐसे चित्रकार हैं जिनका काम उनके प्रशान्त व्यक्तित्व के अनुरूप ही सुहावना और मनभावन है। अस्सी के दशक में जब मध्यप्रदेश में कला-संस्कृति के क्षेत्र में रचनात्मक जागरुकता का एक उत्साहजनक दौर शुरू हुआ था, भारत भवन का निर्माण शुरू हुआ था और स्थापना हुई थी, हेमन्त वायंगणकर उसी समय इन्दौर से परिचित हुए थे। वे निरन्तर सृजनात्मक श्रम करने वाले युवा चित्रकारों के समूह का सक्रिय हिस्सा रहे हैं। उनकी सहभागिता वाली सामूहिक प्रदर्शनियाँ देश के अनेक शहरों में आयोजित हुई हैं। अनेक कार्यशालाओं में विषय विशेषीकृत की अभिव्यक्ति और परिकलपना के साथ उन्होंने काम किया है।

हेमन्त एक कुशल परिकल्पनाकार और आकल्पक तो हैं हीं कुछ वर्ष पहले छायांकन में उनका रुझान उनके सृजनधर्मी आयाम का विस्तार करता है। दोनों ही कलाकारों की स्वतंत्र पहचान और कलाजगत में अपना नाम है। कैलेण्डर में हेमन्त वायंगणकर के दो छायाचित्र शामिल हैं।



इस कैलेण्डर के लिए दोनों ही कलाकारों ने हैलीकाॅप्टर से लगभग सात-आठ दिन अलग-अलग योजनाओं के साथ उड़ान भरी। उनके साथ इस सांस्कृतिक प्रकल्प को पूरा करने में कैप्टन वी के सिंह एवं संजय श्रीवास्तव का अहम योगदान रहा है। जांगले और हेमन्त इस यात्रा को गहरे अनुभव से भरी और खूब रोमांचक बतलाते हुए इसका सारा श्रेय मुख्य सचिव अॅन्टोनी डिसा और जनसम्पर्क आयुक्त एस के मिश्रा को देते हैं। वे बताते हैं कि यह सांस्कृतिक ख्याल मुख्य सचिव का अपना मौलिक विचार था जिसे चर्चा में उच्चस्तर पर लोकतांत्रिक समर्थन और प्रोत्साहन मिला। दोनों का ही कहना था कि मुख्य सचिव और जनसम्पर्क आयुक्त ने इसके लिए जिस उदारता के साथ काम करने के संसाधन प्रदान किए, उनके साथ ही यह काम सम्भव हो सकता था।

यह कैलेण्डर चूँकि एक बड़े सांस्कृतिक ख्याल और पर्यटनात्मक दृष्टिकोण के साथ तैयार किया गया है, इसके लिए आवश्यक है कि यह मध्यप्रदेश तक ही सीमित न रह जाये बल्कि देश के विभिन्न राज्यों और विदेशी दूतावासों तक इसकी पहुँच पर विचार किया जाना चाहिए तभी इसका उद्देश्य ज्यादा सार्थक होगा।

बुधवार, 11 मार्च 2015

कहने को अवकाश हैं....

अक्सर मुझे वो बस दीख जाया करती है, उसी को लेकर मैं सोचा करता हूँ कि किसी दिन पहले बस स्टॉप से एक टिकिट खरीदकर बैठ जाऊँगा और कण्डक्टर से कहूँगा कि मुझे आखिरी स्टॉप से लौटकर यहीं ले आकर उतार दे। इतना पैसा मैं उसको दे दूँगा और फिर चैन से खिड़की के पास बैठकर बाहर देखा करूँगा, आते-जाते लोग, छोटे-बड़े वाहन, नियम से चलते और नियम तोड़ते लोग, साथ जाते, पीछे पड़ते लोग, माँगने वाले, देने वाले, दुत्कारने वाले सब कुछ।
लम्बे समय में बस इसी का समय नहीं मिला। मुझसे घर के लोग कहते हैं कि रात में सोते समय मैं कुछ बका करता हूँ। मैं सोच में पड़ जाता हूँ, बोलता हूँ कि बका करता हूँ कि बड़बड़ाया करता हूँ। फिर यह सोचकर भी डर जाता हूँ कि उस बकने को घर के लोग कहीं ध्यान से तो नहीं सुनते होंगे ! हो सकता हो गाली-गलौच या फिर वे बातें जो इनको पता न होंगी, डर जाना स्वाभाविक है।
एक बार बड़े सबेरे रेल्वे स्टेशन जाना हुआ था, बहन आने को थी, उसके आने की सूचना पर सुबह जल्दी जागना अच्छा लगता है। उस दिन रेल देर से आ रही थी, मैं खाली सूनसान प्लेटफॉर्म में दूर एक बैंच पर जाकर बैठ गया, अकेले। एक पैसेंजर रेल एक पटरी पार कब से खड़ी थी। फिर मेरे मन में आया कि किसी एक दिन ऐसे ही इस तरह की रेल में बैठकर चल दूँ। इसी रेल में पेट में टोकरी फँसाये उबले हुए चने बेचने खोमचे वाले आते हैं जो कागज के चोंगे में नीबूँ को भी नाच नचाकर निचोड़ते हैं, मगर क्या गजब स्वाद। कभी चवन्नी अठन्नी में खाये थे, अब पाँच रुपए से कहो कम में न दे। यहाँ भी बस सोचा हुआ, सोचा हुआ ही रह जाता है।
समय के साथ जीवन में ऐसी बहुत सी चीजें खारिज हुआ करती हैं। दोस्त इसी बात पर दुखी रहते हैं कि बड़े दिनों से बैठे नहीं। क्या बताओ कि बड़े दिनों से चैन से भी नहीं बैठे। दरअसल हम सबको, मुझको, मित्रों को भी ऐसे समय की खामोख्याली बनी ही रहती है और ऐसा दिन बड़े दिनों में ही आता है। बहुत सारा कूड़ा करकट इकट्ठा किए सभी जिए चले जा रहे हैं, ऐसा मैं सोचता हूँ। प्राय: सभी को शायद बैठने का वक्त नहीं मिलता होगा, जब तक नहीं बैठते होंगे, बात-बेबात गरियाते हुए उसका कर्टन रेजर पेश करते होंगे।
अपने शहर में जमीन से गड़ी हुई खाली बैंचे देखकर भी मन करता है कि यहाँ बैठ जाओ। पहले देर तक पैर फैलाकर बैठे रहो, फिर उसके बाद पालथी मारकर भी बैठे रहो। अपन बस बैठे रहो क्योंकि यह बैठने के लिए ही जमीन में गाड़ कर लगायी गयी है। हँसी आ जाती है, यदि रख भर दी जाती तो अब तक उठाकर भी ले जायी जाती। इसी हँसी में रेल के शौचालय का ध्यान आ जाता है जहाँ स्टील का मग चैन से बांधकर रखा जाता है। पहले मुझे लगा कि यह भी इसीलिए बांधा जाता होगा कि रख भर देने से चला जाता फिर यह सोचा भी बांधेंगे नहीं तो गिरता-पड़ता रहेगा। हँसी हालाँकि दोनों ख्यालों में आती रही।
एक दिन ऐसे ही आकाश देखते रहने का मन भी है। जमीन पर पाँव नहीं पड़ते। ठोकरें लगा करती हैं, उसी में कराहते वक्त बीता जाता है। कभी-कभार आकाश देखते हैं तो मन करता है देखते रहो। आकाश का अवकाश से सम्बन्ध है, शायद विरोधाभासी। अवकाश होगा तभी आकाश देखेंगे। अवकाश होगा तो बैंच भी काम की है, बस और पैसेंजर भी और बैठक भी। कहने को तमाम अवकाश हैं, जोड़ते मिलाते जाओ तो दिन ही दिन पर मिलते नहीं। जीवन से बहुत कुछ छूटता चला जाता है। हम सभी कुछ भूलते-बिसराते चले जाते हैं। हथेलियों को साफ करते रहते हैं, मलते रहते हैं। वक्त को अपने सामने खड़े-खड़े जाते हुए देखते हैं। यह देखते रह जाना ही परिणाम है शायद।

सोमवार, 2 मार्च 2015

बौर-झूमर का क्षरण

शनिवार का पूरा दिन ठण्डी हवाओं के प्रभाव में ऐसा रहा कि सूरज देवता जैसे आसमान की ओट में ही छुपे रहे। एक दिन पहले तक दिन खूब गरम होने लगा था। कल देर रात या कह लें उत्तरार्ध में बूंदों की ध्वनियाँ नींद भरी चेतना को जगाती सी लगीं। थोड़ी देर में ही ऐसा लगा कि बूंदों का यह अचानक आना नम्रतापूर्वक नहीं है। एक ही तीव्रता में इस बरसते पानी के साथ ही सुबह हुई जिसने पूरा दिन ही अपने नियंत्रण में किए रखा।
सोच रहा था कि यह एक गति से भिगोता-बरसता पानी सीधे जमीन में जा रहा है, गहरे जाकर ठहर जायेगा और फिर उस तरह से फायदा देगा जैसे फायदे की अपेक्षा ऐसी बरसात से की जाती है। होली आने को है, कुछ वर्ष पहले का स्मरण हो आता है जब उस रात ही बहुत तेज पानी अचानक बरस गया था जब होलिका दहन हो रहा था।
इस बार कल रात से बरस रहे इस पानी ने और पता नहीं क्या किया हो, क्या न किया हो लेकिन जो मुझे नजर आया उस पर सोचकर एक तरह का दुख ही व्याप्त हो गया। इस चोरी-छिपी बूंदा-बांदी के साथ ही घर और आसपास के तमाम आम के पेड़ों से बड़ी मात्रा में वो आम के बौर झरकर जमीन पर गिरने लगे जिनको कल तक देखकर मन प्रसन्न हुआ जा रहा था। लग रहा था कि इस बार आम अच्छा आयेगा। ये बौर जल्दी ही नन्हें-नन्हें हरे नगों की तरह अपने जन्म का साक्ष्य खुद हो जायेंगे। धीरे-धीरे फलेंगे, बड़े होंगे, गुच्छों में दूर ऊँचाई से ललचायेंगे।
कैरी, हरे आम से लेकर पके आम तक इनकी कितनी उपयोगिता होगी! कितने ही व्यंजनों को ये स्वादिष्ट बना देंगे, आप कितनी तरह के स्वादों के साथ मिलकर हमें लुभाये रहेंगे। साल भर का अचार होंगे। दाल की स्वादिष्ट खटास से लेकर चटनी का चटखारा होंगे, लू का पक्का इलाज पना होंगे, जलजीरा होंगे, पकेंगे तो अप्रतिम स्वाद से जी भर देंगे।
इतना सब कुछ सोचकर फिर निगाह अपने आँगन, सामने की सड़क और आगे ज्यों-ज्यों बाहर आता गया, हर जगह जमीन पर पड़ी तो मन उदास हो गया, अच्छा नहीं लगा। झूमर और झालर की तरह लहलहाते आम के बौर इस बेतरतीब बरसात का किस तादात में शिकार हो गये, कामना और आकलन करना मुश्किल है। प्रकृति अपनी असहजताओं, नियंत्रण के बाहर होने पर, सन्तुलन के बिगड़ने पर किस-किस तरह के नुकसान करती है, इसका यह एक संवेदनशील उदाहरण है। हो सकता है, आपके जहन में इस तरह का दृश्य न आया हो, आप इसके साक्षी न बने हों लेकिन हमारे-आपके पैरों के नीचे आते, ये गिरे-बिखरे आम के बौर आपमें क्या भाव जगाते हैं, जरा सोचिएगा.....................

रविवार, 1 मार्च 2015

अब तक छप्पन 2

सिनेआलोचक अपने एक मार्गदर्शन मनमोहन चड्ढा के कहने पर कुछ वर्ष पूर्व मैंने नाना पाटेकर की फिल्म अब तक छप्पन देखी थी। इधर कुछ दिन पहले से अब तक छप्पन 2 के ट्रेलर आने शुरू हुए तो लक्ष्य किया कि इसे भी तत्काल ही देख लूँगा। हालाँकि पहली फिल्म भी बाजार की दृष्टि से बहुत उत्सावर्धक नहीं थी और इस दूसरे भाग का भी बहुत कुछ भला हो जाने वाला है, ऐसा लगता नहीं क्योंकि ऐसा लगना तब स्वाभाविक है जब अपने मित्र और दो अन्य दर्शकों के साथ मॉल हॉल में यह फिल्म देखी हो।
दरअसल हम सभी को नाना पाटेकर बहुत प्रभावित करते हैं। शुरू से अब तक उनकी शख्सियत एक जैसी है। कुछ समय बाद ही उन्होंने दाढ़ी के साथ अपने बालों को भी आधा सेन्टीमीटर की हद में कर लिया था। उनका स्वर, संवाद अदायगी और किरदार विशेष के लिए उनका सदैव सा तेवर आकर्षित करता है, आज भी। गुनहगारों का स्याह संसार और उनसे लड़ने वाली शक्तियाँ, सामाजिक और व्यवस्था से जुड़ी हुईं, सभी अपनी सत्ता-सीमा और दायित्वों में जूझ रहे हैं। राजनीति, सरकार, अपराध और पुलिस, फिर इन दायरों में हर जगह पर कनिष्ठ लोगों की दशाएँ, ये सब बड़ी गहराई में जाने वाली बातें हैं, अच्छा पटकथाकार अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह के भीतर तो चला जाता है मगर केन्द्र में खड़ा होकर भटकाव, पटकथा की खराबी कर देता है। एक सशक्त फिल्म हो सकने की सम्भावना की कीमत पर यह फिसलन गले नहीं उतरती।
नाना और उनके लिए बहुत मर्दाने संवाद ही लिखना काफी नहीं है। एक एन्काउण्टर स्पेशलिस्ट को वापस बुलाया जा रहा है, उसकी क्षमताओं पर विश्वास है, पुलिस अधिकारियों की बैठक में यह भी बात की जा रही है कि ऐसे व्यक्ति को दायित्व दिया जाना चाहिए जो ईमानदार हो। बाद में रहस्य खुलता है कि एक मंत्री की महात्वाकाँक्षा सारे रूपक को रचती है। अनावृत्त होकर वह मंत्री, जिसका किरदार विक्रम गोखले ने निभाया है, बेहद सस्ता और हास्यास्पद सा लगता है जब वह साधु आगाशे से बात करता है। फिल्म का अन्त निर्मम दृश्य रचता है जब एक पेन के जरिए नायक इस खलनायक को सार्वजनिक रूप से मार देता है।
दिलचस्प यह है कि नाना पाटेकर, जैसा कि फिल्म में वे जिस कुरसी पर बैठते हैं, आशुतोष राणा का किरदार उस कुर्सी का ख्वाहिशमंद है, एक तरह से केप्टनशिप को अपने हाथ में ही रखते हैं। वे हर फ्रेम के नायक हैं, पैंसठ की उम्र में उनके एक्शन महत्वपूर्ण हैं। आशुतोष राणा ने अविश्वसनीय और कुण्ठित पुलिस अधिकारी का किरदार निभाया है, वे चेहरे से परदे पर स्थूल दिखायी देते हैं। गोविन्द नामदेव निरन्तर उपस्थिति है मगर किरदार प्रभावित नहीं करता। गुल पनाग की भूमिका सीमित है, साधारण भी। मोहन आगाशे छोटे रोल में अपनी सहजता से असर छोड़ते हैं, खासतौर पर नायक के साथ उनकी संगत, बातचीत का तरीका। दिलीप प्रभावलकर का रोल छोटा है, मुख्यमंत्री की भूमिका में।
फिल्म एक एक्शन डायरेक्टर की है, ऐजाज गुलाब ने उस प्रभाव को फिल्म से हटने नहीं दिया है। इस फिल्म का एक अच्छा पक्ष इसका सम्पादन है, पौने दो घण्टे की फिल्म है, उबाऊ नहीं है। एक डायलॉग साधु आगाशे का याद रह जाता है, मैंने पहले छप्पन एनकाउण्डटर किए थे, ये एनकाउण्टर छप्पन के बराबर था..............