सिनेआलोचक अपने एक मार्गदर्शन मनमोहन चड्ढा के कहने पर कुछ वर्ष पूर्व मैंने नाना पाटेकर की फिल्म अब तक छप्पन देखी थी। इधर कुछ दिन पहले से अब तक छप्पन 2 के ट्रेलर आने शुरू हुए तो लक्ष्य किया कि इसे भी तत्काल ही देख लूँगा। हालाँकि पहली फिल्म भी बाजार की दृष्टि से बहुत उत्सावर्धक नहीं थी और इस दूसरे भाग का भी बहुत कुछ भला हो जाने वाला है, ऐसा लगता नहीं क्योंकि ऐसा लगना तब स्वाभाविक है जब अपने मित्र और दो अन्य दर्शकों के साथ मॉल हॉल में यह फिल्म देखी हो।
दरअसल हम सभी को नाना पाटेकर बहुत प्रभावित करते हैं। शुरू से अब तक उनकी शख्सियत एक जैसी है। कुछ समय बाद ही उन्होंने दाढ़ी के साथ अपने बालों को भी आधा सेन्टीमीटर की हद में कर लिया था। उनका स्वर, संवाद अदायगी और किरदार विशेष के लिए उनका सदैव सा तेवर आकर्षित करता है, आज भी। गुनहगारों का स्याह संसार और उनसे लड़ने वाली शक्तियाँ, सामाजिक और व्यवस्था से जुड़ी हुईं, सभी अपनी सत्ता-सीमा और दायित्वों में जूझ रहे हैं। राजनीति, सरकार, अपराध और पुलिस, फिर इन दायरों में हर जगह पर कनिष्ठ लोगों की दशाएँ, ये सब बड़ी गहराई में जाने वाली बातें हैं, अच्छा पटकथाकार अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह के भीतर तो चला जाता है मगर केन्द्र में खड़ा होकर भटकाव, पटकथा की खराबी कर देता है। एक सशक्त फिल्म हो सकने की सम्भावना की कीमत पर यह फिसलन गले नहीं उतरती।
नाना और उनके लिए बहुत मर्दाने संवाद ही लिखना काफी नहीं है। एक एन्काउण्टर स्पेशलिस्ट को वापस बुलाया जा रहा है, उसकी क्षमताओं पर विश्वास है, पुलिस अधिकारियों की बैठक में यह भी बात की जा रही है कि ऐसे व्यक्ति को दायित्व दिया जाना चाहिए जो ईमानदार हो। बाद में रहस्य खुलता है कि एक मंत्री की महात्वाकाँक्षा सारे रूपक को रचती है। अनावृत्त होकर वह मंत्री, जिसका किरदार विक्रम गोखले ने निभाया है, बेहद सस्ता और हास्यास्पद सा लगता है जब वह साधु आगाशे से बात करता है। फिल्म का अन्त निर्मम दृश्य रचता है जब एक पेन के जरिए नायक इस खलनायक को सार्वजनिक रूप से मार देता है।
दिलचस्प यह है कि नाना पाटेकर, जैसा कि फिल्म में वे जिस कुरसी पर बैठते हैं, आशुतोष राणा का किरदार उस कुर्सी का ख्वाहिशमंद है, एक तरह से केप्टनशिप को अपने हाथ में ही रखते हैं। वे हर फ्रेम के नायक हैं, पैंसठ की उम्र में उनके एक्शन महत्वपूर्ण हैं। आशुतोष राणा ने अविश्वसनीय और कुण्ठित पुलिस अधिकारी का किरदार निभाया है, वे चेहरे से परदे पर स्थूल दिखायी देते हैं। गोविन्द नामदेव निरन्तर उपस्थिति है मगर किरदार प्रभावित नहीं करता। गुल पनाग की भूमिका सीमित है, साधारण भी। मोहन आगाशे छोटे रोल में अपनी सहजता से असर छोड़ते हैं, खासतौर पर नायक के साथ उनकी संगत, बातचीत का तरीका। दिलीप प्रभावलकर का रोल छोटा है, मुख्यमंत्री की भूमिका में।
फिल्म एक एक्शन डायरेक्टर की है, ऐजाज गुलाब ने उस प्रभाव को फिल्म से हटने नहीं दिया है। इस फिल्म का एक अच्छा पक्ष इसका सम्पादन है, पौने दो घण्टे की फिल्म है, उबाऊ नहीं है। एक डायलॉग साधु आगाशे का याद रह जाता है, मैंने पहले छप्पन एनकाउण्डटर किए थे, ये एनकाउण्टर छप्पन के बराबर था..............
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