उस रात जब नींद नहीं आ रही थी, तब पड़े-पड़े मैं यही सोचता रहा कि लिखे हुए पैराग्राफों और कम्पोज़ की हुई कितनी ही किताबों के प्रूफ़ पढ़ने में अपनी दक्षता हासिल करने के बाद भी बहुत सी बातें मैं खुद न समझ पाया। जब नया-नया सीखा था तब प्रायः गल्तियाँ छूट जाया करती थीं। उन छूटी हुई गल्तियों को मुझे बड़े पकड़ लिया करते थे जो स्वाभाविक रूप से मुझसे ज़्यादा ज्ञानी थे। वे मुझे उन गल्तियों का एहसास कराया करते थे।
अधिकतर तो मेरे साथ यही हुआ कि जब-जब गल्तियाँ चिन्हित हुईं, मुझे उन्होंने इंगित करते हुए यही बताया कि इस सही शब्द का ज्ञान तुम्हें अब हो जाना चाहिए और अगली बार जब यह शब्द तुम्हारी निगाह से गुजरे तब सही-सही ही जाये। मैं एक तरह से, इसे अपने बच जाने का एक अवसर ही माना करता था। हाँ लेकिन वह भी सोच लिया करता था कि अब की बार यह शब्द उस ही सच की तरह जायेगा जैसा बता दिया गया है। अगर नहीं गया तो शायद लज्जित होना पड़ेगा।
कुछ डर कह लीजिए और कुछ अपने लिए सबक भी कह सकते हैं कि धीरे-धीरे वे गल्तियाँ सुधारता गया जो किया करता था। तब मैं यह भी सोचता था कि जिस तरह से जानकार और मेरी गल्तियों पर पेंसिल रखकर जताने वाले मुझे सही का ज्ञान कराया करते हैं, जब मैं इन सब बातों को अच्छी तरह समझने लगूँगा और फिर मुझे किसी की गल्ती जाँचने का मौका मिलेगा तो मैं भी इसी तरह उन्हें चिन्हित करूँगा और जिससे गल्ती हुई होगी, वह आगे चलकर उन्हें ठीक करने के अवसर पाये, इतनी उदारता रखूँगा।
यह भी कहने की बात ही है कि एक समय बाद वह दौर भी आ गया। पढ़ा हुआ इस बात का भी प्रूफ़ होता था कि कोई सी भी प्रूफ मिस्टेक नहीं है। लेकिन इधर यह भी देखने का बोध नहीं हो पाया कि अपने कहे-बोले में कितने प्रूफ सुधार की गुंजाइश है? बरसों ही बीत गये, कहिए तब यह बात प्रश्नवाचक चिन्ह लगाकर लिख पा रहा हूँ। ऐसा लगता है कि जीवन में प्रूफ की गल्तियाँ कभी भी हो जाया करती हैं। समय के साथ मैं यह उदारता बरत रहा हूँ कि छपे हुए में प्रूफ की भूलों को देखकर कुछ नहीं कहता। एकाध बार इस तरह का उत्तर मिला कि मैंने देखा तब सही था या सही तो लिखा था, पता नहीं कैसे हो गया? अबोध उत्तरों पर यही लगा कि व्यवहार में अब इसकी बहुत जरूरत नहीं रह गयी है। प्रूफ़ की भूलों से तैयार छपे हुए का भी स्वागत किया जाना चाहिए।
देखता हूँ कि अब अपनी जि़न्दगी में सब लिखे, अधलिखे फलसफों के प्रूफ ठीक से देखे जाना चाहिए। बहुत जल्दी हुआ करती है लिखने की, पन्नों को भरते रहने की और पता नहीं इसी में शब्दों का हिसाब-किताब गलत हो जाता है। हिसाब-किताब शब्द का अर्थ गुणा-भाग सा नहीं है, ज़ाहिर है पर मन करता है, फिर जैसे पन्ने उलटने की कोशिश करूँ। अब तक सारी आपाधापी पन्ने पलटने की रही है। मन करता है कि ठहर जाऊँ और पलटना बन्द करके, पन्ने लिखने के बजाय पन्ने उलटकर ध्यान से प्रूफ देखूँ। व्यवहार और चलन दोनों के ही इस बदल चुके ज़माने में उन सारी पटरियों को, जितना बन सके, दूर तक देख लेना चाहता हूँ, मुड़ने के बाद जिनका पता नहीं चलता। मुझे मोड़ के पश्चात उस अदृश्य से घबराहट महसूस होती है।
रात गहराती है, वे पंछी अपनी आवाज़ से भ्रम पैदा करते हैं जो सुबह-सुबह आकाश में उड़ते हुए अपने पुरुषार्थ को समूह में जाया करते हैं। भौंकते हुए कुत्ते अचानक रोने लगते हैं, उनके रूदन पर न गुस्सा आता है और न ही डर लगता है। नींद में ही समझने की कोशिश करता हूँ कि वे जरूर पीड़ा महसूस कर रहे होंगे, असहृय पीड़ा जिस बर्दाश्त न कर पाने के कारण वो रो रहे हैं....................
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