गुरुवार, 30 दिसंबर 2010

गा-बजाकर हाथ छोड़ देने का दिन

साल का आखिरी दिन इस औपचारिक जगत में हजारों मैसेज वाले किफायती वाउचर के भरपूर उपयोग का दिन होता है। सकल आधुनिकता जाते हुए साल को सलाम करते हुए नये साल के आगमन वाले एस एम एस भेजने और पढऩे में लग जाती है। वृत्ति-प्रवृत्ति के अनुकूल आप्त वाक्य हमें पढऩे को मिलते हैं। कोई शाश्वत समय की बात कहता है तो कोई पश्चिम से प्रेरित बयार में डूबी हुई। घटिया और अश£ील चुटकुलों के प्रेमीजन इस विषय में गहरे शोध के बाद जो कुछ हासिल करते हैं, यहाँ-वहाँ भेजने में जुट जाते हैं।

टेलीविजन के चैनलों में जाते हुए साल को हंगामाखेज बनाने और आते हुए साल का आगाज खासे हुड़दंग के साथ करने की तैयारियों में बहुत पहले से दिमाग खपाया जाता है। तथाकथित क्रिएटिव हेड, इस पर बहुत मेहनत करते हैं। बहुत से आइडिया ढूँढ़ते-हासिल करते हैं, बहुत सा खारिज करते हैं और अन्त में जिससे सहमत हुए उसे पेश कर देते हैं। राष्ट्रीय से लेकर प्रादेशिक दूरदर्शन भी अपनी सदाघोषित गिरी माली हालत और दिवालिएपन के बीच जैसा-तैसा मनोरंजन जुटाने की कोशिश करता है। दूरदर्शन के कार्यक्रम इस तरह के होते हैं कि बनाने वाला इस अन्दाज में बनाता है कि कोई न देखे तो अच्छा हो। वैसे भी बहुत कम लोग ही देखते हैं क्योंकि बहुत सारे रंगीन चैनल दर्शक के हाथ में सधे रिमोट को सीधा साधकर रखते हैं। इन चैनलों में फूहड़तापूर्वक खूब सारा हँसने के तमाम मौसम मौजूद रहते हैं। बच्चे कलाकार पुरखों की भूमिका निबाहते हैं और बड़े-बुजुर्ग बाल-सुलभ उपस्थिति में होते हैं।

हमारे चैनलों में हास्य के कार्यक्रमों में आदमियों के साड़ी, सलवार-सूट और घाघरा पहनकर आने और स्त्रैण आवाज में बोलने की खूब परिपाटी चल पड़ी है। जोर-जोर से हँसने को बैठाये गये लोग उन कलाकारों की फब्तियों पर ऐसे हँसते हैं जैसे तमाम गुदगुदी कर दी गयी हो। मनोरंजन के नाम पर भले यह सब आँख बन्दकर करम ठोंक लेने वाला मनोरंजन हो मगर कलेजे पर पत्थर रखकर खूब देखते हैं सब। फिल्मों का हास्य तो पहले ही कब का स्तरहीन हो गया। बोलने, चलने-फिरने, दीखने की तमाम शारीरिक व्याधियाँ, कलाकारों ने हास्य के लिए हासिल कर ली हैं। हास्य, कॉमेडी है और मनोरंजन, इन्टरटेन्मेंट। नयी परिभाषाओं में सब धक रहा है। दर्शक वही है जो अनेक बार हैजा फैला देने वाली सडक़छाप गन्दगी भरी पानी पूरी भी चटखारे लेकर खा लिया करता है, भले अगले दिन उसका बड़ा खामियाजा भुगते। सिनेमा भी आज इसी तरह देखा जाता है और टेलीविजन भी।

हम सब, सब किस्म के मनोरंजन का हिस्सा बन जाते हैं, बिना जाने-बूझे और जानबूझ कर भी। माजरा कुल मिलाकर दिलचस्प है, हमारा बाहर, हमारा भीतर सब व्यतीत होते समय में बहुत अप्रासंगिक सा भी लगता है, कई बार। साल भी हम ऐसे ही व्यतीत कर दिया करते हैं, साल का आखिरी दिन भी हमारे लिए उसकी संगत में गा-बजाकर हाथ छोड़ देने का दिन ही होता है।

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

विफलता अपने खड़े किए जोखिम

हिन्दी सिनेमा, बॉलीवुड का सबसे ज्यादा आर्थिक जोखिम से भरा कारोबार बन गया है। बरसों से ऐसा होने लगा है। बहुत सारे जानकार, ज्ञानवान लोग इस बात की तह में जाने की कोशिश करते हैं कि लगातार घाटे, नुकसान और विफलता के बावजूद बॉलीवुड में सिनेमा लगातार इस तादात में, इतने उत्साह के साथ बनता कैसे रहता है, लेकिन आज तक इस रहस्य को कोई नहीं जान पाया। जब से पुराने सिनेमाघर की संख्या घटी है, सिनेप्लेक्स, आयनॉक्स, मल्टीप्लेक्स कल्चर आया है, फिल्मों, खासकर जीवनशैलियों में मानवीय विविधता से भरी फिल्मों का अलग सा ही चलन बढ़ा है। बड़े घरों की शादियों, नाते-रिश्तेदारों की मन:स्थितियों, कुटैव और षडयंत्रों के साथ-साथ शादियों में शामिल रहते हुए तमाम विघ्र डालने के षडयंत्रों और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष फौरी तौर पर बनने-बिगडऩे वाले सम्बन्धों पर फिल्में बन जाया करती हैं, जिनको दर्शक वर्ग अलग सिनेमाघर में बड़ी रुचि से देखता है।

सत्तर के दशक की वापसी और उसकी लगभग सीधी-सीधी टीपने वाली वृत्ति भी दर्शकों में ऐसी हिट हो गयी कि ओम शान्ति ओम से शुरू हुआ सिलसिला दबंग पर जाकर चरम पर पहुँच गया। हाँ, एक्शन रीप्ले और तीस मार खाँ तक आते-आते यह नुस्खा भी अब बेअसर होता दीख रहा है। तीस मार खाँ जरूर सम्हली हुई फिल्म लगती है क्योंकि सोमवार को भी टिकिट खिडक़ी पर भीड़ नजर आयी, जिससे लगता है, बहुत सारे बुरे कयासों के बावजूद फराह खान सुरक्षित सफल हो जायेंगी। यह पूरा साल, कुल जमा तीन फिल्मों के लिए जाना जायेगा जिसकी थ्री ईडियट्स, राजनीति और दबंग प्रमुख हैं। बड़ी सफलताओं में इन फिल्मों का शुमार होने से एक और अच्छी फिल्म अजब प्रेम की गजब कहानी को लोग शायद उतना याद न कर पाएँ मगर फिल्म वह बनी बहुत दिलचस्प थी और राजकुमार सन्तोषी को भी अन्दाज अपना अपना के निर्देशक के रूप में इस फिल्म के बहाने ही सही अच्छे ढंग से याद किया गया था।

कलाकारों में सलमान सर्वाधित सफल और रणवीर कपूर सर्वाधिक फिल्में देने वाले नायक के रूप में याद किए जाएँगे। नायिकाओं में कैटरीना-करीना का ही जोर था। अजय देवगन सिर्फ गोलमाल थ्री का जितना श्रेय अपने लिए ले सकें, ले सकें वरना राजनीति में वे अपने आपको ठगा महसूस करते रहे और टूनपुर में भी उनका धन डूब ही गया। इस साल को हम दो विचित्र नामों वाली फिल्मों बदमाश कम्पनी और लफंगे परिन्दे के लिए भी जानेंगे।

यह साल अनुषा रिजवी की पीपली लाइव की सुर्खियों और सफलताओं का भी है, जिसने छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले के भिलाई में एक छोटे से घर में रहने वाले लोक कलाकार ओंकारदास मानिकपुरी को वल्र्ड फेम सितारा बना दिया। ओंकारदास, अपने उस हाथ को सहलाते हुए, जिस पर आमिर ने अपना हाथ रखा था, कहते हैं, आमिर बोले, तुम तो कमाल के एक्टर हो, मेरा रोल ही ले लिए..।

इसी साल डी. रामानायडू को फाल्के अवार्ड मिला, वहीं नलिनी जयवन्त जैसी वरिष्ठ अभिनेत्री जाते साल में नहीं रहीं।

मंगलवार, 28 दिसंबर 2010

बड़े तीस मार खाँ बने फिरते थे..

किसी भी बड़बोले को ध्वस्त होते देखकर, अक्सर सभी के मुँह से यही निकलता है, बड़े तीस मार खाँ बने फिरते थे..। अब तीस मार खाँ का हाल देखकर क्या कहें? शिरीष कुन्देर का कन्सेप्ट खराब था या फराह खान का निर्देशन? अक्षय कुमार, एक्शन हीरो की जगह मिमिक्री आर्टिस्ट साबित हो गये या कैटरीना का जादू नहीं चला? क्या सलमान खान की उपस्थिति ने भी फिल्म को नहीं बचाया? समीक्षकों ने इस फिल्म को बुरी तरह रगड़ा है। सिनेमा के सबसे प्रखर और निर्भीक समीक्षक खालिद मोहम्मद ने इसे डेढ़ सितारा दिया है।

कई बार प्रश्र यह उठता है कि फिल्म बनकर खराब दिखायी देती है या खराब बनायी ही जाती है? इस बात पर विश्वास करना कठिन होता है कि क्या निर्देशक या काम करने वाले सितारों को आखिरी समय तक एहसास नहीं होता कि वे क्या बनाने चले थे और क्या बनता चला जा रहा है? बेचारा दर्शक अपनी खाली जेब खुजाता हुआ, फिल्म देखने के अपने निर्णय पर सिर धुनता है। उसको लगता है कि फिल्म से बेहतर तो पॉपकार्न था। पॉपकार्न सचमुच कई बार फिल्म से ज्यादा सन्तुष्ट करता है, खाने वाले को और जो नहीं खाता उसे हॉल में तुरन्त फैल जाने वाली उसकी सोंधी महक से।

बाकी आप टूनपुर का क्या कहेंगे? वह तो गिनती में भी नहीं थी। अजय को यह कहकर मलहम लगाया जा सकता है कि बच्चों के प्रति उनका समर्पण काबिले तारीफ है। बरसों पहले उन्होंने राजू चाचा फिल्म भी करोड़ रुपए खर्च करके बच्चों के लिए ही बनायी थी जो फ्लॉप हो गयी थी। टूनपुर भी उसी दशा को प्राप्त हुई है। बिना हल्ले-गुल्ले के इसी लाइफ में आयी, जिसको सराहा जा रहा है। पिछले दो-तीन बार से राजश्री भी विफल फिल्म बनाने का कीर्तिमान स्थापित किए जा रही थी, उसको इसी लाइफ में, से उस अपयश से तनिक निजात मिली है।

साल का आखिरी दिन शुक्रवार का है, फिल्म प्रदर्शन का नियमित दिन। सुधीर मिश्रा की तेरा क्या होगा जॉनी, किट्टू सलूजा की भूत एण्ड फ्रेण्ड्स और एक अंग्रेजी फिल्म गुलिवर्स ट्रेवल्स प्रदर्शित होने जा रही हैं। तेरा क्या होगा जॉनी के बारे में हमने अपने स्तम्भ में कई माह पहले बात की थी कि नायक नील के पिता नितिन मुकेश इस बात पर अफसोस कर रहे थे कि रिलीज में विलम्ब और व्यवधान के बीच ही इन्टरनेट पर फिल्म आ गयी है। खैर इसके सात-आठ माह बाद फिल्म को थिएटर मिला है। फिल्म के प्रोमो बहुत अच्छे हैं। हिट न हो मगर सुधीर मिश्रा की फिल्म बहुत से लोग देखते हैं, यह बात भी है। नये साल में फिर बहार होगी। जनवरी में प्रदर्शित होने वाले प्रोमोज़ में यमला पगला दीवाना के प्रोमो आगे है, बॉबी अपनी हीरोइन से कहते हैं, जब धरमिन्दर और सनी लड़ रहे हैं तो बॉबी क्या करेगा वहाँ..।

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

फिल्म इन्स्टीट्यूट के सक्रिय आयाम

भारतीय फिल्म एवं टेलीविजन प्रशिक्षण संस्थान, पुणे ने पिछले तीन सालों में नये आयामों के साथ विस्तार लिया है। संस्थाओं को समृद्ध बनाना, उनकी सक्रियता की स्थितियों को आज के पैमाने और धरातल पर देखकर नवाचार करना और विशेषकर पीढिय़ों की सहभागिता उनके अपने मानस और दृष्टि के अनुकूल बनाकर सुनिश्चित करना एक अलग तरह का काम है। संस्थान के निदेशक पंकज राग ने इन वर्षों में वहाँ जिस प्रकार की उदारता और सम्भावना की जरूरत समझी, उसके अनुकूल उपक्रम किए, उनके परिणाम आज भी दिखायी देते हैं और दो वर्ष बाद भी दिखायी देंगे जब भारतीय सिनेमा की शताब्दी मनायी जा रही होगी।

पंकज राग, एक परिकल्पना, एक मिशन लेकर संस्थान में निदेशक बतौर गये थे। सिनेमा के प्रति उनकी अपनी रुचियाँ हैं, खासकर सिने-संगीत के क्षेत्र में धुनों की यात्रा जैसी दुर्लभ और अकेली ऐसी किताब उन्होंने लिखी है, जिसमें खासकर संगीतकारों की काल-सम्मत सक्रियता, कथ्य और परिवेश के अनुरूप गीत की संगीतबद्धता और उनके सृजनात्मक मानस का गहरा विवेचन है। पंकज राग, भारतीय प्रशासनिक सेवा के, मध्यप्रदेश काडर में, सचिव स्तर के अधिकारी हैं। भारत सरकार को निदेशक के रूप में सौंपी गयी सेवाओं की अवधि फरवरी माह में पूरी हो रही है, इसी बीच भोपाल में इस स्तम्भ के लिए उनसे अनौपचारिक बातचीत हुई जिसमें उन्होंने बताया कि कई सारे कामों की शुरूआत इस बीच हुई और कई रुके काम फिर आरम्भ हुए जिनमें खासतौर पर अभिनय के कोर्स का शुरू होना एक बड़ी उपलब्धि है।

वे कहते हैं कि अधिकतर प्रशिक्षु अपने लिए प्रथमत: अभिनय, फिर निर्देशन का पाठ्यक्रम चुनते हैं, सम्पादन, ध्वन्याँकन, कला निर्देशन की तरफ लोगों का रुझान कम रहता है लेकिन पिछले तीनों पाठ्यक्रमों में लोग आये। वे लेंससाइट पत्रिका के पुनप्र्रकाशन, विशेषकर उसका हिन्दी-अंग्रेजी भाषाओं में प्रकाशन, चार अंकों का प्रकाशित होना और उसकी लम्बे समय से बन्द होने के भी पहले की रूढ़ पहचान को भी बदलने का काम संस्थान ने किया। संस्थान में अब होस्टल को लेकर समस्या नहीं रही क्योंकि एक नया बड़ा होस्टल सबसे पहले बनाने का काम किया गया। बन्द पड़े प्रभात म्युजियम को भी अच्छे स्वरूप में लाकर उसका लोकार्पण किया गया। पंकज राग की पहल पर ही फिल्म आर्काइव के साथ एप्रीसिएशन कोर्स दूसरे शहरों में भी आयोजित हुए। संस्थान के प्रशिक्षुओं द्वारा बनायी गयी फिल्मों को मिलने वाले नेशनल अवार्डों की संख्या में इजाफा हुआ।

निदेशक ने संवाद और संगोष्ठियों का एक सिलसिला आरम्भ किया जिसमें साहित्य और सिनेमा से लेकर शैलेन्द्र तक पर केन्द्रित आयोजन हुए। बंगला देश की फिल्मों के समारोह के साथ-साथ, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर का फिल्म प्रशिक्षणार्थियों के द्वारा बनायी गयी फिल्मों का समारोह भी बड़ी पहल थी। पंकज राग मानते हैं कि किसी भी क्षण यह मानना उचित नहीं है कि काम बहुत हो गया या सब कुछ हो गया क्योंकि गुंजाइश बराबर बनी रहती है। अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। संस्थान का स्वर्ण जयन्ती वर्ष समारोह सम्पन्न हुआ है और सिनेमा की शताब्दी की बेला है। दो-एक बड़े प्रकल्प यदि मंजूर हो गये तो आने वाले संस्थान एक बड़ी भूमिका निबाहेगा।

रविवार, 26 दिसंबर 2010

सलमान रहे मैदान में आगे

एक पिता के लिए अपने बेटे के बारे में बहुत ज्यादा तारीफें करना ठीक नहीं होता। खुशी तो तब है जब लोग तारीफ करें। पिता को उस वक्त ज्यादा खुशी होती है और होनी चाहिए जब उसके बच्चों की सराहना दूसरों द्वारा की जाए, जाहिर है, इसके लिए उस तरह के काम भी करना होते हैं। इस साल की सबसे बड़ी सफल फिल्म के सितारे प्रख्यात कलाकार सलमान के पिता और मशहूर लेखक, पटकथाकार, संवाद लेखक सलीम खान, खास पत्रिका को अपने बेटे के जन्मदिन के मौके पर अपने भीतर की यह बात बतलाते हैं। प्रसंग, 27 दिसम्बर के सन्दर्भ में बातचीत का था, सलमान खान के जन्मदिन का।

सलमान इस दौर में, परिपक्व उम्र की संजीदगी, संवेदनशीलता और हातिमताई की तरह अपने स्वभाव के कारण दर्शकों में अलग ही जाने जाते हैं। परदे पर उनकी उपस्थिति सिनेमाहॉल में बेसाख्ता तालियों का सबब होती हैं। सीटियाँ बजना शुरू होती हैं, तो रुकती नहीं। आज की स्थिति बड़े वक्त बाद आयी है, बहुत सारे अनुभव, उतार-चढ़ाव और फलसफों के बाद। सलमान अपने आज पर आश्वस्त नजर आते हैं। किरदार निबाहने में उनको कठिनाइयाँ नहीं आतीं। वे दर्शकों का आस्वाद-बोध बखूबी जान गये हैं। वाण्टेड से दबंग तक जैसे पूरी दुनिया बदल गयी है। न सिर्फ समकालीन बल्कि आगे-पीछे के बहुत से सितारे इस लोकप्रियता से कोसों दूर हैं।

सलमान खान, पहले ऐसे कलाकार हैं जिन्होंने जरूरतमन्दों की सहायता के लिए अपना फाउण्डेशन बनाया है। हाल ही में उनकी बनायी पेंटिंग्स तीन करोड़ में खरीद ली गयीं और इससे प्राप्त धन वे फाउण्डेशन के माध्यम से पुनीत कामों में लगाना चाहते हैं। सलीम साहब कहते हैं कि आज के समय में इन्सान यदि दूसरे की रोटी और उसकी बीमारी की फिक्र, अपनी क्षमताभर स्थितियों से कर पाता है तो यह बड़ा पुण्य का काम है। वे कहते हैं कि होटलों में डिनर और लंच करने वाले बहुत से लोग अपना खाना छोड़ दिया करते हैं जो वे परोसते भी नहीं हैं अपने लिए। यदि वह बँधवा कर साथ ले आया जाये और किसी भूखे को खिलाया जाये तो किसी एक ही का सही, पेट भरेगा। चौराहे पर मांगने वलों से लेकर गरीब वाचमैन तक आपको दुआएँ दे सकते हैं। सलमान का दिल बड़ा है, अपनी क्षमताभर वह ऐसी कोशिशें करता है, मुझे अच्छा लगता है।

दबंग में चुलबुल पाण्डे का अपनी माँ के नहीं रहने पर रोने वाला दृश्य बड़ा मर्मस्पर्शी है, सलीम खान याद दिलाते हैं। सलमान एक वर्सेटाइल एक्टर है, दर्शक उसके सारे अन्दाजों, एक्शन, इमोशन, कॉमेडी सभी में सराहते हैं। दबंग में भी उसके विभिन्न शेड्स को खूब एन्जॉय किया गया है। एक कलाकार का आत्मविश्वास उसके सफल आयामों से प्रकट होता है। सलमान वाकई सफल आयामों के कलाकार हैं। अब उनके निर्देशक, पटकथाकार खास उनको दृष्टिगत रखकर बड़ी सावधानीपूर्वक फिल्में सोचते हैं। उनके पास फिल्मों की भीड़ नहीं है। नये साल में रेडी और बॉडीगार्ड जैसी दो-तीन चुनिंदा फिल्में आकर्षण होंगी।

शनिवार, 25 दिसंबर 2010

आयी मिलन की बेला

मोहन कुमार निर्देशित, जे. ओमप्रकाश की फिल्म आयी मिलन की बेला का प्रदर्शन काल 1964 का है। महानायकों की मुकम्मल उपस्थिति के बीच कुछ सितारे आ चुके थे और आना जारी था। राजेन्द्र कुमार उस समय स्थापित कलाकारों में से एक थे जो बावजूद बहुत श्रेष्ठ न होने के, अपने विशिष्ट किस्म के कुलीन और संस्कारी किरदारों के, दर्शकों को बहुत पसन्द आते थे। उनकी फिल्में चलती थीं, जुबली कुमार इसीलिए उनका नाम भी रख दिया गया था क्योंकि तेरह हफ्ते, एक नायक कोई फिल्म खींच ले जाये, आसान बात न थी।

आयी मिलन की बेला में मालिक अपनी नौकरानी, जिसने जुड़वाँ बच्चों को जन्म दिया है, गुजारिश करता है कि वो एक बच्चा उसे दे दे ताकि बच्चे के लिए व्याकुल अपनी पत्नी की वो जिन्दगी बचा सके। मालिक का नमक खाने वाली नौकरानी यह त्याग करती है और मालिक भी इसे अपने ऊपर एहसान की तरह लेता है। एक बेटा गाँव में पल कर बड़ा होता है, श्याम जो चरित्र राजेन्द्र कुमार ने निभाया है और दूसरा बेटा रंजीत, यह भूमिका धर्मेन्द्र ने की है जो तब तीन साल पहले ही फिल्मों में आये थे। कहानी, अमीरी और गरीबी के बीच है। गाँव और शहर के बीच की है। प्रेम से लेकर अधिकार तक गाँव से शहर, गरीब से अमीर तक एक सेतु से हम सहजतापूर्वक गुजरते हैं।

मालिक की बेटी है जो श्याम से प्यार करती है। रंजीत को भी उसी से प्यार है। हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र के लिखे, शंकर-जयकिशन के स्वरबद्ध किए बहुत सारे मधुर गीतों, जो कि मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के गाये हुए हैं, देखते हुए हम दोनों के प्यार को परवान चढ़ते हुए पाते हैं, प्यार आँखों से जताया तो बुरा मान गये, तुम कमसिन हो नादाँ हो, तुम्हें और क्या दूँ मैं दिल के सिवाय आदि गाने हमको दोबारा चार दशक पहले के अनूठे और अनुभूतिजन्य माधुर्य से रूबरू कराते हैं।

फिल्म बगैर खलनायक के कैसे आगे बढ़ेगी? यहाँ भी मदन पुरी हैं जो तब बुरे आदमी के रूप में अपनी साख अलग ढंग से जमाने में कामयाब हुए थे, खासकर बात-बात पर चाकू निकालने का अन्दाज, दर्शक को भी सिहरा देता था। यह खलनायक, श्याम के खिलाफ, रंजीत की मदद करता है। इस फिल्म में धर्मेन्द्र ग्रे-शेड में हैं, नायिका सायरा बानो को विवाह मण्डप से लेकर भाग जाते हंै। श्याम की माँ वचन से बँधी हुई है, अपने बेटों में शत्रुता से घबराती है मगर क्लायमेक्स में रंजीत को पालने वाली मालिक की पत्नी सब खुलासा करती है। भाई, भाई से माफी मांगता है और फिर अन्त में एक मुस्कराता हुआ ग्रुप फोटो, द एण्ड के साथ।

एक प्यारी और आनंद प्रदान करने वाली फिल्म जिसमें मूल्य भी हैं, उदारता भी और नैतिकता की विजय भी।

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

जुबानी अश्लीलता, थर्टी प्लस, दिल तो बच्चा आदि

सिनेमा की झलकियाँ दिखाने और सिनेमा सम्बन्धी कार्यक्रमों के प्रति पूर्णतया समर्पित एक चैनल में एक फिल्म टर्निंग थर्टी का प्रोमो देखने का मौका मिला। यह फिल्म प्रकाश झा प्रोडक्शन्स की दिखायी दी जो उनके प्रोडक्शन हाउस की सहायक ने निर्देशित की है। ध्यान देने वाली बात यह लगी कि उसके छोटे से, शायद कुछ सेकेण्ड के प्रोमो में इतने अश्लील शब्द थे कि वहाँ पर चैनल ने बीप का प्रयोग किया था। बावजूद इसके जो संवाद सुनने में आ रहे थे, सुनकर लगता था कि तमाम जगह बीप चस्पा करना छूट भी गया है। गुल पनाग नाम की बोल्ड मगर फिलहाल कैरियर में मुकम तलाशती अभिनेत्री की यह फिल्म जब इतने छोटे से प्रोमों में अपने शाब्दिक अर्थों में ऐसी दिखायी दी तो फिल्म जाने कैसी हो?

आश्चर्य इस बात का लगा, जो बहुत ज्यादा सुखद भी था कि चैनल भी शरमाया और उसने सभी गन्दे, कमोवेश यौनिक संवादों वाले दृश्यों पर बीप चिपकायी। लेकिन बाजार का मामला है, विज्ञापन होगा, चैनल क्यों न दिखाये, इतने बीप के साथ ट्रेलर देखकर नयी पीढ़ी के कुछ दुस्साहसी आधुनिकजन बीप के भीतर के शब्द और शब्द के साथ-साथ पूरी फिल्म के लिए सिनेमाघर जायेंगे। स्वाभाविक है सिनेमाघर को अश£ील संवादों पर बीप का प्रयोग करने की अपरिहार्यता नहीं है और न ही नैतिकता के वशीभूत वह इससे बँधा ही है।

हालाँकि जिस तरह की यह फिल्म है, महानगरों के मल्टीप्लेक्स में ही यह नजर आयेगी, मगर अपने आपमें यह बड़ा तथ्य है कि आजकल फिल्मों में महिला फिल्मकारों, खासकर युवा महिला फिल्मकारों में ऐसी बोल्ड आमद भी हुई है। तभी हमें एकता कपूर की फिल्म लव सेक्स और धोखा देखने में आती है तभी अलंकृता को भी अपने कैरियर की शुरूआत करने के लिए अपने एक बड़े निर्देशक का नाम और बैनर, ऐसी फिल्म के लिए अपरिहार्य होता है। चूँकि फिल्म बन गयी है और वयस्कों के सर्टिफिकेट के साथ प्रदर्शित भी हो जायेगी लिहाजा अब यह प्रश्र उपस्थित नहीं होता कि किस धरातल पर इस फिल्म के बारे में सोचा गया, किस धरातल पर इसकी सार्थकता का पूर्वाकलन किया गया।

एक और फिल्म जिसके निर्देशक मधुर भण्डारकर हैं, दिल तो बच्चा है जी, उसके प्रोमो भी बीप से भरे हैं। ऐसा लगता है, कि प्रोमो को खास इस असावधानी से बनाना और फिर बीप का प्रयोग लोकप्रियता और आकर्षण का एक अलग तरह की रसिकता को प्रभावित करे, इसका भी विचार अब पहले कर लिया जाता होगा। खैर भटकाव के इस दौर में हिन्दी सिनेमा एक अलग तरह के भटकाव का शिकार है, इस बात में दो राय नहीं है।

इस पूरे सिनेरियो में विधि कासलीवाल की तारीफ करने को जी चाहता है जिन्होंने अपने मामा के प्रोडक्शन हाउस राजश्री में इसी लाइफ में जैसी प्यारी फिल्म बनायी है और वे इस फिल्म पर बात करते हुए बड़ी आश्वस्त भी नजर आती हैं।

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

भव्यता और बदलते अंजाम

अपने आपमें यह खबर है कि राजकुमार सन्तोषी की पावर पर संकट गहराया है। बात उनकी स्वयं की पावर से लेकर उनके द्वारा घोषित की गयी फिल्म पावर को लेकर है। कुछ समय पहले की शायद यह सबसे बड़ी बहुल सितारा घोषणा थी कि सन्तोषी ने अपनी नयी फिल्म पावर घोषित की है और इसमें अमिताभ बच्चन, संजय दत्त, अनिल कपूर और अजय देवगन काम कर रहे हैं। इस फिल्म की शूटिंग कहाँ-कहाँ होगी, इसकी भी आरम्भिक घोषणाएँ हुईं और फिल्म जगत के इर्द-गिर्दियों के साथ-साथ दर्शकों के लिए भी यह सुखद अचम्भा रहा कि एक साथ इतने सितारे काम कर रहे हैं।

स्टार कास्ट कई तरह के सुखद विस्मय खड़े करने वाली थी, जैसे अमिताभ बच्चन और अनिल कपूर का साथ काम करना क्योंकि अनिल कपूर ने पहली बार रमेश सिप्पी की फिल्म शक्ति में आरम्भ और अन्त में दो दृश्यों की भूमिका की थी जिसमें वे दिलीप कुमार से उनके बेटे अमिताभ बच्चन की कहानी सुनते हैं जो कि उनके पिता होते हैं। इसके बाद दोनों ने कभी साथ काम नहीं किया। अनिल के सितारे जब बुलन्द थे तब अमिताभ से उनके एक-दो बार टकराव भी हुए जब एक वक्त में दोनों की कई फिल्में साथ रिलीज हुईं और अनिल के कैम्प ने यह प्रमाणित करने का काम किया कि अमिताभ से सफल अनिल कपूर हैं। सन्तोषी ने पिछले दस सालों में अमिताभ बच्चन, अनिल कपूर, अजय देवगन आदि के साथ खूब काम किया है। अजय देवगन पर तो उनको उसी तरह का विश्वास है जिस तरह का प्रकाश झा को लेकिन सुनने में आ गया कि पावर से अजय देवगन और अनिल कपूर दोनों ने हाथ खींच लिया है।

अजय देवगन ने प्रकाश झा की नयी फिल्म आरक्षण भी छोड़ी है। अजय का अपने दोनों पसन्दीदा और प्रिय निर्देशकों से इस तरह नाता तोडऩा अजीब से संकेत देता है। सन्तोषी का तो कुछ कहा नहीं जा सकता मगर हो सकता है प्रकाश झा आगे कभी देवगन को रिपीट न करें। सन्तोषी के लिए यह बड़ा झटका है। सम्भव है वाकआउट करने वाले दोनों कलाकारों को लगा हो कि बच्चन की केन्द्रीय भूमिका वाली इस फिल्म में उनके लिए खास कुछ न बचे। अजय देवगन तो आरक्षण और पावर दोनों ही फिल्मों में अमिताभ के सामने होते। झा ने सैफ के रूप में अजय देवगन का विकल्प तलाश कर लिया। सैफ, आज के वक्त के शशि कपूर हैं, समझौतावादी और सहयोगी भी।

राजकुमार सन्तोषी को जरूर अपने लिए अब मजबूत विकल्प तलाश करने होंगे। इस तरह की चुनौतियाँ पता नहीं आने वाले समय में रिश्तों का क्या करती होंगी? बच्चन साहब के लिए भी फिलहाल यह विषय होगा कि क्यों, उनकी दोनों फिल्मों से सितारों ने अपनी सहभागिता वापस ले ली है.. .. ..।

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

महानायकविहीन हिन्दी सिनेमा

अपने समय में सिनेमा के परिदृश्य पर मुकम्मल नजर दौड़ाई जाये तो दिखायी देता है कि कल के नायक आज भले प्रौढ़ हो गये हों और उनमें से भी कई वरीय भले बुढ़ाने की अवस्था की तरफ आ रहे हों लेकिन इनमें से महानायक का आदर और प्रभाव हासिल करने वाला चेहरा यकायक नजर नहीं आता है। यह दशा हिन्दी सिनेमा के साथ ही है अन्यथा खासतौर पर दक्षिण में रजनीकान्त और कमल हसन जैसे महानायक हैं। बंगला, उडिय़ा, गुजराती, असमिया आदि भाषाओं के सिनेमा में नायक चेहरे भी दिखायी नहीं देते। इन भाषाओं में अब प्रतिष्ठित और मूर्धन्य निर्देशक भी नहीं होते।

हिन्दी सिनेमा के अपने संघर्ष हैं। सबसे ज्यादा जोखिम सफलता के हैं। श्रेष्ठता के पैमाने को तो न जाने कब से यहाँ तज दिया गया है। अमिताभ बच्चन के समय से कलाकारों में एक-दूसरे की भूमिकाओं को छाँटने-छँटवाने से लेकर बहुत सी चीजें वक्त-वक्त पर उठी हैं। बच्चन के साथ भी बाद में विनोद खन्ना, शत्रुघ्र सिन्हा जैसे कलाकार काम करने से कतराने लगे थे। शशि कपूर बहुत महात्वाकांक्षी नहीं थे, फिल्में मिला करती थीं तो काम भी किया करते थे। अनिल कपूर, संजय दत्त के समय में संघर्ष अलग-अलग तरहों में बँट गया।

सितारा पुत्र और अपने दमखम पर स्थान बनाने वाले कलाकारों के बीच खटने लगी। उस समय जैकी श्रॉफ जैसे सितारे अपने बलबूते आकर खड़े हुए थे। बाद में जैकी की तरह की शाहरुख आये तो उनकी अपने समकालीनों से खटने लगी। जब हिृतिक ने आकर तूफान मचाया तो सबसे ज्यादा प्रभावित शाहरुख ही हुए। अपने ऐसे ही स्वभाव के कारण वे सुपरफीशियल कलाकार की तरह सबसे अलग-थलग पड़ गये। इस समय उनका चेहरा सबसे ज्यादा तनाव में दिखायी देता है। उनके पास अपने निर्देशक नहीं हैं।

अब हम आज के प्रौढ़ हीरो से लेकर युवा तक, हालाँकि युवा कलाकारों ने अभी तो फिलहाल महानायक होने जैसा कोई काम नहीं किया है, नजर डालें तो देखेंगे कि इनमें से ऐसा कोई कलाकार नजर नहीं आता जिसे महानायक के दरजे या मान पर रखकर देखा जाये। यह विडम्बना ही कही जायेगी कि एक समय दिलीप कुमार, राजकपूर, देवआनंद, धर्मेन्द्र, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन आदि के महानायक होने के जायज कारण उनके काम और प्रभाव के कारण दिखायी देते थे पर अब वैसा नहीं है। अब निर्देशक, फिल्म को फिल्म की तरह बनाने में रुचि नहीं रखता और न ही कलाकार, फिल्म को फिल्म की तरह ही लेता है।

इस बड़े निराशाजनक दृश्य में सिर्फ आमिर खान ऐसे कलाकार हैं जो अपने रेंज में असाधारण हैं। लगान के वक्त से उन्होंने अपनी अपीयरेंस को लेकर लगातार चिन्ता की है। निर्माता या अभिनेता, वे जब जिस रूप में उपस्थित हैं, बेजोड़ और सर्वथा श्रेष्ठ हैं, तथापि महानायक उन्हें कहा जाये या नहीं, यह एकदम आसान नहीं लगता पर आने वाले समय में अपनी पीढ़ी में वे पहले महानायक होंगे, यह सच है।

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

समझदारी में हर्ज क्या है?

वाकई समझदारी में जरा भी हर्ज नहीं है। यह बात फराह खान से सीखी समझी जा सकती है। इस समय वे अपनी फिल्म तीस मार खान का प्रमोशन कर रही हैं। टेलीविजन के शो बिग बॉस सहित और भी कई शो में उनका आना-जाना हो रहा है। साथ में उनके कलाकार भी होते हैं। सलमान खान ने उनसे इस शो में पूछा कि इस फिल्म में अक्षय न होते तो और कौन हो सकता था? फराह ने सलमान, आमिर सहित हितिक वगैरह के नाम लिए और शाहरुख का भी जिस पर सलमान ने अपना चेहरा तुरन्त प्रतिक्रियाहीन बनाकर प्रस्तुत किया।

फराह, फिल्म की नायिका कैटरीना के साथ आयी थीं। फराह सलमान से बार-बार कह रही थीं कि तुम दोनों की जोड़ी बड़ी अच्छी लगती है, उनका आशय कैटरीना और सलमान की जोड़ी से था और यह बात सुनकर कैटरीना बार-बार लजाती हुई दीख रही थीं। कैटरीना की मुस्कराहट संकोच और मर्यादा से भरी होती है। उनके मोहक दीखने का यह बड़ा मौलिक रहस्य है। सलमान इस पर भी कोई प्रतिक्रिया नहीं करते दीखे।

वास्तव में वक्त के साथ सलमान जितने संजीदा और गम्भीर हुए हैं वह एक बड़ा चमत्कार ही है। सलमान की संवेदनशीलता को प्रमाणित करने के लिए मिसालें गिनाने की जरूरत भी नहीं पड़ती। फराह खान जितनी शाहरुख खान के नजदीक हैं उतनी ही अलग-अलग सलमान और आमिर के भी। सलमान और आमिर एक दूसरे की सराहना खुले दिल से करते हैं। सलमान के पिता सलीम साहब ने ही नासिर हुसैन की हिट फिल्म तीसरी मंजिल में अभिनय किया था और यादों की बारात फिल्म लिखी भी थी जिसमें आमिर ने बाल कलाकार की भूमिका निभायी थी।

फराह खान से अपनी दोस्ती के चलते ही सलमान ने तीस मार खान में एक विशेष भूमिका की है। फराह के पति शिरीष कुंदेर ने फिल्म की पटकथा लिखी थी। वे शाहरुख के साथ यह फिल्म बनाना चाहते थे। शाहरुख की हाँ में देर लगी तो अक्षय कुमार को लेकर फिल्म बन गयी। शाहरुख के काम न करने का प्रश्र शुरू में रह-रहकर उछला फिर खत्म हो गया। दिखायी दे रहा है कि शाहरुख रॉ वन के लिए जी-जान एक किए हैं। अपनी दोस्त फराह की फिल्म तीस मार खान के प्रमोशन के लिए पता नहीं उनके पास वक्त नहीं है, या उनका समर्थन या साथ फराह ने ही नहीं मांगा।

बहरहाल फराह एक समझदार और काबिल निर्देशक हैं। उनके बड़बोले भाई साजिद खान को अच्छी फिल्में बनाने की प्रेरणा अपनी बहन से लेनी चाहिए और सन्तुलित तथा सटीक बोलने की दक्षता भी उनके अनुसरण से हासिल करनी चाहिए। तीस मार खान यदि सफल हो जाती है तो फराह के खाते एक समझदार श्रेय दर्ज होगा। आखिर चतुरसुजान होने में बुराई ही क्या है?

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

स्मृति-शेष विजय जाधव

पुणे में भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के, दुर्लभ फिल्मों के संग्रहालय राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार के निदेशक विजय जाधव का अकस्मात् निधन एक ऐसे युवा अधिकारी की क्षति है जिनकी उम्र कुल 43 वर्ष थी। गोवा में अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के आयोजन के स्थायी संयोजक और निदेशक मनोज श्रीवास्तव ने बड़े शोक में इस दुखद खबर की चर्चा की। आमतौर पर हम अपने आसपास ऐसे अफसरों को बहुसंख्य तादात में देखते हैं क्रीज़ और क्रेज़ के बीच बड़े कठिन असमंजस में जि़न्दगी के साथ एक तरह से व्यतीत होते हैं। ऐसे बहुसंख्य अफसरों के बीच यह युवा भारतीय सिनेमा की 2013 में आने वाली शताब्दी के लिए बड़ी रुचि और गम्भीरता से उल्लेखनीय तैयारियाँ करने में जुटा था।

राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार के अधिकारी और कर्मचारी कहते हैं कि जाधव जी में अफसरी बिल्कुल नहीं थी। वे मित्र की तरह हमारे साथ होते थे और परिवार की तरह जोडक़र रखते थे। केमिकल इंजीनियर विजय जाधव सूचना एवं मंत्रालय की सेवा में 94 में आये थे। विजय जाधव आकाशवाणी, दूरदर्शन और प्रेस इन्फॉरमेशन ब्यूरो में विभिन्न पदों पर रहे। उन्होंने लोक सूचना अभियान के व्यापक फैलाव में महाराष्ट्र के 28 जिलों सहित बिहार, पश्चिम बंगाल, पंजाब और गुजरात में उल्लेखनीय काम किया। वे 2008 की पहली अप्रैल को फिल्म आर्काइव के निदेशक पद पर नियुक्त हुए थे।

वे अब तक के ऐसे सबसे युवा निदेशक थे जिन्होंने आर्काइव के कायाकल्प की बड़ी योजना पर काम शुरू किया। ऐसे समय में जब देश का महालेखा परीक्षण संस्थान, आर्काइव समेत सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की तमाम संस्थाओं को हर साल बन्द कर दिए जाने की सिफारिश करता हो, विजय जाधव ने अपनी संस्था मे प्राण फूँकने की पहल शुरू की। उन्होंने राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार में संग्रहीत हजारों दुर्लभ फिल्मों को डिज़ीटल फार्मेट में सुरक्षित और संरक्षित करने का अभियान शुरू किया।

अब तक आर्काइव, पुणे में हर साल जिस तरह एक माह का फिल्म रसास्वाद पाठ्यक्रम आयोजित किया करता था, उसकी ही तर्ज पर लघु फिल्म एप्रीसिएशन कोर्स उन्होंने पुणे के बाहर देश भर के प्रमुख नगरों में आयोजित किए जाने की पहल की। खास बात यह भी थी, कि उन्होंने रीजनल फिल्म एप्रीसिएशन कोर्स की परिपाटी की शुरूआत करनी चाही।

विजय जाधव सांस्कृतिक अभिरुचियों के व्यक्ति थे, एक प्रतिभाशाली तबला वादक के रूप में उनकी ख्याति थी जिन्होंने उस्ताद अल्लारखा से तबला वादन की शिक्षा बड़ी छोटी उम्र में प्राप्त की थी। विजय जाधव का निधन इसलिए और व्यथित करता है क्योंकि वे एक स्वप्रद्रष्टा और संजीदा व्यक्ति थे। उनके जीते-जी, फिल्म आर्काइव में तकनीकी संसाधन और उपलब्धता के आधार पर जिस तरह फिल्मों के संरक्षण का काम शुरू हुआ है, निश्चित ही दो साल बाद वह अंजाम को प्राप्त होगा, जब हम सिनेमा की शताब्दी मना रहे होंगे। विजय जाधव ऐसे वक्त में बहुत याद आयेंगे। श्रद्धांजलि।

रविवार, 19 दिसंबर 2010

राजश्री और इसी लाइफ में

साफ-सुथरी, सोद्देश्य, म्युजिकल और जीवन की सहजता में रोचक और दिलचस्प घटनाओं के साथ कहानी बुनकर एक अच्छी फिल्म के रूप में प्रस्तुत किए जाने की राजश्री प्रोडक्शन्स की परम्परा बड़ी पुरानी है। इस संस्थान के पितामह ताराचन्द बडज़ात्या राजस्थान के मूल निवासी थे। उनकी शिक्षा-दीक्षा कोलकाता में हुई। आजादी के आन्दोलन में परिणाम आने वाले वर्ष में वे मुम्बई आ गये।

यहाँ पर सपने गढ़ती मुम्बई में उन्होंने रुपहले परदे पर उस समय के कल्पनाशील प्रयोगों और लगन तथा प्रतिबद्धता के साथ काम करने वाले लोगों के बीच अपनी सर्जना का बीज भी बोया और राजश्री की स्थापना की। उनका परिवार कर्मठ कुटुम्ब की तरह था। उनके भाई, पुत्र सभी उनके साथ उनके सपने में जुड़े और इस निर्माण संस्था ने मनभावन फिल्मों के निर्माण, निर्देशन और वितरण के माध्यम से अपनी एक अलग ही गरिमा बनायी।

1962 में बनी इस संस्था ने जिन फिल्मों को प्रस्तुत किया उनमें दोस्ती, जीवन मृत्यु, उपहार, पिया का घर, सौदागर, गीत गाता चल, तपस्या, चितचोर, पहेली, नदिया के पार, दुल्हन वही जो पिया मन भाए, अँखियों के झरोखों से, तराना, सावन को आने दो, मैंने प्यार किया, हम आपके हैं कौन, सारांश आदि प्रमुख हैं। राजश्री प्रोडक्शन्स ने अपनी फिल्मों के माध्यम से जिन कलाकारों का मार्ग प्रशस्त किया, भविष्य सँवारा उनमेें सचिन, अनुपम खेर, अरुण गोविल, रंजीता, जया बच्चन, सलमान खान, राखी, रवीन्द्र जैन, रामेश्वरी, मिथुन चक्रवती, माधुरी दीक्षित, भाग्यश्री के नाम लिए जा सकते हैं। ये कलाकार आज भी गहरे आदर से ताराचन्द बडज़ात्या और राजश्री के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।

राजश्री परिवार में ताराचन्द बडज़ात्या के पौत्र सूरज बडज़ात्या ने जब अपने परिवार की निर्माण संस्था के लिए पहली बार 1989 में मैंने प्यार किया फिल्म का निर्देशन किया, तो इस फिल्म को मिली असाधारण व्यावसायिक सफलता और सराहना ने हिन्दी सिनेमा में लोकप्रियता की एक अलग ही रेखा खींचने का काम किया था। बाद में सूरज ने हम आपके है कौन जैसी और बड़ी सफल फिल्म भी बनायी।

वे हम साथ-साथ हैं और मैं प्रेम की दीवानी हूँ के निर्देशक भी रहे हैं। यह एक सुखद संयोग है कि एक बार फिर इस संस्थान की नयी फिल्म के साथ परिवार के ही एक सदस्य की निर्देशक के तौर पर भागीदारी हो रही है। सुखद और यह है कि यह भागीदारी महिला निर्देशक के रूप में है, सूरज की भांजी विधि कासलीवाल राजश्री की नयी फिल्म इसी लाइफ में की निर्देशक हैं।

एक खूबसूरत प्रेम कहानी को ख्वाब में रखकर नये चेहरों अक्षय ओबेरॉय और सन्दीपा धर के साथ, जैसा कि राजश्री की पुरानी परम्परा रही है, यह फिल्म भी बनायी गयी है। विधि को राजश्री में विवाह और एक विवाह ऐसा भी में बतौर सहयोगी काम करने के अच्छे अनुभव रहे हैं। इसी लाइफ में, के प्रोमो, खासकर गाने-संगीत आकर्षित करते हैं। हो सकता है, सुरुचि और दर्शकीय-आकर्षण की परम्परा इसी फिल्म में एक बार फिर राजश्री की तरफ लौटे।

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

कारदार साहब की बाप रे बाप

रविवार, एक यादगार फिल्म के पुनरावलोकन के सिलसिले में ए.आर. कारदार की फिल्म बाप रे बाप का जिक्र प्रासंगिक लगता है। इस फिल्म का प्रदर्शनकाल 1955 का है। 1904 में जन्मे कारदार का फिल्म कैरियर सन 29 से आरम्भ हुआ हुस्न का डाकू फिल्म से जिसमें उन्होंने अभिनय भी किया था और 75 में उनकी अन्तिम फिल्म मेरे सरताज आयी थी। पेंटर और फोटोग्राफर से अभिनय और निर्देशन तक की असाधारण यात्रा करने वाले कारदार साहब ने दास्तान और दिल दिया दर्द लिया जैसी यादगार फिल्म भी निर्देशित की थी।

बाप रे बाप, एक हास्य फिल्म है, पूरी तरह किशोर कुमार के रंग में रंगी हुई। एक रईस पिता की लाड़ली और इकलौती सन्तान है जिसको छींक भी आ जाती है तो पिता डॉक्टर, वैद्य, ज्योतिषी और तांत्रिक का इन्तजाम एक साथ, एक ही वक्त पर करता है। बेटा, खिलन्दड़ है, रईसी से उसका कोई वास्ता नहीं। एक दिन वह एक सौम्य और सुन्दर युवती को गाना गाते हुए देखता है तो उस पर मोहित हो जाता है। युवती गरीब है और उसके महलनुमा घर में रोज ताजे फूल लाकर सजाया करती है। निश्छल और सरल इस युवक से उसको भी प्यार हो जाता है मगर अमीर माँ-बाप और अमीरी से वह भी डरती है। रईस पिता के मन में अपने बेटे की शादी का ख्याल आता है। इश्तहार देकर प्रस्ताव मँगवाये जाते हैं। पिता कुछ तस्वीरें छाँटता है और अपने विश्वस्त साले को, उन सात-आठ जगहों पर भेजता है जहाँ के प्रस्ताव उसे पसन्द आये हैं। नायक, अपने मामा को समझाकर साथ हो लेता है। वह भेस बदलकर हर घर में जाता है और लौटकर पिता को सभी प्रस्ताव निरस्त किए जाने की सिफारिश की जाती है।

फिल्म का दिलचस्प पहलू यह है कि पिता कहीं न कहीं सशंकित हो जाता है और उन सातों युवतियों को उनके माता-पिता के संग अपने यहाँ निमंत्रित करता है ताकि खुद निर्णय ले सके। घर में फिर बेटा ऐसी खुराफात करता है कि सभी में सिर-फुटौव्वल हो जाती है, लिहाजा सभी चोट खाये, घायल लौट जाते हैं। पिता का एक रिटायर्ड फौजी मित्र भी अपनी सनकी बेटी की शादी रईस के बेटे से करना चाहता है, स्थितियाँ गड्डमड्ड होती हैं। गरीब नायिका का दिल कई बार टूटता है मगर आखिरकार चतुर बेटा हास्यपरक परिस्थितियों के बीच अपने इरादों में सफल होता है।

बाप रे बाप फिल्म की खूबी उसका अत्यन्त सहज और आसान गति में उपसंहार तक पहुँचना है। कहानी जिस तरह की है, सभी कलाकारों ने अपनी अभिनय क्षमता, खासकर कॉमेडी सेंस के माध्यम से दृश्य सँवारने में अनूठा योगदान किया है। किशोर कुमार तो हरफनमौला हैं ही, पिता के रूप में जयन्त, मारुति, उल्हास, स्मृति बिस्वास ने बहुत अच्छी तरह भूमिकाएँ निभायी हैं। जाँ निसार अख्तर के गीत और ओ.पी. नैयर का संगीत मोहक है, रात रंगीली चमके तारे, आजा सजनवा प्रेम-दुआरे, पिया पिया पिया मोरा जिया पुकारे, गाने बड़े मीठे हैं।

दिलचस्प और उल्लेखनीय यह भी है कि क्लायमेक्स में आशा भोसले का गाया एक गाना इस फिल्म में किशोर कुमार पर फिल्माया गया है।

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

बुधिया और नत्था के समीकरण

बुधिया और नत्था की जोड़ी हो सकता है आगे चलकर कोई समीकरण बनाए। पाठक-दर्शक दोनों ही किरदारों को पीपली लाइव के माध्यम से जानते हैं। बुधिया, रघुवीर यादव हैं और नत्था, ओंकारदास मानिकपुरी। ओंकारदास मानिकपुरी के बारे में यह सभी को पता है कि वे हबीब तनवीर साहब के ग्रुप में बहुत बाद में एक जूनियर आर्टिस्ट के रूप में जुड़े। आगरा बाजार में भी उनको छोटी भूमिका ही मिली। दरअसल वे और उनकी ही तरह के कुछ कलाकार उस वक्त नया थिएटर में शामिल हुए थे जब एकदम से इस संस्था से वरिष्ठ और असाधारण क्षमताओं वाले कलाकार विभिन्न कारणों से रुखसत हो गये थे। दीपक तिवारी, पूनम तिवारी, गोविन्द निर्मलकर आदि काम नहीं कर रहे थे। भुलवाराम यादव बेहद बीमार हो गये थे, बाद में उनका देहान्त भी हो गया।

नया थिएटर के ऐसे कठिन वक्त में ओंकारदास का कुछ ही समय काम करना फिर चरणदास चोर नाटक में चरणदास चोर के किरदार के निबाह के लिए कलाकार का संकट, ऐसे में ही ओंकारदास, का चयन अनुषा रिजवी ने पीपली लाइव के लिए किया। पीपली लाइव से जुड़ते हुए ही ओंकारदास, चरणदास चोर भी बनने लगे। एक बड़े सीधे-सच्चे और लो-प्रोफाइल कलाकार का यह उद्भव कालान्तर में फिल्म की चर्चा और सफलता के साथ एक बड़े कैनवास में जिस तरह व्यापक हुआ, उसका किस्सा हम सभी को याद है। रघुवीर यादव ने इस फिल्म में नत्था के बड़े भाई बुधिया की भूमिका की थी। यादव, फिल्म का मूल थे मगर सारे सीन, सारी लोकप्रियता नत्था के खाते चली गयी। अनुषा और आमिर भी ओंकारदास के साथ ही देश-दुनिया में फिल्म का प्रमोशन करते रहे।

हिन्दी सिनेमा में दो दशक से भी ज्यादा समय से मैसी साहब जैसी ख्यातिप्राप्त फिल्म के माध्यम से अपनी क्षमता दिखलाने वाले रघुवीर ने मुंगेरीलाल की तरह ही सपने देखे हैं। वे स्वयं एक लो-प्रोफाइल कलाकार रहे हैं मगर अपने किरदारों को जीने में वे पंकज कपूर की तरह ही जी-जान एक कर दिया करते हैं। आमिर खान की लगान से वे उनके परिवार का हिस्सा बने। उनकी निष्ठा भी आमिर खान के प्रति खूब प्रकट होती है तभी वे कुछ दिन पहले दिल्ली में आमिर खान का पक्ष लेते हुए अनुषा रिजवी की लम्बी आलोचना करने से भी नहीं चूके थे। यह खबर राष्ट्रीय अखबारों में भी प्रकाशित हुई थी। रघुवीर यादव और ओंकारदास मानिकपुरी की पहली पीपली लाइव सहभागिता और उससे उपजी लोकप्रियता का लाभ लेते हुए छत्तीसगढ़ में एक फिल्म और दोनों कलाकारों को लेकर बन रही है।

अभी रघुवीर यादव की नैया मझधार में है। हो सकता है अपने पीपली भाई नत्था के साथ ही बुधिया भी अपनी नाव को आगे खेने में सफल हो जाएँ। खाँटी कलाकारों का संघर्ष उत्कृष्टता के बावजूद कभी खत्म नहीं होता। यादव का जिक्र भी इसीलिए इसी के आसपास ही होता है।

कैसेट युग की समाप्ति

हम अपने ही समय में दौर को धीरे-धीरे विस्मृतियों में बदलते देख रहे हैं। यह दिलचस्प है कि दौर के हम ही साक्षी होते हैं, दौर का हम ही सर्वाधिक आनंद उठाते हैं और दौर ही कभी हमारी धरोहर होकर रह जाता है। कई बार चीजें हमारे बीच से इस तरह रुखसत होती हैं कि हमको पता नहीं चल पाता। हमारी खुद की भी मन:स्थिति आगे सहजतापूर्वक स्थानांतरित हो जाया करती है लिहाजा हम कोई खास परवाह या चिन्ता भी उसकी नहीं करते। हमारे बीच से ग्रामोफोन ऐसे ही चला गया। एल पी और ई पी रेकॉर्ड ऐसे ही चले गये।

महू में दुर्लभ और लगभग समस्त रेकॉर्ड्स के संग्राहक सुमन चौरसिया से एक बार पूछा था कि आपने यह दुर्लभ जखीरा जमा कर रखा है, दौर पूरी तरह चला गया है, रेकॉर्ड तो ठीक है, ग्रामोफोन का लगातार दुरुस्त बने रहना और खासकर उसकी सुई की व्यवस्था कहाँ से हो पाती होगी जो तवे की परिक्रमा करती है और हमारे कान तक संगीत पहुँचता है, इस पर उस आदमी का भोला सा जवाब था, भैया मैंने अपनी जिन्दगी भर के लिए सुइयाँ खरीदकर इक_ा कर ली हैं। एक आदमी ने अपने जुनून और जिद के कारण अपने जीवन भर का इन्तजाम कर रखा है लेकिन यह भी तय है कि अन्त में सम्पदा ही धरोहर में तब्दील हो जाती है और धरोहर फिर संग्रहालय में जाती है। यही हाल कैसेट्स का भी है। सीडी आने के पहले तक अपने टेप रेकॉर्डर में हमने कैसेट्स के माध्यम से ही संगीत सुना है। बहुत सारे नवाचार दो दशक पहले तक हम ही किया करते थे।

गीत-संगीत के दीवानों ने अपने मनमाफिक चयन के मुताबिक बहुत सारा अपने आनंद का सामान इक_ा कर रखा था। कैसेट की गजब लोकप्रियता का पैमाना तो हमारे सामने दिवंगत गुलशन कुमार ने खड़ा किया था जिनके माध्यम से बड़ी कम्पनियों के नखरे, मँहगे दाम के विकल्प में उन्होंने सस्ते कैसेट्स बेचकर घर-घर में अपनी पैठ बनायी थी। उस दौर में कुमार सानू, अनुराधा पौडवाल, नितिन मुकेश, वन्दना वाजपेयी, पंकज उधास, अनूप जलोटा, विपिन सचदेवा, उदित नारायण आदि कितने ही कलाकारों की आवाजें परवान चढ़ी थीं। पिछले दिनों पंकज उधास ने एक बातचीत में इस ओर ध्यान आकृष्ट किया था कि हमारे बीच से कैसेट संस्कृति जा चुकी है।

हम सब म्युजिक ऑफ एक्सीलेंस के प्रभाव में सीडी की तरफ आ गये हैं मगर अपने-अपने वक्त में रेकॉर्ड से लेकर कैसेट तक का एक्सीलेंस रहा है। आज वाकई स्थिति यह हो गयी है कि बाजार में नयी फिल्मों का म्युजिक सीडी में ही जारी होता है। अब कैसेट नहीं मिलते। कैसेट युग अब समाप्त हो गया है।

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

धरम पा के जन्मदिन पर

रंगत कुछ अलग नजर आ रही थी इस बार उनके घर की। जन्मदिन के अलावा भी वक्त-वक्त पर उनके घर जाते हुए, मिलते बात करते हुए शायद अब पन्द्रह से अधिक वर्ष होते आ रहे हैं। बंगले के बाहर तमाम लोग, भीतर भी खूब सारे। बहुत से ऐसे जो उनके प्रिय परिचित बरसों के रिश्तों और अनुभवों से बंधे, अपनी तरह से आ रहे थे, जा रहे थे। इन सबके साथ थे ढेर सा प्रशंसक, मित्रों के साथ, परिवारों के साथ। सभी में गजब का क्रेज। सोफे पर धर्मेन्द्र बैठे हुए। उनके आसपास घेरे बैठे लोग, आगे-पीछे बैठे लोग, जिनको जहाँ जगह मिले, जमे हुए लोग, सब के सब खुश। धर्मेन्द्र सबकी हर आकांक्षा पूरी कर रहे हैं। आटोग्राफ, फोटो जो और जितनी।

बीच-बीच में कई मुरीदों के मोबाइल के कॉलर टोन में, पैंतीस वर्ष पहले की फिल्म प्रतिज्ञा का एक ही सा बजता गाना, मैं जट यमला पगला दीवाना। इसी नाम की उनकी एक फिल्म अगले महीने रिलीज हो रही है 14 जनवरी को। सनी और बॉबी भी साथ में हैं इस फिल्म में। धर्मेन्द्र बताते हैं कि अपने में हम तीनों ने मिलकर परिवारों को खूब भावुक किया था, रुलाया था, अब हमने सोचा, हम तीनों मिलकर, जमकर हँसाते हैं, सो यमला पगला दीवाना आ रही है।

वे कहते हैं कि बहुत प्यारी फिल्म बनी है। अपनी तरह की कॉमेडी है मगर हास्य से भरे दृश्य भी बड़े कठिन। पंजाब से लेकर महेश्वर, मध्यप्रदेश तक इस फिल्म की शूटिंग हुई है। धर्मेन्द्र के लिए विभिन्न फिल्मों में सरदार जी का गेटअप बड़ा लकी रहा है। सनी भी गदर में तारा सिंह बने थे। यमला पगला दीवाना में तीनों का यही गेटअप है। रोचक चरित्रों का निर्वाह किया है और खास बात यह कि इस फिल्म में धर्मेन्द्र की शोले से लेकर प्रतिज्ञा तक सबको, दिलचस्प ढंग से याद किया गया है। प्रतिज्ञा, पिछली सदी में पचहत्तर के साल में खूब हिट हुई थी। यह धरम पा जी की ऐसी फिल्म थी, जो लगभग उन्हीं के इशारे पर चलती है। वे एक ऐसा किरदार हैं जो एक सुदूर गाँव में रोमांस करता है, अपना थाना स्थापित करता है, सिपाही भरती करता है और डाकू खलनायक से दो-दो हाथ करता है।

धर्मेन्द्र पर फिल्माया गाना, मैं जट यमला पगला दीवाना, तब का हिट गाना था जो नायिका हेमा मालिनी के लिए उन्होंने गाया था। धर्मेन्द्र के बंगले पर उनको शुभकामनाएँ देने अनिल शर्मा, नीरज पाठक, वीरू देवगन आदि बहुत से कलाकार-फिल्मकार आये थे मगर टिप्पणीकार की निगाह गयी, बड़े शान्त संजीदा बैठे अर्जुन हिंगोरानी पर। उनको कहा कि 1961 मे दिल भी तेरा हम भी तेरे आपने ही निर्देशित की थी धरम जी के लिए और आज पचास साल हो गये हैं उनको इण्डस्ट्री में। कब क्यों और कहाँ, कहानी किस्मत की आदि और भी धरम-फिल्मों के निर्देशक अर्जुन ङ्क्षहगोरानी की धरम जी से अटूट दोस्ती है, चेहरे पर खुशी और गर्व के भाव लाकर कहते हैं वे, मेरा यार वर्सेटाइल एक्टर है।

मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

झलक दिखलाने का मोह

पिछले दिनों हमने बात की थी कि माधुरी दीक्षित कुछ समय के लिए अमेरिका से मुम्बई आयी हुई हैं। हवाई अड्डे पर उन्होंने बताया था कि कुछ टीवी प्रोजेक्ट और फिल्मों के लिए वे अपने शहर आयी हैं। जल्दी ही परिणाम सामने आया और हमने उन्हें झलक दिखला जा सीरियल में देखना शुरू कर दिया है। दरअसल किसी भी अभिनेत्री के लिए बॉलीवुड को पूरी तरह तिलांजलि देना आसान नहीं होता। शादी एक ऐसी विवशता है उनके लिए जो ठीक उस समय अपना ली जाती है जब फिल्मों का बाजार नर्म हो रहा होता है।

माधुरी दीक्षित के एक अन्तराल बाद इस टीवी शो के माध्यम से आने की झलक जिस सैलाब नाम की विफल फिल्म के गाने, कोई आये ले के प्यार, से प्रचारित की जा रही है, वह सचमुच माधुरी दीक्षित के लिए एक व्यर्थ की फिल्म साबित हुई थी। शादी के बाद यशराज फिल्म्स की एक फिल्म के लिए वे दो साल पहले आयीं थी, वह फिल्म भी न चली और वे झलकनुमा एक डाँस शो की होस्ट बनी रहकर लौट गयीें लेकिन सच है कि बॉलीवुड के आकर्षण ने उनका चैन छीने रखा। फिल्म जगत में सम्पर्क सूत्र हमेशा सक्रिय रहते हैं और काम में लगे रहते हैं, इसी का परिणाम था कि माधुरी दीक्षित के आने का फिर मौसम बन गया।

विवाह के बाद अपना समय पूरी तौर पर घर के लिए समर्पित कर देने वाले उदाहरण कम ही हैं। हम ऐसी अभिनेत्रियों में विशेष रूप से अपने समय की यादगार अभिनेत्री नरगिस को याद करते हैं जिनके सामने मदर इण्डिया जैसी फिल्म की बड़ी सफलता थी, मगर सुनील दत्त से शादी हो जाने के बाद उन्होंने घर की मर्यादा में खुशी-खुशी अपने को अनुशासित किया। उस समय कई निर्देशकों ने उनको अपनी फिल्में ऑफर की थीं, यह कहते हुए कि ऐसे किरदार केवल आप ही कर सकती हैं, पर उन्होंने शिष्टतापूर्वक सभी से क्षमा माँग ली। लम्बे समय तक वहीदा रहमान ने भी विवाह करके अपने आपको जवाबदारियों से जोड़े रखा। बड़े सीमित और गरिमापूर्ण अनुबन्ध ही उन्होंने किए।

मुमताज अपने समय की सफल अभिनेत्री थीं। उन्होंने भी व्यावसायी मयूर माधवानी से शादी की और फिल्मों की तरफ नहीं आयीं। बड़े बाद में पहलाज निहलानी की एक फिल्म की मगर उस पर किसी का ध्यान नहीं किया। कपूर परिवार में राजकपूर की बहुएँ रणधीर कपूर की पत्नी बबीता और ऋषि कपूर की पत्नी नीतू सिंह ने भी शादी के बाद फिल्में छोडऩे का फैसला किया और परिवार को तवज्जो दी। नीतू सिंह को अभी ही हमने एक-दो फिल्मों में देखा है।

माधुरी दीक्षित का एक बार फिर से आना, बॉलीवुड के एकदम बदले जमाने में आना है। बेशक उनके समय के नायक आज भी सक्रिय हैं पर वे करीना, कैटरीना, दीपिका और विद्या बालन के साथ काम कर रहे हैं। पता नहीं माधुरी को सशक्त भूमिकाएँ मिलेंगी भी कि नहीं। सुभाष घई, राजकुमार सन्तोषी, इन्द्र कुमार आदि पर उनको भरोसा अभी भी है। देखते हैं क्या होता है?

सोमवार, 13 दिसंबर 2010

इन्दिरा कृष्णन का कृष्णाबेन होना

स्वस्थ और सुरुचिपूर्ण मनोरंजन के लिए दर्शकों की आँखें तरसा करती होंगी, यह तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि मनोरंजन के नाम पर तमाम चैनल चौबीसों घण्टे बहुत सारा निरर्थक और व्यर्थ की इतनी परोसदारी में लगे रहते हैं कि हमारे जहन में सार्थक ख्याल प्राय: आया ही नहीं करते। जिन्दगी अपनी सहजता में भी बहुत सारी ऐसी परिस्थितियाँ रचती है कि हर इन्सान के जीवन में कोई न कोई कहानी घटित हुआ करती है। एक जमाना था जब टेलीविजन के एक-दो लोकप्रिय चैनल गुजरात प्रान्त के परिवेश, परिवार, समाज और माहौल पर कुछ धारावाहिकों के जरिए बड़ी ऊँचाई पर पहुँच गये लेकिन उन धारावाहिकों से भी आगे निकला, बा बहू और बेबी जैसा सादगी मगर जीवन-रस से भरपूर धारावाहिक।

टेलीविजन में एकाध चैनल ही ऐसा है जिसमें बोधपूर्ण हास्य की प्रस्तुतियाँ आया करती हैं, वहीं तारक मेहता का उल्टा चश्मा चर्चित हुआ और अब एक दूसरे चैनल पर कृष्णाबेन खाकरावाला धारावाहिक की दिलचस्प आमद हुई है। इस धारावाहिक की मुख्य पात्र इन्दिरा कृष्णन ही मुख्य पात्र कृष्णाबेन का किरदार निबाह रही हैं। महत्वपूर्ण यह है कि कम समय में ही यह धारावाहिक लोगों को पसन्द आ गया। खासकर बच्चों को इस धारावाहिक में बड़ा आनंद आ रहा है।

इस धारावाहिक की मुख्य पात्र कृष्णाबेन, यानी दक्षिण भारतीय इन्दिरा कृष्णन ने गुजराती भाषा-बोली और संवाद शैली को जिस तरह अपनी शख्सियत में उतारा है, उसने उनको यकायक एक बड़ी पहचान दी है। वो कहती हैं कि इस धारावाहिक में कृष्णाबेन की कृष्णागीरी इतनी पसन्द की जाने लगी है कि मुझे बच्चे-बड़े बाहर इसी नाम से बुलाने लगे हैं। पत्रिका के पाठकों के लिए खास बात करते हुए इन्दिरा ने कहा कि मैं स्वयं खुश हूँ, एक स्त्री, एक सौम्य-साहसिक किरदार निबाह रही है। चुनौतियों का सामना करने का इस किरदार का ढंग किसी को शर्मिन्दा करना या अपमानित करना नहीं बल्कि भूलों का एहसास कराकर सुधार के रास्ते पर ले जाना है।

इन्दिरा कृष्णन शीर्षस्थानीय भरतनाट्यम डांसर स्वर्गीय सी.पी. सुशीला की बेटी हैं। एक अच्छी अभिनेत्री बनकर अपनी माँ के सपनों को पूरा करने की ख्वाहिशमन्द इन्दिरा चाहती हैं कि यह धारावाहिक दस साल चले। हर्षा जगदीश इस धारावाहिक की कहानी-पटकथाकार हैं और हर्षद जोशी इसे निर्देशित कर रहे हैं। हर्षा और हर्षद मिलकर इस धारावाहिक से हर्षानुभूतिभरा मनोरंजन प्रदान कर रहे हैं। अनेक धारावाहिक और फिल्मों में काम कर चुकी इन्दिरा ने स्वयं अपनी निजी प्रतिभा से ड्रेसिंग सेंस अपने पर लागू किया है, शख्सियत से अभिनय-भाषा सृजित की है, सौम्य हृदय की सोच, परेशानियों का सामना भी मुस्कराकर करने का तरीका, एक तरह का चुलबुलापन इस किरदार में स्थापित करना चाहा है।

दहीसर स्थित अम्बावाड़ी के त्रिमूर्ति स्टूडियो में धारावाहिक की दुनिया बसायी गयी है। इन्दिरा कृष्णन कहती हैं कि जैसे हीरानी की मुन्नाभाई फिल्म अपनी गांधीगीरी से दर्शकों में मनोरंजन का अलग मापदण्ड बनी थी, हर्षद का यह सीरियल भी कृष्णागीरी को अपनी तरह की लोकप्रियता देगा।

रविवार, 12 दिसंबर 2010

धराशायी फिल्मों का पखवाड़ा

बीता शुक्रवार भी ऐसी दो फिल्मों का रहा, जिनमें से एक बहुल सितारा फिल्म थी और दूसरी नये कलाकारों की मगर बड़े बैनर की। प्रभाव दोनों का ही निराशाजनक रहा। हालाँकि दोनों ही फिल्मों की स्थितियों में व्यापक अन्तर भी था। हम बात जाहिर है, नो प्रॉब्लम और बैण्ड बाजा बारात की कर रहे हैं। नो प्रॉब्लम को अनिल कपूर ने अपने बैनर पर बनाया था और अपनी तरह के उम्रदराज साथी कलाकारों, परेश रावल तो खैर ठीक है, चरित्र अभिनेता हैं, संजय दत्त और अक्षय खन्ना को साथ लिया था। अनीस बज्मी के बारे में कहा जाता है कि इस दौर की सतही कॉमेडी फिल्मों के तथाकथित पुरोधा निर्देशक हैं मगर यह फिल्म सुष्मिता सेन जैसी प्रौढ़ नायिकाओं के सौन्दर्यबोध के बावजूद न चली।

भोपाल शहर के सिनेमाघरों में इसकी ओपनिंग बड़ी निराशाजनक रही, शहर के दो सिनेमाघरों में खिड़कियाँ खुली थीं और मैदान खाली था। सप्ताहान्त भी उम्मीदजनक नहीं रह सका। दूसरी फिल्म बैण्ड बाजा बारात यश चोपड़ा के घराने की थी। अभिनेत्री अनुष्का एक-दो फिल्म कर चुकी है, नायक को भी छोटे-मोटे अनुभव हैं। विषय दिलचस्प है, प्रसंग अच्छे हैं और आज के वातावरण में मांगलिक कार्यों की अलग किस्म की दिखायी देने वाली चमचमाहट के बीच दो बेरोजगार युवा किस्म तरह अपनी ऊर्जा का रचनात्मक इस्तेमाल करते हैं, यह इस फिल्म के मूल में था। मगर नामी चेहरों के अभाव में यह अच्छी फिल्म भी अपने अंजाम तक नहीं पहुँच सकी। आशुतोष गोवारीकर की फिल्म खेलें हम जी जान से की स्थिति भी बुरी हुई। उसको नोटिस नहीं लिया गया जबकि वह स्वातंत्र्य आन्दोलन से एक कहानी, एक सच्ची घटना लेकर बनायी गयी थी।

आशुतोष के बारे में यह बात बहुत स्पष्ट और सच है कि वे गम्भीरता से फिल्में बनाते हैं। हम लगान, स्वदेस, जोधा अकबर और खेलें हम जी जान से जैसी चार विविध फिल्मों की आयामीयता पर निगाह डालें तो दिखायी देता है कि अपने माध्यम के प्रति किसी तरह की अव्हेलना उनकी दृष्टि में दिखायी नहीं देती। एक चैनल ने कहा कि पा के निर्देशक आर. बाल्कि, खेले हम जी जान से को पूरी देख न सके और बीच में उठकर चले गये। उपसंहार यह कि फिल्म अच्छी नहीं बनी। खेलें हम जी जान से, एक गहन फिल्म है, वैसे दर्शक अब हमारे बीच नहीं हैं। सिनेमा बहुतेरों को अनुकरणीय इसलिए नहीं लगता क्योंकि अब वह प्रेरित करता नहीं है मगर अच्छी फिल्म की पहचान भी हमारे बीच से धीरे-धीरे जा रही है, यह इस दौर में साफ दिखायी देता है।

दिसम्बर, जैसी कि हम कुछेक बार चर्चा कर चुके हैं, साल का धीरे-धीरे व्यतीत होता महीना है। यह पहला पखवाड़ा सिनेमा के मान से निराशाजनक रहा है। बचे हुए समय में कोई धौल-धमाका होगा, इसकी उम्मीद भी व्यर्थ लगती है।

शम्मी कपूर की तीसरी मंजिल

हिन्दी सिनेमा का सातवाँ दशक बड़े सितारों की विहंगम उपस्थिति के साथ-साथ कुछ ऐसे सितारों की भी सफलता का रहा है जिनकी फिल्में दर्शकों को सहज ग्राह्य होती रही हैं। वे नायक दर्शकों को पसन्द भी रहे हैं और बावजूद उनकी औसत उपस्थिति के अच्छे निर्देशन, नायिकाएँ, गीत-संगीत और कहानियों के माध्यम से उनकी फिल्में लोकप्रिय हुई हैं। शम्मी कपूर एक ऐसे ही कलाकार के रूप में जाने जाते हैं जो अपने बड़े भाई सहित उनके दो समानान्तर स्पर्धियों देव आनंद और दिलीप कुमार की निरन्तर सक्रियता और प्रभाव के बावजूद अपने लिए रास्ता निकालने में कामयाब रहे। रविवार के दिन उन्हीं की एक सफल फिल्म तीसरी मंजिल की चर्चा करना प्रासंगिक लग रहा है। नासिर हुसैन निर्देशित यह फिल्म 1966 में प्रदर्शित हुई थी और कहानी में दिलचस्प रहस्य और अच्छे गानों की वजह से सफल रही थी।

तीसरी मंजिल का कथानक फिल्म की नायिका के अपनी बहन के कातिल को ढूँढने के फैसले से शुरू होता है। रॉकी नाम के जिस आदमी को वह अपनी बहन की मौत का जिम्मेवार मानती है, स्थितियाँ कुछ ऐसी बन जाती हैं कि उसी से उसको प्यार हो जाता है। यह रॉकी, फिल्म का नायक अनिल है जो सचमुच इस हादसे का दोषी नहीं है मगर शक के घेरे में उसकी निगरानी, उसके घर की तलाशी भी गुप्त रूप से होती है। फिल्म की कहानी लगातार जिज्ञासा को बढ़ाती है। वास्तविक अपराधी कौन है, यह जानना कठिन होता है। तब फिल्में, खासकर ऐसी विषयवस्तु वाली फिल्मों में तीन चार संदिग्ध किरदार भी किसी न किसी रूप में हमारे सामने से होकर गुजरते थे जिन पर शक होता है मगर अपराधी कोई और ही निकलता है। तीसरी मंजिल में भी कहानी इसी तरह आगे बढ़ती है। प्रेमनाथ, मुख्य अपराधी हैं जो फिल्म में नायक के शुभचिन्तक, खैरख्वाह बने रहते हैं और हम सीबीआई ऑफीसर इफ्तेखार, नायिका की बहन के प्रेमी प्रेम चोपड़ा, नायक से एकतरफा इश्क करने वाली हेलेन और एक-दो दृश्यों में दीखते के.एन. सिंह में गुनहगार को ढूँढते हैं।

यह विजय आनंद निर्देशित फिल्म है, जिनकी अपनी ख्याति निर्देशक के रूप में रहस्य बुनने वाले प्रतिभाशाली फिल्मकार की रही है। फिल्म को सफल अन्त तक ले जाने में उनका निर्देशक गजब सफल होता है। कहा जाता है कि नासिर हुसैन इस फिल्म के नायक के रूप में देव आनंद को लेना चाहते थे मगर देव आनंद के ही परामर्श पर शम्मी कपूर को नायक लिया गया। नासिर हुसैन के साथ काम करने के अनुभव देव और शम्मी दोनों को बराबर के थे। आशा पारेख नासिर हुसैन की फिल्मों की पसन्दीदा नायिका थीं, जो यहाँ भी खूबसूरत और मासूम दिखायी देती हैं। यह राहुल देव बर्मन की भी पहली बड़ी सुपरहिट फिल्म थी। मजरूह सुल्तानपुर की लिखे, मोहम्मद रफी और आशा भोसले के गाये गाने सभी लोकप्रिय और सफल थे, ओ मेरे सोना रे सोना, ओ हसीना जुल्फों वाली, आजा आजा मैं हूँ प्यार तेरा और दीवाना मुझ सा नहीं को हम याद कर सकते हैं।

शनिवार, 11 दिसंबर 2010

अभिव्यक्ति के सर्वोच्च शिखर दिलीप कुमार

दिसम्बर का महीना जिन महत्वपूर्ण सितारों के जन्मदिन का होता है उनमें दिलीप कुमार साहब का नाम सर्वोपरि है। 11 दिसम्बर उनका जन्मदिन है। उम्र और शारीरिक अस्वस्थता के कारण उनका अब बाहर कम आना होता है लेकिन फिल्म जगत में उनका इतना आदर और मान-सम्मान है कि संजीदा और कृतज्ञ लोग वक्त-वक्त पर उनकी कुशलक्षेम पूछने उनके घर जाते हैं। कुछ भी नया या अच्छा कर रहे होते हैं तो उनको जाकर बताते हैं और उनकी शुभकामनाएँ प्राप्त करते हैं। फिल्म इण्डस्ट्री में आज का समय कृतघ्र स्पर्धा और एक-दूसरे को दमित करते रहने वाले प्रतिद्वन्द्विता का है। शुक्र है दिलीप साहब अपने समय की उस पीढ़ी के महान कलाकार हैं जहाँ एक दूसरे से इस स्तर की प्रतिद्वन्द्विता नहीं हुआ करती थी।

दिलीप कुमार अपने समय की तीन शीर्ष सितारों की त्रयी में सबसे पहले शुमार होने वाले महानायक माने जाते थे, उनके बाद राजकपूर और देवआनंद का नाम लिया जाता था लेकिन हमेशा ही तीनों में बड़ी गजब की समझ रही है। यह उल्लेखनीय है कि तीनों ही अपने-अपने जगत के श्रेष्ठ व्यक्तित्व थे मगर तीनों में कभी टकराहट नहीं हुई। कुछेक ऐसे अवसर हैं जहाँ इन्हें परस्पर एक साथ काम करते हमने कुछ फिल्मों में देखा है मगर ऐसा कभी सुनने में नहीं आया कि कोई किसी के लिए बयान दे रहा है या हँसी उड़ा रहा है या कोई किसी के रोल पर कैंची चलवा रहा है।

हिन्दी सिनेमा का यह अतीत बड़ा सुखद है जहाँ एक वक्त में अनमोल सितारे सिनेमा के आसमान पर हुए। सभी की सहभागिता से अपने समय का सबसे अच्छा, कालजयी और यादगार सिनेमा बना और दो साल बाद जब सिनेमा की शताब्दी मनायी जा रही होगी तो इस स्वर्णयुग को स्वर्णाक्षरों में लिखा भी जायेगा। दिलीप कुमार शिक्षा और परिवेश में समृद्ध वातावरण में परवरिश पाये युवा नहीं थे लेकिन अपने असाधारण अभिनय, अपने व्यवहार और अपनी प्रतिभा से उन्होंने सभी को अपना प्रिय बनाया।

उन्होंने अपने समय के श्रेष्ठ निर्देशकों के साथ लगातार काम किया है जिसमें हम बिमल राय, मेहबूब खान, बी.आर.चोपड़ा के नाम ले सकते हैं। उन्होंने मुगले आजम, आन, अमर, देवदास, मधुमति, मुसाफिर, गंगा जमना, लीडर, अन्दाज, इन्सानियत, कोहिनूर, नया दौर, राम और श्याम, संघर्ष आदि ऐसी फिल्मों में काम किया जो मील का पत्थर हैं।

गायक स्वर्गीय मोहम्मद रफी, संगीतकार स्वर्गीय नौशाद के साथ उनके अभिनय से सजी ऐसी अनेकानेक फिल्में होंगी जिन्हें हम केवल उनके लिए ही याद करते हैं। संघर्ष, लीडर, सगीना में उनके किरदार साहसिक हैं। उनकी फिल्मों में उन पर फिल्माए भजन आज भी लोकप्रिय हैं। उन्होंने अपनी निरन्तरता का लम्बा समय हिन्दी सिनेमा को दिया है। शक्ति, मशाल, दुनिया, विधाता से सौदागर तक यह यात्रा बखूबी आयी है।

जिस तरह प्राण जैसे कलाकार दादा साहब फाल्के पुरस्कार से अब तक वंचित हैं उसी तरह दिलीप कुमार भी एक बड़े शीर्ष सम्मान से वंचित हैं। ये उस दौर की पीढ़ी है जो अपने सम्मान के लिए चक्कर लगाने या गिड़गिड़ाने में विश्वास नहीं करती। हमारे मन में इनके अवदान के प्रति नत-मस्तक होने का भाव है तो हमको ही पहल करनी होगी।

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

मौसम के परिधानों से दूर सिनेमा

हमारे सिनेमा से धीरे-धीरे बहुत सी पारम्परिक और मनभावन चीजें दूर होती जा रही हैं। आज की पीढ़ी में बहुत सारी आधुनिक समझ के साथ जो लोग सिनेमा के विभिन्न आयामों से जुडक़र काम करते हैं, उनमें बहुत जल्दी निर्णय लेने की तत्परता और अपनी बात पर अपनी विशेषज्ञता के नाम पर सहमत करा लेने का अजीब सा आत्मविश्वास काम करता है। ऐसे में जाहिर तौर पर वे अपने आज से ही सीखते सबक लेते हैं। इस समय मौसम सर्दी का है। पूरे देश में इस खूबसूरत मौसम को जमाना अपने-अपने ढंग से जीने लगता है। मौसम के अनुकूल मिजाज के परिधानों की तो जैसे जगह-जगह बहार आयी होती है। बहुत सारे रंग, बहुत सारे आकार और बहुत सारी देह को भली लगने वाली अनुभूतियों के वस्त्रों से बाजार पट जाते हैं और खरीदार गर्मजोशी से उनमेें से अपना चुनते हैं और पहनते हैं।

शाल, स्वेटर, कोट, सूट आदि का अपना सौन्दर्यबोध है। यह सब एक समय तक हमारे सिनेमा में खूब दिखायी देता रहा है। आशा पारेख, शर्मिला टैगोर, माला सिन्हा, साधना और वहीदा रहमान जैसी अभिनेत्रियाँ अनेक फिल्मों में स्वेटर, कार्डिगन पहने हमें कितनी खूबसूरत दिखायी देती थीं। बाग-बगीचों में उनका इठलाकर चलना, नायक से रोमांस करना और बात कहते-कहते मनभावन गीत गाने लगने का अपना अन्दाजा हुआ करता था। कई अभिनेत्रियों पर शॉल बड़ा सुहाता रहा है। खासकर नूतन, राखी, रेखा, नीतू सिंह, हेमा मालिनी, शाबाना आजमी रंग-बिरंगे शॉल में हमेशा गजब ढाती रही हैं। फिल्मों में माँ का किरदार करने वाली अभिनेत्रियाँ खासतौर पर निरुपा राय, सुलोचना, कामिनी कौशल, पूर्णिमा, इन्द्राणी मुखर्जी, उर्मिला भट्ट तो अपनी साड़ी के ऊपर शॉल हमेशा पहनकर ही परदे पर भावपूर्ण दृश्यों के साथ नजर आयी हैं। नायकों में मौसम के कपड़े पहनने का शगल बहुत पुराना रहा है।

शम्मी कपूर तो रंग-बिरंग मफलर डालकर हीरोइन के सामने तडि़त प्रभाव से नाचते हुए अलग ही दिखायी देते रहे हैं। सत्तर के दशक में उनकी ऐसी तमाम फिल्में हैं, खासकर नासिर हुसैन के बैनर की फिल्में, शम्मी कई दृश्यों में बड़े गाउन के साथ भी नजर आते थे। अभिनेताओं में अमिताभ बच्चन पर शॉल खूब फबता रहा है। कस्मे वादे, सिलसिला, कभी-कभी, जुर्माना, बेमिसाल, आलाप आदि फिल्मों में सर्दी के मौसम के ऊनी कपड़ों में बच्चन कई दृश्यों में बड़े सम्मोहक लगे हैं। चुपके-चुपके में हिल स्टेशन पर डाक बंगले के चौकीदार की नकली भूमिका करते हुए धर्मेन्द्र भी कम्बल ओढ़े, मंकी टोपी पहने दिलचस्प अदायगी करते हैं वहीं गजब में भी मन्दबुद्धि मुन्ना सरकार का उनका किरदार कान में हमेशा मफलर बांधे, स्वेटर पहने नाक में विक्स लगाता दर्शकों को हँसाता है।

अभिनेता ऋषि कपूर को किस्म-किस्म के स्वेटर पहनकर लुभाने वाले अपने दौर के अकेले नायक रहे हैं। मिथुन चक्रवर्ती पर भी प्यार झुकता नहीं में मफलर खूब फबा था। आज के दौर में किसी भी मौसम में कपड़ों से सबसे ज्यादा गुरेज नायिकाओं को है। नायक भी अब पहनावे में सहज रहना चाहता है इसीलिए भारी-भरकम परिधानों से परहेज करता है।

फूहड़ता विद्वतजनों को भी हँसाती है

भद्रता संस्कारों से आती है, ऐसा कहा जाता है। यह पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती है, इसके भी उदाहरण होते हैं। कई बार भद्रता परिवेश और संगत से भी आती है। घर, परिवार और कुटुम्ब में कई बार आश्चर्यजनक ढंग से इसके विरोधाभास भी नजर आते हैं। लेकिन बहुत बार इस तरह के उदाहरण हतप्रभ करते हैं जब अपने व्यक्तित्व और व्यवहार में असाधारण गरिमा को जीने वाले लोग भी फूहड़ता के आगे हथियार डाल देते हैं और अपनी सहमत हँसी से उसका एक तरह से समर्थन कर दिया करते हैं।

एक म्युजिक अवार्ड का शो, टेलीविजन के एक लोकप्रिय चैनल पर एक शाम अभी कुछ दिन पहले ही देखने का मौका कुछ देर को आया। बहुत सारे जाने-पहचाने चेहरे बैठे हुए थे। लता मंगेशकर थीं, आशा भोसले, ऊषा मंगेशकर थीं, अदनान सामी थे, रहमान थे, जावेद अख्तर थे, कैलाश खेर थे, सलमान थे, सैफ थे, करीना थीं, सोनू निगम थे, कैलाश खेर थे, शान थे, रमेश सिप्पी थे, जगजीत सिंह थे, राजकुमार हीरानी थे और भी बहुत सारे शख्स मौजूद थे। इन सबके बीच गरिमा की वृद्धि करते हुए विख्यात सन्तूर वादक पण्डित शिव कुमार शर्मा बैठे दिखे और मोहनवीणा वादक पण्डित विश्वमोहन भट्ट भी।

मंच पर एंकरिंग करते हुए बेसाख्ता अर्थहीन और कुतर्कभरी बतकही के सिरमौर साजिद खान सक्रिय थे। अब ऐसे में जो मजमा जमा, वह बड़ा ही सतही और कई-कई बार पटरी से उतरती शालीनता का था। साजिद चुटकुले पेश करते हुए, बनावटी किरदारों को मंच पर बुलाकर उनसे निरर्थक संवाद करते हुए सभी बैठे हुओं को खूब हँसा रहे थे। संगीत से जुड़े अवार्डों की शाम थी। गीतकारों, संगीतकारों और गायकों को सम्मानित किया जा रहा था। तानाबाना इस तरह का बुना हुआ था कि सीधे-सीधे सम्मानित करने की प्रथा यहाँ नहीं दिखायी दी। बीच-बीच का स्पेस भरना था।

जाहिर है कार्यक्रम बनाने वालों को कार्यक्रम मनोरंजन से भरपूर बनाने की जवाबदारी सौंपी गयी होगी। यह भी जाहिर है कि उन सबमें बहुमत इस बात का रहा होगा कि मामला मसालेदार न बनाया गया तो देखने में दर्शकों को भला क्या मजा आयेगा? सो इस तरह मजा क्रिएट किया गया। फूहड़ता मंच पर बड़े पाखण्ड के साथ आती है, यह तो हम सब ही जानते हैं, धीरे-धीरे कैबरे डांसर की तरह वह अपना शर्मनाक जलवा दिखाती है। सारा कुछ इस तरह का होता है कि सभी को रस आने लगता है।

ऐसा लगता है कि कुछ लोगों की यह परम मान्यता हो गयी है कि सारा जगत तमाम दुखों से दुखी है और उसे येन केन प्रकारेण हँसाना है। कलाकार भी दुखी हैं, मेहनत, परिश्रम और तनाव से आये दिन तंग रहते हैं, उनको भी हँसाना है। तो इस भावना, सारा पुनीत कार्य ऐसे स्तर पर जाकर हो रहा है। विस्मय इस बात का है कि हँसी की स्तरहीन परिपाटी में हँसते हुए सभी की सहमति होने लगी है। सभी की, जिनके नाम इस टिप्पणी में आये हैं।

धर्मेन्द्र की गोल्डन और प्लेटिनम जुबलियाँ

8 दिसम्बर भारतीय सिनेमा के सदाबहार सितारे धर्मेन्द्र का जन्मदिन है। यह साल उनकी गोल्डन और प्लेटिनम जुबलियों का है। गोल्डन जुबली इसलिए कि फिल्मों में काम करते हुए उनको पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं और प्लेटिनम जुबली इसलिए कि वे पचहत्तर वर्ष के हो गये हैं। 8 दिसम्बर इस दरियादिल सितारे के जीवन का खास दिन होता है, वे भावुक हैं, कहते हैं कि माता-पिता

नहीं हैं तो जन्मदिन कैसा, मगर उनके चाहने वाले आज के दिन उनको एक ऐसा आत्मीय और प्यारा माहौल देते हैं कि वे भीतर के इस अवसाद से बाहर आकर सबसे खूब मिलते-जुलते हैं और सबके साथ अपना जन्मदिन मनाते हैं। जुहू में उनके बंगले पर सुबह से उनके चाहने वालों का तांता लग जाता है। धर्मेन्द्र सम्बन्धों को निबाहने वाले शख्स हैं लिहाजा बरसों के रिश्ते बनाने वाली हस्तियाँ उनका घर फूलों से भर देती हैं। बंगले के बाहर चाहने वालों से वे दिन भर मिलते हैं, प्यार कुबूल करते हैं, फोटो खिंचवाते हैं।

धर्मेन्द्र की विशेषता यह है कि वे अपने चाहने वालों को बड़ी तवज्जो देते हैं। वे कहते हैं कि इस मायावी दुनिया में बहुतेरे लोग अवसरों पर, जरूरतों पर, मतलब पर आकर जुड़ते और चले जाते हैं मगर उनकी फिल्मों के माध्यम से उनको पसन्द करने वाले देश भर में फैले, बल्कि विदेशों में भी रहने वाले लोग आज तक उनको वही प्यार देते हैं। धर्मेन्द्र कहते हैं कि सबका प्यार मेरे सिर-माथे है। वे इस बात को बड़े भावुक होकर स्वीकार करते हैं कि उनके सभी चाहने वालों ने उन्हें ही नहीं वरन उनके परिवार, बेटों सभी को वही आत्मीयता दी है। बीकानेर में उनको चाहने वाले तथा उन्हीं नाम से धर्मेन्द्र कलर लैब स्थापित करने वाले प्रीतम सुथार, इस बार के विशेष अवसर को सेलीबे्रट करने पच्चीस दिन पहले साइकिल से मुम्बई की यात्रा पर निकल पड़े और आज वो साइकिल से ही धर्मेन्द्र के घर पहुँचकर उनको शुभकामनाएँ देंगे।

दर्शकों के बीच अपनी ऐसी खास जगह बनाना बड़ा कठिन होता है। गुड्डी फिल्म के एक दृश्य में खलनायक शिरोमणि प्राण, धर्मेन्द्र की प्रशंसा में कहते हैं कि हीरो तो यही एक है जिससे मार खाने में मजा आता है। यह फिल्म खास धर्मेन्द्र के मैनरिज्म पर बनी दिलचस्प कहानी थी जिसमें जया भादुड़ी के सपनों में नायक के रूप में यह शख्स बसा हुआ है और वह सोते-जागते उनके ख्यालों में खोयी रहती है। धर्मेन्द्र एक ऐसे महानायक हैं जो अपनी अनेक फिल्मों में शेर से सीधे लडऩे के दृश्य बहादुरीपूर्वक करते रहे हैं।

धर्मेन्द्र इस बात को गर्व-बोध के साथ कहते हैं कि मेरे चाहने वालों का यह जज्बा रहा है कि माँओं ने मुझमें अपना बेटा देखा है और बहन ने भाई। इस बात में यह बात जोडऩे पर वे शरमा जाते हैं, कि.. और युवतियों ने अपना हीरो..। 1961 में एक यात्रा दिल भी तेरा हम भी तेरे से शुरू हुई थी जो यमला पगला दीवाना तक अनवरत् जारी है। गुलामी, बँटवारा, क्षत्रिय आदि अनेक फिल्मों की शूटिंग के जरिए राजस्थान से गहरे जुड़े धर्मेन्द्र इस अवसर पर पत्रिका के पाठकों को अपना स्नेह-प्यार देते हैं।

धर्मेन्द्र की गोल्डन और प्लेटिनम जुबलियाँ

8 दिसम्बर भारतीय सिनेमा के सदाबहार सितारे धर्मेन्द्र का जन्मदिन है। यह साल उनकी गोल्डन और प्लेटिनम जुबलियों का है। गोल्डन जुबली इसलिए कि फिल्मों में काम करते हुए उनको पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं और प्लेटिनम जुबली इसलिए कि वे पचहत्तर वर्ष के हो गये हैं। 8 दिसम्बर इस दरियादिल सितारे के जीवन का खास दिन होता है, वे भावुक हैं, कहते हैं कि माता-पिता

नहीं हैं तो जन्मदिन कैसा, मगर उनके चाहने वाले आज के दिन उनको एक ऐसा आत्मीय और प्यारा माहौल देते हैं कि वे भीतर के इस अवसाद से बाहर आकर सबसे खूब मिलते-जुलते हैं और सबके साथ अपना जन्मदिन मनाते हैं। जुहू में उनके बंगले पर सुबह से उनके चाहने वालों का तांता लग जाता है। धर्मेन्द्र सम्बन्धों को निबाहने वाले शख्स हैं लिहाजा बरसों के रिश्ते बनाने वाली हस्तियाँ उनका घर फूलों से भर देती हैं। बंगले के बाहर चाहने वालों से वे दिन भर मिलते हैं, प्यार कुबूल करते हैं, फोटो खिंचवाते हैं।

धर्मेन्द्र की विशेषता यह है कि वे अपने चाहने वालों को बड़ी तवज्जो देते हैं। वे कहते हैं कि इस मायावी दुनिया में बहुतेरे लोग अवसरों पर, जरूरतों पर, मतलब पर आकर जुड़ते और चले जाते हैं मगर उनकी फिल्मों के माध्यम से उनको पसन्द करने वाले देश भर में फैले, बल्कि विदेशों में भी रहने वाले लोग आज तक उनको वही प्यार देते हैं। धर्मेन्द्र कहते हैं कि सबका प्यार मेरे सिर-माथे है। वे इस बात को बड़े भावुक होकर स्वीकार करते हैं कि उनके सभी चाहने वालों ने उन्हें ही नहीं वरन उनके परिवार, बेटों सभी को वही आत्मीयता दी है। बीकानेर में उनको चाहने वाले तथा उन्हीं नाम से धर्मेन्द्र कलर लैब स्थापित करने वाले प्रीतम सुथार, इस बार के विशेष अवसर को सेलीबे्रट करने पच्चीस दिन पहले साइकिल से मुम्बई की यात्रा पर निकल पड़े और आज वो साइकिल से ही धर्मेन्द्र के घर पहुँचकर उनको शुभकामनाएँ देंगे।

दर्शकों के बीच अपनी ऐसी खास जगह बनाना बड़ा कठिन होता है। गुड्डी फिल्म के एक दृश्य में खलनायक शिरोमणि प्राण, धर्मेन्द्र की प्रशंसा में कहते हैं कि हीरो तो यही एक है जिससे मार खाने में मजा आता है। यह फिल्म खास धर्मेन्द्र के मैनरिज्म पर बनी दिलचस्प कहानी थी जिसमें जया भादुड़ी के सपनों में नायक के रूप में यह शख्स बसा हुआ है और वह सोते-जागते उनके ख्यालों में खोयी रहती है। धर्मेन्द्र एक ऐसे महानायक हैं जो अपनी अनेक फिल्मों में शेर से सीधे लडऩे के दृश्य बहादुरीपूर्वक करते रहे हैं।

धर्मेन्द्र इस बात को गर्व-बोध के साथ कहते हैं कि मेरे चाहने वालों का यह जज्बा रहा है कि माँओं ने मुझमें अपना बेटा देखा है और बहन ने भाई। इस बात में यह बात जोडऩे पर वे शरमा जाते हैं, कि.. और युवतियों ने अपना हीरो..। 1961 में एक यात्रा दिल भी तेरा हम भी तेरे से शुरू हुई थी जो यमला पगला दीवाना तक अनवरत् जारी है। गुलामी, बँटवारा, क्षत्रिय आदि अनेक फिल्मों की शूटिंग के जरिए राजस्थान से गहरे जुड़े धर्मेन्द्र इस अवसर पर पत्रिका के पाठकों को अपना स्नेह-प्यार देते हैं।

रविवार, 5 दिसंबर 2010

शादियों के जश्र और सिनेमा-गीत

शादी-विवाह के जश्र का फिल्मों से कैसा गहरा रिश्ता है, इसका उल्लेख पिछले दिनों कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन ने किया और खासतौर पर बी.आर. चोपड़ा की फिल्म नया दौर के, ये देश है वीर-जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का, इस देश का यारों क्या कहना, को याद किया। चोपड़ा की यह फिल्म अपने समय की ही नहीं वरन हर समय की एक बड़ी प्रेरक और अहम फिल्म है। इसके मूल्याँकन मेें सभी पक्षों को सौ में से सौ नम्बर ही मिलते हैं। जिस गीत की बात अमिताभ बच्चन कर रहे थे वह परदे पर दिलीप कुमार और अजीत के साथ खूब सारे जूनियर कलाकारों के ऊपर फिल्माया गया था। इस गाने की मस्ती आज भी देखते बनती है। मोहम्मद रफी ने अकेले ये गीत बराबर के दो किरदारों के लिए गाया था। हिन्दुस्तान के युवा को जोश और गर्मी से भर देने वाला यह गीत, कैसे बहुत ही मस्ती भरे नाच और खासकर चलती-चढ़ती बारात का गीत बन गया, कुछ पता नहीं। साहिर लुधियानवी और ओ.पी. नैयर के गीत-संगीत की यह कालजयी खूबी बारातों की जैसे अपरिहार्यता ही बन गयी। शायद ही कोई बारात हो जो इस गीत के बगैर निकले।

हिन्दी फिल्मों में वक्त-वक्त पर ऐसे बहुत से गीत बने जो शादी-ब्याह के विभिन्न अवसरों के लिए बड़े मुफीद साबित हुए। संगीतकार रवि को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने दो फिल्मों नीलकमल और आदमी सडक़ का के लिए ऐसे गीत कम्पोज किए जो शादियों से सम्बन्धित ही थे। एक था नीलकमल का, बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले। इस गीत में भावुकता और संवेदना गजब की है। मोहम्मद रफी इस गीत को गाते हुए कैसे डूब जाते हैं, गीत को सुनकर अन्दाजा लगाया जा सकता है। कहा जाता है कि इस गीत की रेकॉर्डिंग उन्होंने भरे गले से ही करायी थी। आज के समय में हम इतने गहरे गायकों की कल्पना ही नहीं कर सकते। एक दूसरा गीत, आज मेरे याद की शादी है भी मोहम्मद रफी ने ही गाया था। यह फिल्म आदमी सडक़ का, का गीत था जो शत्रुघ्र सिन्हा पर फिल्माया गया था जो अपने मित्र विक्रम की बारात में नाचते हुए गाते हैं।

एक गीत, बहारों फूल बरसाओ, मेरा मेहबूब आया है, भी ब्याह-बारात में बड़ा लोकप्रिय है मगर इसका महत्व नाच में देखने में नहीं आता। यह लगभग द्वारचार के बाद भीतर जाती बारात और समेटे जाते बैण्ड बाजे का उपसंहार गीत होता है। शादी-ब्याह के और गीतों में पी के घर आज प्यारी दुल्हनियाँ चली, डोली चढ़ के दुल्हन ससुराल चली, जब तक पूरे न हों फेर सात, मेरे हाथों में नौ-नौ चूूडिय़ाँ हैं, डोली सजा के रखना, मेंहदी लगा के रखना जैसे गीतों की एक लम्बी सूची है जो शादी-ब्याह के घरों में सब याद कर-करके नाचते-गाते हैं। सिनेमा हमारे जीवन के सबसे बड़े उल्लास और परम्परा में कितना गहरा रचा-बसा है यह इन बातों से प्रमाणित होता है।

मेरी सूरत तेरी आँखें

श्रेष्ठता और चुनौतियों का कोई मापदण्ड नहीं होता। बेहतर और उत्कृष्ट काम सर्वव्यापी हो, सबके मन का हो और सभी की सुरुचि का विषय बने यह भी जरूरी नहीं होता। इसके बावजूद ऐसे काम हुआ करते हैं। सृजनात्मक क्षेत्रों में भी अच्छे कामों की अपनी सामयिकता और कालजयता है। रविवार एक अच्छी फिल्म को चुनने के सोच-विचार में आर.के. राखन निर्देशित फिल्म मेरी सूरत तेरी आँखें अचानक स्मृतियों में ताजी हो गयी। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1963 का है।

लगभग पाँच दशक पहले की यह फिल्म कई कारणों से प्रभावित करती है। अपनी अनेकानेक खूबियों के साथ-साथ यह हमारे सामने एक बड़ा और गहरा प्रश्र यह भी उपस्थित करती है कि किसी इन्सान को पहचानने के हमारे प्रचलित मानदण्ड कितने सार्थक हैं?
मेरी सूरत तेरी आँखें, का मुख्य कलाकार एक बड़ा गायक है। उसके गाने से पंछियों के स्वर थम जाते हैं, हवाएँ ठहर जाती हैं, पूरा वातावरण उसकी स्वर-सलिला पर मंत्र-मुग्ध हो उठता है।

मोहम्मद रफी का गाया गाना, तेरे बिन सूने नैन हमारे, बाट तकत गये, साँझ-सकारे, मन में गहरे उतर जाता है। राग पीलू का यह दादरा नायक गा रहा है। खूबसूरत नायिका उस आवाज का पीछा करती है। गाना पूरा होता है, तो अपने सामने एक कुरूप काले इन्सान को देखकर डर जाती है। फिल्म यहाँ से शुरू नहीं होती पर शायद शुरू होती तो और भी बेहतर होता मगर निर्देशक ने कहानी सीधी-सादी रखी। एक डॉक्टर के यहाँ बच्चे का जन्म होता है। डॉक्टर और उसकी पत्नी बड़े सुन्दर हैं मगर यह बच्चा काला और कुरूप। स्थितियाँ यह हैं कि माता-पिता बच्चे को अपने पास रखना नहीं चाहते। नफरत है। ऐसे में एक गरीब, निसंतान आदमी इस बच्चे के चेहरे में खूबसूरती देखता है और उसे डॉक्टर से लेकर अपने घर ले जाता है और उसकी परवरिश करता है।

अपने जमाने में मुनीम, जमींदार के आज्ञापालक की नकारात्मक भूमिकाओं में आम हो चुके चरित्र अभिनेता कन्हैयालाल ने गरीब अविभावक की यह भूमिका निभायी थी। अशोक कुमार ने भी भरपूर सफल समय में अपना चेहरा काला और कुरूप बनाने का फैसला किया था। मेरी सूरत तेरी आँखें, एक मर्मस्पर्शी फिल्म थी। गरीब पिता, जो कि एक गायक है, इस बेटे को स्वर-साधना में खूब पारंगत करता है। पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी, गाना राग अहीर भैरव में क्या खूब जुगलबन्दी है, बाप-बेटे की, फिल्म देखकर ही इसका आनंद लिया जा सकता है। फिल्म का एक मोड़ यह है कि उसी डॉक्टर का दूसरा बेटा बड़ा खूबसूरत है पर बिगड़ैल और चरित्रहीन।

मेरी सूरत तेरी आँखें, हमारे समय की त्रासदी और विडम्बनाओं को उन अर्थों में भी व्यक्त करती है, जहाँ हमारे सामने अन्तर्दृष्टि को नेह-दृष्टि दफनाए रखती है और हमारे मापदण्ड बेहद अलग हो जाते हैं। यह फिल्म अशोक कुमार और कन्हैयालाल के अविस्मरणीय अभिनय यादगार है। शैलेन्द्र के लिखे गीत सचिन देव बर्मन के संगीत निर्देशन में कहानी और मर्म के अनुकूल साबित होते हैं। राग भैरवी में तीन ताल का कहरवा, नाचे मन मोरा, तुझसे नजर मिलाने में, ये किसने गीत छेड़ा आदि सभी फिल्म के बहाने क्रम से याद आते हैं।

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

एक विरासत का नाम संगीतकार रवि

4 दिसम्बर को इन्दौर में मध्यप्रदेश सरकार प्रख्यात संगीतकार रवि को पच्चीसवाँ राष्ट्रीय लता मंगेशकर सम्मान प्रदान करने जा रही है। रवि इस सम्मान को ग्रहण करने इन्दौर आ रहे हैं। सम्मान प्राप्त करने के बाद वे अपने संगीत कलाकारों के साथ कार्यक्रम भी प्रस्तुत करेंगे जिसके बहाने सुनने वालों के सामने भारतीय सिनेमा के अतीत-व्यतीत युग का स्वर्णिम संगीत पुनस्र्मृतियों में ले जायेगा।

फिल्म संगीत जगत में पितामहों की पीढ़ी में अब बड़े कम लोग रह गये हैं। संगीत के क्षेत्र में खैयाम हैं, रवि हैं। गायन के क्षेत्र में मन्नाडे और मुबारक बेगम हमारे बीच हैं। स्वर्णयुग आज की पीढ़ी को पता भी न होगा क्योंकि उनके अविभावकों को भी पिछले दो दशकों में भोथरे होते संगीत के बीच सब विस्मृत हो गया होगा। बहरहाल रवि का सम्मान किया जाना एक बड़ी घटना है। पिछले काफी समय से यथासामथ्र्य सक्रियता के बावजूद रवि भुला से दिए गये थे।

रवि ने अपना कैरियर स्वर्गीय हेमन्त कुमार के सहायक के रूप में आरम्भ किया था। यह वो दौर था जब उस्ताद अपने शार्गिद से आत्मीय स्नेह रखता था, उसकी प्रतिभा की कद्र करता था और उसको प्रोत्साहित करने में पीछे नहीं हटता था। यही वजह थी कि बहुत कम समय रवि सहायक के रूप में काम कर पाये और जल्दी ही स्वतंत्र रूप से निर्देशक बन गये। रवि को उनके वरिष्ठ संगीतकारों ने भी बहुत प्रोत्साहित किया था। जिस समय रवि अपने आपको माँझ रहे थे उस समय अच्छे गीत की अपने लिए अपरिहार्यता की स्थितियों में उन्होंने शकील बदायूँनी से गीत लिखवाने की तमन्ना की थी, उस समय नौशाद साहब ने शकील बदायूँनी से रवि को मिलवाया था और उनके लिए भी गीत लिखने के लिए प्रेरित किया था।

रवि ने जिन फिल्मों का संगीत दिया, वे बहुत सफल और श्रेष्ठ फिल्में थीं। उनमें उत्कृष्ट कलाकारों ने काम किया था। आज भी उन फिल्मों का अपना महत्व है। हम वचन, दिल्ली का ठग, घर-संसार, चौदहवीं का चांद, वक्त, हमराज, भरोसा, घूंघट, घराना, गृहस्थी, फूल और पत्थर, चिराग कहाँ रोशनी कहाँ, ये रास्ते हैं प्यार के, दो कलियाँ, खानदान, काजल, नीलकमल, आँखें आदि प्रमुख हैं। रवि ने हिन्दी से इतर भाषाओं की फिल्मों विशेषकर दक्षिण की फिल्मों में संगीत दिया। पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि रवि ने पन्द्रह मलयालम फिल्मों में संगीत दिया।

चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो, ऐ मेरी जोहरा जबीं, मिलती है जिन्दगी में मोहब्बत कभी-कभी, तुम अगर साथ देने का वादा करो, संसार की हर शै का इतना ही फसाना है, ये झुके-झुके नैना ये लट बलखाती, लायी है हजारों रंग होली, तुम जिस पे नजर डालो उस दिल का खुदा हाफिज, मेरे भैया मेरे चंदा मेरे अनमोल रतन, तुझे सूरज कहूँ या चन्दा, तुझको रक्खे राम तुझको अल्ला रक्खे आदि बहुत से गीत हैं जो रवि को रवि के रूप में पुख्तगी के साथ स्थापित करते हैं। आज के समय में रवि सचमुच सिनेमा की अनमोल सांगीतिक विरासत हैं।

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

सपने, भविष्य और खिलवाड़ का खेल

टेलीविजन में गाने-बजाने की स्पर्धाओं के खेल का एक मुकम्मल और संजीदा आकलन यही हो सकता है। ऐसे अखाड़े कुछ वर्षों से खुद गये हैं जिनमें अज्ञानी को भी कुश्ती लडऩे का सबक दे दिया जाता है। ऐसा मैदान हो गया है जहाँ रैफरी भी तमाम कुटैव के लिए तैयार किया जाता है, या वह तैयार होना पसन्द करता है। जाहिर है पसन्द करता होगा तभी तो वह अपने चेहरे, अपनी प्रतिभा और अपनी पहचान के व्यतीत दौर के अरसे बाद बची-खुची कीमत वसूलने का यह मौका भी गँवाना नहीं चाहता। बड़े अजीब से धरातल पर कई बार कुछ चीजें दिखायी देती हैं।

एक बार एयरपोर्ट पर एक बहुत वरिष्ठ और नामचीन पाश्र्व गायक के आतिथ्य के लिए जाना पड़ा। उन्हीं के जहाज से एक किशोर उम्र का विजेता बच्चा गायक भी उतरकर आ रहा था। वह वरिष्ठ पाश्र्व गायक के सामने से उनको देखता हुआ निकला मगर बिना किसी प्रतिक्रिया, अभिवादन, मुस्कान या चीन्हने वाली समझ के, यद्यपि वह उनको देख इसी तरह से रहा था। निश्चित ही वह उनको पहचान रहा था मगर किसी भी शिष्टाचार के लिए उसे उसके संस्कारों ने भी प्रेरित नहीं किया जबकि वरिष्ठ गायक उसे देखकर मुस्कराए और उसका नाम लेकर भी बुलाया, तब वह झेंपता हुआ पास आया। यह दृश्य बाल उम्र की अव्यवहारिक और असमय वयस्कता को प्रमाणित करने में बड़ा सच्चा साबित हुआ।

प्रतिभाएँ दाँव पर हैं, मैदान में हैं, पसीने-पसीने होकर जूझ रही हैं और उन से लेकर उनके परिवार और माहौल तक में सुबकने, रुंधने, रोने के दृश्य आम हो रहे हैं। पता नहीं किस तरह की भावुकता में सबका गला भर आता है। आँसू, उसके और उसके उपस्थित अपनों के भी बह रहे हैं जो जीत रहा है, उसके भी बह रहे हैं जो हार रहा है। सब जान गये हैं कि इस सबके लिए समझा दिया जाता है। ऐसे मोड़ कई बार ठीक ब्रेक के पहले आते हैं और ऐसे मोड़ आपकी-हमारी धारणाओं पर भी अनायास ब्रेक लगाते हैं।

ग्लैमर दुनिया का बड़ा सोचा-विचारा कारोबार है। हर चैनल इस काम में लगा है। यह नकल क्षेत्रीय चैनलों पर भी खूब दिखायी देती है। हिन्दी से लेकर भोजपुरी संगीत की स्पर्धाओं, मारधाड़, महामुकाबले, वार आदि में सब एक जैसा ही नजर आ रहा है। आकलन करने वाले चेहरों पर से विश्वास उठ गया है देखने वालों का।

जो प्रतिभाएँ इस तथाकथित युद्ध और महासंग्राम में फतेह कर रही हैं, वे भी अन्त में अपने शहर, अपने घर को जा रही हैं। सिनेमा में उनका स्वागत दिखायी नहीं देता। ऐसे में याद आते हैं वे जज जो अपरिपक्व कलाकारों को भरोसा और विश्वास दिलाते हैं, खुद ब्रेक देने का दावा करते हुए मूँछ उमेठने लगते हैं मगर सच यह है कि वे खुद ब्रेक की तलाश में हैं।

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

साल के आखिरी माह का सिनेमा

साल के बारह महीनों में जो रुतबा जनवरी को हासिल होता है वह दिसम्बर को नहीं होता। खासतौर से सिनेमा में पूरा साल तमाम तीज-त्यौहारों के साथ-साथ विभिन्न मौसमों के अनुकूल सिनेमा सेलीब्रेशन के सिद्धान्त, मीडिया सलाहकार अपने निर्देशक-निर्माता को बनाकर देते हैं मगर उनमें से कुछ ही कारगर रहते हैं, शेष अपने परिणामों के माध्यम से अपनी विफलता को सिद्ध करने में कोई लाग-लपेट नहीं दिखाते। दरअसल दर्शक का मारा सिनेमा बड़ी दुर्दशा को प्राप्त होता है।

अब सिनेमा लम्बे समय तक सिनेमाघर में रस्में निभाने वाली चीज नहीं है। पिछले पन्द्रह-बीस सालों में हमारे पास इस तरह का सिनेमा भी नहीं है जिसकी हैसियत चार शो तो दूर, तीन या एक शो में भी नजर आये। मल्टीप्लेक्स में विभिन्न तरहों से एक साथ तीन-चार प्रदर्शित होने वाली फिल्मों का आकल्पन किया जाता है मगर उसका कोई विशेष लाभ दिखायी नहीं देता।

जिस तरह बीस-पच्चीस साल पहले निरन्तर चलने वाली फिल्म के चार से तीन शो में आने पर दोपहर के शो में एक फिल्म अपने ही ढंग के आकर्षण की लगायी जाती थी। वह भी एक से अधिक बार आकर मुनाफा दे जाती थी। अब ऐसा सौभाग्य नयी फिल्मों को भी बमुश्किल ही मिल पाता है। नवम्बर के महीने में भव्य किस्म के सिनेमा की आतिशबाजियाँ आकाश में बिखकर ध्वस्त हो चुकी हैं। तमाम फ्लॉप हैं मगर बाजार रिपोर्ट उनके बाजार के स्तर तक ही सफल हो जाने की भी है।

गोलमाल थ्री बनाने वाले निर्माता ने भी इस बात के लिए चैन की साँस ली है कि न केवल खर्चा पूरा हो गया बल्कि मुनाफा भी मिल गया। दबंग के अपने किस्म के जैकपॉट रहे। बेटे अरबाज की इस फिल्म को पिता सलीम ने कई क्षेत्रों में खुद डिस्ट्रीब्यूट किया और इस तरह परिवार में पच्चीस करोड़ की अतिरिक्त आय हुई। पिता का ऐसा समर्थन पूरे परिवार के लिए खुशी का मौसम बन गया। अन्य स्वाभाविक मुनाफे जो थे, सो थे ही।

दिसम्बर माह में अब क्या होने वाला है, लगता नहीं कि बहुत खास होने वाला है। हाँ, बहुत गुंजाइश इस बात की है कि हमें आशुतोष गोवारीकर के निर्देशन में खेलें हम जी जान से के रूप में एक बहुत प्रभावी फिल्म देखने को मिले। यह बात अलग है कि उसको व्यावसायिक सफलता उस तरह की न मिले। इसके अलावा नो प्रॉब्लम, बैण्ड बाजा बारात, तीस मार खाँ और टूनपुर का सुपरहीरो फिल्में जाते हुए साल के आखिरी माह की मेहमान हैं।

इन फिल्मों में बैण्ड बाजा बारात, यशराज कैम्प की फिल्म होने के बावजूद समृद्ध सितारों की फिल्म नहीं है, फिर भी उसको एक मनोरंजक फिल्म के रूप में और दूसरी फिल्मों से अधिक पसन्द किया जा सकता है। अक्षय कुमार की तीस मार खाँ और अजय देवगन की टूनपुर का सुपरहीरो के दर्शक कोई अतिरिक्त-शेष-विशेष होंगे, इसका भी कोई भरोसा नहीं है।

सोमवार, 29 नवंबर 2010

हास्य : स्तरीयता-निम्रस्तरीयता

टेलीविजन पर रोज ही कहीं न कहीं, किसी न किसी चैनल पर हास्य के शो चल रहे होते हैं। स्तर इतना घटिया हो गया है कि बहुत से संजीदा और तहजीब वाले लोगों के लिए यह बर्दाश्त के बाहर हो गया है मगर एक घर में कई मिजाज और आदत के लोग रहते हैं। जरूरी नहीं कि सभी के लिए यह बर्दाश्त के बाहर हो। बहुधा लोगों के लिए यह सदैव आनंद का विषय रहता है। बहुधा इसे मगन होकर देखते भी हैं जब उन्हें फिल्मों की एक फ्लॉप अभिनेत्री दहाड़ें मारकर निरर्थक तेज-तेज आवाज के साथ हँसते हुए दिखायी देती है। उसके आसपास बैठे बीते कल के बड़बोले सितारे अपेक्षाकृत अत्यधिक मुलायम आवाज में हँसते ताल-संगत करते नजर आते हैं।

एक पूरी की पूरी पीढ़ी है जिसमें सभी ऐसे लगभग पुराने कलाकारों के सिर पर अब उगाये हुए बालों का झुरमुट सामने लटका नजर आता है। यथार्थ से यह विफल लड़ाई भी करने से भला कौन बाज आता है, वरना बाल सफेद हो रहे हों तो होने दिया जाये, जा रहे हों तो जाने दिया जाये मगर उम्र के साथ शरीर से खर्च होती स्वाभाविक स्थितियों से भी सिनेमा के लोग तो खैर परदे पर अपनी छबि के कारण समझौता नहीं कर पाते और समाज के लोग अपनी हीरोशिप की वजह से स्वीकार नहीं पाते। चार लोगों के बीच भी हीरो दिखना होता है, भले ही हारा हुआ क्यों न हो। बहरहाल यही हाल पर्सनैलिटी के घटते प्रभाव का भी है। यह वह परम दशा है जब बढ़ती उम्र में भी घटियापन दिखाने और देखने में हा..हा..कार करने में मजा आता है। जनता के बीच मंच के हास्य कवि सम्मेलनों में भी घटियापन जमकर उघडऩर्तन करता है मगर क्या प्रभाव है कि सब हँसते हैं, अपनी हँसाई से भी और जगहँसाई से भी। टेलीविजन में ऐसे शो सरकस और इसी तर्ज के मुकाबले-महामुकाबले की शक्ल में खूब नजर आते हैं।

समाचार चैनलों के पास समाचार दोहराने-तिहराने और चोरहाने के बाद भी इतना समय बच जाता है कि वह इन चैनलों के ऐसे निम्रस्तरीय कार्यक्रमों की झलकियों में आधा-आधा घंटा निकाल दिया करता है। इन सबके मामले में सबके एक जैसे मापदण्ड हैं जिसका कुछ नहीं किया जा सकता। सभी चीजों का मूल्य निर्धारित है, मुफ्त में कोई कुछ नहीं करता है, बाजार की कीमत में सब घटित होता है, घटियापन से ही सही। अभी एक दिन एक ऐसे ही किसी कार्यक्रम में एक मसखरा देह के विभाजन प्रदेशों के आधार पर कर रहा था। जाहिर है, घटियापन चेहरे से टपक रहा था। उसके इस तमाशे पर ताल देने वाले और अच्छे नम्बर देने वाले भी शामिल थे।

देश की शासन व्यवस्था और चीजों को नियंत्रित करने वालों के लिए फिलहाज राखी का इंसाफ और बिग बॉस पर ही लगाम कसना मुश्किल हो रहा है, पता नहीं घटिया कॉमेडी शो के मामले में कब ये लोग चेतेंगे?

शनिवार, 27 नवंबर 2010

मृणाल सेन की भुवनशोम

रविवार, भारतीय सिनेमा की एक महत्वपूर्ण फिल्म पर चर्चा करने की परम्परा में मृणाल सेन की 1969 में आयी एक महत्वपूर्ण फिल्म भुवनशोम बड़ी प्रासंगिक लगती है। इकतालीस साल पहले यह श्वेत-श्याम फिल्म प्रदर्शित हुई थी। मृणाल सेन बंगला सिनेमा के एक उत्कृष्ट फिल्मकार हैं। इस फिल्म के माध्यम से हिन्दी में नये सिनेमा के आन्दोलन की एक तरह से शुरूआत हुई।

मृणाल सेन ने बहुत सी किताबें भी लिखीं, अपने अनुभवों को लिखकर बाँटने का उनका गहरा शौक रहा है। एक जगह उन्होंने यह बात लिखी है कि एक बार वे मुम्बई में टैक्सी करके एक स्थान से दूसरे स्थान पर गये तो उतरते वक्त टैक्सी ड्रायवर ने उनसे पैसे नहीं लिए, यह कहते हुए कि सर, मैं आपको जानता हूँ, आप भुवनशोम फिल्म के निर्देशक हैं।

भुवनशोम, फिल्म के मुख्य किरदार का नाम है जो विधुर है और एकाकी। वह ब्यूरोक्रेट है, एक अधिकारी। जीवन में अकेलेपन ने उसको जिद्दी, अख्खड़ और झक्की बना दिया है। वह अपने स्वभाव को संवेदनारहित व्यवहार के साथ जीता है। गल्तियाँ, बुराइयाँ, भ्रष्ट आचरण उसे बर्दाश्त नहीं। तुरन्त दण्डित करने में देर नहीं करता। मगर आसपास के परिवेश को सुधारना इतनी सख्ती के बावजूद उसके बस का नहीं। अपने अधीनस्थ को मुअत्तिल करने में वो देर नहीं करता। एक अजीब सी दुनिया उसके आसपास है जिसमें उसकी उपस्थिति झुंझलाहट से भरी है, हर वक्त।

एक दिन वो इस सारे माहौल से त्रस्त होकर कुछ दिनों के लिए अपनी बन्दूक लेकर शिकार के लिए सुदूर रेतीले स्थान की तरफ निकल जाता है। वहाँ उसे एक युवती गौरी मिलती है जिस पर भुवन शोम का कोई डर या आतंक नहीं। जिद्दी भुवन अपने समय को शान्ति और सहज बनाने के लिए भटकता है, गौरी से उसका बार-बार सामना होता है। गौरी, इस आदमी की झक्क और वृत्ति में अपनी सहज चंचलता और निस्पृह उपस्थिति से जगह बनाती है। आखिर, छुट्टियाँ खत्म हो गयीं और भुवन शोम की वापसी है। उनको लगता है कि कुछ छूट रहा है। व्यंग्य से हँसकर वो सूचित करते हैं कि बड़े स्टेशन पर उनका तबादला हो गया है। बड़ा स्टेशन यानी कमाई की जगह।

भुवनशोम निर्देशक और नायक की फिल्म है जिसमें नायिका की उपस्थिति लगभग ऐसे कन्ट्रास्ट की तरह है जो कहानी को दिलचस्प गति देने का काम करती है। सुहासिनी मुले ने गौरी के इस किरदार को आंचलिक सहजता के साथ निभाया है। साधु मेहर, एक बेईमान अधीनस्थ के किरदार में हैं, छोटा रोल है मगर रोचक है। दरअसल यह फिल्म बड़ी व्यापकता के साथ उत्पल दत्त की क्षमताओं को गहरे प्रभावों के साथ स्थापित करती है। एक श्रेष्ठ निर्देशक और एक श्रेष्ठ अभिनेता मिलकर परदे पर क्या सर्वश्रेष्ठ सृजित करते हैं, यह भुवनशोम देखकर ज्ञान होता है।

के.के. महाजन की सिनेमेटोग्राफी कच्छ के रेतीले सौन्दर्य को बखूबी चित्रित करती है। भुवनशोम के निशाना लगाने, चूकने और गौरी के निश्छल उपहास के दृश्य संवाद याद रह जाते हैं। कहा जाता है कि इस फिल्म में अपने स्वर से प्रस्तुतिकरण करते हुए अमिताभ बच्चन को तीन सौ रुपए का पारिश्रमिक मिला था।

शुक्रवार, 26 नवंबर 2010

विवाद और फिल्म समारोह की एकचाल

फिल्म समारोहों के साथ विवादों का गहरा रिश्ता है। शायद ही कोई साल ऐसा जाता हो जब सरकारी फिल्म समारोह को किसी न किसी प्रकार की आलोचना का सामना न करना पड़ता हो। दरअसल सरकारी समारोहों में अब फिल्म से जुड़े सक्रिय लोगों ने रुचि लेना बन्द कर दिया है इसीलिए आयोजक खाली बैठे बीते कल के कुछ सामान्य से परिचित किस्म के चेहरों के साथ अपनी गतिविधियों की खानापूर्ति करते हैं और जैसे-तैसे समारोह को एक मुलम्मा देकर समाज के सामने पेश कर देते हैं। समारोहों में चयन किया हुआ ही दिखाया जाता है, चयन किस आधार पर किया गया, किस आधार पर श्रेष्ठ का आकलन किया गया, किस पूर्वाग्रह-दुराग्रह पर श्रेष्ठ होते हुए भी श्रेष्ठ को दरकिनार कर दिया गया, इस बात का कोई आधारभूत तर्क भी नजर नहीं आता।

किसी समय फिल्म समारोहों में श्रेष्ठता का चयन, उसका मानक और आकलन का अपना स्तर हुआ करता था। हालाँकि और जैसा कि जिक्र शुरू में हुआ, विवाद तब भी हुआ करते थे मगर बहुत से लोग चयनित सिनेमा को परदे पर देखते हुए उसकी श्रेष्ठता से सहमत भी होते थे। शीर्ष फिल्मकारों की भागीदारी लगभग कर साल होती थी। दक्षिण के चारों राज्यों, उड़ीसा, असम, पश्चिम बंगाल से अच्छी फिल्में देखने वालों तक पहुँचा करती थीं। उन फिल्मों के प्रदर्शन वक्त-वक्त पर दूरदर्शन भी करने में रुचि लेता था मगर बाद में यह सब होना बन्द हो गया।

गोवा में समारोह भेजकर एक अच्छे उपक्रम को एक तरह से काला पानी दे दिया गया है। पिछले चार-पाँच सालों से मुम्बई फिल्म जगत में आज के अपने फुरसत के वक्त हो अपनी बीते कल की पहचान से लाभ लेते हुए सरकारी समर्थन और अवसरों को तलाश करते हुए पर्सनैलिटियाँ इन समारोह में हैलो-हाय करती दिखायी देने लगी हैं।

अब इस बात की उत्सुकता नहीं रह जाती कि फिल्म समारोह का शुभारम्भ किस बड़ी फिल्म हस्ती की उपस्थिति में होगा, इस बात का आकर्षण भी नहीं रह गया कि मुख्य अतिथि को दीप जलाने में कौन सी बड़ी और गरिमामयी अभिनेत्री सहयोग करेगी। यश चोपड़ा ने व्यथित होकर इस बार के फिल्म समारोह में यह बात कह दी है कि गोवा अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के लायक नहीं है।

यहाँ एक अच्छा कन्वेन्शन हॉल नहीं है, जिस तरह से आज के समय की मांग है, बारह स्क्रीन का सिनेमाघर आज तक गोवा में बन नहीं पाया जबकि लगभग एक दशक होता आ रहा है, समारोह यहाँ आये हुए। इसके विपरीत पुणे और मुम्बई में संस्थाएँ अपने संसाधनों से ज्यादा उत्कृष्ट और अच्छे फिल्म समारोह आयोजित कर पाती हैं। पण्डित जवाहरलाल नेहरु की रुचि पर जो फिल्म समारोह लगभग छ: दशक पहले 1952 में प्रारम्भ हुआ था, वह जितनी आलोचनात्मक प्रतिक्रि याओं का शिकार हो रहा है, वह दुखद है।

फाल्के अवार्ड सम्मानितों की दुर्लभ प्रदर्शनी

सरकारी संस्थाएँ कई बार अपनी सार्थकता को भूलकर बड़ी दूर उद्देश्यों के स्मृति-लोप में अक्सर चली जाया करती हैं। जिन कामों को लेकर उनकी स्थापना हुई है, वह किस तरह से कितना किया गया इसको लेकर अक्सर आलोचनाएँ और बहसें चला करती हैं। कान में बाजा चाहे जितना बजाओ, कई बार फर्क नहीं पड़ता मगर कई बार कुछ ऐसा काम भी दिखायी दे जाता है, जो एक अलग पहचान स्थापित करता है। भारत सरकार के पुणे स्थित राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार ने एक बहुत महत्वपूर्ण प्रदर्शनी उन फिल्मकारों पर तैयार की है जिन्हें अब तक दादा साहब फाल्के पुरस्कारों से नवाजा गया है।

दादा साहब फाल्के भारतीय सिनेमा के पितामह थे जिन्होंने अपनी असाधारण जिजीविषा और संघर्ष के साथ सिनेमा का स्वप्र केवल देखा ही नहीं था बल्कि साकार भी किया था। उन्होंने ही भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चन्द्र 1913 में बनायी थी। सिनेमा का जन्म ही उनके सिनेमा से हुआ था इसीलिए आने वाला 2013 का साल सिनेमा की शताब्दी का साल होगा। यह महत्वपूर्ण है कि फिल्म जगत आज भी तमाम भटकाव के बावजूद अपने पितामह को भूला नहीं है, वक्त-वक्त पर रस्मी तौर पर ही सही उनको याद कर लिया करता है। भारत सरकार ने एक बड़ी पहल दादा साहब फाल्के के नाम पर एक बड़ा पुरस्कार स्थापित करके की थी। यह पुरस्कार फिल्मकार को उनके जीवनपर्यन्त असाधारण और उत्कृष्ट सृजन के लिए प्रदान किया जाता है।

पुरस्कार की स्थापना 1969 में की गयी थी और पहला पुरस्कार फस्र्ट लेडी ऑव सिल्वर स्क्रीन देविका रानी को प्रदान किया गया था। तब से अब तक यह पुरस्कार पृथ्वीराज कपूर, कानन देवी, नितिन बोस, रायचन्द बोराल, सोहराब मोदी, जयराज, नौशाद, दुर्गा खोटे, सत्यजित रे, व्ही. शान्ताराम, राजकपूर, अशोक कुमार, लता मंगेशकर, भालजी पेंढारकर, दिलीप कुमार, शिवाजी गणेशन, कवि प्रदीप, बी.आर. चोपड़ा, हृषिकेश मुखर्जी, आशा भोसले, यश चोपड़ा, देव आनंद, मृणाल सेन, अडूर गोपालकृष्णन, श्याम बेनेगल, तपन सिन्हा, व्ही.के. मूर्ति, मन्नाडे और डी. रामानायडू आदि को प्रदान किया जा चुका है।

इस सम्मान से अब तक सम्मानित होने वाले सभी फिल्मकार, कलाकार और खासतौर पर स्वर्गीय गुरुदत्त की फिल्मों का छायांकन करने वाले व्ही.के. मूर्ति जैसे लोग भारतीय सिनेमा के आधार स्तम्भ हैं। सौ साल के सिनेमा का जब भी मूल्याँकन और आकलन होगा, ऐसी विभूतियों के नाम सर्वोपरि होंगे। ऐसे सम्मानितों की एक प्रदर्शनी की परिकल्पना वास्तव में एक सराहनीय आयाम है जिसके लिए राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार को बधाई दी जाना चाहिए।

अभिलेखागार ने यह प्रदर्शनी गोवा में आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह में प्रदर्शित की है जिसे काफी सराहा गया है। राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार को चाहिए कि यह प्रदर्शनी उसके गोदाम में ही सिमटकर न रह जाये। बेहतर होगा कि इसे वे देश के अनेक स्थानों तक ले जाएँ। अभिलेखागार इस प्रदर्शनी को अलबम स्वरूप में भी प्रकाशित कर व्यापक कर सकता है।

मंगलवार, 23 नवंबर 2010

दया, हमदर्दी और लाचारी के कथानक

संजय लीला भंसाली की फिल्म गुजारिश को लेकर अब मिश्रित प्रतिक्रियाएँ सामने आने लगी हैं। फौरी तौर पर तत्काल समीक्षा लिखने में माहिर आलोचकों में से कुछ ने इसे दो-ढाई सितारों तक सीमित रखा तो कुछ ने अपनी जेब का क्या जाता है, सोचकर तीन से चार सितारे भी दिए मगर संजीदगी से सिनेमा की परख करने वालों को अन्तत: लगा कि यह अधिकतम तीन सितारा पाने वाली फिल्म है जिसमें खूबियों और खामियों का अनुपात साठ-चालीस का है। एक प्रबुद्ध निर्देशक कुछ विदेशी फिल्मों से प्रेरणा लेकर यथासम्भव अच्छी फिल्म बनाने में सफल हो पाता है। संजय लीला भंसाली के साथ भी ऐसा ही है।

हमारे यहाँ अंग्रेजी में इन्स्पाइरेशन जैसा शब्द पकड़े जाने पर हाथ से आँख मूँदकर समर्पण की मुद्रा में आने का सबसे अच्छा हथियार है। बहुत से फिल्मकार जो मौलिकता पर दिमाग लगाना नहीं चाहते, बहुत सारे अच्छे विषय विदेशी फिल्मों से हासिल कर लेते हैं। गुजारिश भी विदेशी फिल्म द सी इनसाइड और प्रेस्टीज की खूबियों को खींचने वाली फिल्म है। इस टिप्पणी के साथ प्रकाशित चित्र स्पेनिश फिल्म द सी इनसाइड का है। वास्तव में जो फिल्में निर्देशक को प्रेरणा देती हैं, जिनके दृश्यों को सीधे-सीधे इस्तेमाल कर लिया जाता है, उनको बहादुरी से स्वीकार कर फिल्मकार अपनी जगह और बेहतर कर सकता है मगर हिन्दुस्तान में ऐसा कम होता है।

गुजारिश जैसे विषय हिन्दी सिनेमा में कई बार विभिन्न तरह से उठाये गये हैं। भंसाली खुद ब्लैक भी बना चुके हैं जो एक विदेशी फिल्म की बहुधा नकल थी। वक्त-वक्त पर कोशिश, शोर, राव साहेब, आनंद, मिली, तारे जमीं पर, माय नेम इज खान आदि बहुत सी फिल्में बनी हैं मगर तकलीफें अपने नितान्त समस्यावादी दृष्टिकोण से बढ़ते हुए एक चरम विषाद तक पहुँचकर दर्शकों की सिनेमाघर में एक बार आँखें नम कर सकती हैं, जेब और पर्स से पुरुष-स्त्री अपने रूमाल निकालकर आँसू पोछ सकते हैं मगर जिस तरह का अवसाद लेकर घर जाते हैं वह फिल्म के पक्ष में कोई भी वातावरण बनाने में कामयाब नहीं होता।

गुजारिश एक ऐसी फिल्म है जिसके अन्त में आप अपने-अपने हिस्से और समझ का अन्त लेकर घर जाते हैं। भारतीय सिनेमा में हितिक रोशन की जो नायक छबि है, वो ऐसे लाचार और असमर्थ किरदारों में कोई बेहतर सफलता हासिल नहीं कर सकती लिहाजा, काम की भरपूर सराहना के बावजूद, कई बड़े पुरस्कारों की दावेदारी और हासिली की सम्भावना के बावजूद नायक के लिए गुजारिश का बहुत महत्व नहीं रह जाता। दर्शकों को हमारे फिल्मकार बहुत सारे ट्रेक पर ले जाने का विफल प्रयास करते हैं।

हमारे देश में अच्छे और निर्बाध सफर के लिए फोर लेन से लेकर और आगे तक की सडक़ें बन गयी हैं मगर सिनेमा में मनोरंजन और सार्थकता के लिहाज से अभी भी ऐसा कोई मार्ग नहीं खोजा जा सका है, जहाँ से दर्शक अपनी जेब के खर्च किए पैसे से मनोरंजन के नाम पर परम सन्तोष प्राप्त कर सके। वो अभी भी कई बार ठगा सा खड़ा रह जाता है।

सोमवार, 22 नवंबर 2010

गोवा में बिना ध्वनि का फिल्म समारोह

अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का रस्मी आगाज हर साल की तरह इस साल भी 22 नवम्बर से हो गया है। गोवा में पिछले कई वर्षों से सिमट कर रह गये इस फिल्म समारोह में बॉलीवुड की गहरी छाया भी कुछ सालों से व्याप्त हो गयी है। एक वक्त वो भी था जब इस समारोह को व्यापक रूप से आकर्षण हासिल था। एक साल यह समारोह दिल्ली में हुआ करता था, उसके अगले साल देश के किसी मेजबान राज्य में। इस तरह से हर दूसरे साल दिल्ली में यह समारोह लौटता था। इस श्रृंखला के कारण इस समारोह को लोकप्रियता और भागीदारी दोनों स्तर पर महत्वपूर्ण माना जाता था।

हालाँकि एक दशक पहले से भी पहले के इस समय में प्राय: हर साल यह समारोह किसी न किसी कारण से विवाद का हिस्सा भी बनता था। फिल्मकार समारोह से नाराज रहने के बावजूद इसमें शामिल होते थे। अपर्णा सेन और अमोल पालेकर जैसे कलाकार-निर्देशक तो आयोजन स्थल पर ही समारोह के स्तर, व्यवस्था और चयन को लेकर प्रतिवाद किया करते थे। लेकिन धीरे-धीरे ऐसे विरोध भी थम गये और आयोजक फिल्म समारोह निदेशालय ने भी उन उम्मीदों और अपेक्षाओं को पूरा करने पर कभी गम्भीरता से विचार नहीं किया, जो लाजमी भी हुआ करती थीं।

प्रतिक्रियाहीन यह उपक्रम एक बार गोवा चले जाने और वहीं नींव खोदकर स्थापित कर दिए जाने के बाद और भी बैठ सा गया। बाद के सालों में ऐसी स्थिति आयी कि यह समारोह आम चर्चाओं के दायरे से भी बाहर चला गया। फिल्मों के चयन को लेकर सार्थक मापदण्डों का निर्धारण सही तरीके से नहीं हो पाता रहा।

जूरी सर्वोपरि होती है मगर उस जूरी में वे फिल्मकार शामिल होने लगे जिनका खुद का सार्थक काम कभी चर्चा का विषय नहीं रहा। खाली बैठे निर्देशक और कलाकारों की समितियाँ फिल्में चयन करने लगीं और धीरे-धीरे इस समारोह में जिनकी भी रुचि पहले हुआ करती थी, वो भी समाप्त हो गयी। इस बार भी 22 नवम्बर से यह समारोह शुरू हो रहा है जो 2 दिसम्बर तक चलेगा।

इण्डियन पैनोरमा की फिल्मों को दिखाये जाने की शुरूआत 23 नवम्बर से होगी। इस बार एन. चन्द्रा की अध्यक्षता वाली फीचर फिल्मों की दस सदस्यीय जूरी ने बीस दिनों में एक सौ चालीस फिल्में देखकर भारतीय पैनोरमा के लिए छब्बीस फिल्मों का चयन किया वहीं सिद्धार्थ काक की नॉन-फीचर फिल्मों की पाँच सदस्यीय जूरी ने पाँच दिनों में सन्त्यावने फिल्में देखकर उन्नीस फिल्में चुनीं जो इस बार के समारोह में दिखायी जायेंगी।

फीचर फिल्मों में एक तरफ थ्र्री ईडियट्स, रावण, तेरे बिन लादेन, आय एम कलाम और वकअप सिड जैसी हिन्दी फिल्में शामिल हैं वहीं भारतीय भाषाओं की फिल्मों में रितुपर्णाे घोष, गौतम घोष, गिरीश कासरवल्ली, सुधांशु मोहन साहू निर्देशित फिल्में चयनित हैं। अचरज है, बाजार से में आकर चैनलों पर जिन फिल्मों का प्रीमियर हो चुका, वे फिल्में समारोह का हिस्सा हैं। हैरत है कि राष्ट्रीय स्तर का फिल्म समारोह अब इस दशा पर आ पहुँचा है और औपचारिकता की पराकाष्ठा पर है।

रविवार, 21 नवंबर 2010

दहेज, साठ साल पहले

व्ही. शान्ताराम बीसवीं सदी के ऐसे महत्वपूर्ण फिल्मकार थे जिन्होंने सामाजिक प्रतिबद्धतापूर्ण फिल्मों का निर्माण अपने समय में बड़े साहस के साथ किया। दो आँखें बारह हाथ, पड़ोसी, डॉ. कोटनीस की अमर कहानी और दहेज जैसी श्रेष्ठ फिल्में उनके सरोकारों का सशक्त प्रमाण हैं। रविवार के दिन हम आज उनकी एक उल्लेखनीय फिल्म दहेज पर चर्चा करते हैं। भारतीय समाज की सबसे बड़ी सामाजिक बुराई दहेज को लेकर बाद में तो ड्रामा वेल्यू के हिसाब से बहुत सारी नाटकीय फिल्में बनीं मगर साठ साल पहले की दहेज नाम से ही शान्ताराम द्वारा बनायी गयी फिल्म इन सब तमाम फिल्मों में श्रेष्ठ और समय से कहीं ज्यादा आगे है।

दहेज फिल्म में पृथ्वीराज कपूर की मुख्य भूमिका थी। करण दीवान, जयश्री, उल्हास, केशवराव दाते, ललिता पवार फिल्म के दूसरे प्रमुख कलाकार थे। यह फिल्म एक युवती चन्दा और युवक सूरज की कहानी है जिनका विवाह, सूरज की लालची माँ और कुटिल रिश्तेदारों की वजह से जिन्दगी का सबसे बड़ा अभिशाप बन जाता है। सूरज की माँ दहेज में बहुत सारे सामान की अपेक्षा करती है और उसकी अन्तहीन मांग को पूरा कर पाना पिता के लिए असम्भव हो जाता है। चन्दा अपने कायर पति की वजह से सास के बड़े जुल्म सहती है और हर वक्त उसे इस बात के लिए साँसत में रहना होता है कि न जाने कब सास घर से तिरस्कार करके उसे बाहर कर दे और अपने बेटे का दूसरा विवाह कर दे।

चन्दा के आदर्शवादी पिता अपनी बेटी को मिलने वाली प्रताडऩा से भयभीत और चिन्तित, उसकी सास की इच्छा पूरी करने का भरसक प्रयत्न करते हैं। एक दिन वे बहुत बुरी तरह अपमानित और बेइज्जत होकर बेटी के ससुराल से लौटते हैं और अपना घर बेचकर बेटी के लिए तमाम सामान जुटाकर जब बेटी के ससुराल पहुँचते हैं तो वहाँ त्रासद घटना से सामना होता है। सास की मार से भयभीत बेटी ने अपने को एक कमरे में बन्द कर लिया है। सास दरवाजा तोडक़र बहू को मारने जाती है। दरवाजा टूटकर उस पर घिर जाता है और वह अपने पिता की गोद में दम तोड़ देती है।

फिल्म का अन्त अत्यन्त मार्मिक है। देखते हुए आँखें भीग जाती हैं। गोद में दम तोड़ती बेटी से पिता बिलखते हुए कहता है कि बेटी यह गरीब बाप तेरे लिए सब लेकर आया है। इस पर बेटी कहती है, पिताजी एक चीज देना भूल गये। पिता पूछता है, क्या बेटी? मरती हुई बेटी के आखिरी शब्द होते हैं, कफन। पिता के रूप में पृथ्वीराज कपूर ने मन को छू जाने वाला अभिनय किया है वहीं ललिता पवार ने निर्मम सास के रोल को अपने तेवर से सार्थक बनाया। जयश्री की भूमिका ही इस फिल्म को गहरी संवेदना प्रदान करती है।

दहेज, फिल्म का प्रभाव ऐसा हुआ था कि बिहार के विधायकों ने फिल्म के प्रदर्शनकाल में बड़ी प्रेरणा ग्रहण की थी और दहेजविरोधी बिल पास होने में भी इसका बड़ा योगदान माना जाता है। ऐसी सार्थक और झकझोरकर रख देने वाली फिल्मों को आज याद करना भी रोम सिहरा देता है।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

बैण्ड, बाजा, बारात

देवोत्थान एकादशी से शादी-ब्याह के प्रतिबन्ध समाप्त हो गये हैं। एक बार फिर हमारे आसपास चारों तरफ सुबह एवं रातों को बैण्ड-बाजे पर बजती फिल्मी धुनें, नाच-गाना और मस्ती का आलम नजर आने वाला है। सर्दी का मौसम अच्छे खानपान का मौसम भी होता है लिहाजा उस दृष्टि से समय की अनुकूल है। शादी-ब्याह में खिलाए जाने वाले खाने की विविधाताएँ और समृद्ध झाँकी के भी नये-नये मौलिक आकल्पन और पेश करने के ढंग हर बार की तरह इस बार भी बदले होंगे। यह कम दिलचस्प नहीं है कि मनुष्य जीवन के प्रत्येक हिस्से से सिनेमा और खासकर सिनेमा का गीत-संगीत कितना गहरे जुड़ा रहता है। इसके बगैर जीवन में भला कहा रस या रंग दिखायी देता है।

दिसम्बर माह के पहले पखवाड़े में यश चोपड़ा के बैनर की एक फिल्म, बैण्ड बाजा बारात प्रदर्शित होने जा रही है। यह एक खूबसूरत कहानी है जिसमें आजकल के बदले चलन में जहाँ पैसा खर्च करके हर मुसीबत, औपचारिकता, जतन-प्रयत्न और जहमत से बचकर इन्स्टेन्ट अपेक्षाओं के बन चुके रिवाज को दिलचस्प ढंग से दर्शाया गया है। अनुष्का शर्मा, यश चोपड़ा कैम्प की फिल्म रब ने बना दी जोड़ी से परदे पर परिचित हुई थीं। इस बीच उनकी और कोई उल्लेखनीय फिल्म दिखायी नहीं दी। उनको परिचित कराने वाले कैम्प ने एक बार फिर उनको इस फिल्म के माध्यम से मौका दिया है। बैण्ड बाजा बारात में एक युवती और एक युवक शादी-ब्याह के काम को असाइनमेंट की तरह लेते हैं, हर काम आसान करके देते हैं और उसका पैसा लेते हैं।

अब हमारे संस्कारों में जिस तरह की व्यावसायिकता हावी हो गयी है, सारा का सारा फिल्मीकरण हो गया है, ऐसे में जो शेष चीजें खतरें में थीं वे सब भी नयी पीढ़ी ने अपनी तरह से लगभग रेडीमेड सी कर ली हैं। हालाँकि विवाह संस्कारों में भी ऐसे प्रोफेशनलिज्म का आना दूसरी तरह से अच्छा इसलिए लगता है कि इसके बहाने मांग पर ही सही व्यवस्था करने वाले पारम्परिक गीत-संगीत, पुराने जानकारों और पीढिय़ों-परम्पराओं से सीखकर आने वाले लोगों की तरफ जा रहे हैं। राजश्री और यशराज की फिल्मों की कहानी में विवाह अपने व्यापक और विस्तारित आयामों में एक घटनाक्रम, एक प्रसंग की तरह मुकम्मल भव्यता से घटित होने वाला दृश्य बनता है। गीत गाता चल, कभी-कभी, चांदनी, हम आपके हैं कौन आदि बहुत सी फिल्मों के नाम ऐसे वक्त में याद किए जा सकते हैं।

हम एक पूरा बड़ा समय बिसरा गये हैं जिसमें नानी, मौसी, बुआ और भाभियाँ तीज-त्यौहार की कथाएँ कहा करती थीं, बन्ना-बन्नी गाने में परिवार की महिलाओं को दक्षता हासिल होती थी, इसलिए क्योंकि उनको सिखाया जाता था। किस्म-किस्म के पकवानों की वे विशेषज्ञ होती थीं, उनके हाथों में स्वाद बसता था। अब तो सब कुछ बाजार से ले आया जाता है। हिन्दी फिल्मों में कभी-कभार जब ऐसे दृश्य लौटते हैं तो उन फिल्मों की याद दिलाते हैं। बैण्ड बाजा बारात आज के समय की फिल्म हो सकती है जो हमें सिनेमा और हमारी परम्पराओं में बहुत सारे छूटे और बिसरे वक्त को तरोताजा करने में पुनरावलोकन की तरह हो, देखना होगा।

बड़े घरानों की तैयारियाँ

लम्बे समय तक फिल्म निर्माण के बड़े घराने यदि चुपचाप बैठे रहें तो उनकी सक्रियता को लेकर न सिर्फ शक होता है बल्कि नाउम्मीदी भी बढ़ती चली जाती है। वास्तव में हानि-लाभ के ऐसे भयानक जोखिम, जैसे आज के समय में सिनेमा को लेकर, वैसे पहले बहुत कम देखने को मिले हैं। एक जमाना था जब बड़े सितारों की फिल्में चलते हुए भी आज की ताजा खबर और जंगल में मंगल टाइप की फिल्मों को सफलता और लाभ दोनों मिल जाया करते थे। इतना ही नहीं ऐसी फिल्मों के सितारों की भी अच्छी-खासी दाल-रोटी चल जाया करती थी मगर अब खतरे ज्यादा हो गये हैं।

पिछले कुछ समय से फिल्म निर्माण के बड़े घराने आज के तमाम जोखिमों का बारीकी से आकलन कर रहे हैं। कुछ घराने ऐसे हो गये हैं जिनके मुख्य फिल्मकार खुद फिल्में निर्देशित नहीं करते, दूसरे निर्देशकों को मौके देते हैं मगर मौकों के साथ खुद भी अपने हस्तक्षेप और निगरानियाँ बराबर रखते हैं। राकेश रोशन ने काइट्स के साथ ऐसी ही निगरानी रखी मगर अनुराग बासु क्या बना रहे हैं इस तह तक शायद वह नहीं पहुँच पाये। अब उन्हें अपने बेटे के लिए खुद फिल्म निर्देशित करने की तैयारी करना पड़ रही है। यश चोपड़ा भी अस्सी साल की उम्र में एक बार फिर तैयार हो रहे हैं। वीर-जारा उनका अनुभव बुरा नहीं था। अभी भी वे उत्साह और ऊर्जा से भरे हैं।

उनके बेटे आदित्य निर्देशक के रूप में और उदय अभिनेता के रूप में भले लम्बे समय से उल्लेखनीय न कर पा रहे हों मगर उनके मन में अच्छी कहानी, अच्छी फिल्म का जज्बा बरकरार है। वे नये साल में एक फिल्म शुरू कर रहे हैं। उम्मीदें अमिताभ बच्चन की भी हैं और शाहरुख खान की भी। यश चोपड़ा ही जानते हैं कि उनकी फिल्म की स्टार कास्ट क्या होगी। इधर उनके भतीजे, रवि चोपड़ा ने भी अगले साल बी.आर. फिल्म्स के बैनर पर अगली फिल्म बनाने की पहल शुरू कर दी है। बागवान निर्देशित करके रवि, अपने आत्मविश्वास को बनाए हुए हैं भले ही बाबुल ने उनको वह प्रतिसाद न दिया हो जिसकी उनको आशा थी। इधर शो-मैन सुभाष घई कैसे पीछे रहते।

अपना जन्मदिन, मुक्ता आर्ट्स की वर्षगाँठ सभी को जश्रपूर्वक मनाने वाले घई ने अपने बैनर पर एक साथ तीन फिल्में घोषित की हैं। इनमें से एक वे खुद निर्देशित कर रहे हैं, दूसरी फिल्म प्रियदर्शन को दी है और तीसरी फिल्म के लिए निर्देशक ढूँढा जा रहा है या कह लीजिए तय किया जा रहा है।

लक्ष्यों की राह और नया साल

अब जाते हुए साल पर सितारों का आकर्षण कम हो गया है। सभी को नये साल के अनुबन्धों की चिन्ता सताने लगी है। नया साल नये संकल्पों के साथ शुरू होता है। समयबद्ध ढंग से काम करने वाले फिल्मकार-कलाकार हर चीज सुनिश्चित रखते हैं। ट्रेड गाइड में हम देखते हैं कि निर्माता छ:-छ: महीने आगे तक की योजना बनाते हुए अपनी फिल्म का प्रदर्शन तय कर देते हैं। बहुत कम निर्माता ऐसे होते हैं कि घोषित किए गये समय पर अपनी फिल्म प्रदर्शित कर सकें। तयशुदा कार्यक्रम उनके होते हैं मगर व्यवधान अनेक स्तरों पर आते हैं। सबसे ज्यादा समस्याएँ हीरो और हीरोइनों की तारीख और उपलब्धता को लेकर होती है। कलाकारों को तभी तक मजा आता है जब तब तय शेड्यूल पर सारी चीजें होती रहें।

यदि निर्माता व्यावसायिक कारणों अथवा आर्थिक परिस्थितियों के चलते अपनी शूटिंग शेड्यूल में परिवर्तन करता है तो कलाकार को मुश्किलें होती हैं। कई बार कलाकार किसी खास प्रोजेक्ट पर अधिक रुचि लेकर, चलते हुए काम को प्रभावित करता है। ऐसे कई कारण होते हैं जिनके चलते फिल्में लेट हुआ करती हैं। इस समय अभिनेत्रियों में दीपिका पादुकोण, कैटरीना कैफ, करीना कपूर, प्रियंका चोपड़ा के नाम लगातार चलने वाले और मांग बरकरार रखने वाले कलाकारों में शामिल हैं। इसी तरह अभिनेताओं में सलमान खान, आमिर और शाहरुख एक-एक प्रोजेक्ट करने वाले कलाकार माने जाते हैं। ह्रितिक रोशन भी इनमें शुमार होते हैं। वे भी एक वक्त में एक ही फिल्म करना चाहते हैं। उनके अलावा अक्षय कुमार का समय अपने समकालीनों में अजय देवगन से अच्छा चल रहा है।

हालाँकि उनके प्रति अतिरिक्त मोह रखने वाले प्रकाश झा, राजकुमार सन्तोषी और रोहित शेट्टी जैसे निर्देशक उन्हें अपनी फिल्म में रिपीट करते रहते हैं पर और बेहतर स्थितियों में रणबीर कपूर और नील नितिन मुकेश को हम देखते हैं। आमिर खान के भांजे इमरान की गाड़ी धीमी ही चल रही है। इससे अलग इरफान खान सभी कलाकारों के बरक्स एक समानान्तर सक्रिय लकीर की तरह अपनी पूछ-परख बनाए रखते हैं। उनकी एक फिल्म पान सिंह तोमर की प्रतीक्षा की जा रही है। संजय दत्त भी आने वाले साल में दो-तीन फिल्मों के लिए अनुबन्धित हैं वहीं देओल परिवार को एक साथ यमला पगला दीवाना में देखा जा सकेगा।

इन कलाकारों में एक अभिनेत्री इस समय सबसे आगे आने वाले साल में अपनी फिल्मों को लेकर है, फिल्में क्या परिणाम देंगी वह तो आगे पता चलेगा मगर दीपिका पादुकोण को 2011 में एक साथ लगभग सात-आठ फिल्मों की शूटिंग करना है।

सोमवार, 15 नवंबर 2010

बदजुबानी लहजे का इन्साफ

विषय पर बड़ी सावधानी के साथ बात करने को जी चाहता है, खतरा यह भी लगता है कि आजकल के चलन में सब लोकप्रियता के नाम पर है, हादसे भी और विवाद भी सो पता नहीं अपना लिखा, अपना उठाया मुद्दा जमाने के हिसाब से कौन सी राह पकड़ ले मगर इस बात पर चुप रहना भी मूर्खता होगी, कि एक बदतमीज और अशिष्ट स्त्री अपनी परममूढ़ता के चरम पर इस सीमा तक जा सकती है कि उसकी बात से एक आदमी अपनी जान से भी हाथ धो बैठे।

राखी सावन्त के रूप में बात हम एक ऐसी युवती की कर रहे हैं जो पिछले वर्षों में सिर्फ इसलिए कामयाब होती चली गयी क्योंकि हर शहर में उसके नाच के शो एनवक्त पर अश£ीलता के खतरों और उनसे बरप उठने वाली अराजकता के डर से निरस्त किए जाते रहे। अनेक शहरों में उसे अपने भद्दे नाच और उससे खड़ी हो जाने वाली कानून-व्यवस्था की मुश्किलों को लेकर उल्टे पैरों वापस लौटना पड़ता था। दुर्भाग्य यह है कि राखी सावन्त इतने पर ही प्रसिद्ध होती चली गयी। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उसके नाचने से लेकर नहीं नाचने और नहीं नाच पाने से उठी झल्लाहट तक को रसीली खबर बनाकर बेचता-दिखाता रहा। आखिरकार राखी सावन्त को कुछ चैनलों ने सीधे इस तरह मान्यता प्रदान की जैसे वह हमारे समय की सबसे बड़ी मीडिया महारानी हो। बड़े-बड़े रिपोर्टर भी उसकी स्तरहीनता को उफान देने में चुटकी बजाते हुए आगे आये।

चैनलों में उसके कार्यक्रम शुरू हुए, उसका स्वयंवर का अच्छा-खासा धारावाहिक चलता रहा। एक कदम आगे जाकर राखी का इन्साफ नाम का रीयलिटी शो एक चैनल ने शुरू कर दिया जिसमें कायिक और वाचिक परम्परा दोनों में ही लगभग अनावृत्त राखी सावन्त को देखते-बोलते घर बैठे दर्शक निहाल होते रहे। युवाओं और किशोर बच्चों को राखी की भदेस वाचालता में रस आने लगा और आखिर तार्किकता में अपढ़ और लगभग निरक्षर हीनवृत्ति को अपने मुँह से लगभग फेंकने वाली इस इन्साफकर्ता ने एक आदमी को मौत का रास्ता दिखा दिया। अब कानूनी परिस्थितियाँ बन रही हैं तो चैनल भी अपनी जवाबदारी से पल्ला झाड़ रहा है।

कुछ समय पहले तक एक शो हम किरण बेदी का देखते थे जिसकी अपनी मर्यादा और प्रासंगिकता नजर भी आती थी। किरण बेदी एक अनुभवी पुलिस प्रशासन और समाज सेवी हैं उनका अपना तरीका किसी भी बात को सुनने और समाधान प्रस्तुत करने का बिल्कुल अलग होता था लेकिन पता नहीं कैसे एक चैनल समाज की सेवा के लिए इन्साफ करने का दायित्व राखी सावन्त जैसी सदा निरर्थक और विफल कलाकार को देने पर अमादा हो गया और परिणाम इस रूप में सामने आया। हो सकता है, इसके सभी जिम्मेदार, कन्नियाँ काट रहे हों, दोषारोपण कर रहे हों, मुँह छिपा रहे हों मगर रीयलिटी शो की पहचान बनती जा रही बदजुबानी ने एक हादसा पेश कर दिया है। पता नहीं और कितने हादसे होंगे?

शनिवार, 13 नवंबर 2010

रस्किन बॉण्ड की कहानी - ब्ल्यू अम्ब्रेला

हालाँकि विशाल भारद्वाज ने संगीत निर्देशक से निर्देशक होते हुए आज अपनी ख्याति के व्यापक विस्तार में हैं मगर आरम्भ में गुलजार की फिल्म माचिस के संगीतकार के समय से उनको देखते हुए यह महसूस किया है कि उनकी रचनात्मक दृष्टि और चयन प्रक्रिया दोनों समकालीन युवा फिल्मकारों से काफी अलग हैं। अपने लिए बाद में उन्होंने विविधतापूर्ण फिल्में चुनीं मगर बच्चों के लिए शुरू में उन्होंंने एक के बाद एक जो दो फिल्में मकड़ी और ब्ल्यू अम्ब्रेला बनायी उनको देखते हुए, उस दुनिया में होना, एक अनूठा अनुभव है। खासतौर पर ब्ल्यू अम्ब्रेला बड़ी दिलचस्प और कहीं-कहीं सीधे मन को छू जाती है।

रविवार को हम एक फिल्म पर बात करते हैं जो अपने वक्त की उल्लेखनीय और प्रभाव छोडऩे वाली फिल्में होती हैं। बाल दिवस, इस बार इस रविवार को है लिहाजा बच्चों के लिए ब्ल्यू अम्ब्रेला की चर्चा ज्यादा समीचीन और सार्थक लगती है। अब हमारे यहाँ फिल्में प्राप्त करना और देखना कठिन प्रक्रिया नहीं है, सीडी और डीवीडी में सब उपलब्ध है, लिहाजा बच्चे इस फिल्म को देखकर बाल दिवस मना सकते हैं।

विशाल भारद्वाज ने रस्किन बॉण्ड की कहानी को फिल्म का मूल और मुख्य आधार बनाकर अपनी टीम के साथ पटकथा का हिन्दुस्तानी परिवेश में परिष्कार किया है। फिल्म में हम इस कहानी को हिमाचलप्रदेश के खूबसूरत आंचलिक सौन्दर्य और ठण्ड के खुशगवार मौसम में घटित होते देखते हैं। कहानी एक लालची दुकानदार, उसका नौकर और एक बच्ची के आसपास घूमती है। यह बच्ची जापानी सैलानियों के एक समूह को अपनी गाँव की खूबसूरती दिखा रही है। वह एक सुन्दर जापानी युवती की नीली खूबसूरत छतरी पर मोहित हो जाती है और जापानी युवती उस बच्ची के अनुष्ठानिक कण्ठहार पर। मासूम प्रस्ताव पर दोनों में छतरी और हार की अदल-बदल हो जाती है। अब बच्ची शान से पूरे गाँव में नीली छतरी लगाकर खेलती-घूमती है।

इस छतरी पर एक लालची दुकानदार की नीयत खराब हो जाती है और वह येन-केन-प्रकारेण इसे चुराने की फिराक में लग जाता है। एक दिन वह अपने इरादे में सफल हो जाता है लेकिन वह बच्ची, अपनी अक्ल और चतुराई से चोरी का पता लगाती है और दुकानदार पकड़ा जाता है। बाद में दुकानदार प्रायश्चित भी करता है। कुल मिलाकर एक बड़ी रोचक कहानी है जिसमें श्रेया शर्मा ने बच्ची की भूमिका अच्छी निभायी है मगर सबसे श्रेष्ठ साबित होते हैं लालची दुकानदार की भूमिका में पंकज कपूर। नंदू का यह किरदार एक पूरी मन:स्थिति और मनोविज्ञान को समझने में आनंद भी प्रदान करता है। यह एक एकाकी किरदार है जिसे गाँव के बच्चे खूब तंग करते हैं और वह भी अपने प्रतिवाद में उतना ही बुरा है, जितना एक बच्चों की फिल्म में किसी नकारात्मक चरित्र को होना चाहिए।