बुधवार, 1 दिसंबर 2010

सपने, भविष्य और खिलवाड़ का खेल

टेलीविजन में गाने-बजाने की स्पर्धाओं के खेल का एक मुकम्मल और संजीदा आकलन यही हो सकता है। ऐसे अखाड़े कुछ वर्षों से खुद गये हैं जिनमें अज्ञानी को भी कुश्ती लडऩे का सबक दे दिया जाता है। ऐसा मैदान हो गया है जहाँ रैफरी भी तमाम कुटैव के लिए तैयार किया जाता है, या वह तैयार होना पसन्द करता है। जाहिर है पसन्द करता होगा तभी तो वह अपने चेहरे, अपनी प्रतिभा और अपनी पहचान के व्यतीत दौर के अरसे बाद बची-खुची कीमत वसूलने का यह मौका भी गँवाना नहीं चाहता। बड़े अजीब से धरातल पर कई बार कुछ चीजें दिखायी देती हैं।

एक बार एयरपोर्ट पर एक बहुत वरिष्ठ और नामचीन पाश्र्व गायक के आतिथ्य के लिए जाना पड़ा। उन्हीं के जहाज से एक किशोर उम्र का विजेता बच्चा गायक भी उतरकर आ रहा था। वह वरिष्ठ पाश्र्व गायक के सामने से उनको देखता हुआ निकला मगर बिना किसी प्रतिक्रिया, अभिवादन, मुस्कान या चीन्हने वाली समझ के, यद्यपि वह उनको देख इसी तरह से रहा था। निश्चित ही वह उनको पहचान रहा था मगर किसी भी शिष्टाचार के लिए उसे उसके संस्कारों ने भी प्रेरित नहीं किया जबकि वरिष्ठ गायक उसे देखकर मुस्कराए और उसका नाम लेकर भी बुलाया, तब वह झेंपता हुआ पास आया। यह दृश्य बाल उम्र की अव्यवहारिक और असमय वयस्कता को प्रमाणित करने में बड़ा सच्चा साबित हुआ।

प्रतिभाएँ दाँव पर हैं, मैदान में हैं, पसीने-पसीने होकर जूझ रही हैं और उन से लेकर उनके परिवार और माहौल तक में सुबकने, रुंधने, रोने के दृश्य आम हो रहे हैं। पता नहीं किस तरह की भावुकता में सबका गला भर आता है। आँसू, उसके और उसके उपस्थित अपनों के भी बह रहे हैं जो जीत रहा है, उसके भी बह रहे हैं जो हार रहा है। सब जान गये हैं कि इस सबके लिए समझा दिया जाता है। ऐसे मोड़ कई बार ठीक ब्रेक के पहले आते हैं और ऐसे मोड़ आपकी-हमारी धारणाओं पर भी अनायास ब्रेक लगाते हैं।

ग्लैमर दुनिया का बड़ा सोचा-विचारा कारोबार है। हर चैनल इस काम में लगा है। यह नकल क्षेत्रीय चैनलों पर भी खूब दिखायी देती है। हिन्दी से लेकर भोजपुरी संगीत की स्पर्धाओं, मारधाड़, महामुकाबले, वार आदि में सब एक जैसा ही नजर आ रहा है। आकलन करने वाले चेहरों पर से विश्वास उठ गया है देखने वालों का।

जो प्रतिभाएँ इस तथाकथित युद्ध और महासंग्राम में फतेह कर रही हैं, वे भी अन्त में अपने शहर, अपने घर को जा रही हैं। सिनेमा में उनका स्वागत दिखायी नहीं देता। ऐसे में याद आते हैं वे जज जो अपरिपक्व कलाकारों को भरोसा और विश्वास दिलाते हैं, खुद ब्रेक देने का दावा करते हुए मूँछ उमेठने लगते हैं मगर सच यह है कि वे खुद ब्रेक की तलाश में हैं।

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