मोहन कुमार निर्देशित, जे. ओमप्रकाश की फिल्म आयी मिलन की बेला का प्रदर्शन काल 1964 का है। महानायकों की मुकम्मल उपस्थिति के बीच कुछ सितारे आ चुके थे और आना जारी था। राजेन्द्र कुमार उस समय स्थापित कलाकारों में से एक थे जो बावजूद बहुत श्रेष्ठ न होने के, अपने विशिष्ट किस्म के कुलीन और संस्कारी किरदारों के, दर्शकों को बहुत पसन्द आते थे। उनकी फिल्में चलती थीं, जुबली कुमार इसीलिए उनका नाम भी रख दिया गया था क्योंकि तेरह हफ्ते, एक नायक कोई फिल्म खींच ले जाये, आसान बात न थी।
आयी मिलन की बेला में मालिक अपनी नौकरानी, जिसने जुड़वाँ बच्चों को जन्म दिया है, गुजारिश करता है कि वो एक बच्चा उसे दे दे ताकि बच्चे के लिए व्याकुल अपनी पत्नी की वो जिन्दगी बचा सके। मालिक का नमक खाने वाली नौकरानी यह त्याग करती है और मालिक भी इसे अपने ऊपर एहसान की तरह लेता है। एक बेटा गाँव में पल कर बड़ा होता है, श्याम जो चरित्र राजेन्द्र कुमार ने निभाया है और दूसरा बेटा रंजीत, यह भूमिका धर्मेन्द्र ने की है जो तब तीन साल पहले ही फिल्मों में आये थे। कहानी, अमीरी और गरीबी के बीच है। गाँव और शहर के बीच की है। प्रेम से लेकर अधिकार तक गाँव से शहर, गरीब से अमीर तक एक सेतु से हम सहजतापूर्वक गुजरते हैं।
मालिक की बेटी है जो श्याम से प्यार करती है। रंजीत को भी उसी से प्यार है। हसरत जयपुरी और शैलेन्द्र के लिखे, शंकर-जयकिशन के स्वरबद्ध किए बहुत सारे मधुर गीतों, जो कि मोहम्मद रफी और लता मंगेशकर के गाये हुए हैं, देखते हुए हम दोनों के प्यार को परवान चढ़ते हुए पाते हैं, प्यार आँखों से जताया तो बुरा मान गये, तुम कमसिन हो नादाँ हो, तुम्हें और क्या दूँ मैं दिल के सिवाय आदि गाने हमको दोबारा चार दशक पहले के अनूठे और अनुभूतिजन्य माधुर्य से रूबरू कराते हैं।
फिल्म बगैर खलनायक के कैसे आगे बढ़ेगी? यहाँ भी मदन पुरी हैं जो तब बुरे आदमी के रूप में अपनी साख अलग ढंग से जमाने में कामयाब हुए थे, खासकर बात-बात पर चाकू निकालने का अन्दाज, दर्शक को भी सिहरा देता था। यह खलनायक, श्याम के खिलाफ, रंजीत की मदद करता है। इस फिल्म में धर्मेन्द्र ग्रे-शेड में हैं, नायिका सायरा बानो को विवाह मण्डप से लेकर भाग जाते हंै। श्याम की माँ वचन से बँधी हुई है, अपने बेटों में शत्रुता से घबराती है मगर क्लायमेक्स में रंजीत को पालने वाली मालिक की पत्नी सब खुलासा करती है। भाई, भाई से माफी मांगता है और फिर अन्त में एक मुस्कराता हुआ ग्रुप फोटो, द एण्ड के साथ।
एक प्यारी और आनंद प्रदान करने वाली फिल्म जिसमें मूल्य भी हैं, उदारता भी और नैतिकता की विजय भी।
1 टिप्पणी:
सुनील जी, आई मिलन की बेला मैने कॉलेज के फ़स्ट ईयर मे देखी थी। क्या कहने इस मुवी के।
इसका एक गाना मुझे बहुत पसंद है और इसका म्युजिक भी। आज भी सुनता हूँ - "तुम कमसिन हो नादां हो,नाजुक हो, तुम भोली हो"।
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