गुरुवार, 26 दिसंबर 2013

अलबेलों-मस्तानों का देश

देव उठने के बाद विवाह काज पर लगी आचार संहिता जैसे समाप्त हुई और सब तरफ परम्परा तथा रीति-रिवाज़ अनुसार सुबह और शाम को बैण्ड बाजों की आवाज़ें विवाह नाद करने लगीं। हर बारात में अपनी-अपनी हैसियत के अनुसार डीजे आगे-आगे नेतृत्व करते चलते दिखायी देने लगे। साल दर साल बैण्ड बाजे वाले नये-नये गाने का रियाज़ करके जिस तरह तैयार होते हैं उसी तरह इस साल भी तैयार थे। बारातें भी आखिर उनके ही भरोसे थीं। बैण्ड बाजे वालों के पास गानों को बजाने का भरपूर खजाना था। होशमन्द और मदहोश दोनों किस्म के बारातियों की फरमाइशें पूरी करना क्या भला आसान बात है? नहीं न। लिहाज़ा जवान से लेकर बूढ़े बैण्ड वादकों का समूह मुँह फुला-फुलाकर जिस तरह से बिना दम भर रुके गाने बजाने में दिन-रात लगे नज़र आ रहे हैं वो कोई हम हिम्मत की बात नहीं है। कइयों की तो उम्र ही हो गयी मगर जवानी में बाजे का जो चुम्बन लिया, तो आज तक मुँह नहीं हटाया।

ब्याह-बारात में नाचने-गाने वालों को बी. आर. चोपड़ा साहब का शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि उन्होंने पचास साल पहले नया दौर फिल्म बनायी और उसमें खासकर, ये देश है वीर-जवानों का, गाना रखा। उस समय चोपड़ा साहब को सपने में भी यह अहसास न होगा कि यह गाना आगे चलकर देशभक्ति से ज्य़ादा नेताओं के जलसों, आज़ादी और गणतंत्र दिवसों और उसके साथ-साथ अत्यन्त आश्चर्यजनक ढंग से ब्याह-बारात वालों के लिए भी लैण्डमार्क होने वाला है। साहिर साहब ने इस गीत को देश की तरु णाई के लिए लिखा, सेना और सिपाहियों के लिए लिखा लेकिन ओ.पी. नैयर के संगीत से मस्त कर देने वाला यह गीत सेना और सिपाहियों के बजाय उन सब लोगों के लिए काम आया जिनका जिक़्र ऊपर आया है। 

यह कम अचरज की बात नहीं है कि इन पूरे पचास सालों में दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गयी मगर ब्याह-बारात में यह गीत आज भी सरपरस्त है सब गानों का। दरअसल इस गाने पर नाच-गाकर ही दूल्हे की ओर से बाराती अपने पौरुष को प्रमाणित करते हैं। इस गाने पर डाँस भी मदमस्त कर देने वाला होता है। तन डोले, मेरा मन डोले पर लम्बे समय बारातियों ने मुँह में रुमाल की बीन बनाकर और अपने साथी को नागिन बनाकर नृत्य किया, उसका भी लम्बा इतिहास रहा है मगर, ये देश है वीर-जवानों का, की तो बात ही और है। इस गीत की धुन पर नाचते-नाचते बारातियों में सचमुच फौजियों जैसा जोश आ जाता है और होशमन्दी और मदहोशी की मिली-जुली जुगलबन्दी में कोट, टाई और जुल्फों की स्थितियाँ ऐसी हो जाती हैं जैसे सचमुच जंग में बिना लड़े परास्त हो गये हों।

वैसे इस बात पर तो दुख ही होता है कि साहिर साहब ने जिस भावना के साथ, ये देश है वीर-जवानों का, अलबेलों का, मस्तानों का, गीत लिखा था उस भावना और पूरे सपने के इन साठ सालों में बेहद बुरे हाल हुए हैं। प्रेरणा का गीत अब जलसे, जुलूस और उन्माद की पहचान बन गया है। अब हमारे यहाँ अलबेले और मस्ताने, शोहदे के रूप से जवान हो रहे हैं। वे सरे राह लड़कियों का आना-जाना दूभर किए रहते हैं। ये अलबेले और मस्ताने ऐसे होते हैं जो राह चलती स्त्रियों का मंगलसूत्र खींच कर उनका सडक़ पर चलना दुश्वार किए हुए हैं। ये अलबेले और मस्ताने ऐसे हैं जिनकी न तो चाल का पता है, न चेहरे का और न ही चरित्र का। इनका अलबेलापन, मस्तानापन चार दिन की जि़न्दगी में मौज के साथ जीना है, भले ही वो जीना कायरता से भरा हो या निर्लज्जता से भरा। ऐसे अलबेले मस्ताने किसी स्त्री का सुहाग श्रृंगार लूट कर उसे जिस प्रकार का भय, शारीरिक और मानसिक प्रताडऩा देते हैं, देखा जाये तो कुछ देर को उसका बड़ा नुकसान करते हैं लेकिन निश्चित रूप से वे अपने अभागेपन और अनिष्ट को ही निमंत्रित करते हैं। जेवरों का कारोबार करने वाले व्यावसायियों को लूटे हुए मंगलसूत्र का मूल्य नहीं देना चाहिए बल्कि हिम्मत करके ऐसे जेवर बेचने वाले अलबेलों-मस्तानों को पुलिस के हवाले कर देना चाहिए।

वास्तव में, ये देश है वीर-जवानों का, पूरा गीत सुनिए। वैसे तो यह नया दौर नाम की जिस फिल्म का गाना है वो अपने आपमें हिन्दुस्तान के सिने-इतिहास की एक बड़ी आदर्श फिल्म है जिसमें देश, रिश्ते-नाते, परिवार, भाईचारा, दोस्ती, प्रेम, जज़्बात को अत्यन्त ऊँचाई प्रदान की गयी है। इस फिल्म में भारतीय सिनेमा का मस्तक ऊँचा करने वाले कलाकारों ने काम किया है। इस फिल्म के गीत लिखने वाले साहिर, संगीत तैयार करने वाले ओ.पी. नैयर, गीतों को अमरवाणी देने वाले मोहम्मद रफी, आशा भोंसले, शमशाद बेगम जैसे कलाकार हमारी अस्मिता के विलक्षण व्यक्तित्व हैं। आना है तो आ राह में कुछ फेर नहीं है भगवान के घर देर है अंधेर नहीं है, साथी हाथ बढ़ाना जैसे गानों में जीवन मूल्य और सार तत्व समाहित हैं। ऐसी नया दौर का गाना निश्चित ही सदियों तक शादियों और बारातों की शान बना रहेगा। 

क्यों न बना रहे, दूल्हा बनना, घोड़ी चढक़र गाजे-बाजे के साथ दुल्हन ब्याह कर लाना कम शान की बात नहीं है। हालाँकि दबी जुबाँ में दूल्हे के मसखरे साथी यह भी कहने से नहीं चूकते कि वीरता के साथ जाने वाला यह दूल्हा अपनी कायरता का सबब लेकर लौटेगा। लेकिन बारात के शोर में यह बात भी बैण्ड बाजे वालों की चिंघाड़ धुन में दम तोड़ देती है। उस समय सभी के सिर चढक़र बोलता है, ये देश है वीर-जवानों का अलबेलों का मस्तानों का..।





रविवार, 22 दिसंबर 2013

बुजुर्ग सिने-कलाकारों का पुरसाने हाल

आम जीवन की आपाधापी और आत्मकेन्द्रीयता ने सामाजिकता का सबसे बड़ा नुकसान किया है। महानगरों का तो छोडि़ए छोटे शहरों की हवा भी तेजी से बदली है। लोगों के पास समय का ऐसा अभाव हो गया है कि उसे अपने ही जान-पहचान के लोगों की खैर-कुशल जानने का वक्त नहीं मिल पाता है। अब हालचाल पूछने का चलन एक वाक्य में सिमट गया है जो अक्सर फोन पर काम साधने वाले इसी एक वाक्य से शुरूआत करके मुद्दे पर आते हैं। पृथक से हालचाल, खैर-कुशल, सेहत, परिवार, शादी-ब्याह, तकलीफ-मुसीबत पर ही बात करने के लिए न कोई मिलता है और न ही फोन करता है।

फिल्म जगत की स्थिति और भी बुरी है। बहुत कम लोग हैं जो उम्रदराज होने पर आपस में मिला करते हैं। कम बीमार, अधिक बीमार का हालचाल जानने जाते हैं या पता करते हैं। अधिक सक्रिय, कम सक्रिय या अभाव में जिन्दगी गुजर-बसर करने वालों के लिए अपना योगदान करते हैं, ऐसा अब सुनने में नहीं आता। सुख-दुख और मुसीबत में वक्त पर एक-दूसरे के साथ होना बड़ी बात है। दुर्घटनाओं में भी अब चार दिन बाद बैठ आने में सभी के लिए ज्यादा सहूलियत है। अखबारों में चार लाइनें नहीं होतीं, कहीं से पता चलता है कि जय सन्तोषी माँ फिल्म के हीरो और निर्माता आशीष कुमार नहीं रहे या अपने जमाने के मशहूर खलनायक बी एम व्यास छः माह पहले दिवंगत हो गये।

विख्यात गीतकार गुलशन बावरा ने अपनी देह अस्पताल को दान की थी। उनके नहीं रहने के बाद उनकी पत्नी अंजु दीदी ने आँखों में आँसू भरकर कहा था कि गुलशन जी जानने लगे थे कि जमाने में दिखावा अब कैसा बढ़ गया है। उनकी पंचम राहुल देव बर्मन से अच्छी दोस्ती थी, खूब मिलते-बैठते थे लेकिन पंचम के चले जाने के बाद सब खत्म हो गया। अवसाद के क्षणों में गुलशन बावरा अपनी पत्नी से कहा करते थे कि मेरा चैथा भी मत करना। औपचारिक दुनिया का सच उन्हें ऐसे आडम्बरों से दूर रहने के लिए प्रेरित करता था।

फिल्म इण्डस्ट्री में बुजुर्ग फिल्मकार, कलाकारों की कुशल क्षेम समाज को भी पता चले ऐसी कोई सूचनात्मक जिम्मेदारी निभाता कोई नजर नहीं आता। हमारे बीच बासु चटर्जी जैसे मूर्धन्य निर्देशक मौजूद हैं। नब्बे साल के वी के मूर्ति हैं जिन्होंने कागज के फूल फिल्म की सिनेमेटोग्राफी की थी। साधना, शम्मी, कल्पना कार्तिक, निम्मी हैं। वहीदा रहमान जी हैं, दिलीप साहब, श्रीराम लागू हैं। कितने लोग ऐसे होंगे जो परस्पर मिल पाते होंगे? अभी दिलीप साहब का जन्मदिन था, उस दिन उनसे घर पर मिलने वे ही तीन-चार प्रमुख कलाकार धर्मेन्द्र, सलीम खान, हेलेन, सुभाष घई आदि पहुँचे जिनसे उनके बरसों से सरोकार रहे। बहुतेरे ऐसे होंगे जिन्हें ये सब जानकारियाँ होंगी मगर हौसला, आत्मिक उदारता या इच्छाशक्ति न होगी।

कहीं न कहीं उन संस्थाओं का यह नैतिक दायित्व बनता है जो फिल्म कलाकारों के कल्याणार्थ मुम्बई में स्थापित की गयी हैं और फिल्म जगत के लोग ही जिनके पदाधिकारी या सक्रिय कार्यकर्ता हैं। वे लोग ऐसे कलाकारों की कुशलक्षेम समाज तक पहुँचाने में एक बड़ी भूमिका का निर्वाह कर सकते हैं। उनके पास ऐसे कलाकारों की भी जानकारी होनी चाहिए जो आर्थिक कठिनाइयों से जूझ रहे हैं और कष्ट में हैं, उनके लिए वे समृद्ध, रसूख वाले और संवेदनशील कलाकारों से सहयोग भी मांग सकते हैं और समाज के संज्ञान में भी सीधे ला सकते हैं।


आँसू-मुस्कान, लड़ाई-झगड़ा और बिग बॉस

बिग बॉस में इस बार कलह कुछ ज्यादा अतिरेक के साथ दिखायी गयी। दर्शक बेचारा इस समझदारी और असमंजस में झूलता रहता है कि इस तरह की घटनाएँ जैसी कि इस प्रस्तुति में प्रायः होती ही रही हैं, या तो सुनियोजित होती होंगी और यदि न होती होंगी तो न जाने कितनों के लिए त्रासद होती होंगी और कितनों के लिए मुसीबत का सबब। अभी एक प्रतिभागी को पुलिस पकड़कर ले गयी और लॉकअप में बन्द कर दिया। बाद में उसकी जमानत हो गयी तो वो फिर अपनी कक्षा में जाकर शामिल हो गया। सब हँसी कहकहे में शामिल हो गये। फिर चलने लगा शो।

इस बार के बिग बॉस को लेकर सलमान खान स्वयं भी बहुत विचलित और नाराज रहे हैं। सप्ताहान्त में वे जब भी आये, माहौल को हल्का-फुल्का करना उनका पहला काम होता था जो वे करते थे लेकिन इसके साथ-साथ वे नसीहतें भी देकर जाते थे। नसीहतें देने के कई कारण हुआ करते थे, पहला तो यही कि मर्यादाएँ और अनुशासन भंग हुआ करता है। दूसरी बात यह कि इस बार कुछ ज्यादा ही शक्तिशाली, अपनी दुनिया तलाशने या पा सकने या खो देने के कारण एक अजीब किस्म के तनाव और झुंझलाहट के शिकार चेहरे एक बड़ी अवधि के लिए यहाँ स्थापित हो गये थे। आमतौर पर ग्लैमर और चकाचैंध भरी इस दुनिया की सबसे बड़ी समस्या ही एक साथ न हो पाना है। अहँकार विफलता के बावजूद नहीं जाता, तेवर पराजय के बाद भी नहीं बदलते। बड़ा अजीब सा विरोधाभास है कि परदे पर विभिन्न सकारात्मक और संवेदनशील किरदार को पेश करने में अपनी क्षमताओं का भरपूर इस्तेमाल करने वाले चेहरे वास्तव में किस यथार्थ के हैं या कैसा रंग प्रस्तुत कर रहे हैं?

बिग बॉस के घर में रह रहे लोगों का दो प्रमुख काम है, एक लड़ना और दूसरा रोना। बारी-बारी से हुआ करता है। दिलचस्प यह है कि जब पहले दिन अपनी-अपनी अटैची लेकर तीन माह के लिए दे दिए जाने वाले कल्पनालोक में ये सब पहुँचते हैं तभी एक-दूसरे के गले मिलते हैं, गर्मजोशी से चूमते हैं, आलिंगन करते हैं फिर उसके बाद बात-बात पर गिरेबान और गला पकड़ लिया करते हैं। सब के सब भद्र उम्र के होते हैं पर प्राकट्य में भद्रता से कोसों दूर। रोने का मसला भी बड़ा रोचक है, कई बार मामूली विषय और कई बार बिना विषय अचानक किसी के रूदन का स्वर उठता है, कैमरा उस तक जाता है फिर वह बताता है कि उसके रोने की (मामूली या निरर्थक सी) वजह क्या है? एक को रुलायी आती है और चार गलदश्रु रुमाल से साफ करते हैं।

मस्तिष्क को पका देने वाला तीन माह का यह खेल बड़ा अजीब है। इस पूरे के पूरे खेल को हमारा दर्शक सलमान की झलक, उपस्थिति और बातों के लिए बर्दाश्त करता है। क्या बिग बॉस के पूरे के पूरे विचार पर ही नये सिरे से सोचे जाने की आवश्यकता नहीं है?

मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

अनिल कुमार के शिल्प : ठोस अभिप्रायों के सरोकार



ग्वालियर मूल के शिल्पकार अनिल कुमार के शिल्पों की एक प्रदर्शनी भारत भवन, भोपाल में हाल ही आयोजित की गयी थी। वे बता रहे थे कि भोपाल में एक लम्बे समय बाद उनकी प्रदर्शनी हुई है। प्रदर्शित शिल्प उनके लगभग पिछले तीन साल में हुए सृजनात्मक श्रम को प्रमाणित करते हैं। रंगदर्शिनी दीर्घा में हमने उनके लगभग तीस से ज्यादा शिल्प देखे बहुविध रूपाकारों और अभिव्यक्तिगत मुहावरों के अभिप्रायों के साथ। प्रदर्शित शिल्पों में कुछ सफेद पत्थर को गढ़कर बनाये गये थे और अनेक सारे रंगीन पत्थरों पर प्रयोग थे। अनिल कुमार ने बताया कि इधर कुछ समय से विविध रंगी पत्थरों को लेकर काम करना अच्छा लगा है, प्रतीत हुआ है कि आकार ग्रहण करने के बाद ये ज्यादा तलस्पर्शी आभासित होते हैं, यद्यपि सफेद रंग का अपना सर्वकालिक आकर्षण और महत्व है।

अनिल कुमार ने अपने लगभग सभी शिल्पों में पत्थर और स्टील(धातु) के रिश्तों का जो सामंजस्य स्थापित किया है, उसको ध्यान से देखा, जिज्ञासा हुई। उन्होंने दोनों ही माध्यमों के ठोस स्वभावों में बहुत ही कुशलता के साथ तालमेल स्थापित किया है। पत्थर को अपनी आकांक्षा या दृष्टि के अनुरूप लाना जितना कठिन और श्रमसाध्य काम है, स्टील की चमकदार छोटी सलाखों की उनमें जगह सुनिश्चित करना और उन्हें उनके तथा पत्थर की अस्मिता के साथ परस्पर समाविष्ट करना कठिन कौशल है। यहाँ पत्थर उदार है, सहभागिता के लिए स्पेस दे रहा है और स्टील के अस्तित्व को भी जस का तस अपनी संगत प्रदान कर रहा है। यह मेल शिल्पकार के विचारों और अमूर्त के प्रति सुदीर्घ अनुभवी धारणाओं और माध्यम के प्रति संजीदा सरोकारों के साथ अभिव्यक्त होता है।

प्रदर्शित शिल्पों में परिष्कार के स्तर पर समान व्यवहार भी नजर आता था। अनिल कुमार ने प्रत्येक शिल्प को उसके अस्तित्व की पूर्णता में परिमार्जित किया है। वे रंगों की विविधता में भी स्टील के मूल आदर्श से एक रिश्ता बनाने में सफल हैं। उनका यह काम अलग तरह का है, इसको उनकी परिभाषा के साथ समझना सार्थकता के नजदीक पहुँचना आसान बनाता है।

उनके ये शिल्प कुछ समय पहले मुम्बई में भी जहाँगीर आर्ट गैलरी में प्रदर्शित हुए थे, तब वहाँ भी प्रेक्षकों और जिज्ञासुओं ने उनके नवाचार को सराहा था। अनिल कुमार का जन्म ग्वालियर में 1961 में हुआ। वे एक अग्रणी शिल्पकार हैं। मुम्बई में ताज आर्ट गैलरी में भी उनकी प्रदर्शनी आयोजित हुई है। इसके अलावा नयी दिल्ली, वाराणसी, हम्पी, भुवनेश्वर, ग्वालियर आदि शहरों में भी उनके शिल्पों की प्रदर्शनी सराही गयी है। अनेक प्रतिष्ठित कला संस्थानों में अनिल कुमार के शिल्प संग्रहीत हैं। उन्हें मध्यप्रदेश राज्य पुरस्कार, बाम्बे आर्ट सोसायटी अवार्ड, रजा पुरस्कार, राष्ट्रीय ललित कला अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुए हैं। अनिल कुमार अब भोपाल में रह रहे हैं और संस्कृति विभाग के जनजातीय संग्रहालय में उप निदेशक हैं।


गुरुवार, 28 नवंबर 2013

हिन्दी सिनेमा में गरिमा का अर्थात वहीदा रहमान हैं


वो छठवें दशक के उत्तरार्ध में छोटी सी भूमिका के जरिए हिन्दी सिनेमा में आयीं थीं। कल्पनाशील निर्देशक-फिल्मकार गुरुदत्त ने उनको दक्षिण के सिनेमा में कुछेक छोटी भूमिकाओं के माध्यम से देखा था। उन्हें उस समय अपनी फिल्मों में सहायक भूमिका के लिए एक स्त्री चेहरा मिला था। यह 1955 की बात थी। गुरुदत्त ने अपने प्रतिभाशाली और सम्भावनाशील सहायक राज खोसला को सी.आई.डी. का निर्देशन करने का उत्तरदायित्व दिया था। देव आनंद फिल्म के नायक थे। सी.आई.डी. में वहीदा रहमान को एक कामिनी नाम की एक क्लब डांसर की छोटी सी नकारात्मक भूमिका मिली जो बाद में नायक के प्रति उस वक्त हमदर्दी में बदल जाती है जब उसे लगता है कि यह निर्दोष है और इसे एक षडयंत्र में फँसाया जा रहा है। राज खोसला अपना इम्तिहान दे रहे थे, फिल्म को जो सफलता मिली, सराहना मिली उसमें वहीदा रहमान की भूमिका को भी रेखांकित किया गया।

वहीदा रहमान के समय का आरम्भ यहीं से हुआ। उनका गुरुदत्त की फिल्म प्यासा और कागज के फूल से चकित कर देने वाला विस्तार जो भारतीय दर्शकों ने देखा वो उस दौर में सभी का ध्यान खींचने के लिए बहुत था। वहीदा रहमान के रूप में श्वेत-श्याम सिनेमा में एक अत्यन्त उजला चेहरा, निर्दोष और झंझावाती स्वप्नों के उतार-चढ़ावों के अधूरे-पूरे भावों को देखकर दर्शक मुग्ध होकर रह गये। प्यासा, सी.आई.डी. के प्रदर्शन के एक ही साल बाद प्रदर्शित फिल्म थी। गुलाब की भूमिका में वहीदा रहमान का किरदार मन को छूकर रह गया था। कागज के फूल अपने समय में तीसरी कसम की तरह ही विफल साबित हो चुकी फिल्म थी लेकिन वक्त बीतने के बाद दोनों को ही सार्थकता के मान से सिनेमा में मील का पत्थर कहा जाने लगा। फिल्म में वो दृश्य यादगार है जब नायक प्रिव्यू थिएटर में फिल्म के रशेज देख रहा होता है और कैमरे की परिधि में आ गयी शान्ति के चेहरे को देखकर ठिठक जाता है। उसे उसके चेहरे में अपनी फिल्म की नायिका की तलाश पूरी होती हुई दिखायी देती है। वहीदा रहमान शान्ति के रूप में एक उपकृत लेकिन असमंजस से भरी एक स्त्री की भूमिका में जबरदस्त प्रभाव छोड़ती हैं।

इधर कागज के फूल से तीसरी कसम की हीरा बाई के बीच लगभग सात साल का अन्तराल है। इस बीच वहीदा रहमान हिन्दी सिनेमा का एक स्थापित चेहरा हो गयी थीं। काला बाजार, चौदहवीं का चांद, साहिब बीवी और गुलाम, बीस साल बाद, मुझे जीने दो और गाइड जैसी फिल्म के माध्यम से एक बड़े विस्तार में अपनी अहम जगह पर आ चुकी थीं। ये बीच की सारी फिल्में अपने समय के बड़े प्रतिबद्ध निर्देशकों की थीं जिनमें विजय आनंद, स्वयं गुरुदत्त, अबरार अलवी, सुनील दत्त शामिल थे। तीसरी कसम की हीरा बाई के रूप में हम एक सीधे-सच्चे नायक की उसके साथ कुछ घण्टे की यात्रा देखते हैं जो अपने आपमें बड़ी दार्शनिक अनुभूति प्रदान करती है। कथा और फिल्मांकन के साथ मर्मस्पर्शी प्रभावों की ऐसी बुनावट है कि आप चाहे-अनचाहे नायक से जुड़ जाते हैं। हीरा बाई नौटंकी में नाचने-गाने वाली बाई है जिसे हीरामन क्या कुछ समझ लेता है। टाट से ढँकी बैलगाड़ी में वो एक परी को बैठाकर कहीं दूर ले जा रहा है, बैलगाड़ी चलाते हुए भीतर से आती हुई महक और पायल की आवाज से वह बिना पीछे मुड़कर देखे मन्द-मन्द सम्मोहन महसूस करता है और जैसे ही पहली बार मुड़कर देखता है विस्मय से ठहरा रह जाता है, वहीदा रहमान का यह पहला दर्शन सचमुच खूबसूरती को जस के तस प्रभावों के साथ प्राप्त कर दर्शकों के सामने प्रकट कर देने का अनूठा सृजनात्मक प्रमाण था। बासु भट्टाचार्य ने तीसरी कसम के रूप में सचमुच एक अनूठी और अनगढ़ फिल्म रची थी।

इधर कागज के फूल से लेकर तीसरी कसम के बीच की जिन फिल्मों का जिक्र हुआ उनमें निश्चित ही चौदहवीं का चांद और साहिब बीवी और गुलाम में हम उन्हीं अनुभवों को समृद्ध होते देखते हैं जो एक साथ एक-दो वर्ष के अन्तराल से आयी फिल्मों प्यासा और कागज के फूल से हुए थे। चौदहवीं का चांद और साहिब बीवी और गुलाम दोनों ही गुरुदत्त के प्रभावों, उनकी सृजनात्मक दृष्टि और एक-एक दृश्य को जैसे गहरी आत्मसंलिप्तता के साथ लिखने के जतन का प्रभाव देने वाली फिल्में थीं। मुझे जीने दो एक सशक्त फिल्म है जिसमें वे चमेली जान के रूप में एक और नाचने-गाने वाली स्त्री की भूमिका में हैं जिसे एक डकैत एक महफिल से लूट के माल के साथ उठा लाता है। इस फिल्म का नायक ठाकुर जरनैल सिंह, हीरामन की तरह भोला नहीं है लेकिन अपनी हिफाजत में रखते हुए वह भी खूबसूरत पैर और पायल की आवाज से अपनी एक दुनिया बनाने चलता है। भय, अनिश्चय और अंधेरे कल की बेला में एक जद्दोजहद सी चलती है मुझे जीने दो में। नदी नारे न जाओ श्याम, पैंया पडूँ गाना प्रेम की परिणति है, जिसमें गजब का समर्पण भी है।

गाइड विजय आनंद निर्देशित फिल्म थी जिसकी मिसाल आज भी एक बड़ी सशक्त फिल्म के रूप में दी जाती है और हिन्दी सिनेमा में सौ साल के इतिहास में पहली पाँच फिल्मों में उसकी गिनती है। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1965 का है। विजय आनंद इसके पहले वहीदा रहमान के साथ काला बाजार बना चुके थे। यहाँ वहीदा काला बाजार की अलका से अलग हैं, बिल्कुल अलग नितान्त विपरीत। गाइड में देव आनंद और वहीदा रहमान दोनों की भूमिकाएँ महत्वपूर्ण हैं और निर्देशक खासतौर पर विजय आनंद ने जिस तरह से विषय को निर्वाह के स्तर पर अंजाम देने का काम किया, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर संवेदनाओं को वे व्यक्त करने में सफल हुए। टूटी और बिखरी रोजी के चेहरे से पीड़ा का थमा-ठहरा सागर देखना गहरे विचलन से भर देता है। इस फिल्म में बहुत से क्लोज-शॉट वहीदा रहमान की क्षमताओं पर हतप्रभ करते हैं वहीं नागिन डाँस के दृश्य में एक सपेरन नृत्यांगना के साथ उनका नृत्य करना अद्भुत है।

सातवें दशक में वहीदा रहमान की उपस्थिति लगातार समृद्ध होती दिखायी देती है। वे राजकपूर के साथ-साथ दिलीप कुमार और देव आनंद की भी नायिका बनकर दोहरायी जाती हैं। विशेष रूप से दिलीप कुमार के साथ उनका होना, उनकी पूर्व नायिकाओं मधुबाला, नरगिस, वैजयन्ती माला से अलग एक समरसता परदे पर व्यक्त करता है। हम दिल लिया दर्द लिया को याद कर सकते हैं। इसी के साथ-साथ राम और श्याम तथा आदमी को भी। यह एक ऐसा सामंजस्य है जो हमें बहुत आगे जाकर फिर 1984 की फिल्म मशाल में भी दिखायी देता है जिसे यश चोपड़ा ने निर्देशित किया था, स्वतंत्र रूप से इस फिल्म को जावेद अख्तर ने लिखा था। 1965 से 85 तक की वहीदा रहमान की यात्रा लगातार सशक्त होती गयी है। मनोज कुमार के साथ पत्थर के सनम, राजेश खन्ना-धर्मेन्द्र के साथ खामोशी, देव आनंद के साथ प्रेम पुजारी, सुनील दत्त के साथ रेशमा और शेरा, धर्मेन्द्र के साथ फागुन जैसी फिल्में वहीदा रहमान को उनके आयामों के विस्मयकारी विस्तार के रूप में व्यक्त करती हैं। रेशमा और शेरा में उन्हें रेशमा के किरदार के लिए नेशनल अवार्ड मिला था। खामोशी में नर्स राधा की उनकी भूमिका मर्माहत करती है। फागुन में वे एक ऐसी प्रेमिका-पत्नी शान्ता की भूमिका में थीं जो अपने पिता की निगाह भाँपकर अपने पति को होली के दिन रंग डालकर साड़ी खराब कर देने के लिए भला-बुरा कहती है। उनकी एक और यादगार फिल्म का जिक्र यहाँ जरूरी है, नील कमल

इधर बाद की फिल्में जिनमें वहीदा रहमान को हम काफी परिपक्व और बड़ा सुरक्षित सा देखते हैं, विशेष रूप से अदालत, कभी-कभी, त्रिशूल, महान, नमक हलाल से लेकर चांदनी, लम्हें, फिफ्टीन पार्क एवेन्यू और दिल्ली छः तक वे चरित्र भूमिकाओं में स्थापित होती हुई गरिमा के ऊँचे शिखर पर स्थापित हुई हैं। वे अमिताभ बच्चन की नायिका से लेकर माँ तक की भूमिका में आयीं हैं। वहीदा रहमान के हिस्से दादी तक की भूमिकाएँ आयीं हैं और उन्होंने ऐसी सभी फिल्मों में अपनी जगह को लेकर आश्वस्त होने के बाद ही ऐसी फिल्मों में काम करना स्वीकार किया है। उनके बारे में यह बिना किसी अतिरिक्त भाव के कहा जा सकता है कि वे किरदार में अपनी भरपूर क्षमताओं के साथ समाहित होती हैं और एक हो जाती हैं। इतने वर्षों में वहीदा रहमान हमें निरन्तर अपने विभिन्न किरदारों की वजह से ही याद हैं। पद्मश्री और पद्मभूषण जैसे सम्मान उनको समय रहते ही मिल गये थे। शताब्दी गौरव सम्मान की स्थापना के साथ ही पहले सम्मान के लिए उनका नाम चयन किया जाना, वास्तव में इस सम्मान की गरिमा की स्थापना है। वहीदा रहमान के यश के नितान्त अनुकूल है यह सम्मान।


शनिवार, 23 नवंबर 2013

रंगमंच, गिरीश कर्नाड और उत्सव


वे दरअसल अपने को अपनी सम्पूर्ण सृजनात्मक समग्रता में रंगकर्मी कहाना ही पसन्द करते हैं इसलिए विख्यात रंगकर्मी गिरीश कर्नाड बावजूद सिनेमा में अपनी बड़ी प्रतिष्ठा के रंगमंच की अपनी दुनिया में ही लीन रहते हैं। उनका बड़ा समय अध्ययन में व्यतीत होता है। अभी पिछले ही साल बरसों बाद वे यशराज फिल्म्स की एक था टाइगर में दिखायी दिए थे तब भी उन्होंने अनौपचारिकता में यही कहा था कि सिनेमा को लेकर बात नहीं करना चाहता। वास्तव में उनका संसार रंगमंच है, सक्रियता रंगकर्म है। फिल्मों को लेकर उनके मन में स्वतः कोई आकर्षण नहीं है, वे अधिक सशक्त माध्यम और विशेषकर जो उनको रचनात्मक संतृप्ति दे, रंगमंच में अपनी सन्तुष्टियाँ और बहुधा असन्तुष्टि भी तलाश करते हैं।

लेकिन हाल ही में सुखद विस्मय तब हुआ जब गिरीश कर्नाड नई दिल्ली में एक बड़े समारोह में मुख्य वक्ता के रूप में एक लम्बा उद्बोधन देने जिस विषय पर आये वह सिनेमा से ही जुड़ा हुआ था। उन्होंने भारतीय सिनेमा और राष्ट्र निर्माण पर एक लम्बा उद्बोधन दिया। उन्होंने इस बात को कहा कि हिन्दी सिनेमा ने अपनी स्वाभाविक गति और प्रभाव से राष्ट्र निर्माण के काम में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। यह दिलचस्प था उनका कहना कि भारतीय सिनेमा में गीत और संगीत की वो शक्ति रही है कि उसने हमारे यहाँ हॉलीवुड को निष्प्रभावी बनाये रखा। वे यह मानते थे कि हमारी फिल्मों में गीत-संगीत और नृत्य का होना अहम था। यदि हम महान फिल्मकार सत्यजित रे की तरह बिना गानों की फिल्में बनाते रहते तो हॉलीवुड का वर्चस्व यहाँ स्थापित हो जाता। इसके पक्ष में वे कहते हैं कि हॉलीवुड के प्रभाव के कारण ही इतालवी सिनेमा, फ्रांसीसी सिनेमा और जापानी सिनेमा अपनी खूबियों और श्रेष्ठताओं के बावजूद अपने अस्तित्व के साथ दिखायी नहीं देता।

गिरीश कर्नाड भारतीय सिनेमा की सफलता-विफलता की तुलना पश्चिमी सिनेमा की सफलता-विफलता से करना उचित नहीं मानते। ऑस्कर को लेकर हमारे यहाँ पायी जाने वाली ललक को भी उन्होंने व्यर्थ बताया और कहा कि हमारे लिए वह कोई मील का पत्थर नहीं है। हिन्दी सिनेमा के वजूद को ज्ञानपीठ सम्मान और पद्मभूषण से सम्मानित गिरीश कर्नाड ने सकारात्मक रूप से अपने विचारों के साथ समर्थन दिया और कहा कि इसके माध्यम से हिन्दी गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रों तक पहुँची है।

अनेक महत्वपूर्ण नाटकों के रचयिता और निर्देशक गिरीश कर्नाड को हिन्दी क्षेत्र के दर्शक फिल्म स्वामी से पहली बार जान पाये जिसका निर्माण जया चक्रवर्ती, हेमा मालिनी की माँ ने किया था। इस फिल्म में शाबाना आजमी ने भी प्रमुख भूमिका निभायी थी। हिन्दी की कई फिल्मों में उन्होंने अभिनय किया जैसे श्याम बेनेगल की निशान्त, भूमिका, मंथन और सम्सकारा, उम्बरठा, सुर संगम, चेलुवी, इकबाल आदि अनेक। गिरीश कर्नाड ने सत्यदेव दुबे, श्यामानंद जालान, इब्राहिम अल्काजी, विजया मेहता, अमाल अल्लाना, ब.व. कारंत के साथ अपनी रंगयात्रा में अनेक महत्वपूर्ण स्थापनाएँ की हैं। कर्नाड ने ही शशि कपूर के लिए क्लैसिक एपिक मृच्छकटिकम पर केन्द्रित फिल्म उत्सव का निर्देशन किया था। इस फिल्म के निर्माण को इस साल बीस वर्ष पूरे हुए हैं।

गहरे जीवट के धनी डॉ. श्रीराम लागू

डॉ. श्रीराम लागू को हमने लम्बे समय से परदे पर नहीं देखा है। कुछ वर्ष पहले वे मराठी नाटक नटसम्राट के माध्यम से लम्बे अन्तराल के बाद मंच पर अवतरित हुए थे। उनके बारे में कहा जाता था कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, ज्यादा मिलते-जुलते भी नहीं हैं। उम्र काफी हो चुकी है, उनकी सक्रियता को लेकर कोई जानकारी भी नहीं है। ऐसे ही समाचारों और कयासों के बीच वे पुणे में जब नटसम्राट के माध्यम से मंच पर दिखायी दिए तो सुखद विस्मय होना स्वाभाविक था। 

हम जैसे हिन्दी दर्शकों ने जिन्होंने डॉ. लागू को हिन्दी सिनेमा के परदे पर ज्यादातर देखा है, वो उन्हें उतना ही जानते हैं और उतनी ही उनकी जानकारी है कि परदे पर कमजोर या शारीरिक रूप अस्वस्थ दिखायी देने वाले किरदार करने वाले इस शख्स की सीमा यहीं तक होगी। लोग नहीं जानते होंगे कि डॉ. श्रीराम लागू का मतलब है मराठी रंगमंच की समृद्ध परम्परा और उस परम्परा के वटवृक्ष हैं डॉ. लागू जो हो सकता है फिल्मों में काम न करने का निर्णय पूरी तरह ले चुके हों लेकिन रंगमंच उनके प्राण है या रंगमंच में उनके प्राण बसते हैं। यही कारण है कि जब नटसम्राट नाटक उन्होंने किया था तब परिवेश का रंग-जगत अचम्भित था और उनकी मंच उपस्थिति पर गौरवान्वित था।

19 नवम्बर को डॉ. श्रीराम लागू ने छियासीवें वर्ष में प्रवेश किया है। उनकी उपस्थिति न केवल मराठी रंगमंच बल्कि मराठी और हिन्दी सिनेमा के भी समृद्ध इतिहास का सम्बल है। हिन्दी सिनेमा के दर्शकों में उनका पहला परिचय सम्भवतः घरौंदा से है जिसमें उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। वे बड़ी उम्र के हृदयरोगी पति मोदी की भूमिका में थे जिसकी पत्नी का अपने प्रेमी से यह वचन है कि पति के नहीं रहने के बाद वो उसके पास धन-सम्पदा के साथ चली आयेगी। अभाव और सपनों के वशीभूत एक स्त्री किस तरह पति के अर्थ को समझती है, इस बात को छाया की भूमिका निबाह रही जरीना वहाब ने क्लायमेक्स में अपने एक वाक्य के उत्तर से व्यक्त भी किया था, जाना होता, तो आती ही क्यों!!

डॉ. श्रीराम लागू ने इसके बाद बहुत सारी हिन्दी फिल्मों में काम किया। तब के सभी नायकों और नायिकाओं में उनका बहुत आदर रहा है। वे गुलजार के साथ किताब, किनारा, मीरा आदि फिल्मों में आये। सावन कुमार ने उनको फिल्म सौतन में उस समय की उनकी तमाम आम हो चुकी भूमिकाओं से हटकर पद्मिनी कोल्हापुरे के पिता की भूमिका दी। वे प्रकाश मेहरा की फिल्म लावारिस में इसलिए बेहद प्रभावित कर गये क्योंकि उन्होंने अपनी छबि से विपरीत एक संवेदनहीन शराबी गंगू गनपत की भूमिका निभायी। उनकी उल्लेखनीय हिन्दी फिल्मों में एक दिन अचानक, मुकद्दर का सिकन्दर, मंजिल, जुर्माना, सरगम, गजब, देस परदेस आदि शामिल हैं वहीं मराठी फिल्मों में सामना, सिंहासन, पिंजरा आदि का भी जिक्र होता है। डॉ. श्रीराम लागू बीसवीं सदी में सिनेमा और रंगमंच की जीती-जागती अनमोल विरासत हैं। समाज अपने पितृ-पुरुषों को सदैव याद करे, उनका आदर करे यह बहुत जरूरी है। हम सबके बीच उनका होना अत्यन्त मूल्यवान है।

बुधवार, 13 नवंबर 2013

बच्चों के लिए सिनेमा

बच्चों के लिए सिनेमा की बात हो रही थी। आजकल ठीक से नजर नहीं आता। बच्चों का सिनेमा कौन बनाता है, पता नहीं चलता। बच्चों का सिनेमा कैसे प्रदर्शित होता है, मालूम नहीं होता। बच्चों का सिनेमा कहाँ देखने में आता है, इसकी भी जानकारी प्रायः अब नहीं मिल पाती। दृश्य यह है कि बच्चों के लिए रचनात्मक जगहें और परिस्थितियाँ अब धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही हैं। हम देखते हैं कि जो बच्चे टेलीविजन के विभिन्न चैनलों में तथाकथित कला को सँवारने का दावा करते हुए चार निर्णायकों को बैठाये तख्तियाँ उठाकर नम्बरों से फैसला सुनाने वाले जजों के सामने अपनी क्षमताओं के साथ पेश होते हैं वे सब के सब वयस्कों के मनोरंजन के दायरे में आने वाली चीजों को तैयार करके आते हैं।

पता नहीं कितने सारे माता-पिता अपने बच्चों को, बेटियों को बाजारू सिनेमा का आयटम सांग सिखाकर ले आते हैं। कम उम्र की बच्चियाँ अपने अविभावकों, उनके ट्रेनरों और चैनलों के क्रिएटिव हेड की समझ के मुताबिक मंच पर उन गानों पर डांस करने लगती हैं जो आयटम सांग कहाते हैं और जिन्हें हिन्दी फिल्मों में चवन्नी छाप दर्शकों की दृष्टि-क्षुधा शान्त करने के लिए रखा जाता है। हिन्दी फिल्मों में आयटम सांग की अवधारणा के पीछे दिल थाम कर बैठने की दर्शकों को पहले से ही ऐसी प्रचारात्मक चेतावनी दे दी जाती है जैसे दिल का दौर पड़ने का खतरा हो। बहरहाल यही अपसंस्कृति नन्हें बच्चों पर आरोपित है, महात्वाकांक्षाओं के चलते, समृद्धि की लालसा के चलते। यही कारण है कि हमें अपने ही बीच छोटे-छोटे बच्चे अचानक बड़े से लगने लगते हैं। हम सभी इस प्रचलित बिन्दासपन पर ठगे से रह जाते हैं। हमारी आँखें आश्चर्य से खुली रह जाती हैं। नन्हों के संसार में यह कैसा आक्रमण हो गया है?

बच्चों के लिए फिल्मों की सम्भावनाएँ बरसों पहले समाप्त होकर रह गयी हैं। कुछ वर्ष पहले विशाल भारद्वाज ने यह पहल बड़ी अच्छी सम्भावना के साथ की थी। उनकी दो फिल्में मकड़ी और खासकर ब्ल्यू अम्ब्रेला इन्हीं वजहों से याद है बल्कि ब्ल्यू अम्ब्रेला ऐसी फिल्म है जिसे बच्चों को दिखाया भी जाना चाहिए। श्रेष्ठ अभिनेता पंकज कपूर ने कमाल का किरदार निभाया है उस फिल्म में। बच्चों के लिए सिनेमा बनाने की संवेदना अमोल गुप्ते में भी हमने देखी है जो वास्तव में तारे जमीं पर जैसी फिल्म को परदे पर रचने वाले थे। उनकी बाद की एक फिल्म स्टेनली का डिब्बा भी उल्लेखनीय है जो ठीक से देश में प्रदर्शित भी नहीं हो सकी।

कभी राजकपूर ने बूट पॉलिश, व्ही. शान्ताराम ने दो आँखें बारह हाथ, नितिन बोस ने जागृति, मेहबूब खान ने सन ऑफ इण्डिया जैसी अविस्मरणीय फिल्में बनायीं थीं। बहुत से घराने आज भी ऐसे हैं जो फिल्म व्यवसाय में खूब धन अर्जित करते हैं। वे चाहें तो दो-चार साल में बच्चों के लिए लाभ-हानि की परवाह किए बिना एकाध फिल्म बना सकते हैं लेकिन वे शायद भावी पीढ़ी के प्रति ऐसे नैतिक सोच से कोसों दूर हैं। आज सौ-दो सौ करोड़ का सिनेमा की प्रथम और अन्तिम लक्ष्य हो गया है। ऐसे में बच्चों के लिए सिनेमा...........कौन सोचे?


सोमवार, 11 नवंबर 2013

अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का धुंधला परिदृश्य

भारत सरकार का सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय हर साल नवम्बर माह में अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह का आयोजन करता है। इस समारोह का बड़ा पुराना इतिहास है। किसी समय यह समारोह खासा परवान चढ़ा था। तब इसका एक साल नई दिल्ली और एक साल भारत के किसी राज्य की राजधानी में आयोजित किए जाने की परम्परा थी। हालाँकि इस समारोह को लेकर समर्थन और आलोचना की दो दृष्टियाँ रही हैं लेकिन उसके बावजूद इसके आयोजन में वे फिल्मी हस्तियाँ भी उपस्थित हुआ करती थीं और फिल्म देखा करती थीं जो फिल्म चयन को लेकर, व्यवस्था को लेकर, तवज्जो को लेकर तरह-तरह के प्रश्न उठाया करती थीं।

जिस समय हिन्दी में सत्तर के दशक से नया सिनेमा उद्घाटित हुआ और एक साथ सात-आठ प्रतिभाशाली निर्देशकों में तब के चलते हुए व्यावसायिक परिदृश्य में ध्यान आकृष्ट किए जाने योग्यन हस्तक्षेप किया तब उन सभी की भागीदारी को ऐसे समारोह में बड़ा महत्व दिया जाता था। हैदराबाद, कोलकाता, मुम्बई, तिरुअनन्तपुरम, चण्डीगढ़, चेन्नई, बैंगलोर में फिल्म समारोह को और प्रभाव इसलिए भी मिलता था कि वहाँ फिल्म संस्कृति को लेकर जितनी ज्यादा जागरुकता थी उतना ही ज्यादा सम्मान भी। दक्षिण के राज्यों में तो सरकार और सिनेमा दोनों जगह सिनेमा के ही प्रतिनिधि हुआ करते थे इसलिए मेजबानी भी ज्यादा अच्छे ढंग से होती थी। सिनेमा के प्रति सुरुचि, ज्ञान और जिज्ञासा रखने वालों को सौ पचास श्रेष्ठ फिल्मों को देखने के अवसर मिलते थे, बेशक यह दुनिया का अच्छा सिनेमा हुआ करता था। इस तरह बहुत सारे खट्टे-मीठे अनुभवों के साथ सिनेमा के हिन्दुस्तान के इस सबसे बड़े समारोह ने अपनी लम्बी यात्रा की। राज्यों की राजधानियों के बाद हर अगले साल यह समारोह नई दिल्ली में होता था, वहाँ भी इसको ऐसा ही वातावरण मिलता था।

कुछ वर्ष पहले आयोजक संस्था सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने इसका स्थायी केन्द्र गोवा को बना दिया। गोवा इस समारोह की स्थायी जगह हो जाने के कारण, अपेक्षाकृत सभी व्यवस्थाएँ अत्यन्त व्ययसाध्य होने के कारण इस निर्णय की आलोचना हुई और दीगर राज्यों के सिनेमा से जुड़े लोग इससे दूर होते गये। गोवा में नियमित रूप से आयोजित होते रहने के कारण यह मुम्बई के ग्लैमर और हीरो-हीरोइनों की चमकदार उपस्थिति भर का उत्सव बनकर रह गया। गोवा राज्य ने इसकी मेजबानी ले तो ली लेकिन बिना इस दूरदृष्टि के कि कैसे यह पिछले उत्सवों की तरह देश का प्रतिनिधि सिनेमा उत्सव बने, इस पर विचार की जगह ही नहीं छोड़ी गयी।

बहरहाल ऐसी ही आलोचनाओं तथा अपनी आभा और प्रतिष्ठा को दाँव पर लगा चुका यह उत्सव गोवा में इस बार भी 20 नवम्बर से आयोजित हो रहा है। सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने इसी परिप्रेक्ष्य में सिनेमा के योगदान के लिए एक शताब्दी पुरस्कार भी घोषित कर दिया है जो इस वर्ष से प्रदान किया जायेगा। इस बार के इस समारोह में सिनेमा की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति की दो हस्तियाँ प्रमुख अतिथि के रूप में पधार रही हैं, इनमें से एक हैं बहुप्रतिष्ठित ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी और अमेरिकी अभिनेत्री सूसान सैरंडन।

रविवार, 10 नवंबर 2013

विजयदान देथा की कृतियों का सिनेमा

विजयदान देथा, साहित्य के एक बड़े आदमी थे जिनका सत्यासी वर्ष की आयु में निधन हो गया। कुछ समय पहले एक बड़ी पत्रिका में उन पर एक अनुपम पठनीय फीचर प्रकाशित हुआ था जिसमें तकलीफों, बीमारियों और कुछेक अपने दुखों से तप्त दानदेथा ने आयुगत धीमेपन और आखिरी समय के अपने मानस के साथ कुछ बातें कहीं थीं। उस फीचर को पढ़ते हुए ही उनके अवदान के विलक्षणपन को लेकर कुछ बातें आती-जाती रही थीं। देथा, राजस्थानी लेखक थे, मूल भाषा के प्रति असीम आत्मीयता और आदर के वशीभूत शुरू से ही उसी भाषा में लिखने वाले लेकिन जब उनका साहित्य हिन्दी में अनूदित होकर प्रकाशित हुआ तब जाकर हिन्दी साहित्य जगत, हिन्दी का पाठक वर्ग उनके कृतित्व को लेकर चमत्कृत हुआ।

एक बड़े फिल्मकार मणि कौल ने जो कि उनकी कहानी दुविधा से बेहद प्रभावित हुए थे और उस कहानी पर फिल्म बनाने का निश्चय कर चुके थे, कहा, तुम अपनी जगह पर ही ठीक हो, बाहर आओगे तो लोग नोच खायेंगे। इस बात के पीछे उनका आशय साहित्य और उसके व्याप्त बाजार के बीच गलाकाट और राजनीति से था। मणि कौल ने दुविधा पर इसी नाम से 1973 में फिल्म बनायी जिसमें रवि मेनन, रायसा पदमसी, भोला राम और मनोहर ललास ने काम किया था। निर्देशक ने फिल्म बनाते हुए कृति की संवेदनाओं और परिवेश का बड़ा ख्याल रखा था। फिल्म का संगीत भी परिवेशजनित था जिसे रमजान हम्मू, लतीफ और साकी खान ने तैयार किया था। दुविधा के लिए मणि कौल को बेस्ट डायरेक्टर का नेशनल अवार्ड भी प्राप्त हुआ था। दुविधा से अमोल पालेकर तीस साल बाद प्रभावित हुए थे और उन्होंने पहेली नाम से एक खराब फिल्म बनायी थी जिसमें आधुनिक सितारों शाहरुख खान और रानी मुखर्जी ने काम किया था। अपनी प्रामाणिकता और कार्य-उत्कृष्टता में हम पहेली से दुविधा को उत्कृष्ट और सार्थक फिल्म मान सकते हैं।

इधर हिन्दी क्षेत्र में बल्कि कहा जाये तो पूरे भारतीय रचनात्मक परिदृश्य में विजयदान देथा की कहानी पर विख्यात रंगकर्मी हबीब तनवीर द्वारा खेले नाटक चरणदास चोर और उनके ही सहयोग से श्याम बेनेगल द्वारा 1975 में बनायी गयी फिल्म चरणदास चोर की बड़ी पहचान है। निस्सन्देह यह ख्याति विश्वस्तरीय भी है क्योंकि हबीब तनवीर इस नाटक को दुनिया के अनेक देशों में भी मंचित कर चुके थे। सम्भवतः इसके कई सौ प्रदर्शनों का कीर्तिमान होगा और आज भी विजयदान देथा और हबीब तनवीर का नाम क्रम से लो तो तत्काल चरणदास चोर भी कहना होता है। पढ़ने में इतनी प्रेरक, देखने में इतनी दिलचस्प और सीख के लिए शायद हमारे पूरे जीवनमूल्यों की बात कहती यह रचना अनूठी है। प्रकाश झा ने 1989 में उनकी कृति पर परिणति का निर्माण किया था जो झा की फिल्मोग्राफी में एक महत्वपूर्ण फिल्म है। इस फिल्म को उत्कृष्ट वेशभूषा के लिए नेशनल अवार्ड प्राप्त हुआ था। फिल्म में नंदिता दास, सुरेखा सीकरी और सुधीर कुलकर्णी ने काम किया था।

विजयदान देथा का निधन इस साल के अवसान की बेला में मन्नाडे, राजेन्द्र यादव, रेशमा की तरह ही अपूरणीय क्षति है। सृजन के शीर्षस्तम्भ की उपस्थिति हमारी रचनात्मक अस्मिता को निरन्तर ऊष्मित किए रहती है। एक तरह की आश्वस्ति वह समाज जीता-करता है जो पितृ-पुरुषों और पूर्वजों के यश को शिरोधार्य करने की भावना या संस्कार रखता है। विजयदान देथा का जाना साहित्य को अनमोल विरासत प्रदान करने वाले गुणी सर्जक का जाना है।

शनिवार, 9 नवंबर 2013

बाजार का आक्रामक गणित और सिनेमा


सिनेमाघरों में कृष 3 के पोस्टर लगे हैं। विशेष रूप से स्याह रंग का चयन किया गया है। हमारे समय का एक चमकदार हीरो है जिसकी अपनी साख बहुत बड़ी है मगर पोस्टर में उसका चेहरा ही छुपा दिया गया है। मास्क लगाये हीरो के केवल ओंठ दिखायी दे रहे हैं और सब तरफ से घिरी आँखें जो अपेक्षाकृत उग्र दीख रही हैं। चूँकि चेहरा नहीं दिख रहा इसलिए भाव समझ में नहीं आ रहा है। लेकिन यह भी उतना ही सच है कि जिस सिनेमाघर में यह पोस्टर लगा है उसका आँगन छोटी-बड़ी गाडि़यों से पटा पड़ा है, पुलिस लाठी भांज रही है अनुशासन के लिए और टिकिट खिड़की के सामने ईमानदार लाइन लगे धक्का खाते हुए मंजिल तक बढ़ रहे हैं और बीच में घुस जाने वाले, पीछे से आ जाने वाले और जान-पहचान से तुरन्त टिकिट प्राप्त करने वाले गर्वोन्मत्त हैं, सिनेमा देखने भीतर चले जा रहे हैं।

ऐसे दृश्य कृष 3 से पहले चेन्नई एक्सप्रेस के समय भी रहे हैं। सिनेमा को जाँचने-परखने में दक्षता को जीने वाले आलोचक कहते ही रह गये कि फिल्म साधारण है लेकिन चेन्नई एक्सप्रेस ने दो सौ करोड़ से ज्यादा कमा लिया और एक सौ दस करोड़ की उम्मीद रखने वाली कृष 3 भी इस टिप्पणी के लिखे जाते तक सौ करोड़ की घोषणा से आगे निकल गयी थी। इन फिल्मों की सफलताएँ यह प्रमाणित करती हैं कि हमारे समय में तेजी से बाजार और लाभ का ऐसा गणित स्थापित होता चला जा रहा है जिसके प्रभाव में सार्थकताएँ, सच्चे परिश्रम और लीक से अलग हटकर किए जाने वाले कामों की सम्भावनाएँ लगातार धीमी और कम होती जा रही हैं। सारे वातावरण में बाजार का गणित काम कर रहा है। हफ्तों की एडवांस बुकिंग से टिकिट खिड़की पर जमा होने वाला सारा धन निर्माता की जेब में जा रहा है जिसे दर्शकों ने अग्रिम चुकता कर दिया है।

हम उस समय से परे चले गये हैं जब खरीदार के रूप में हम पहले एक हाथ से सामान प्राप्त करते थे और दूसरे हाथ से उसके पैसे चुकाते थे लेकिन अब हमें सामान प्राप्त करने से पहले पैसे चुकाने की जल्दी और व्याकुलता है। हम वंचित रह जाने और पीछे रह जाने के डर से अपना धन पहले छोड़ देना चाहते हैं। यही कारण है कि अपने जोखिम सुरक्षित रखने वाले निर्माता के सामने हम अपनी जेब खाली कर देते हैं। सिनेमा हमारे आनंद के संसार में अपनी एक खास जगह रखता है लेकिन अब हम उसमें हारकर भी किसी से कुछ कह नहीं पाते। फिल्म देखने के बाद हमारा आकलन जाहिर होने वाला पछतावा भी तो नहीं है। बेहतर सिनेमा के लिए निश्चित ही यह मुश्किल समय है। सार्थक हस्तक्षेप को हम दर्शक नजरअन्दाज नहीं करें, यह सचमुच ध्यान देने वाली बात है।







   

शनिवार, 2 नवंबर 2013

स्तम्भ और स्तम्भकार दोनों के आदर्श मायने थे के.पी. सक्सेना

क्योंकि वे बहुत बड़े स्तम्भकार थे। उनकी क्षमताओं और ऊर्जा का कोई सानी नहीं था। हास्य-व्यंग्य की दुनिया में उनकी उपस्थिति उत्कृष्टता में एकमेव ही थी। पीढि़याँ अपने बचपन को याद करती होंगी तो उनको तमाम जीवित पत्रिकाओं का युग याद आता होगा। बच्चों को बाल पत्रिकाएँ याद आती होंगी, युवाओं को अपनी पत्रिकाएँ, अलग-अलग दुनिया में रुझान रखने वालों को अपने हिस्से की पत्रिकाएँ याद आती होंगी। अपने शहर से लेकर देश के अखबार पढ़ने वाले सक्सेना जी को जानते थे। सक्सेना जी इतने लोकप्रिय, इतने प्रासंगिक रहा करते थे कि प्रायः हर जगह उपस्थित रहा करते थे। पराग, लोटपोट, मायापुरी, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, मनोरमा, धर्मयुग के दौर में सक्सेना जी इतने लोकव्यापी हुआ करते थे कि ताज्जुब होता था, किस तरह एक शख्स इतने सारे पन्नों पर, इतनी विविधताओं के साथ, ऐसी रंजक उपस्थिति में हुआ करता है! पराग में खलीफा तरबूजी का किस्सा चालीस साल पहले कितने अंकों तक चला था, याद आता है।

वो एक पूरा का पूरा जमाना जिसके अवसान के बरसों बाद भी उसकी स्मृतियाँ हम सभी के मनो-मस्तिष्क में हैं, जीवित और अखबार-पत्रिका स्टाल में सजी रहने वाली पत्रिकाओं का दौर और उस दौर में के.पी. सक्सेना जी। गजब की सोचने की शक्ति, विलक्षण किस्सा-गो और प्रस्तुतिकरण की सुरुचि से अलग ही आकर्षित करने वाले ये व्यंगकार पत्रिकाओं और अखबारों के तीज-त्यौहारों के विशेषांकों के सिरमौर हुआ करते थे। सक्सेना जी ने सृजनात्मक जीवन्तता का एक लम्बा दौर जिया है जिसकी आवृत्ति आधी सदी से भी बहुत ज्यादा है। पिछले वर्ष ही भोपाल आये थे, सक्सेना जी, शरद जोशी सम्मान ग्रहण करने तब ही उन्होंने बतलाया था कि कुछ समय पहले आशुतोष गोवारीकर को उन्होंने एक पटकथा लिखकर दी है, डिटेक्टिव फिल्म की जिसमें मुख्य भूमिका अमिताभ बच्चन निबाहेंगे। सक्सेना जी चाहते थे कि फिल्म जल्द शुरू हो, उनकी यह इच्छा अधूरी रह गयी।

के.पी. सक्सेना की सृजनात्मकता को पिछले पन्द्रह वर्षों में सबसे ज्यादा सार्थकता के साथ नवाजने का काम आशुतोष गोवारीकर ने ही किया था। उन्होंने सक्सेना जी से फिल्म लगान के संवाद अवधी में लिखने का प्रस्ताव किया था। यह उनका पहला बड़ा काम था, खास सिनेमा के क्षेत्र में। फिर आशुतोष से उनके सरोकार ऐसे जमे कि उन्होंने स्वदेस और जोधा-अकबर फिल्मों के संवाद भी लिखे। ये तीन फिल्में सक्सेना जी के उत्तरार्ध के सृजन में लैण्डमार्क मानी जायेंगी। यों उन्होंने दूरदर्शन और चैनलों के लिए कई धारावाहिक लिखे, एक बीबी नातियों वाली बड़ा लोकप्रिय हुआ था जो लखनऊ दूरदर्शन से देश भर में प्रसारित होता था।

सक्सेना जी की उपस्थिति से हास्य-व्यंग्य में मौलिकता की उपस्थिति को लेकर एक विश्वास हमेशा बना रहता था। वे कैंसर जैसी बीमारी से जूझते हुए भी अपने लेखन के प्रति, जीवन के प्रति कभी हतोत्साहित नहीं हुए। अपने आपमें उनका गजब का आश्वस्त बने रहना बड़ा प्रेरक लगता था। स्मृतियों में भी उनकी उपस्थिति उसी आश्वस्त छबि के साथ बनी रहेगी। उनका सृजन तो खैर पुख्ता और चिरस्थायी है ही................।
     

मंगलवार, 29 अक्तूबर 2013

राजेन्द्र यादव का सारा आकाश


साहित्य और सिनेमा के रिश्तों को लेकर बहुत सी बातें होती हैं। अच्छा सिनेमा, अच्छे साहित्य से ही बन पाता है। बहुत कम फिल्मकारों को यह साहस हो पाया है कि उन्होंने अपनी फिल्म के लिए साहित्यिक कृति चुनने का जोखिम लिया है। बासु चटर्जी ने ऐसे जोखिम सिनेमा में अपने आरम्भ के साथ ही उठाये हैं और अपने विश्वास को प्रमाणित भी किया है। राजेन्द्र यादव के उपन्यास सारा आकाश पर उनका फिल्म बनाना भी इसकी सृजनात्मक वजह है। वास्तव में सारा आकाश पर काम करने के बाद बासु चटर्जी की राजेन्द्र यादव से मित्रता बहुत गहरी हो गयी थी। उन्होंने मन्नू भण्डारी की कृति पर भी रजनीगंधा फिल्म बनायी।

सारा आकाश का निर्माण 1968 में हुआ था। यह ब्लैक एण्ड व्हाइट फिल्म थी जिसके सर्वश्रेष्ठ छायांकन के लिए के. के. महाजन को नेशनल अवार्ड प्राप्त हुआ था। यह फिल्म एक संयुक्त परिवार में नव ब्याहता की मनःस्थितियों और पति से उसका सामंजस्य स्थापित न हो पाने की संवेदनशीलता को प्रस्तुत करती है। परिवार में अपनी इच्छा के विरुद्ध विवाह कर दिए जाने की बात सातवें दशक का एक अहम विषय हो सकती है। उस समय संयुक्त परिवार, पारिवारिक मर्यादाएँ, बड़े-बुजुर्गों की बात को टाल न पाने की विवशता जैसी स्थितियों में ऐसे यथार्थ पनपते थे। यह कहानी उसी का एक मर्मस्पर्शी परिचय है।

फिल्म का नायक समर अपनी दुनिया बुन ही रहा है कि उसका विवाह तय कर दिया जाता है, वह इससे इन्कार नहीं कर पाता। उसकी पत्नी प्रभा सुशील है, पढ़ी-लिखी है, वह निर्दोष है, ब्याह कर ससुराल आ गयी है। सबका ख्याल रखना उसका धर्म उसे बतला दिया गया है। उसकी खुशियों पर अभी बातचीत नहीं हुई है। संयुक्त परिवार के सदस्यों के लिए शायद इस संवेदना की फिक्र करना जरूरी भी नहीं है। ऐसे में प्रभा और समर का कोई रिश्ता ही नहीं बन पाता। एक बार जब प्रभा अपने माता-पिता के घर चली जाती है तब लम्बे अकेले एहसास में समर को प्रभा का ख्याल आता है।

प्रभा वापस आ जाती है लेकिन समर उस सेतु को सृजित कर पाने में सफल नहीं हो पाता कि प्रभा तक वह जा सके, पति-पत्नी होने के अर्थ और उसकी संवेदना के एहसासों को बाँट सके। व्यथित और अकेली सी प्रभा एक दिन अपनी नितान्त अपरिचित उपस्थिति और निरर्थकता से विचलित हो जाती है और घर की छत के एक कोने में लेटी हुई रोने लगती है। समर को यहाँ अपनी भूल का आभास होता है, वह प्रभा के पास जाकर उससे बात करता है। फिल्म का अन्त बहुत ही मन को छू जाने वाला है, ऐसा कि आप उसकी परिस्थितियों से लम्बे समय तक छूट नहीं पाते।

सारा आकाश फिल्म प्रभा की भूमिका निबाह रहीं मधु चक्रवर्ती के माध्यम से उस नव-ब्याहता के मर्म को बखूबी व्यक्त करती है जो अपने ससुराल में आकर कितने ही दिनों तक परायी बनी रहती है, कोई उसकी परवाह नहीं करता। परिवार में नयी दुल्हन सभी की अपेक्षाओं के लिहाज से एक सूत्रधार बनकर जाने कितने बरसों जिया करती है। वह सभी से प्रेम करती है क्योंकि उससे अपेक्षित है लेकिन फलस्वरूप उससे सब स्नेह-प्रेम का रिश्ता बांध लें, यह सम्भव होने में सैकड़ों दिन लग जाते हैं।

सारा आकाश देखना, इस समय सचमुच साहित्य और सिनेमा के मर्म को समझने वालों के लिए राजेन्द्र यादव के प्रति एक मौजूँ श्रद्धांजलि हो सकती है। हमारे समय में साहित्य और सिनेमा का मर्म सदैव ही एक बड़ा विषय रहा है और जब भी इस विषय पर सार्थक बातचीत हुई है, राजेन्द्र यादव और सारा आकाश के बगैर सार्थक नहीं रही है। 

शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

आधी-अधूरी जिन्दगियों का एक घर

 
भारतीय रंग जगत में एक लगभग पचास से भी ज्यादा साल पुरानी महत्वपूर्ण कृति पर किसी सशक्त नाटक को देखना अपने आपमें एक बड़ा अनुभव है। मोहन राकेश की कृति पर आधारित लिलेट दुबे निर्देशित नाटक आधे-अधूरे देखकर लगता है कि ये लगभग आधी सदी बराबर का व्यतीत समय भी स्थितियों को बदल नहीं पाया है। आधुनिकता और आविष्कार ने दुनिया के विकास और परिष्कार की बहुत सी बातें स्थापित की हैं लेकिन मनुष्य की स्थितियों, पूर्णता की उसकी विफल सी तलाश और अपने अधूरेपन को लेकर बनी रहने वाली झुँझलाहट वैसी की वैसी ही है। उसमें कोई फर्क या बदलाव नहीं आया है।

इस नाटक में मुख्य रूप से पाँच पात्र हैं लेकिन भारतीय रंगमंच के विलक्षण कलाकार डॉ. मोहन आगाशे द्वारा निभाये पाँच पृथक किरदारों को समाहित कर दिया जाये तो कुल मिलाकर नौ हो जाते हैं। यहाँ आगाशे द्वारा निभाये गये पाँच किरदारों की बात हम आगे करेंगे, पहले आधे-अधूरे नाटक की पृष्ठभूमि में जाने की कोशिश करते हैं।

आधे-अधूरे एक परिवार के माध्यम से जीवन के असन्तोष और शिकायतों की बात करता है जहाँ मुखिया महेन्द्र नाथ, अपनी पत्नी सावित्री, दो बेटियों बिन्नी और किन्नी तथा बेटे अशोक के साथ रहता है। मुखिया अपने व्यावसाय में सब कुछ खो चुका है, घर पर रहता है। पत्नी कामकाजी है, घर उसकी तनख्वाह से चलता है। बड़ी बेटी ने परिवार की इच्छा के विरुद्ध भागकर विवाह कर लिया है लेकिन एक दिन वह अपने पति को छोड़कर वापस आ जाती है। बेटा बेरोजगार और कुण्ठित है, छोटी बेटी बड़ी हो रही है, उसकी अपनी उद्विग्नताएँ हैं।

मुख्य रूप से घर में अपनी थकी और खिसियायी जिन्दगी काटता महेन्द्र नाथ, पत्नी सावित्री से अक्सर जीवन की विफलताओं के दोषारोपण में पराजित हो जाया करता है। एक दिन वो घर छोड़कर अपने दोस्त जुनेजा के घर चला जाता है। सावित्री की जिन्दगी में दो और पुरुष हैं जो अलग-अलग स्थितियों में घर में आते-जाते हैं, एक सिंघानिया उसका बॉस, दूसरा जगमोहन पहले का प्रेमी। सिंघानिया की खुशामद की जरूरत उसे इसलिए है कि वो शायद उसके बेटे को कोई नौकरी दे देगा। जगमोहन से उसके रिश्ते बीच में खत्म हो गये थे लेकिन जगमोहन फिर आता है, तब जब महेन्द्र नाथ घर छोड़कर चला गया है और सावित्री भी घर और अपनी हताशा से ऊब गयी है।

महेन्द्र नाथ और सावित्री के घर में हम बौखलाए लोगों को देखते हैं। अलग-अलग उम्र के लोग एक ही धरातल पर अपनी असन्तुष्टि, अनुशासन की कमी और नियंत्रण की घोर अनुपस्थिति के बीच अपनी अकेली दिशाहीनता से घबराये हुए हैं। कोई पूरा नहीं है, सब आधे-अधूरे हैं। हम देखते हैं कि समय की बड़ी आवृत्ति में जिन्दगी ही कट रही है लेकिन सब के सब घर में रखे फटे-पुराने और निष्प्राण सामानों की तरह हैं। पुराना रेडियो, पंखा, सोफा, मेज, फटा टाट, किन्नी के सामने से फटे मोजे विफलता और भटकाव की गहरी बातें बीच बहस में व्यक्त करते हैं। अपरिचितों और असहमतियों का घर कितनी बड़ी-बड़ी कीमतें चुकाता है, यह आधे-अधूरे नाटक में नजर आता है।
 
 
डॉ. मोहन आगाशे की क्षमताओं को देखकर हतप्रभ हो जाने के सिवा कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, वे सूत्रधार समेत पाँच किरदारों में आते हैं। वे महेन्द्र नाथ हैं, वे ही जुनेजा हैं, वे ही जगमोहन हैं, वे ही सिंघानिया हैं। कितनी विविधताओं को नितान्त विभेदों के साथ वे इन किरदारों को मंच पर सार्थक करते हैं, देखकर ताज्जुब होता है। लिलेट दुबे नाटक की निर्देशक हैं, वे सावित्री के रूप में एक निरन्तर खोती और हारती रहने वाली स्त्री की भूमिका को अपनी वेदना के साथ साकार करती हैं। नाटक में अशोक का किरदार जिसे राजीव सिद्धार्थ ने निभाया है और किन्नी का किरदार जिसे अनुष्का साहनी ने निभाया है, विशेष रूप से अपने स्वाभाविक और सधे अभिनय के साथ याद रह जाते हैं। बिन्नी के रूप में इरा दुबे की उपस्थिति इन किरदारों से आगे बढ़कर नहीं जा पाती।

आधे-अधूरे नाटक को सार्थकता प्रदान करने में कलाकारों के श्रेष्ठ अभिनय के साथ मंच-परिकल्पना और सामग्री का बड़ा योगदान है। अभाव और अधूरेपन को स्टेज-प्रॉपर्टी सार्थक प्रभावों के साथ व्यक्त करती है। वेशभूषा को लेकर राय जरा अलग सी है क्योंकि एक अभावग्रस्त परिवार की एकमात्र कमा कर लाने वाली स्त्री सावित्री के कपड़े बड़े महँगे, भव्य और वैभव का प्रदर्शन करते दीखते हैं। ऐसे कपड़ों का सीधा विरोधाभास किन्नी के फटे मोजों से है। ब्याहता बेटी के अच्छे कपड़ों को नजरअन्दाज किया जा सकता है लेकिन सावित्री की कीमती साड़ियाँ वातावरण को कहीं न कहीं बाधित करती हैं। हो सकता है निर्देशक ने सावित्री को उसकी अधूरी ख्वाहिशों के बीच उसके थोड़े-बहुत सपनों के लिए कुछ गुंजाइश रखी हो, बहरहाल.......।

आधे-अधूरे नाटक देश के मूर्धन्य रंगकर्मियों ने समय-समय पर किया है। लिलेट दुबे की यह प्रस्तुति एक अभिनेत्री के साथ निर्देशक के रूप में निश्चित रूप से उल्लेखनीय है। एक ऐसी मंच-कृति जो आपको प्रभावित करके छोड़े वो निश्चित रूप से श्रेष्ठ मानी जाती है, यह नाटक भी उतना ही सशक्त और सार्थक प्रतीत होता है। 

गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

मन्ना डे अपना हाथ न किसी को पकड़वाया, न पकड़ने दिया.......


मन्ना डे का यश ऐसा ही था कि उनको महान गायन कहने में संकोच नहीं होता है। उनके गाये गीतों ने कर्इ पीढि़यों की चेतना को सचेत रखा है। साठ-सत्तर साल लगातार गाते रहना आसान नहीं है। आज के कठिन समय में मन्ना डे की हर जगह अकेली और आत्मविश्वास से भरी उपसिथति पर कम ताज्जुब नहीं हुआ करता था। मन्ना डे को भोपाल में सुनना सभी के लिए अविस्मरणीय था, वो साल 2006 का था और अक्टूबर का महीना। तारीख 17 थी। सचमुच वे दो दिन ऐसी अनूठी और अविस्मरणीय अनुभूतियों से भरे थे जिनसे हाथ छुड़ाने का मन ही नहीं हो रहा था। हालांकि जैसे जैसे समय बीत रहा था, ऐसा लग रहा था कि सानिनध्य का दायरा कम होता जा रहा था मगर इसके बावजूद हर उस अनुभव को सहेजकर रखने का मन होता था जो प्रतिपल नये अनुभवों के कारण पुराने होते जा रहे थे।

सन्दर्भ महान पाश्र्व गायक मन्ना डे से जुड़ता है। बीसवीं शताब्दी के ये महान गायक जब दो दिन के लिए भोपाल आये तो उनकी देखरेख की जवाबदारी किसी अनजाने पुण्य के फल की तरह लगी। संस्कृति विभाग की बहुलोकप्रिय एवं प्रतिषिठत मासिक श्रृंखला अनुश्रुति में गाने आये थे मन्ना डे। भोपाल बुलाने के लिए उनकी बड़ी मनुहार करनी पड़ी थी। हमारा लगभग छ: माह का परिश्रम सार्थक किया था उन्होंने भोपाल आकर। तब मन्ना डे छियासी साल के जवान। उनके लिए यही कहना ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है। वरना इस उम्र में बैंगलोर से मुम्बर्इ होते हुए जहाज बदलते हुए भोपाल आना आसान कहाँ होता है! इतना ही नहीं वापसी में वे भोपाल से दिल्ली गये और दिल्ली से कोलकाता। कुछ दिन वहाँ रुककर फिर वापस बैंगलोर जाने का उनका कार्यक्रम था। कोलकाता में उनका घर है, परिवार है, भतीजे, पोते-पोतियाँ हैं। बैंगलोर में मन्ना डे अपनी पत्नी और बेटी के साथ रहते थे। एक बेटी उनकी विदेश में है।

कार्यक्रम के एक दिन पहले मन्ना डे रात के विमान से भोपाल आ रहे थे। फूलों का एक गुलदस्ता लेकर समय से जरा पहले ही पहुँच गया था। उस रात उनके इन्तजार में बैठना कुछ ज्यादा ही आनंदित करने वाला, व्याकुलता से भरा प्रतीत हो रहा था। मन्ना डे मूडी हैं यह तो फोन पर कर्इ बार बातचीत से पता चला था मगर अपने मन के अलग ही राजा हैं, यह दो दिन उनके साथ रहकर जाना। जहाज कुछ देर से आया मगर मन्ना डे की की छबि की कल्पनाएँ कर उनके बहुत सारे गीतों का स्मरण करना उस समय न जाने कितना अच्छा लग रहा था। सबसे ज्यादा रिपीट हो रहा था, हिन्दुस्तान की कसम फिल्म का गाना। 'हर तरफ अब यही अफसाने हैं। यारी है र्इमान मेरा, कस्मे वादे प्यार वफा सब, ऐ मेरी जोहरा जबीं, लागा चुनरी में दाग, चलत मुसाफिर मोह लिया रे, सुर न सजे क्या गाऊँ मैं, गाने भी जेहन में आ-जा रहे थे। मन्ना डे की आवाज के बारे में मेरी व्यकितगत स्थापना यह है कि उनकी आवाज शहद और आँसुओं की बड़ी परफेक्ट मात्रा से मिलकर बनी है। जितने मीठे उनके गीत लगते हैं, भावुक और जज्बाती गीत कर्इ बार रुआँसा हो जाने को विवश कर देते हैं।

आखिरकार जहाज आकर रुका। जहाज के रुकते ही दूर से उसका दरवाजा खुलने की व्याकुलता बलवती हुर्इ। दरवाजा खुला, यात्री उतरे तो देखा कि चौथे नम्बर पर मन्ना दा खरामा-खरामा उतर रहे हैं। नीचे उतरकर बिना थके बाहर तक चले आये। मैंने उनके चरण स्पर्श किए। मन्ना दा तो पिता के भी पिता की उम्र के हैं। वैसी ही आत्मीयता उन्होंने दी। सामान लेकर बाहर निकले। चारों तरफ कौतुहल था। मन्ना दा उसी कौतुहल के बीच से होते हुए कार में बैठे। होटल पहुँचने पर कुछ प्रेस छायाकार उनकी प्रतीक्षा में थे। कार से उतरते ही फ्लैश चमकना शुरू हुए। दादा इन सबकी परवाह किए बगैर होटल की सीढि़याँ चढ़ने लगे। एक फोटोग्राफर ने कहा, वहीं रुक जाइए तो उसको तुरन्त कहा, क्यों रुकूँ? नहीं रुकता। सब ओर हँसी हो गयी। उनका आतिथ्य करने वाले होटल का स्टाफ खुश था। दो दिन सभी ने उनका बहुत ख्याल रखा।

हालांकि भोपाल का मौसम उनको बड़ा खुशगवार लगा मगर फिर भी गुलाबी ठंड और एयर कण्डीशण्ड कमरे में उनका कुछ गला खराब सा हुआ जिसका इलाज उन्होंने अपनी पसन्द का एक सीरप मुझसे बुलवाकर किया। दादा को मिठार्इ बहुत पसन्द थी। भोपाल की एक खास दुकान की रबड़ी खाकर वे बहुत खुश हुए थे। मन्ना दा सचमुच मूडी आदमी थे। नाहक व्यवधान को वे पसन्द नहीं करते। हल्की डपट में दादा देर नहीं करते थे मगर वह बड़ी दिलचस्प होती थी। आप थोड़ी देर को सहम जरूर जाते हैं मगर उनके प्रति प्यार और बढ़ जाता है, ऐसी डपट के कर्इ अवसर देखने को मिले। 

रवीन्द्र भवन में वो शाम ऐतिहासिक थी जिस शाम मन्ना दा का गाना था। मन्ना दा भोपाल तकरीबन चालीस साल पहले आये थे जब चाइना वार हुआ था। उस समय के बाद अब उनका आना हुआ। दादा को सुनने ऐतिहासिक भीड़ उमड़ पड़ी थी। नीचे का हाल, बालकनी भरी हुर्इ थीं। परिसर में तीन जगह स्क्रीन लगाये गये थे और सामने सैकड़ों चाहने वाले उनके गाये गीतों का आनंद ले रहे थे। दादा ने तीन घण्टे गीत सुनाये। सब मंत्र मुग्ध होकर उनको सुनते रहे। वन्दना सुन हमारी, दिल का हाल सुने दिलवाला, तू प्यार का सागर है, चुनरिया कटती जाये रे, ऐ भार्इ जरा देख के चलो, आयो कहाँ से घनश्याम, पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी, छम छम बाजे रे पायलिया, झनक झनक तोरी बाजे पायलिया, तेरे नैना तलाश कर, गोरी तोरी पैंजनियाँ, सुर न सजे क्या गाऊँ मैं, चली राधे रानी, जिन्दगी कैसी है पहेली, कस्मे वादे प्यार वफा, कस्मे वादे प्यार वफा सब, ऐ मेरी जोहरा जबीं, यारी है र्इमान मेरा, ऐ मेरे प्यारे वतन, तुझे सूरज कहूँ या चंदा, दूर है किनारा, तुम बेसहारा हो तो, फुल गेंदवा न मारो, कौन आया मेरे मन के द्वारे जैसे गीतों ने जैसे अनुभूतियों में जन्नत की सैर करा दी। भोपाल उस शाम को कभी नहीं भूलेगा।

रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन सुबह मन्ना दा कोलकाता की तरफ जाने के लिए दिल्ली वाले विमान से में बैठे। जब तक जहाज हवार्इ अडडे पर नहीं आया तब तक उनसे विमानतल पर ही खूब बातें हुर्इं। अपने अनुभवों को जिस तरह से उन्होंने बाँटा वो अलग चर्चा का विषय है मगर यह बात सच है कि उनका समूचा व्यकितत्व एक पूरी शताब्दी के जीवन, अनुभवों, संघर्षों और उपलबिधयों का ऐसा आदर्श और मर्यादित गवाह दिखायी दिया जिसमें अनुकरण के लिए इतना कुछ नजर आया जो आज बाहर और कहीं सर्वथा दुर्लभ है। मन्ना दा ने अपनी समूची साधना और उपलबिध के परिप्रेक्ष्य में अपने चाचा विलक्षण गायक स्व. के. सी. डे को याद किया, उनको श्रेय दिया और कहा कि मेरे लिए उनका भतीजा होना गर्व की बात है।

मन्ना डे से बाद में भी बात हुआ करती रहती थी। अक्सर उनको जन्मदिन पर और वैसे भी फोन कर लिया करता था। लैण्डलाइन फोन वे खुद ही उठाते थे, मोबाइल वगैरह नहीं रखते थे। जब उन्हें दादा साहब फाल्के सम्मान घोषित हुआ था तब भी बधार्इ देते समय उन्होंने हालचाल लिया था, दुआएँ दी थीं। कुछ महीने से उनकी सेहत अचानक गिरती गयी और फेफड़ों के संक्रमण ने उनको कमजोर कर दिया था। इसके बावजूद वे बीमारी से लड़ते रहे। उनके एक संगतकार मुम्बर्इ के इन्द्रनाथ मुखर्जी से भी उनके हालचाल ले लिया करता था जो उनसे प्राय: बात करते रहते थे। 

एक फूल दो माली फिल्म में उनके गाने, तुझे सूरज कहूँ या चन्दा में बीच की पंक्तियाँ हैं, आज उंगली थाम के तेरी तुझे मैं चलना सिखलाऊँ, कल हाथ पकड़ना मेरा, जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ.............लेकिन आश्चर्य यह है कि अन्तिम समय तक चलते-फिरते रहने वाले मन्ना डे ने अपना हाथ न किसी को पकड़ाया और न ही किसी को पकड़ने दिया। 

उनका चले जाना बहुत ज्यादा दुखदायी इसलिए लग रहा है क्योंकि वे हमारे बीच सक्रियतापूर्वक, ऊर्जापूर्वक और बलिक कण्ठपूर्वक बने हुए थे। उनके निधन से हमारे बीच से भारतीय सिनेमा के गोल्डन इरा की एक बहुत बड़ी शखिसयत चली गयी है, इस क्षति की भरपायी कभी न हो सकेगी।




मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

रणबाँकुरे भी हैं रणवीर सिंह

अपनी मेहनत और प्रतिभा के बल पर हिन्दी फिल्मों में अपनी महत्वपूर्ण जगह बनाने वाले कलाकार रणवीर सिंह कुछ समय से बीमार हैं। बीमारी भी उनको बड़ी हुई है जिसके नाम से हर मनुष्य भयभीत होता है। डेंगू बुखार से ग्रस्त इस कलाकार के बारे में लगातार सकारात्मक खबरें नहीं मिल रही हैं। 

यह बताया जा रहा है कि काम के प्रति अतिउत्साह और समर्पण के चलते उन्होंने पिछली शूटिंग बिना अपनी सेहत की परवाह किए जारी रखी। उस समय उनको लगातार बुखार आ रहा था लेकिन निर्माता को नुकसान न हो, इसका ध्यान उन्होंने पहले रखा और शूटिंग में हिस्सा लेते रहे। आखिरकार मुम्बई आकर उनको अस्पताल में दाखिल होना पड़ा। डेंगू की बीमारी चिन्तित करती है क्योंकि यह मुश्किल से नियंत्रित होती है। साल भर पहले ही यश चोपड़ा इसी बीमारी के चलते नहीं रहे थे तब फिल्म इण्डस्ट्री में इस बात को लेकर चिन्ता व्याप्त हुई थी जिसका परिणाम यह हुआ था कि खुले में सिनेमा के समारोह होना बन्द हो गये, बगीचों में पार्टियाँ आयोजित होना बन्द हो गयीं। यदि करना भी पड़ीं तो इस बात का ध्यान रखा जाने लगा कि ठीकठाक छिड़काव वगैरह किया जाये।

रणवीर सिंह इस समय चुनिंदा चार-पाँच सफल सितारों के बीच अपनी अच्छी हैसियत रखते हैं। वे खासतौर पर उन सितारों में शुमार होते हैं जो सिनेमा जगत में वंश परम्परा से अलग हैं और अपना रास्ता खुद बनाने वाले हैं। उनका जन्म फिल्म इण्डस्ट्री में चांदी का चम्मच मुँह में रखकर नहीं हुआ। संघर्ष करके अपना मुकाम उन्होंने बनाया और बैण्ड बाजा बारात जैसी सिताराविहीन फिल्म में अपने होने को सफलतापूर्वक जाहिर किया। रणवीर सिंह की सफलता को एक बार किसी फिल्म अवार्ड्स के मंच पर शाहरुख खान ने भी सराहा था। स्वयं शाहरुख खान भी खुदमुख्तार हैं। उनको भी अपनी सफलता प्रतिभा से ही हासिल हुई है। इस तरह के कलाकारों की फिल्म जगत में अलग ही धाक है और वे अपने आपको उन सितारों से अलग रखते हैं जो अपने पिता, माता, रिश्तेदारों और शुभचिन्तकों के माध्यम से फिल्मों में प्रतिभाहीनता के बावजूद बने रहते हैं, इसी कारण कई बार ऐसे कलाकार इन विषयों पर कभी असावधानी में कुछ कह जाते हैं तो बखेड़ा भी खड़ा हो जात है।

संजय लीला भंसाली की रामलीला रणवीर सिंह और दीपिका पादुकोण की आगामी चर्चित फिल्म है। यह फिल्म ऐसे वक्त में आ रही है जब रणवीर को लुटेरा से फिर अच्छा प्रतिसाद मिला है और इसी वक्त में दीपिका पादुकोण से उनके प्रेम के किस्से भी गॉसिप कॉलमों में खूब छापे जा रहे हैं। अभी यह तक भी सुनने में आया था कि रणवीर अस्पताल में अकेलापन अनुभव कर रहे हैं और दीपिका शूटिंग में व्यस्त हैं लेकिन रणवीर के हालचाल ले लिया करती हैं। बाद में यह भी कि दीपिका अब प्रत्यक्षतः रणवीर के सम्पर्क में हैं लेकिन लगातार यह भी सुनने में आ रहा है कि उनकी हालत में सुधार नहीं है जो चिन्ता की बात है। ऊपरवाला और उनके चिकित्सक जल्द ही उन्हें इस मुसीबत से छुटकारा दिलायें, यह कामना है।

सोमवार, 7 अक्तूबर 2013

जोया एक साहसी स्त्री भी हैं

ग्राण्ड मस्ती जैसी सतही और बुरी फिल्म की आलोचना करने वालों में प्रतिभाशाली फिल्मकार जोया अख्तर का नाम भी शामिल है। इस फिल्म का कमाई के मामले में सौ करोड़ के क्लब में शामिल होना भी सभ्य समाज के लिए शर्मसार होने की बात है। जाहिर है कि हम सभी ने यह फिल्म तबीयत से जाकर देखी तभी इसे इतनी कमाई हुई और इन्द्र कुमार जैसे निर्देशक एक नॉन-स्टारर फिल्म से इतना सारा धन कमा गये। इस फिल्म का आकर्षण दृश्यों और भाषा में व्याप्त घटियापन था जिसके लिए सेंसर बोर्ड में भी बखेड़ा उठ खड़ा हुआ था और सेंसर बोर्ड की चेयरपरसन और सदस्यों के बीच भी कुछ दिन घमासान चला।

बहरहाल जोया अख्तर ने बड़े निर्भीक होकर इस फिल्म की आलोचना की और कहा कि मैंने यह फिल्म नहीं देखी और बिल्कुल यह नहीं चाहा कि मेरा पैसा भी इस फिल्म की कमाई में शामिल हो और इसकी सफलता में वह अंशास हो। जोया अख्तर विख्यात फिल्म समीक्षक अनुपमा चोपड़ा की अंग्रेजी में आयी एक किताब हण्ड्रेड फिल्म्स यू सी बिफोर डाय के लोकार्पण के अवसर पर अपनी बात रख रही थीं। जोया का मानना था कि बुरी फिल्म का सफल हो जाना कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं है और न ही इस पर इतना विस्मित होने की जरूरत है, दुखद वो होता है कि कोई अच्छी फिल्म फ्लॉप हो जाये। बुरी फिल्म का सफल होना किसी के लिए भी श्रेय लेने के काबिल नहीं होता। वे यहाँ पर उड़ान और अपनी फिल्म लक बाय चांस की बात भी करती हैं और कहती हैं कि ये अच्छी फिल्में थीं और कहीं न कहीं इनका बेहतर मूल्याँकन हुआ भले भारी मात्रा में कमाई इन फिल्मों ने नहीं की।

जोया अख्तर आज के समय की एकमात्र युवा महिला फिल्मकार हैं जिनकी दृष्टि में विरासत अपनी आधुनिक समय और सम्भावनाओं के साथ प्रकट होती है। जोया अपने भाई फरहान के साथ उनके द्वारा निर्देशित फिल्मों दिल चाहता है, लक्ष्य आदि में सहायक निर्देशक रह चुकी हैं। जिन्दगी न मिलेगी दोबारा उनकी एक महत्वपूर्ण फिल्म थी जिसे न केवल आलोचकों ने बेहद सराहा था बल्कि बॉक्स ऑफिस पर भी इस फिल्म को अच्छी आर्थिक सफलता हासिल हुई थी। वे हिृतिक रोशन, अभय देओल और अपने भाई फरहान अख्तर को लेकर एक खूबसूरत और उम्मीदों से भरी इस फिल्म के लिए लगातार जानी जाती हैं।

ग्राण्ड मस्ती और उसके व्यावसायिक परिणाम का साहसिक प्रतिवाद करने के लिए जोया अख्तर को बधाई देना चाहिए। जोया इन दिनों फिर एक खूबसूरत फिल्म की योजना बना रही हैं। आरम्भिक रूप से इस फिल्म के लिए नायक-नायिका की भूमिका के लिए उन्होंने रणवीर सिंह और अनुष्का शर्मा के नाम पर विचार किया है। उनकी फिल्म में प्रियंका चोपड़ा भी होंगी और दो महत्वपूर्ण भूमिकाओं में अनिल कपूर और डिम्पल भी। अगले साल अप्रैल में यह फिल्म फ्लोर पर जायेगी।

सीमाओं और क्षमताओं के बीच शरमन

हिन्दी सिनेमा में कुछ अच्छे और प्रतिभाशाली कलाकार निरन्तर छटपटाहट में रहते हैं। स्वाभाविक रूप से अपनी आमद वे मुम्बई में नायक बनने के ख्वाब और ख्वाहिशों के साथ ही देते हैं लेकिन सभी के लिए नायक बन पाना सम्भव नहीं होता। नायक के बराबर प्रतिभा रखते हुए कई बार उन्हें लोकप्रिय और बिकाऊ नायकों की सोहबत स्वीकारनी पड़ती है। वे मुख्य किरदार के सहायक होकर पूरी फिल्म में अपनी उपस्थिति को मायने देने का काम करते हैं लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं हो पाता है कि सहनायक बने प्रतिभाशाली कलाकार कभी किसी फिल्म को अकेले ही सफलता के दरवाजे तक ले जायेंगे। अब इसे जोखिम कहा जाये या प्रयोग कहा जाये, कभी-कभार इस तरह के कलाकार एकल उपस्थिति के साथ किसी फिल्म को हासिल करने में सफल भी हो जाते हैं तो सफलता का जोखिम सिर पर तलवार की तरह लटका करता है। बेशक निर्माता दाँव पर लगा रहता है मगर नायक भी आसमान को निहारते हुए सर्वोच्च सत्ता से मेहरबानी की कामना किए रहता है।

शरमन जोशी के लगभग पन्द्रह साल के कैरियर को देखते हुए इस तरह का ख्याल आना स्वाभाविक है। अभी वे चर्चा में हैं क्योंकि उनकी फिल्म, जिसमें वे हीरो हैं, वार छोड़ न यार, इस हफ्ते रिलीज होने जा रही है। फराज हैदर की लिखी और निर्देशित की गयी इस फिल्म में जावेद जाफरी और सोहा अली भी प्रमुख भूमिकाओं में हैं। वार छोड़ न यार को देश की पहली वार कॉमेडी फिल्म के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। देखा जाये तो इस फिल्म का भार पूरी तरह शरमन जोशी के कंधों पर है। शरमन जोशी को पिछली फिल्म फेरारी की सवारी भी नायक के रूप में मिली थी लेकिन व्यावसायिक रूप से इसे सफलता नहीं मिली थी। श्रेष्ठता के मापदण्डों पर भी फेरारी की सवारी को खास सराहना नहीं मिली थी। शरमन उसके पहले राजकुमार हीरानी की फिल्म थ्री ईडियट्स में से एक ईडियट बनकर तारीफ हासिल कर चुके हैं। वास्तव में उस फिल्म की पटकथा, संवाद, निर्देशकीय दृष्टि और आमिर खान का अभिनय इतना मुकम्मल था कि अपने समय की सबसे ज्यादा विचारोत्तेजक फिल्म होने का उदाहरण थ्री ईडियट्स के साथ जुड़ा।

शरमन जोशी, राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म रंग दे बसन्ती के भी सहनायक रह चुके हैं, यो उन्होंने अब तक लगभग पन्द्रह फिल्मों में काम भी किया है। किसी भी फिल्म में अकेली उपस्थिति एक बड़े कैनवास पर जब तक अपनी क्षमताओं की समग्रता में प्रभावी नजर नहीं आती तब तक उसको लेकर किसी भी बात का दावा नहीं किया जा सकता। शरमन जोशी उस तरह से इतने सक्षम दिखायी नहीं देते कि एक पूरी फिल्म को सफलता का पर्याय खुद से बनाकर दिखा सकें। वार छोड़ न यार उनके लिए फेरारी की सवारी की विफलता के बाद फिर एक परीक्षा है। सहनायक बनकर रह जाने की मनोवैज्ञानिकता से वे कैसे बाहर आयें, यह उनके लिए खुद चिन्तन का विषय है।

सोमवार, 30 सितंबर 2013

केतन मेहता की दशरथ माझी

लम्बे समय बाद एक बार केतन मेहता के सक्रिय होने की खबर है। वे उस अनोखे इन्सान पर फिल्म बनाने जा रहे हैं जिसने अपनी पत्नी के प्रेम में पहाड़ काटने का साहस किया था। बहुत से लोग दशरथ माझी का नाम जानते होंगे। अब वे जीवित नहीं हैं लेकिन उनकी ही यह गाथा है कि मजदूरी करते हुए एक दिन अपनी पत्नी की परेशानी से द्रवित होकर उन्होंने पहाड़ काटकर रास्ता बनाने का असाधारण फैसला किया था और सब काम छोड़कर इस काम में जुट गये थे। दशरथ माझी ने आखिरकार अपनी जिद और जीवट का प्रमाण दिया और वह रास्ता चैड़ा कर दिया जहाँ से उनकी पत्नी को आने-जाने में चोट लग जाया करती थी। 

इस जिद को पूरा करने में बीस से भी ज्यादा साल तो लग गये लेकिन बिहार के गया जिले के गहलौर गाँव के इस लोहपुरुष ने इतने लम्बे समय में एक भी क्षण अपनी जिद और जुनून को शिथिल नही होने दिया। यह जरूर दुखद रहा कि तंग पहाड़ को खोल देने का काम जब पूरा हुआ तब तक उनकी पत्नी इस दुनिया से जा चुकी थीं। उन्हें इस बात का दुख बना रहा कि फागुनी देवी उस खुले और बड़े रास्ते पर चलने के लिए जीवित न थीं। कुछ वर्ष पहले दशरथ माझी का भी देहान्त हो गया।

दशरथ माझी का जीवन एक अविस्मरणयी संघर्ष गाथा है जिस पर फिल्म बनाने का ख्याल केतन मेहता को आ गया। केतन मेहता लम्बे समय से अपनी फिल्म रंगरसिया को प्रदर्शित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं जिसके लिए उनको अनुकूल अवसर अभी तक नहीं मिल पाया है। कुछ दिनों पहले ही उन्होंने उम्मीद जतायी है कि शायद वर्षान्त तक वे रंगरसिया को रिलीज कर पायें तो राजा रवि वर्मा से प्रेरित है और रणदीप हुडा और नंदना सेन ने इसे अपनी भूमिकाओं से सुर्खियाँ प्रदान करने का काम किया है।

दशरथ माझी पर माउण्टेन मैन बनाने का ख्याल उनको उनकी संघर्ष गाथा को जानकर आया। यह घटना तो 1960 की है और सच में दशरथ माझी का संघर्ष 1980 तक जारी रहा है। मजदूर, विपत्ति और अभाव में जीते हुए एक आदमी किस तरह एक असाधारण काम कर जाता है, इसका उदाहरण उनका जीवन रहा। गैंग आॅफस वासेपुर से चर्चित नवाजउद्दीन सिद्दीकी ने इस फिल्म में दशरथ माझी की भूमिका निभायी है। उनके लिए यह चुनौतीपूर्ण था लेकिन किरदार को अपने लिए खुद बड़ी चुनौती मानने वाले इस प्रतिभाशाली कलाकार ने दशरथ माझी के गाँव, घर और उस रास्ते पर जाकर, तमाम इतिहास जानकर इस किरदार को निबाहने का निश्चय किया। इसमें राधिका आप्टे ने दशरथ माझी की पत्नी की भूमिका अदा की है।

केतन मेहता ने अपने समय में बड़ी महत्वपूर्ण फिल्में बनायी हैं, भवनी भवई, होली, मिर्च मसाला, हीरो हीरालाल, माया मेमसाब, सरदार, मंगल पाण्डे वगैरह। कुछ विफल फिल्मों से प्रभावित उनकी सक्रियता को दशरथ माझी पर बनी फिल्म शायद लौटा सके, यह कामना की जानी चाहिए।

रविवार, 29 सितंबर 2013

दर्शक को अच्छी फिल्म के पक्ष में करना कठिन है?


सिनेमा और दर्शक दोनों एक-दूसरे के पास आने के लिए दूरियाँ तय करते हैं। अधिक दूरी तय करता है सिनेमा और कम दूरी तय करते हैं दर्शक। सिनेमा मुम्बई से चलकर देश भर में जाता है, जगह-जगह सिनेमाघर, मल्टीप्लेक्सेज़, फन, आयनॉक्स, मेट्रोपॉलिस और शहर के एकल थिएटर बुक किए जाते हैं और फिल्में रिलीज की जाती हैं। दर्शक को अपने घर से निकलकर सिनेमाघर तक आना होता है। दोनों की यात्रा दिलचस्प है, एक सप्ताह में तीन-चार फिल्में प्रदर्शित होती हैं। दर्शक तय करता है कि वो कहाँ जायेगा। अच्छा बैनर, बड़े निर्माता और फायनेंसर मिलकर अधिक सिनेमाघर जुटाने की कला में माहिर होते हैं। यह काम बड़े पहले से हो जाता है। 

अच्छा सिनेमा बनाने वालों के सम्पर्क कम होते हैं और शायद जरा-बहुत इच्छा शक्ति की भी कमी होती है, जो हासिल हो गया वही ले लिया, सिनेमा को लेकर भी उनका सोचना होता है, जितना चल गया, वही ठीक है। दर्शक ने देखा तो ठीक है, नहीं देखा तो उसकी समझ। ऐसा कोई आन्दोलन ठीक तबियत में दिखायी नहीं देता कि दर्शक तक ठीक से अच्छी फिल्में ध्वनित हों। अच्छी फिल्मों का चलना उनकी किस्मत पर निर्भर करता है। भीड़ वहीं खड़ी दिखायी देती है जहाँ निर्माता प्रदर्शन के पहले यह बताने में जुट जाता है कि बड़े-बड़े सन्दूक तैयार हैं जिनमें सौ करोड़ या उससे ज्यादा का कलेक्शन आयेगा। दर्शक भी उसकी इच्छापूर्ति में उत्साह से साथ देता है।

हमारे सामने उदाहरण पिछले हफ्ते का ही है जिसमें एक साथ फटा पोस्टर निकला हीरो और द लंच बॉक्स को रिलीज किया गया है। फटा पोस्टर निकला हीरो तो टिप्स कम्पनी की फिल्म थी जिसके निर्देशक की अपनी अलग पहचान है। हीरो भले कमजोर है, हीरोइन को कोई नहीं जानता मगर प्रतिष्ठित निर्देशक का भी अपना दर्शक वर्ग है। यह फिल्म तमाम सिनेमाघरों में लगी, दूसरी तरफ द लंच बॉक्स को सिंगल स्क्रीन में लगाने की जहमत नहीं उठायी गयी। मल्टीप्लेक्सेज में भी छोटे हॉल में इसको जगह मिली लेकिन जैसे तैसे दर्शक गये क्योंकि पच्चीस-तीस कार्यकारी निर्माताओं सहित अनुराग कश्यप, राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम, सिद्धार्थ राय कपूर, करण जौहर जैसे लोगों का फिल्म निर्माण और वितरण में योगदान था। अच्छी खासी चर्चा, अच्छी फिल्म और माहौल के बाद भी दर्शक को शायद मोटिवेट करना उतना आसान नहीं होता क्योंकि हमारे यहाँ जनरुचि के आगे सारी सार्थकता और सोद्देश्यता धराशायी है। 

फटा पोस्टर निकला हीरो को तमाम बार फालतू फिल्म कहिए, एक डेढ़ सितारा दीजिए और द लंच बॉक्स को मर्म तक पहुँच करने वाली फिल्म मानते हुए तीन-चार सितारे दीजिए फिर भी दर्शक को अच्छी फिल्म के पक्ष में करना कठिन है। यह एक अजीब सा विरोधाभास है। आशावाद की अपनी गति है। अच्छा सिनेमा बन पा रहा है, कभी-कभार उन लोगों का समर्थन भी कई बार पा रहा है जो निहायत व्यावसायिक सिनेमा बनाते हैं फिर भी सेहत के लिए तमाम तरह सजग रहने वाली पीढ़ी मनोरंजन के माध्यम से दिमागी सेहत की स्थितियों की फिक्र करती नजर नहीं आती।

शनिवार, 28 सितंबर 2013

बिसराये, भुलाये सितारों की याद

हिन्दी सिनेमा में लगातार इतनी आमद और प्रवाह है कि बहुत से कलाकार आते-जाते बेहतर काम करते हुए भी हमारी स्मृतियों से ओझल हो जाते हैं। कभी-कभार स्मृतियाँ ताजा होने पर हमें उनको लेकर जिज्ञासाएँ हुआ करती हैं मगर हमारे पास उस तरह की सूचना या सन्दर्भ नहीं हुआ करते जो हम उन कलाकारों के हाल जान सकें जिनके खास किस्म के किरदारों, हावभाव या अन्दाज से वे हमें याद रह गये हैं। आज का समय ऐसा नहीं है जो नयी पीढ़ी उन पुराने कलाकारों को याद कर सके। बहुत से कलाकार ऐसे हैं जो उम्र, स्वास्थ्य और अन्य कठिनाइयों के चलते मुष्किलों में हैं। कुछ संस्थाएँ ऐसी जरूर हैं जो ऐसे कलाकारों को वक्त-वक्त पर मदद करती हैं लेकिन किसी समय लाइम लाइट में रहे और चकाचैंधभरी दुनिया से दूर जा चुके ऐसे लोग अपने अकेलेपन और खासतौर पर उस समय और बाद के लोगों की उपेक्षा और भूला दिये जाने के अवसाद से ग्रस्त रहते हैं।

बीते समय के सुपरिचित गीतकार योगेश ऐसे ही गुमनाम समय में अपने समय को याद करते हैं। उन्होंने बासु चटर्जी, हृषिकेष मुखर्जी सहित अनेक फिल्मकारों के साथ काम किया और गीत लिखे। अपने मधुरतम गीतों जैसे आनंद का जिन्दगी कैसी ये पहेली हाय, मिली का बड़ी सूनी-सूनी है की वजह से उनको काफी नाम अपने समय में मिला था। धीरे-धीरे गीतों में अधकचरापन, फूहड़ता और निरर्थकता का बोलबाला हुआ तो योगेष जैसे गीतकारों की जगह भला कहाँ रहती! वे अनजान होते गये। अपने समय में जिन नये गीतकारों को उन्होंने प्रोत्साहित किया, रास्ता बताया, बाद में उनके पास ही योगेष का पता नहीं था।

चरित्र अभिनेताओं की एक पूरी पीढ़ी इस समय काम से दूर है। अच्छा लगा था जब कामिनी कौषल को एक सीन के लिए ही सही शाहरुख खान ने चेन्नई एक्सप्रेस में दिखाया। हो सकता है इस बहाने उनको मदद करने का उनका नेक ख्याल रहा हो। इसी फिल्म में निर्देषक लेख टण्डन भी इसीलिए लिए गये होंगे। आज के सफल और प्रभाव वाले कलाकार ऐसे काम कर सकते हैं। इन दिनों लम्बे समय से सईद जाफरी का कोई हाल नहीं मिल रहा। वे लगभग पचासी साल के हो चुके हैं और फिल्मों में बरसों से दिखायी नहीं दिए। अभिनेता भरत कपूर फिल्म नूरी के खलनायक के रूप में प्रसिद्ध हुए। वे रंगमंच के कलाकार हैं। इन दिनों दिखायी नहीं देते। सुलभा देषपाण्डे, रोहिणी हट्टगडी नजर नहीं आतीं। शम्मी, चरित्र अभिनेत्री हैं, बड़ी उम्रदराज हो गयी हैं उनका परदे पर आना बन्द हो गया है। रमैया वस्तावैया गाने पर नाचने वाले चन्द्रशेखर बरसों चरित्र कलाकार रहे हैं, सामाजिक कार्यों में उन्होंने अपनी सक्रियता का खासा समय लगाया है। आज भी वे सक्रिय हैं और लगभग नब्बे की उम्र में भी चल-फिर रहे हैं।

याद किया जाये तो बहुत से कलाकार याद आते हैं जिनका पता उनके बहुत सारे सहकर्मियों को भी नहीं मालूम, जैसे व्ही. एम. व्यास, बेला बोस, सुलोचना, पूर्णिमा, इन्द्राणी मुखर्जी, श्रीराम लागू वगैरह। पीढि़याँ अपने बुजुर्गों और पितृपुरुषों को भुला दिया करती हैं, ऐसी पीढ़ी आने वाले समय में खुद भी वैसी त्रासदी के सामने हुआ करती है।

गुरुवार, 26 सितंबर 2013

तमीज़-तमीज़ की हँसी


हमेशा ही परिवारों, मुहल्लों और इससे हटकर लोकप्रियता का आलम बढ़ने पर वाचालपन को अलग से ही रेखांकित किया जाता रहा है। प्रायः परिवारों में कोई बच्चा ऐसा होता है जो अपने हिसाब के तमाम गुणों के विपरीत होता है। अक्सर स्कूलों में जहाँ एक साथ बड़ी संख्या में विभिन्न स्वभाव और गुण-दक्षता के विद्यार्थी होते हैं, एकाध प्रतिभासम्पन्न अलग ही दिखायी देता है। प्रतिभा सकारात्मक और नकारात्मक सभी आयामों में आँक ली जाती है। शैतान, बदमाश, शरारती, चपल और वाचाल जैसे शब्द निश्चित ही सकारात्मक आकलन के विपरीत जाने वाली चीजें हैं लेकिन किसे पता रहता होगा कि ऐसे गुण भी आगे चलकर मनुष्य को ज्यादा लोकप्रिय और किंचित मुग्धप्रभाव के धनी रूप में पहचान बना देने का काम करते हैं।

कपिल शर्मा, जो कि खैर इन दिनों राजू श्रीवास्तव से भी आगे निकल गये और राजू श्रीवास्तव की तरह ही उनके रास्ते लोकप्रियता और धनअर्जन के रास्ते में जाने वाले पन्द्रह-बीस कलाकारों ने भी अपनी-अपनी जगहें बना ही ली हैं, कुछेक को बड़े सम्मानपूर्वक कुछ फिल्म निर्देशकों ने अपनी फिल्मों में भी काम किया जैसे रोहित शेट्टी ने बोल बच्चन में कृष्णा को मौका दिया तो उन्होंने अपने सरकस में जाना छोड़ दिया और सितारा बन गये। उस समय कपिल जरा खिसियाये से रहते थे। रेडी में सुदेश लाहिड़ी को मौका मिला पर बाद में वो कम दिखायी देने लगे। भारती सिंह एक-दो धारावाहिकों में दिखायी दीं मगर ज्यादा प्रतिभा न दिखा पाने के कारण अपनी ही दुनिया में खुद को बनाये रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं।

दरअसल हास्य की मौजूदा स्थितियों और आम आदमी के जीवन में उसकी जरूरत को ये सभी कलाकार एक ऐसी विचित्र सी कारगर दवा बनाकर लाये हैं जिसने फूहड़ता को शिष्ट और कुलीन समाज में अलग सी मान्यता दे दी है। अब सभी हँसोड़ों की जमात में शामिल हैं और भदेस पर भी शर्मसार होने के बजाय ठहाका लगाते हैं या खिलखिलाते हैं। हास्य के सरकसों और दूसरे तथाकथित शो में एक बड़ी खेंप ऐसे कलाकारों की आकर पुरानी पड़ गयी है। आपको शायद दिमाग पर जोर डालना पड़ेगा तब कुछ कलाकार याद आयें।

इधर कपिल शर्मा उस बड़ी खेंप के लगभग आखिरी प्रतिनिधि दिखायी दे रहे हैं मगर यह भी कम बड़ा आश्चर्य नहीं है कि कल तक अपने लिए काम मांगने जाने वाले इस हँसोड़ के दरवाजे तमाम बड़े कलाकार आ जाया करते हैं। कपिल ने फूहड़ता और सस्ते सेंस ऑफ हृयूमर को यहाँ अपनी लोकप्रियता का आधार बनाया है। उनके शो में उनको छोड़कर सभी पुरुष कलाकार स्त्रियों के वेश में हैं। एक उपासना सिंह लम्बे समय सिनेमा में अवसर तलाशते और हताश होते यहाँ खिल्लियों के बाजार का हिस्सा बनी हुई हैं। कुल मिलाकर यह सारा का सारा प्रस्तुतिकरण निहायत ही हल्का और निराशाजनक है। हम सब इसे खूब देखते हुए हँस रहे हैं और ताली बजा रहे हैं यह और भी निराशाजनक है। लगता है कि हँसी को भी अलग-अलग तमीज़ में देखा जाना चाहिए। कपिल की प्रतिभा और हँसाने की दक्षता के स्रोतों की तमीज़ पर खासतौर पर शिष्टतापूर्वक विचार किया जाना चाहिए।

शनिवार, 31 अगस्त 2013

कमजोर अध्यायों का नया पाठ : सत्‍याग्रह




हमारी चेतना में सत्याग्रह शब्द के सरोकार सीधे महात्मा गांधी से जुड़ते हैं। उन्नीसवीं सदी में गांधी जी के संघर्ष के साथ यह शब्द प्रचलन में आया था और गांधी जी ने विस्तार से इसकी व्याख्या भी की थी। प्रकाश झा की नयी फिल्म सत्याग्रह की मूल व्यवहारिक प्रेरणा वही है और इसे प्रमाणित करने की कोशिश करती है फिल्म में प्रयोग में लायी जाने वाली रामधुन, काल्पनिक शहर के चैराहे पर स्थापित गांधी जी की प्रतिमा और सत्य के लिए जूझने वाले एक सेवानिवृत्त प्राचार्य।

हम सभी की स्मृतियों में अम्बिकापुर अविभाजित मध्यप्रदेश और वर्तमान छत्तीसगढ़ राज्य का एक जिला है लेकिन फिल्म का अम्बिकापुर एक काल्पनिक राज्य मध्यभारत का जिला है। मध्यभारत हम ऐसे समझें क्योंकि फिल्म में दो-तीन बार दिखायी देती कैबिनेट बैठकों में मुख्यमंत्री के पीछे यही राज्य प्रमाणित होता है, बहरहाल फिल्म की शुरूआत एक महात्वाकाँक्षी और एक आदर्शवादी पिता की सन्तान दोस्त के मिलने से होती है जो देर रात अपने घर के खुले में एक ही पात्र से शराब पी रहे होते हैं और आदर्शवादी पिता द्वारा देख लिए जाते हैं। पिता की लानतें बेटे के मित्र को रात में ही आटो पकड़कर लौटने पर मजबूर कर देती हैं। इंजीनियर बेटा अपना छोटा सा सपना लेकर जी रहा है लेकिन अगले ही दृश्य में पुल गिरने का हादसा और नियोजित दुर्घटना में उसकी मौत पिता और नवब्याहता के लिए वज्रपात है। उसके मुआवजे के लिए चक्कर लगाते हुए भ्रष्ट व्यवस्था से पिता दादू लड़ जाते हैं और कलेक्टर को थप्पड़ मार देते हैं। कहानी यहीं से अपने यथा नाम तथा गुण की तरफ आगे बढ़ती है। 

दादू को अकेले देखकर लानत खाया दोस्त इमोशनली लौट आता है, इधर एक निष्काशित और दिशाहीन छात्र, एक बड़े चैनल की पत्रकार और फिर सत्याग्रह के लिए बढ़ता कारवाँ, उसका सरकार से टकराव, समस्या के निराकरण के लिए अपने सिद्धान्तों के अनुकूल काम करने के दबाव और खलनायक बने मंत्री और मंत्रीमण्डल के बीच अन्त तक संघर्ष चलता है। दमन बल से हारा सत्याग्रह दादू के प्राणोत्सर्ग से खत्म होता है। सत्याग्रह के शेष औजार फिर अपनी धार पैनी करने का भावुक संकल्प करते हैं।

अमिताभ बच्चन, अजय देवगन, अर्जुन रामपाल, मनोज वाजपेयी और करीना कपूर पाँच सितारों की उपस्थिति में इस फिल्म को समग्रता में दो सितारा से अधिक मानना कठिन होता है, खासकर ऐसे वक्त में जब अभी-अभी ही हमने अपेक्षाकृत नये सितारों की राँझणा, काई पो चे और लुटेरा जैसी अच्छी फिल्में देखी हों। सत्याग्रह एक मुकम्मल पटकथा के साथ बनायी गयी फिल्म नहीं लगती। बीच-बीच में बहुत सी चीजें अधूरी छोड़ दी गयी हैं, जिनमें दादू के बेटे की मृत्यु का रहस्य भी शामिल है। 



फिल्म अमिताभ बच्चन की केन्द्रीय भूमिका के साथ शुरू होती है, वे पूरी फिल्म परदे पर अत्यन्त व्यथित छबि से साथ दीखते रहते हैं। उनका प्रभाव अब ऐसा हो चला है कि किरदार भी गौण हो जाता है। आरम्भ में जिस तरह से वे पैसों के पीछे भागने वाले युवाओं और पैसा ही जीवन का उद्देश्य मानने को लेकर नाश्ते की टेबल पर बेटे के दोस्त से तकरीर करते हैं वह स्वयं उनको देखते हुए बेहद विरोधाभासी और अग्राह्य लगती है। गौरतलब है कि वे मैगी से कुकीज तक के विज्ञापन कर रहे हैं। फिल्म में अजय देवगन की वापसी के वादे-वचन निभाये गये हैं, अच्छी उपस्थिति है लेकिन इस बार अर्जुन रामपाल कमजोर हो गये। यहाँ अपना वजूद बनाये रखने में मनोज बाजपेयी अपनी क्षमताओं से कामयाब हुए हैं। करीना, अमृता राव के बारे में क्या कहें!! 

भरपूर एक्स्ट्राज के साथ दृश्य विहँगम रचने में माहिर प्रकाश झा राजनीति और आरक्षण की तरह यहाँ भी सफल रहे हैं। सत्याग्रह सिस्टम के स्याह पक्षों को कमजोर प्रतिवाद संरचना के साथ सामने लाती है, इसीलिए प्रभावित नहीं कर पाती। वे अपनी फिल्मों में अच्छा गीत-संगीत इस्तेमाल करते हैं मगर उसके लिए भी वातावरण नजर नहीं आता और न ही वैसी रूमानी संवेदना। फिल्म में आयटम सांग भी निरर्थक है जिसका अर्थ स्पष्ट नहीं होता। अच्छा कैमरावर्क जरूर है। कुल मिलाकर निर्देशक की पिछली दो-तीन फिल्मों ही तरह ही सत्याग्रह भी है, इससे ज्यादा क्या कहें?