सिनेमा और दर्शक दोनों एक-दूसरे के पास आने के लिए दूरियाँ तय करते हैं। अधिक दूरी तय करता है सिनेमा और कम दूरी तय करते हैं दर्शक। सिनेमा मुम्बई से चलकर देश भर में जाता है, जगह-जगह सिनेमाघर, मल्टीप्लेक्सेज़, फन, आयनॉक्स, मेट्रोपॉलिस और शहर के एकल थिएटर बुक किए जाते हैं और फिल्में रिलीज की जाती हैं। दर्शक को अपने घर से निकलकर सिनेमाघर तक आना होता है। दोनों की यात्रा दिलचस्प है, एक सप्ताह में तीन-चार फिल्में प्रदर्शित होती हैं। दर्शक तय करता है कि वो कहाँ जायेगा। अच्छा बैनर, बड़े निर्माता और फायनेंसर मिलकर अधिक सिनेमाघर जुटाने की कला में माहिर होते हैं। यह काम बड़े पहले से हो जाता है।
अच्छा सिनेमा बनाने वालों के सम्पर्क कम होते हैं और शायद जरा-बहुत इच्छा शक्ति की भी कमी होती है, जो हासिल हो गया वही ले लिया, सिनेमा को लेकर भी उनका सोचना होता है, जितना चल गया, वही ठीक है। दर्शक ने देखा तो ठीक है, नहीं देखा तो उसकी समझ। ऐसा कोई आन्दोलन ठीक तबियत में दिखायी नहीं देता कि दर्शक तक ठीक से अच्छी फिल्में ध्वनित हों। अच्छी फिल्मों का चलना उनकी किस्मत पर निर्भर करता है। भीड़ वहीं खड़ी दिखायी देती है जहाँ निर्माता प्रदर्शन के पहले यह बताने में जुट जाता है कि बड़े-बड़े सन्दूक तैयार हैं जिनमें सौ करोड़ या उससे ज्यादा का कलेक्शन आयेगा। दर्शक भी उसकी इच्छापूर्ति में उत्साह से साथ देता है।
हमारे सामने उदाहरण पिछले हफ्ते का ही है जिसमें एक साथ फटा पोस्टर निकला हीरो और द लंच बॉक्स को रिलीज किया गया है। फटा पोस्टर निकला हीरो तो टिप्स कम्पनी की फिल्म थी जिसके निर्देशक की अपनी अलग पहचान है। हीरो भले कमजोर है, हीरोइन को कोई नहीं जानता मगर प्रतिष्ठित निर्देशक का भी अपना दर्शक वर्ग है। यह फिल्म तमाम सिनेमाघरों में लगी, दूसरी तरफ द लंच बॉक्स को सिंगल स्क्रीन में लगाने की जहमत नहीं उठायी गयी। मल्टीप्लेक्सेज में भी छोटे हॉल में इसको जगह मिली लेकिन जैसे तैसे दर्शक गये क्योंकि पच्चीस-तीस कार्यकारी निर्माताओं सहित अनुराग कश्यप, राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम, सिद्धार्थ राय कपूर, करण जौहर जैसे लोगों का फिल्म निर्माण और वितरण में योगदान था। अच्छी खासी चर्चा, अच्छी फिल्म और माहौल के बाद भी दर्शक को शायद मोटिवेट करना उतना आसान नहीं होता क्योंकि हमारे यहाँ जनरुचि के आगे सारी सार्थकता और सोद्देश्यता धराशायी है।
फटा पोस्टर निकला हीरो को तमाम बार फालतू फिल्म कहिए, एक डेढ़ सितारा दीजिए और द लंच बॉक्स को मर्म तक पहुँच करने वाली फिल्म मानते हुए तीन-चार सितारे दीजिए फिर भी दर्शक को अच्छी फिल्म के पक्ष में करना कठिन है। यह एक अजीब सा विरोधाभास है। आशावाद की अपनी गति है। अच्छा सिनेमा बन पा रहा है, कभी-कभार उन लोगों का समर्थन भी कई बार पा रहा है जो निहायत व्यावसायिक सिनेमा बनाते हैं फिर भी सेहत के लिए तमाम तरह सजग रहने वाली पीढ़ी मनोरंजन के माध्यम से दिमागी सेहत की स्थितियों की फिक्र करती नजर नहीं आती।
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