गुरुवार, 30 जून 2011

सत्तर के दशक का मोहपाश


ऐसा लगता है कि सौ साल के सिनेमा में सत्तर का दशक ही ऐसा था जिसमें चमत्कार हुए। फराह खान ने ओम शान्ति ओम के जरिए इस आइडिया को क्या कैश कराया, सब के सब इस दशक के पीछे ही पड़ गये। व्यावसायिक सफलता का फार्मूला सभी को अब सत्तर के साल में ही दिखायी देने लगा है। यह ऐसी मुन्नी हो गयी कि पूरी भीड़ ही इसके इर्द-गिर्द नाच रही है। बुड्ढा होगा तेरा बाप इसका ताजा उदाहरण है।

सत्तर के दशक में अपने आगमन से लेकर पराभव तक की स्थितियों में पहुँचने वाले महानायक खुद अपने समय को याद कर रहे हैं। पुरी जगन्नाथ दक्षिण के सिनेमा के फिल्मकार हैं, पहले उनको सत्तर के दशक के सिनेमा की स्थितियाँ समझायी गयी होंगी फिर कहा गया होगा कि जो कुछ भी आपके दिमाग में है, वो छोंको, बघारो लेकिन कढ़ाई सत्तर के दशक की ही रहेगी, सो पैंसठ साल की उम्र में मुकद्दर के सिकन्दर वाले अमिताभ बच्चन को आप दो दिन बाद देख डालिए और अपनी राय दीजिए।

ओम शान्ति ओम से लेकर दबंग तक यह फार्मूला खूब परवान चढ़ा है। सलमान खान दबंग के जरिए एक बड़ी आतिशबाजी का मजा लेकर सत्तर के दशक के फण्डे को वहीं छोडक़र रेडी से बॉडीगार्ड तक आज के समय के सिनेमा को आजमाने के उत्साह में लग गये हैं लेकिन उस दशक के तिलों से तेल निकालने का मोह कुछ निर्माता-निर्देशक अभी भी नहीं छोड़ पाये हैं। सिनेमा में सत्तर का दशक कोई मापदण्ड या लैण्डमार्क नहीं है। वास्तव में या कहें दरअसल, अच्छा सिनेमा सत्तर के दशक के पहले तक ही बनता रहा है। उन दशकों में हमारे माहिर न जाने क्यों जाना नहीं चाहते।

यह बात सही है कि सत्तर के दशक में सिनेमा में व्यावसायिक सफलता और सितारा हैसियत एक नये चार्म पर दिखायी दी मगर एक्सीलेंस ऑफ सिनेमा के लिए तभी से जगह कम पडऩे लगी। आज जगह पूरी तरह जिस तरह की फिल्मों ने घेर ली है, उसके उदाहरण हर शुक्रवार को पेश हुआ करते हैं। हम-आप सब इसके गवाह भी हैं।

मगर, जी कैसे कड़ा किया जाये?


हीरोशिप से कोई रिटायर नहीं होना चाहता। हिन्दी सिनेमा का नायक ताउम्र हीरो बना रहना चाहता है। हीरो बने रहने के लिए उसे अपने से आधी या उससे भी कम उम्र की हीरोइन साथ काम करने को मिल जाये तो फिर कहना ही क्या? अमिताभ बच्चन भी चीनी कम में तब्बू के हीरो बनकर आ गये। यह विश्वास कर पाना बड़ा कठिन हो पाता है कि अब हीरो के बजाय हीरो-हीरोइन का पापा बनकर आना चाहिए।

कई नायक इस तरह की चुनौतियों से जूझकर हार रहे हैं मगर समझौता नहीं करना चाहते। खासतौर पर इनमें संजय दत्त का नाम आता है जो पिछली एक फिल्म ब्ल्यू में लारा दत्ता के साथ रोमांस करते बड़े खराब ढंग से दिखायी दिए। कुछ समय पहले ही गोविन्दा भी नॉटी फॉट्टी में शायद अपने कैरियर की लगभग अन्तिम बाजी हारते दिखायी दिए।

बहुत से नायक ऐसे हैं जिनके सिर से बाल जाते रहे मगर अजय देवगन, गोविन्दा जैसे ये कलाकार यह बात स्वीकारने को तैयार नहीं हैं कि अब दिन लद गये हैं। अनिल कपूर के साथ तो यह समस्या लम्बे समय तक रही। उनकी बेटी सोनम एक तरफ हीरोइन बनकर साँवरिया फिल्म में आ गयी थी दूसरी तरफ वे लम्बे समय से कोई नया काम इसीलिए हाथ में नहीं ले पा रहे थे क्योंकि उनका कैरियर एक अलग मोड़ पर आकर उनके निर्णय का इन्तजार कर रहा था।

कहा जाता है कि उनको नायक या नायिका के पिता का प्रस्ताव बहुत अप्रिय लगता था। वे अपेक्षा करते थे कि निर्देशक कहानी सुनाते हुए उनको बतायेगा कि उनकी हीरोइन कौन है, जबकि निर्देशक उनको यह बताने आता था कि वे हीरो नहीं बल्कि पिता का रोल कर रहे हैं। अपनी उम्र और पीढ़ी में सर्वाधित प्रतिभाशाली अनिल कपूर अभी भी सहज नहीं हो पाये हैं। दो-तीन अच्छी फिल्में उनके हाथ में हैं मगर आखिरकार उनको अपना रास्ता बदलना तो पड़ेगा ही।

एक ठो चांस सईद अख्तर मिर्जा


समय की अपनी गति द्रुत है। सईद अख्तर मिर्जा को आज हम लगभग सत्तर में देख रहे हैं क्योंकि आज उनका जन्मदिन है। दो साल पहले उन्होंने अपनी एक फिल्म पूरी की, एक ठो चांस जो पता नहीं कहाँ है? रिलीज तो हुई नहीं, बनी रखी है कहीं। दस-बारह साल सईद पता नहीं कहाँ-कहाँ यायावरी करते रहे। अलमस्त मूड का यह फिल्मकार तसल्ली की जिन्दगी जीना पसन्द करता है मगर उसके सिनेमा में गजब की ऊष्मा दिखायी देती है। अपने बहुत से अगुआ और पिछुआ के बीच सईद ने अपने ढंग का सिनेमा बनाया और प्रतिष्ठा कायम की।

सईद की फिल्में क्रान्ति की संयत अवस्था को पेश करती हैं, ऐसा लगता है कि इस संयत अवस्था को नजरअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए। लहीम-शहीम कद-काठी वाले सईद तार्किक ढंग से अपनी स्थापनाएँ रखते हैं, उनको संजीदगी से सुनना ही होता है। पन्द्रह-बीस सालों की सघन सक्रियता जो कि लगभग चालीस की उम्र के बाद ही शुरू हुई, अनेक महत्वपूर्ण फिल्मों के साथ रेखांकित होती है, मोहन जोशी हाजिर हो, अलबर्ट पिण्टो को गुस्सा क्यों आता है, सलीम लँगड़े पे मत रो, नसीम आदि। वे उपेक्षा और अव्हेलना करने पर भयावह हो जाने वाली अराजकता को अपने सिनेमा में बड़ी फिक्र के साथ पेश करते हैं वहीं उनके सिनेमा में आदमी के रूप में उस बहुत से हिस्से को दिखाये जाने की चाह होती है, जो उम्र, हैसियत और तमाम सदाचारों के बावजूद किसी गिनती में नहीं हैं।

अपनी फिल्मों की लोकेशन के लिए उनको बरसों भटकते देखा है। नसीम में कैफी आजमी से गहरा अभिनय करा ले जाना उन्हीं से जैसे सम्भव था। सईद पिछली और उसके पहले की अन्तिम फिल्म के बीच खूब घूमते फिरे, माँ के साथ। एक किताब भी लिखी। फिल्म बनाना भूल नहीं पाये थे तो एक ठो चांस बनायी। अब इस बीच उनको फिल्म एवं टेलीविजन प्रशिक्षण संस्थान पुणे में अध्यक्ष बना दिया गया है, सो वे एक नयी भूमिका में हैं, शायद सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष उन्हें पहले बनाया जा रहा था, जिसके लिए उन्होंने इन्कार कर दिया था।

सोमवार, 27 जून 2011

आमिर खान की दृष्टि और आकलन


गहरे जीवट के धनी व्यक्ति अपने जीवन में कुछ ऐसे सिद्धान्त बनाकर चलते हैं जिनका पालन वे हर स्थिति में करते हैं। सम-विषम परिस्थितियों में भी वे अपनी जगह से नहीं डिगते और अपनी दृढ़ता से उस समय का सामना करते हैं जो अनुकूल या प्रतिकूल होकर उनके सामने आता है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो सुरक्षित और सक्षम अवस्था में अपनी दृष्टि और दृष्टान्त को स्थापित करते हैं, इस तरह की वे अपनी व्यापक छबि और पहचान के साथ उन खूबियों से भी जाने जायें जिनके अपने मूल्य हैं और आदर्श के मापदण्ड में उन्हें खरा उतरना है या प्रभावित करना है।

अभिनेता आमिर खान के बारे में इन्हीं दायरों के बीच सोचने का विचार बनता है। एक तो वे अपनी पर्सनैलिटी में खासे खूबसूरत और आकर्षक हैं दूसरे अपनी क्षमता और काबिलियत में भी सर्वगुण सम्पन्न। अपनी पीढ़ी में आमिर खान ही ऐसे कलाकार हैं जो अपने केवल किरदार भर को ही नहीं बल्कि अपनी पूरी फिल्म को बड़ी गम्भीरता से लेते हैं। वे इस बात को मानते हैं कि कोई भी फिल्म केवल खुद के बेहतर किए ही बेहतर नहीं बन सकती, उसके तमाम सारे अन्य अनेक आयामों को भी उसी अनुपात में बेहतर होना चाहिए। यही कारण है कि उनकी हर एक फिल्म उनके लिए एक मिशन की तरह होती है।

आमिर अपनी हर फिल्म के साथ खुद की गम्भीरता और अनुशासन से जुड़ते हैं और चूँकि वे नायक होते हैं लिहाजा केन्द्र में होने के कारण सबके लिए मान्य भी होते हैं। टीम उनके अनुकूल काम करके फक्र महसूस करती है। इस तरह यदि कोई फिल्म सारे समर्पण और जिम्मेदारी के साथ बनकर सामने आती है तो उसकी उत्कृष्टता पर तो कम से कम सन्देह नहीं होता, व्यावसायिक सफलता बात अलग है। व्यावसायिक सफलता के अपने कारण और निवारण होते हैं जो कभी-कभी उत्कृष्टता को भी चुनौती देते दिखायी पड़ते हैं।

टाइटन घड़ी के लिए किया उनका एक विज्ञापन इन दिनों टेलीविजन के विभिन्न चैनलों पर दिखाया जा रहा है जिसे बहुत पसन्द किया गया है। एक मैनेजिंग डायरेक्टर, मैकेनिक की तरह घर में आता है और उपकरण सुधारकर जाता है। घर के मुखिया के द्वारा विजीटिंग कार्ड देखे जाने पर मैनेजिंग डायरेक्टर कहकर विस्मय से उनकी ओर देखने पर उनका जवाब होता है, काम कोई छोटा या बड़ा नहीं होता। अतुल्य भारत के लिए भी उनके कैम्पेन बहुत महत्वपूर्ण हैं। आमिर खान बहुत सारी इक_ा खूबियों के मालिक हैं। वे जीवन और समय से बहुत कुछ सीखे-परखे दिखायी देते हैं। यही कारण है कि तुलनात्मक रूप से वे अपने समकालीनों से आगे हैं।

रविवार, 26 जून 2011

दिल चाहने से जिन्दगी न मिलने तक


जावेद अख्तर और हनी ईरानी की विरासत को अपनी क्षमता और सक्रियता से आगे बढ़ाने वाले उनके बेटे फरहान अख्तर और बेटी जोया अख्तर लीक से अलग हटकर अच्छा काम करते हुए अपनी अलग धारा की तलाश में हैं। जोया अख्तर केवल निर्देशक रहना चाहती हैं और फरहान के लिए केवल निर्देशक बने रहना कम पड़ता है लिहाजा वे नायक भी बनकर फिल्मों में आते हैं। जावेद अख्तर को तो खैर उनकी कलम के लिहाज से खूब जाना गया है मगर हनी ईरानी ने भी यश चोपड़ा और राकेश रोशन के लिए पटकथाएँ लिखी हैं।

फरहान अख्तर, हनी के बेटे ने अब से दस साल पहले दिल चाहता है नाम की एक बड़ी खूबसूरत और जज्बाती फिल्म बनायी थी जिसमें आमिर खान, अक्षय खन्ना और सैफ अली खान की भूमिकाएँ थीं। एक दशक पहले के समय और उस समय के युवा, उनकी जिन्दगी, सपने और चुनौतियों को दिल चाहता है में फरहान ने अपनी कल्पनाशीलता और निगाह दी थी। इस फिल्म की बड़ी तारीफ भी हुई थी। जावेद अख्तर के वरिष्ठ सहभागी सलीम खान साहब ने फरहान के इस काम से खुश होकर फिल्मफेयर की अपनी वो ट्रॉफी उन्हें तोहफे में दे दी थी जो उन्हें दीवार के लिए मिली थी।

समय बदता है, अब दस बरस बाद जोया अख्तर ने जिन्दगी न मिलेगी दोबारा के रूप में ऐसी फिल्म बनायी है जिसमें फिर तीन दोस्त हैं, ऋतिक रोशन, अभय देओल और फरहान अख्तर। तीनों की परिपक्वता आज के समय के नायकों से ज्यादा है, खासकर युवा नायकों से। दस साल पहले दिल चाहता है में दिल को टटोला गया था और अब दस साल बाद जिन्दगी की अहमियत को लेकर बात की गयी है। यह ऐसे समय की फिल्म है जब जिन्दगी के मोल और अस्थिरता को लेकर समाज और हमारे आसपास एक तरह की अंधगति और वो भी नासमझ किस्म की दिखायी देती है। ऐसे माहौल में फिल्म का नाम सचेत करता है और अपनी तरफ आकर्षित भी करता है।

जोया अख्तर की यह फिल्म निश्चित ही जिज्ञासा में देखी जायेगी, इसे नाहक खारिज करना आसान न होगा। फिल्म में सितारा आकर्षण भी खासा है। ऋतिक रोशन, जोया की कद्र, हनी ईरानी के प्रति अपने असीम आदर की वजह से करते हैं जिनकी लिखी फिल्मों ने उन्हें बड़ा सितारा बनाया। यही कारण था कि जोया की पिछली फिल्म लक बाय चांस में भी हिृतिक की विशेष भूमिका थी। इस बार जिन्दगी न मिलेगी दोबारा मुख्य रूप से ऋतिक के ही कंधों पर है, अभय और फरहान, जोया की लिखी इस पूरी फिलॉसफी में उनके सहभागी।

शनिवार, 25 जून 2011

रघुवीर यादव और मैसी साहब


मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर का एक युवा अचानक उस समय लाइम लाइट में आ गया जब उसकी पहली फिल्म मैसी साहब चर्चा में आयी। प्रदीप कृष्ण निर्देशित यह फिल्म 1985 में प्रदर्शित हुई थी। राष्ट्रीय पुरस्कारों के साथ-साथ इस फिल्म को देश-विदेश के कई फिल्म समारोहों में सराहा गया। रघुवीर यादव, छोटी कद-काठी, अत्यन्त सामान्य नैन-नक्श वाले युवा थे। मैसी साहब से पहले उनको कोई नहीं जानता था और मैसी साहब के बाद सब उन्हें जानने लगे। पचमढ़ी में फिल्मायी गयी इस फिल्म की चर्चा इस रविवार हम कर रहे हैं। पच्चीस साल पहले की यह फिल्म पराधीन भारत में अंग्रेज साहिबान और उनके अधीन काम करने वाले अपने देश के लोगों की स्थितियों पर चित्रित होती है।

कहानी एक अंग्रेज अधिकारी और उसके अधीन भारतीय क्लर्क के बीच सरकारी कामकाज और उनकी परिस्थितियों के बीच घटित होती है। अंग्रेज अधिकारी के जिम्मे विकास का काम है। वह सुदूर अंचल में पदस्थ है। उसकी देखरेख में सडक़ निर्माण का काम हो रहा है। एक बाबू सारे अफसर के निर्देश पर कार्य को अंजाम देता है। सडक़ निर्माण का काम अभी पूरा नहीं हुआ है और उस मद का बजट खत्म हो जाता है। अफसर आदेश देता है कि काम रोक दिया जाये। अपनी स्थितियों को बनाये रखने की मजबूरी, बाबुई खुशामदगीरी और चाटुकारिता में खुशी-खुशी शामिल क्लर्क अफसर को सुझाव देता है कि दूसरे मदों में उपलब्ध रुपया इसमें इस्तेमाल किया जा सकता है, जो बाद में राशि प्राप्त होने पर उसी मद में रख दिया जायेगा। पहले के अधिकारियों ने ऐसा किया भी है, यह कोई नयी बात नहीं है।

अफसर मैसी का सुझाव मान लेता है, काम चल निकलता है, इसी बीच अंग्रेज अफसर लम्बी छुट्टी पर चला जाता है। सरकारी आडिट होता है और मैसी को इस घपले का दोषी पाया जाता है। मैसी को नौकरी से निकाल दिया जाता है। अब मैसी का पूरा जीवन संकट में आ गया है। अफसरों की जी-हुजूरी करते हुए छोटी-मोटी शान-शौकत उसकी भी बन गयी थी। मरजी की शादी भी उसने कर ली थी। बच्चा भी हो गया है। लेकिन अब उसकी सुनवाई करने वाला कोई नहीं है और वह सिद्ध अपराधी है।

मैसी साहब को विश्लेषित करते हुए प्रख्यात समीक्षक मनमोहन चड्ढा ने एक जगह लिखा है कि मैसी साहब फाइल संस्कृति की विरासत पर व्यंग है, जहाँ लेखा-बहियों का मुँह भरना, उन्हें ठीक-ठाक रखना ही सबसे जरूरी काम है। मैसी हिन्दुस्तानी मानस का प्रतीक है, जो अंग्रेज दिमाग की दुविधा को समझे बिना उसे उन्नति का मसीहा मानकर अपने मालिक के लिए सब कुछ करने के लिए तैयार है। रघुवीर यादव और नायिका अरुंधति राय फिल्म के सहज पात्र बनकर याद रह जाते हैं। मैसी साहब एक महत्वपूर्ण और दुर्लभ फिल्म है जिसका आइना हमारी आँखें चुँधिया देता है।

गुरुवार, 23 जून 2011

अब किस करिश्मे की उम्मीद?



हम लोग अक्सर यह बात करते रहते हैं कि लाइम लाइट में बने रहने वाले कलाकारों के लिए वो वक्त काटना बहुत कठिन हो जाता है जब उनके पास काम नहीं होता। आसानी से कोई रिटायर नहीं होना चाहता। लोग रिटायर होने की घोषणाएँ करते हैं मगर कुछ ही सालों में फिर कैमरे के सामने आकर खड़े हो जाते हैं। पूछे जाने पर, अपने पहले के कहे की पुनर्व्याख्या करते हैं और काम पर लग जाते हैं, तब तक जब तक शेष पूछ-परख जारी रहती है।

हीरोइनों के लिए यह सबसे कठिन होता है कि उनके शादी-ब्याह या फिर फिल्में फ्लॉप हो जाने के बाद लोग उनको अपनी फिल्मों के लिए साइन करने नहीं आते। श्रीदेवी इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण हैं, वे बरसों से फिल्मों में एक बार फिर से आने के लिए परेशान हैं। उनके साथ के बहुत से नायक रिटायर हो गये मगर बहुत से नायक अभी भी काम कर रहे हैं। माधुरी दीक्षित की बेचैनी भी कम नहीं है। उनके लिए भी परदे से दूर रह पाना आसान नहीं है। यश चोपड़ा ने उनको अपने कैम्प में आजा नच ले से मौका दिया था मगर फिल्म नहीं चल पायी। इसके बावजूद माधुरी शाहरुख, सलमान, अक्षय, आमिर और यहाँ तक कि बुढ़ाते संजय दत्त को देखकर सोचती होंगी कि उनके नायक इधर अभी तक मैदान में जमे हुए हैं, बीस-पच्चीस साल की हीरोइनों के साथ काम कर रहे हैं, वहीं उनको माँ के रोल भी ऑफर नहीं हो रहे।

करिश्मा कपूर भी एक समय नम्बर वन की पोजीशन में थीं। राजा हिन्दुस्तानी फिल्म उनके कैरियर का शायद चरम थी। अभिषेक बच्चन के साथ उनकी शादी होते-होते नहीं हुई। बाद में उन्होंने शादी की तब चार-पाँच साल उनके पास मौके नहीं रहे, यद्यपि कैमरा, लाइट, एक्शन का माहौल वे भुला नहीं पायीं। अब फिर खबर है कि उनको एक फिल्म के लिए अनुबन्धित कर लिया गया है। वे आतुर हैं एक बार फिर अपनी आजमाइश को लेकिन सवाल यही है कि अब सिनेमाघरों में उनके समय की पीढ़ी फिल्म देखने नहीं जाया करती। वो अब धीरे-धीरे करीना को भी भूल रही है। ऐसे में उनकी यह वापसी कितनी सफल होगी, कहा नहीं जा सकता।

पिछले दस साल से उनकी एक फिल्म जमानत बनकर तैयार है लेकिन उसके प्रदर्शन का अवसर नहीं आ पा रहा। जमानत उन एस. रामनाथन की फिल्म है, जो बच्चन साहब को बॉम्बे टू गोवा से लेकर आये थे और उन्हीं की तीन भूमिकाओं वाली फिल्म महान भी उन्हीं ने बनायी थी। बच्चन साहब चाहें तो अपने भागीरथी की फिल्म, भले वो फ्लॉप ही हो जाये, सिनेमाघर तक लाने में अहम भूमिका अदा कर सकते हैं क्योंकि रामनाथन इस समय कठिन परिस्थितियों में हैं।

बुधवार, 22 जून 2011

ब्रम्हचारी से चिल्लर पार्टी तक


बच्चों को लेकर, बच्चों से लेकर बड़ों तक के लिए सिनेमा बनाना एक बड़ी चुनौती है। ऐसा लगता है कि कच्ची और मुलायम मिट्टी आपके हाथ में है और आपको आकार गढऩे में आसानी होगी, मनचाहा मोड़ देने में आसानी होगा मगर ऐसा होता नहीं है। बड़े कलाकारों के साथ काम करते रहने वाले महारथी भी इस मामले में अपने आपको असहज महसूस करते हैं। बाल चित्रकला प्रतियोगिता करवा लेना, बच्चों से वाद-विवाद या भाषण प्रतियोगिता करवा लेना, खेलकूद से लेकर गीत-संगीत और नाटक तक में जोड़ लेना- ये सभी काम उस आयाम में सहभागी होते ही उसकी चुनौतियाँ भी बतलाते हैं। इसी तरह सिनेमा का भी है।

बच्चों का सिनेमा बनाना आसान नहीं होता। न उनको साथ लेकर और न ही उनके लिए। अभी इन दिनों एक फिल्म चिल्लर पार्टी की चर्चा खूब है। यह फिल्म अगले महीने प्रदर्शित होने जा रही है। इसके प्रोमो टेलीविजन के विविध चैनलों में दिखाये जा रहे हैं। चिल्लर पार्टी फिल्म के निर्माता सलमान खान हैं। सलमान धीरे-धीरे, अपने फाउण्डेशन के माध्यम से कुछ अच्छी फिल्मों के निर्माण का लक्ष्य रखते हैं। यह उपक्रम उसी दृष्टि का है। चिल्लर पार्टी की बात करते हुए पिछली कुछ फिल्में याद आती हैं, जिनमें खासतौर से शम्मी कपूर की फिल्म ब्रम्हचारी है जिसमें नायक बहुत सारे ऐसे बच्चों का भाई और अविभावक है जिनके माता-पिता का का पता नहीं है।

चक्के पे चक्का, चक्के पे गाड़ी, गाड़ी में निकली, अपनी सवारी, गाना इस फिल्म का ही है, जिन्होंने यह फिल्म देखी है, उनके जेहन में इस गाने के साथ ही घटित होती फिल्म की धुँधली ही सही, छबियाँ एकत्र होती होंगी। यह फिल्म इस तरह की पहली पहल थी, बाद में मिस्टर इण्डिया के रूप में ब्रम्हचारी दोहरायी गयी। बच्चों का सिनेमा कई आयामों में बँटा हुआ है, पर अविभावकविहीन बच्चों के मानस को लेकर बनती फिल्में आपको एक अलग मन:स्थिति में ले जाती हैं।

चिल्लर पार्टी भी उसी तरह की फिल्म है। हालाँकि चिल्लर पार्टी के बच्चे आज के ऐसे समय के सच को सामने लाते हैं, जिसमें उनका पूरा बचपन कुदृष्टियों के निशाने पर है। सलमान इस फिल्म को बड़ी रुचि के साथ प्रोत्साहित भी कर रहे हैं। देखना होगा, ब्रम्हचारी और मिस्टर इण्डिया के रास्ते चिल्लर पार्टी किस प्रभाव में हमारे सामने आती है?

मंगलवार, 21 जून 2011

सफलता-विफलता के प्रारब्ध


सिनेमा के क्षेत्र में अपने-अपने दाँव लगाने का खेल बड़ा मुश्किल होता है। पिछले कुछ समय से इस खेल में भव्यता और खर्च की परवाह नहीं की जाती। लॉबिंग और अपना खेमा या टीम बनाकर भी बरसों-बरस आजमाइशें जारी रहती हैं। कोशिश करने वालों में या इस रास्ते में भी हिम्मत न हारने वालों के हौसले की दाद है कि वे हार नहीं मानते। बार-बार खारिज होने और भविष्य में भी सम्भानाओं की गति पता नहीं लगने के बावजूद धन, समय और हौसले की बरबादी जारी रहती है।

इधर दर्शक है कि वह अब सिरे से ही नकार दिया करता है, चेहरों को, सिनेमा को और उसके पूरे के पूरे रूपक को जो बे-मतलब गढ़ा जाता है। राजेन्द्र कुमार के बेटे कुमार गौरव पहली सुपरहिट लवस्टोरी फिल्म के बाद कहाँ हैं, पहचान में ही नहीं आते। शशि कपूर के बेटे कुणाल कपूर और करण कपूर का भी पता नहीं है। राजकुमार के बेटे पुरु राजकुमार का भी पता नहीं है। अब इधर लाइन में लगे हैं अभिषेक बच्चन, तुषार कपूर और न जाने क्यों इस श्रेणी में जुड़ते दीख रहे इमरान खान। हालाँकि इमरान खान के लिए आमिर खान के हौसले बुलन्द हैं। लगान बना लेने के बाद कुछेक फिल्मों में निर्माता के रूप में आमिर ने सराहना और सफलता दोनों हासिल की है।

इसी भरोसे उनको लगता है कि वे इमरान के लिए भी रास्ता बना लेंगे मगर लगता है कि दर्शक ने इमरान को ऐसी तवज्जो दो-तीन फिल्मों में काम कर लेने के बावजूद नहीं दी है जिससे उनका भविष्य उज्जवल दिखायी देने लगे। अभी एक और फिल्म इमरान की आ रही है मगर उसका हाल भी अन्दाजे में आ गया है। तुषार कपूर ने अपनी सफलता के लिए बहुत हाथ-पैर मारे। कितनी ही तरह की भूमिकाएँ जी-जान एक करके निभायीं मगर दर्शक उनके लिए इतना आश्वस्त है कि उत्साहित होने को उत्सुक ही नहीं दीखता। तुषार कपूर, यश चोपड़ा के बेटे उदय चोपड़ा की तरह ही हिम्मत न हारने वाले कलाकार हैं मगर दर्शक अन्तत: दर्शक है, वह व्यर्थ मुलायम होने के फेर में नहीं पड़ता क्योंकि अब फिल्म देखना भी दस गुना मँहगा सौदा हो गया है और खराब फिल्म देखना बड़े हादसे से कम नहीं है।

अभिषेक बच्चन को लेकर अब एक मजाक यह चलने लगा है कि उनकी एक ही फिल्म और उसके तमाम सीक्वेल सुपरहिट हैं, पूछा जाता है, कौन से, जवाब मिलता है, नो आइडिया। आइडिया और अभिषेक ही एक-दूसरे के खेवनहार हैं अब, ऐसा लगता है। अस्थिर बाजार में सिनेमा का स्वरूप सबसे अनिश्चित है। यह बिल्कुल अनुमान लगा पाना कठिन है कि सिनेमा में सुरुचि की कोई भरोसेमन्द नदी अब कभी उस प्रवाह से बहेगी जो बीसवीं सदी के सातवें दशक तक बहा करती थी।

भव्यता और शोभा सोमनाथ की


अब सिनेमा ही करोड़ों का नहीं बनता, धारावाहिक भी बनते हैं। यह भी दिलचस्प है कि यह करोड़ों का आँकड़ा सौ से हजार तक भी जाता है। प्रस्तुतिकरण के बड़े कैनवास पर भव्यता की अपनी एक परिभाषा और आकर्षण गढ़ा जाता है। अपने आपमें यह कैनवास अन्तत: व्यापक और विराट स्वरूप लेता है और सबकुछ ठीकठाक हुआ तो दर्शक छोटे से लेकर बड़े परदे पर यह सब देखते हुए विस्मय से हतप्रभ रह जाता है।

हिन्दी सिनेमा और धारावाहिकों में हमारे समय के सबसे सक्रिय और चर्चित कला निर्देशक जयन्त देशमुख ने जब यह बताया कि छ: माह लगातार पाँच सौ से लेकर छ: सौ काम करने वाले दिन-रात एक करके नौ एकड़ भूमि पर निर्माण और सेट का विहँगम इस तरह रचते हैं कि लागत दस करोड़ से भी ज्यादा तक पहुँच जाती है, तो आश्चर्य होना स्वाभाविक था। यह बात शोभा सोमनाथ की धारावाहिक की हो रही थी जिसका प्रसारण अभी शुरू हुआ है। सप्ताह में पाँच दिन प्रसारित होने वाला यह धारावाहिक कम से कम चार साल तो शायद चलेगा ही, इसका अनुमान जयन्त देशमुख लगा रहे थे। जयन्त कहते हैं कि मन को सन्तुष्ट करने वाला, आनन्द प्रदान करने वाला और रचनात्मक सन्तृप्ति प्रदान करने वाला काम मैंने किया है, ऐसा मुझे इस काम को पूरा करने के बाद महसूस हुआ है क्योंकि गहन एकाग्रता और इतिहाससम्मत परिवेश के लिए काम करते हुए जिस तरह की जिम्मेदारी को मैंने महसूस किया, उसका परिणाम बहुत सुन्दर निकला।

मुम्बई से दूर गुजरात राज्य की सीमा में तलासरी के गाँव सावरोली में शोभा सोमनाथ की, धारावाहिक का एक तरह से पूरा माहौल बना दिया गया है। जयन्त विशेष रूप से सोमनाथ के मन्दिर का जिक्र करते हैं जो एक सौ आठ फीट ऊँचा बनाया गया है। यह मन्दिर बड़ा खूबसूरत और नयनाभिराम है। नौ एकड़ भूमि में मन्दिर के साथ-साथ राजमहल, शहर, गाँव, विभिन्न दृश्यों के सजीव फिल्मांकन के लिए छोटे-छोटे मनोरम स्थल और प्राकृतिक परिवेश की झलक प्रस्तुत करने में बहुत परिश्रम करना पड़ा है। विशेष रूप से इस दुनिया को खड़ी करने में खास रंगों का इस्तेमाल किया गया है, जो गुजरात की संस्कृति और परम्परा में अनन्त काल से अपनी मनोहारी पहचान रखते हैं।

एक हजार साल पहले की इस कहानी को धारावाहिक में देवपाटन और भरूच के राजा, राजकुमारी शोभना के चरित्र और प्रसंगों के माध्यम से दर्शाया जायेगा। जयन्त बताते हैं कि इतिहास, पुराण और कालातीत सन्दर्भों के शोधकर्ता, जानकार और विशेषज्ञ विकास कपूर ने इस धारावाहिक की प्रामाणिकता में अपना बड़ा योगदान किया है। बरसों बाद सदाशिव अमरापुरकर काम कर रहे हैं, वह भी पहली बार धारावाहिक के लिए। इसके अलावा पंकज धीर, अविनाथ वाधवान, सुधीर दलवी आदि शीर्ष कलाकारों के साथ मुख्य भूमिकाओं और सहायक भूमिकाओं में बड़ी संख्या में कलाकारों की सहभागिता शोभा सोमनाथ की धारावाहिक में नजर आयेगी।

रविवार, 19 जून 2011

सदाबहार महानायक की आत्मकथा




कुछ फिल्मी गॉसिप छापने वाले अखबारों में से एक किसी अखबार में एक खबर ने पिछले दिनों ध्यान आकृष्ट किया कि सदाबहार महानायक धर्मेन्द्र अपनी आत्मकथा लिखने जा रहे हैं। वास्तव में मुम्बई में फिल्मी सितारों की सारी बातचीत-व्यवहार, सोचना-समझना, उठना-बैठना और कहना-सुनना सभी अंग्रेजी में ही हुआ करता है।

दुनिया के बड़े-बड़े व्यापारी प्रकाशक आत्मकथा को बायोग्राफी कहते हैं और उसी समझ, आकलन और दृष्टि के साथ प्रकाशित करते हैं। देव आनंद, प्राण, अमरीश पुरी आदि की अंग्रेजी में ही कहें तो सो-काल्ड बायोग्राफी पब्लिश हो चुकी है। बाद में बड़ी उपेक्षा और अरुचि के साथ इसका हिन्दी अनुवाद जिसे लगभग समझरहित और हिन्दी के व्याकरण के प्रति पूरी अज्ञानता बरतते हुए प्रकाशित किया गया, वह भी कहीं-कहीं एकाध बड़ी दुकानों में वो भी महानगरों की, रखा दिखायी देता है।

धर्मेन्द्र ने सारी पिछली पहल से अलग यह मन्तव्य जाहिर किया है कि उनकी आत्मकथा उर्दू में प्रकाशित होगी। सिनेमा वाले जानते हैं, और यह लगभग शुरू से ही रहा है और शुरू में कई कलाकारों के साथ रहा है कि उनके संवाद उर्दू में ही लिखकर दिए जाते थे। बरसों-बरस यह एक परम्परा रही है, जिसके कारण ही सिनेमा में संवाद की अपनी शुद्धता और शब्दों तथा अक्षरों तक की अपनी नजाकत को कलाकारों ने बहुत समझकर परदे पर उच्चारित किया।

बाद में अंग्रेजी आने के बाद संवादों को जब उस तरह से रोमन में लिखकर देने और निर्देशक द्वारा कलाकार को सारा दृश्य अंग्रेजी में समझाकर शॉट लेने की परिपाटी चल पड़ी तो फिर ठण्डा, थण्डा हो गया, राठौड़ भी राथौड़ हो गये और सब्र का फल हो या खाने वाला, नुक्ता लगाकर बोला जाने लगा। भाषा का भोथरा हो जाना इस समय बेसुध समाज और पीढ़ी के लिए कोई विषय नहीं है इसलिए सब धक ही रहा है।

अच्छा लगा कि धर्मेन्द्र यदि आत्मकथा लिखने-प्रकाशित कराने की तैयारी करेंगे तो उसकी भाषा उर्दू होगी। पिछले करीब सात-आठ वर्षों से धर्मेन्द्र शायरी कर रहे हैं। उनके पास बैठने के शायराना अनुभवों का स्मरण करना अपने आपमें रोमांचित होना है। उनकी पंक्तियाँ जिन्दगी के तजुरबों का अनूठा दस्तावेज हैं। सिनेमा में पचास साल का अनवरत सफर करते हुए लगातार काम करने वाले धर्मेन्द्र अपनी जगह, अपने प्रशंसकों और अपने अन्तस को एक-दूसरे से कभी अलग नहीं करते।

धर्मेन्द्र सचमुच अपने आपमें एक निश्छल और निष्कपट इन्सान और कलाकार हैं, जो हर दौर के प्रिय होते हैं। आज भी उनकी ऊर्जा, जिजीविषा और हौसले पर वही बहादुरी और मर्दानापन दिखायी देता है, जिसके लिए वे ही-मैन के रूप में अपने सदाबहार विशेषण के साथ विख्यात हैं।

छुपने वाले सामने आ


शम्मी कपूर के बारे में यह बात हमेशा कही जाती है कि उन्होंने अपने बड़े भाई और पिता की सशक्त उपस्थिति और प्रभाव से निष्प्रभावी रहते हुए अपनी राह खुद गढ़ी। यद्यपि एक अभिनेता के रूप में वे सर्वश्रेष्ठ अदायगी या असरदारी का न तो दावा करते थे और न ही वैसे थे, पर अपनी क्षमताओं और सीमाओं में उन्होंने लोकप्रियता का एक पूरा समय अपने पक्ष में किए रखा।

उनकी अपनी धारा में किसी का हस्तक्षेप नहीं हुआ और वे अपने वरिष्ठ, समकालीन और नवोदितों के बीच अपनी समानान्तर हैसियत में बने रहे। यह शम्मी कपूर का एक बड़ा गुण था, जिसके हम हमेशा कायल हैं, इसीलिए इस रविवार उनकी एक यादगार फिल्म तुम सा नहीं देखा को याद करना प्रासंगिक लग रहा है।

फिल्म तुम सा नहीं देखा को लिखा और पढ़ा तुमसा नहीं देखा ही जाता रहा पर उसका शुद्ध नाम तुम और सा को अलग करके ही लिखा जाता है। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1957 का है। अब से लगभग पचपन वर्ष पुरानी इस फिल्म को देखते हुए हम इसकी सहज मगर रोचक कहानी और मधुर गीत-संगीत के आकर्षण में खो जाते हैं।

अपनी जवानी में अपराध करके दूर कहीं पहचान बदलकर बस गये एक किरदार की अपनी पत्नी और बेटे की तलाश से कहानी शुरू होती है। शहर में बेटा जवानी की दहलीज पर कदम रख चुका है, वो गाना भी गा रहा है, जवानियाँ ये मस्त-मस्त। घर में बूढ़ी माँ है। बेटे को रोजगार की तलाश है। बेटा पिता से नफरत करता है, माँ से कह देता है कि जिस दिन वो मिलेंगे उस दिन तुझे किसी एक चुनना होगा, पति को या बेटे को।

पिता ने अपनी पत्नी और बेटे को तलाश करने के लिए नौकरी का विज्ञापन दिया है, जो पत्नी द्वारा ही पढ़ा जाता है और दूसरा पिता के शत्रु के द्वारा। अब एक नायक और एक खलनायक दोनों उसका बेटा बनकर पहुँचते हैं। पिता ने एक लडक़ी को गोद ले रखा है। नायक और नायिका मिल जाते हैं। तकरार बड़ी देर चलती है, कुछ गाने-वाने भी गाये जाते हैं, दुश्मन के षडयंत्र को बेटा बेनकाब करता है। क्लायमेक्स में सच सामने आता है। बिछुड़े हुओं का मिलन होता है।

शम्मी कपूर, अमिता नायक-नायिका हैं। फिल्म का टाइटिल गीत, यूँ तो हमने लाख हसीं देखे हैं, अपने जमाने का बड़ा सफल गाना था। इसके अलावा छुपने वाले सामने आ, और दूसरे तीन-चार गीत आज भी सुनने में अच्छे लगते हैं। मजरूह सुल्तानपुरी और ओ.पी. नैयर को गीत-संगीत रचना का सदाबहार रचने का श्रेय इस फिल्म में हैं। फिल्मिस्तान की यह फिल्म नासिर हुसैन ने सहज रोचकता में बनायी है।

शनिवार, 18 जून 2011

सौवें बसन्त में एक नायाब कलाकार जोहरा सहगल


जानकर बड़ा सुखद लगता है कि सिनेमा और रंगमंच की एक नायाब कलाकार जोहरा सहगल अपने जीवन का शताब्दी वर्ष की बेला देख रही हैं। उनका नाम लेते ही हमारे जेहन में उनकी चिर-परिचित, जानी-पहचानी और अनूठी छबि प्रकट हो जाती है। उनकी सर्जना लम्बी और असाधारण होने के साथ-साथ निरन्तर जारी रहने वाली है। यही उनकी यशस्वीयता है। वे अभी उम्र और अस्वस्थता की वजह से चल-फिर नहीं पातीं मगर सजगता, चेतना और जागरुकता के लिहाज से वे किसी भी युवा की झेंप का कारण बन सकती हैं। ध्यान करो तो उनका एक विज्ञापन स्मरण हो आता है जिसमें वे रावलपिण्डी एक्सप्रेस शोएब अख्तर को चुनौती देती हैं।

जोहरा जी अपनी उपस्थिति में, संवाद अदायगी और अभिव्यक्ति में जितनी खूबियों के साथ हमारे सामने होती हैं, अद्भुत और असाधारण होती हैं। व्यक्तिश: मुझे उनकी एक फिल्म चीनी कम बहुत ही अच्छी लगती है जिसमें उन्होंने अमिताभ बच्चन की माँ की भूमिका निभायी है। इस फिल्म में वे एक श्रेष्ठ और प्रभावी सितारे की उपस्थिति से भी निष्प्रभावी नजर आती हैं। अमिताभ बच्चन के साथ उनके दृश्य कमाल के हैं, जो दिलचस्प भी लगते हैं और मनोरंजक भी। जोहरा सहगल लगभग चालीस के दशक से लगातार काम कर रही हैं। वे पश्चिम में प्रख्यात बैले कलाकार उदयशंकर के बैले ग्रुप की एक प्रस्तुति से प्रभावित होकर पहले नृत्य के क्षेत्र में आयीं फिर कोरियोग्राफर के रूप में सक्रिय हुईं। उन्होंने उदयशंकर के ग्रुप में लम्बे समय काम किया और अल्मोड़ा में उनकी संस्था की लम्बे समय संचालक रहीं।

जोहरा सहगल के पति कामेश्वर सहगल, एक वैज्ञानिक होने के साथ-साथ चित्रकार और नृत्यकार भी थे। यायावरी रंगकर्म के अकेले उदाहरण स्वर्गीय पृथ्वीराज कपूर के साथ जुडक़र उन्होंने उनके साथ कई नाटकों में काम किया। वे पृथ्वी थिएटर का अहम हिस्सा रही हंै। इप्टा से जुडऩे के बाद पहली बार नाटकों से होते हुए फिल्मों का रास्ता उन्होंने ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म धरती के लाल से तय करना आरम्भ किया। प्रख्यात निर्देशक चेतन आनंद की नीचा नगर में भी अहम भूमिका में वे थीं। स्वर्गीय गुरुदत्त की फिल्म बाजी, स्वर्गीय राजकपूर की फिल्म आवारा की कोरियोग्राफर के रूप में उनका काम यादगार है। बीच में दशकों के अन्तराल के बाद जोहरा सहगल अंग्रेजी धारावाहिकों और फिल्मों, खासकर एनआरआई फिल्मों से एक बार फिर सक्रिय हुईं।

गजब यह है कि यह सक्रियता उन्होंने अस्सी साल की उम्र के बाद दिखायी। तन्दूरी नाइट्स को उनका श्रेष्ठ टीवी धारावाहिक माना जाता है और उल्लेखनीय फिल्मों में भाजी ऑन द बीच, दिल से, ख्वाहिश, हम दिल दे चुके सनम, बेण्ड इट लाइक बेकहम, साया, वीर-जारा, चिकन टिक्का मसाला, मिस्ट्रेस ऑफ स्पाइसेज, चीनी कम, साँवरिया शामिल हैं। जोहरा सहगल का हमारे बीच होना कला-अनुरागी समय की, खासकर जो इस समय का संजीदा हिस्सा हैं, एक बड़ी सुखद अनुभूति है। देश में कला-संस्कृति के संरक्षण की जिम्मेदार सरकार, विभाग को उनकी उपस्थिति में उनका जन्मशताब्दी वर्ष मनाना चाहिए।

गुरुवार, 16 जून 2011

लेखिकाओं की पटकथाएँ और संवेदना


कुछ दिन पहले ही मुम्बई में योगवश डॉ. अचला नागर से मिलना हुआ। उनको लेकर एक सम्मान और आदर बरसों से मन में था, जो मिलने बाद उनकी सहजता और आत्मीय संवाद से कुछ ज्यादा ही समृद्ध हो गया। डॉ. अचला नागर मूर्धन्य साहित्यकार स्वर्गीय अमृतलाल नागर की बेटी हैं। साहित्य उनकी विरासत रहा है और पूरब में साहित्य, संस्कृति और परम्परा का जो यशस्वी अतीत है, उसका सर्वोत्कृट उन्होंने बचपन और जीवन से पाया है। डॉ. अचला नागर का बचपन लखनऊ में बीता।

मायानगरी मुम्बई का आकर्षण उनके बाबूजी को मुम्बई ले आया था मगर वे चकाचौंधभरी दुनिया से जल्दी ही भरपाये। यद्यपि वे जितने दिन वहाँ रहे, अपनी गरिमा और ठसक के साथ और लौटे तो फिर लखनऊ में अपने सृजन में मगर हो गये। डॉ. अचला नागर प्रख्यात फिल्मकार बी.आर. चोपड़ा की निर्माण संस्था बी.आर. फिल्म्स से जुड़ीं और उनके लिए एक सफल फिल्म निकाह की पटकथा लिखी। यह फिल्म बहुत चर्चित हुई थी। जे. ओमप्रकाश निर्देशित फिल्म आखिर क्यों को एक स्त्री की सशक्त अभिव्यक्ति के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण फिल्म माना जाता है। इसमें स्वर्गीय स्मिता पाटिल की निभायी गयी भूमिका यादगार है और याद की जाती है।

डॉ. अचला नागर की पटकथा में रिश्ते-नाते, जवाबदारियाँ, वफाएँ, प्रेम, जज्बात, निबाह के छोटे-छोटे दृश्य इतने सशक्त होते हैं कि दर्शक बँधा रहता है। यह सचमुच रेखांकित करने वाली चीज है कि एक स्त्री-सर्जक मानवीय जीवन के समूचे परिदृश्य को जिस संवेदना की निगाह से देखती है, जिस गहराई से उसका आकलन करती है, उतनी नजदीकी पुरुष पटकथाकारों में शायद नहीं होती। डॉ. अचला नागर का जिक्र करते हुए खासतौर पर उनकी एक सशक्त फिल्म बागवान की बात करना बहुत उचित इसलिए लगता है कि इस फिल्म के माध्यम से ही अमिताभ बच्चन अरसे और अन्तराल बाद किसी अच्छी भूमिका के लिए एकदम नोटिस किए गये थे।

बागवान बिना किसी अतिरिक्त व्यावसायिक सावधानी या प्रचार के प्रदर्शित फिल्म थी जो परिवारों ने पसन्द की थी और सफल भी थी। बागवान बरसों याद रहने वाली फिल्म थी। बाद में डॉ. अचला नागर ने रवि चोपड़ा के लिए बाबुल फिल्म की पटकथा भी लिखी थी, यद्यपि वह उतनी सफल नहीं हुई मगर उसका विषय आज के सन्दर्भ में काफी साहसिक था। डॉ. अचला नागर की पटकथा की यह विशेषता है कि उसकी हिन्दी और भाषा-विन्यास बहुत मायने रखता है। कलाकार उसे परदे पर प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करते हैं और वह रूटीन फिल्मों से अलग हटकर होती है। ईश्वर, मेरा पति सिर्फ मेरा है, निगाहें, नगीना, सदा सुहागन आदि उनकी अन्य चर्चित फिल्में हैं।

हनी ईरानी की कथा-पटकथा की अनुभूतियाँ अलग ढंग से मर्म को स्पर्श करती हैं, उन पर बात किसी और दिन क्योंकि उनकी दृष्टि पर बातचीत अलग से ही सम्भव है।

बुधवार, 15 जून 2011

देखिए फिल्में जखीरे की शक्ल में


शायद ऐसी बहार पिछले कई महीनों के बाद आ रही है। बड़ी और मँहगी फिल्में अगले महीने से रिलीज होने जा रही हैं, इस बीच रेडी या एकाध किसी अपवाद को यदि छोड़ दिया जाये तो लगातार बी और सी ग्रेड फिल्में रिलीज हो रही हैं पिछले कई महीनों में। भरी गर्मी में ऐसी फिल्मों के शो भी कैंसिल होने की घटनाएँ सुर्खियाँ बनी थीं, लेकिन पाठकों, जो कि दर्शक भी हैं, जाहिर है, जानकर आश्चर्य होगा कि 17 जून को देश में एक साथ पाँच-छ: फिल्में रिलीज हो रही हैं।

ये फिल्में हैं, भेजा फ्राय-टू, सायकल किक, आल्वेज कभी कभी, बिन बुलाये बाराती, भिण्डी बाजार आदि। एक तरह से फिल्में इस सप्ताह जखीरे की शक्ल में सिनेमाघरों में लग जाने वाली हैं। यों सभी फिल्मों के नाम और स्टार कास्ट के साथ जिस तरह का लिफाफा पेश है, वह मजमून की एडवांस गारण्टी है। भेजा फ्राय पहले जब बनकर आयी थी, सुनियोजित चर्चा और आंशिक सराहना से ही विनय पाठक बिना किसी आकर्षण के स्टार बन गये थे। उन्हीं की लोकप्रियता को भुनाने की कोशिश है, भेजा फ्राय-टू। सायकल किक एक अलग तरह की फिल्म है जिसको अच्छी फिल्मों के प्रेमी, जिनकी संख्या हमेशा सौ-पचास ही होती है, किसी भी शहर में, उतने ही देखने जायेंगे।

आल्वेज कभी कभी शाहरुख खान के घराने की फिल्म है, नॉन-स्टारर। आयेगी, चली जायेगी जैसी ही कहानी और गुंजाइश लगती है। बिन बुलाये बाराती का मजमून हास्य है, बहुत सारे हास्य सितारे इसमें भरे पड़े हैं, सबसे ज्यादा इन दिनों लोकप्रिय मगर चेहरे और शरीर से खासे स्थूल दिखायी देने वाले ओम पुरी भी। हो सकता है छोटे शहरों में इस फिल्म के भाग जगें क्योंकि ओछी कॉमेडी के लिए शक्ति कपूर आदि को भी जुटाया गया है।

भिण्डी बाजार, एक अलग तेवर की फिल्म है, मगर उसकी बोल्डनेस ज्यादा ही अराजक और दुस्साहस की शक्ल में प्रोमो में नजर आ रही है। अपराधी, बुरे और लुच्चे आदमियों की जबान को अब सिनेमा में ज्यों-का-त्यों पेश करने का यथार्थवाद अब सिनेमा में किसी के रोके नहीं रुकने वाला।

फेसबुक में देश के प्रतिष्ठित फिल्म समीक्षक खालिद मोहम्मद ने इस बात की चिन्ता जतायी है कि लीला सेमसन के चेयरपरसन बन जाने के बाद अश्लील और घटिया भाषा का सिनेमा तेज आमद में है जिसके नियंत्रण की हम कामना कर रहे थे। इसका अर्थ यह है कि उनके आने के बाद भी तथाकथित नियम, सिद्धान्त और लगातार बनी-बची रहने वाली गुंजाइशों का पलड़ा भारी है, स्वच्छता, साफ-सफाई और सुधार की सम्भावनाएँ क्षीणता की शिकार।

मंगलवार, 14 जून 2011

खैर-खबर और फिक्र-बेफिक्री


हमारे यहाँ बुजुर्गों की खैर-खबर लेते रहने का कोई नैतिक सिद्धान्त नजर नहीं आता। अपने माता-पिता से दूर रहने वाली सन्तानें भी कई-कई दिनों में उनसे मिलने जा पाती हैं। ऐसी लापरवाही और बेरुखी का ही नतीजा, अकस्मात हादसे और घटनाएँ होती हैं, जिनसे जीवनभर पछताना होता है। कला-संस्कृति-साहित्य-सिनेमा में भी और समाज सक्रियता के अन्य तमाम आयामों में काम करने वालों के साथ भी ऐसा ही है। अचानक खबर बनते हैं तब मीडिया से लेकर सभी सन्दर्भ ढूँढने और जुटाने में लग जाते हैं मगर तब केवल श्रद्धांजलि ही दी जाती है, श्रद्धा प्रकट करने का अवसर जा चुका होता है।

सिनेमा में हम देखते हैं कि कुछ दिन पहले पेज की सुर्खियाँ बने रहने के बाद अब रजनीकान्त की सेहत का समाचार दर्शक-पाठकों को कई दिनों से नहीं मिल पाया है। रजनीकान्त एक ऐसे कलाकार हैं जिनसे दक्षिण भारत सहित देश के सभी दर्शक बहुत प्यार करते हैं। सिंगापुर जाने के बाद से सिर्फ एक बार उन्होंने अपने दर्शकों के लिए पचास सेकेण्ड की रिकॉर्डिंग अपनी सेहत को लेकर जारी करायी है कि वे जल्दी ही लौटेंगे मगर स्पष्ट चित्र नहीं है और अफवाहें उनकी सेहत को लेकर कई तरह की आये दिन फैला करती हैं। हिन्दी फिल्मों में कई कलाकार ऐसे हैं जिनके बारे में मुम्बई के फिल्म पत्रकार भी जानने की फिक्र नहीं करते।

दिलीप कुमार साहब बिस्तर पर हैं, प्राण साहब बिस्तर पर हैं, अवतार कृष्ण हंगल की स्थिति खराब है, डॉ. श्रीराम लागू बिस्तर पर हैं, खैयाम साहब सक्रिय नहीं हैं, गीतकार योगेश कहीं गुमनामी की जिन्दगी जी रहे हैं, सुलोचना जी का स्वास्थ्य खराब है, शम्मी कपूर साहब अस्वस्थ हैं, उनके भाई शशि कपूर भी बहुत कमजोर हो गये हैं, अभिनेत्री शम्मी की तबियत ठीक नहीं रहती, जय सन्तोषी माँ बनाने वाले निर्माता कलाकार आशीष कुमार और उनकी अभिनेत्री पत्नी बेला बोस सक्रियता एवं स्वास्थ्य की जानकारियाँ नहीं हैं। देव आनंद हिम्मतभर सक्रिय हैं मगर बाहर कम निकलते हैं, वहीदा रहमान बैंगलोर से मुम्बई बरसों पहले रहने आ गयी हैं और अस्वस्थ रहती हैं।

पौराणिक फिल्मों के यादगार कलाकार और अपनी कद-काठी से नकारात्मक भूमिकाओं के लिए खासे जाने, जाने वाले विष्णु कुमार मगनलाल व्यास अर्थात वी.एम. व्यास बिस्तर पर हैं। सिनेमा की शताब्दी की बेला में ऐसे पितृ-पुरुषों की खबर ली जाना चाहिए। दरअसल जिनके सहारे हम अपने सिनेमा पर गर्व कर सकते हैं, वो इनकी ही भागीदारी से सम्भव हुआ है। समाचार और दूसरे चैनलों के मुम्बई दफ्तरों को इस बारे में सोचना चाहिए। सुर्खियाँ और सनसनी तो इफरात हैं अब के दौर में पर अब बहुत से मूर्धन्यों के पास वक्त बहुत कम है, जो उम्रदराज हैं, उनका ख्याल सौ साल के सिनेमा को सेलीब्रेट करने वाले समय में किया जाना चाहिए।

सोमवार, 13 जून 2011

उन्मुक्तता की नयी आयकॉन


एकता कपूर के मन से अब धीरे-धीरे छोटे परदे पर बड़े लाभ का मोह खत्म हो रहा है। सफलता का वह पूरा दौर जा चुका है जिसमें तब की सक्रियता के वक्त में शायद सबसे कम उम्र की निर्मात्री के रूप में लगभग उस तरह सफल थी कि उनका छुआ हर पत्थर सोना बनकर उनकी हथेली में आ जाता था। एक साथ तमाम धारावाहिकों का प्रसारण होना, उनकी लगातार एक ही स्थान के विभिन्न फ्लोरों पर शूटिंग होना, ऐसा माहौल रहता था जैसे उत्सव ही आयोजित हो रहा हो कोई।

इस सुनहरे और कमाऊ दौर पर एकता खुश भी थीं और इसी के साथ उनके अहँकार और रुतबे के भी किस्से बनते और उड़ा-फैला करते थे। यह दौर अपने चरम पर जाकर बिखरना शुरू हो गया और धीरे-धीरे बदलाव की जरूरत महसूस करने वाले दर्शक के सामने प्रतिस्पर्धी चैनलों ने अनेक विविध और मौलिक विषयों को इतने प्रभावी ढंग से जमा दिया कि एकतामार्का सीरियल, दृश्य, कलाकार, किरदार, कुटिलताएँ सब छोटे परदे से विदा हो गयीं। इस समय चैनलों पर धारावाहिकों का पूरा युग ही बदला हुआ है और खासतौर पर सब चैनल ने अपने कार्यक्रमों, धारावाहिकों और प्रस्तुतियों से बहुत बड़ी संख्या में दर्शकों को जोड़ लिया है।

एकता अब इस मैदान को छोड़ रही हैं। फिल्म निर्माण में उन्हें रस आ रहा है। कहीं न कहीं सफल निर्मात्री बहन होने के नाते वे अपने विफल भाई तुषार का भी ख्याल रखने लगी हैं। तुषार के लिए पहले भी उन्होंने कई फिल्में बनायीं और इन दिनों भी बना रही हैं। लव सेक्स और धोखा तथा रागिनी एमएमएस बनाकर सनसनी और लाभ दोनों हासिल करने वाली एकता इन दिनों एक फिल्म दक्षिण की मशहूर सेक्सी एक्ट्रेस सिल्क स्मिता के जीवन पर केन्द्रित फिल्म द डर्टी पिक्चर्स बना रही हैं विद्या बालन को उस भूमिका में लेकर। सिल्क की मृत्यु लगभग पन्द्रह वर्ष पहले हो गयी थी। विद्या को भी इन दिनों क्रान्ति करने का चस्का लगा है, नो वन किल्ड जेसीका में उनका रोल काफी अलग था, इधर सिल्क के जीवन पर बन रही फिल्म में भी वे सिल्क सरीखा पेश होने के लिए उत्साहित हैं।

एक फिल्म एकता डायन नाम से बनाना चाहती है, निर्देशक विशाल भारद्वाज के साथ मगर उसके लिए हीरोइन नहीं मिल रही उनको। उन्होंने रानी मुखर्जी को इस फिल्म के लिए अनुबन्धित करना चाहा था मगर नाम से ही असहमत रानी ने एकता को इन्कार कर दिया है। एकता फिलहाल अपने इन उपक्रमों से उन्मुक्तता की नयी आयकॉन बनकर चर्चित होने में खासी सक्रिय हैं।

रविवार, 12 जून 2011

बच्चन साहब, आरक्षण और बुड्ढा होगा.....


अमिताभ बच्चन ने भोपाल में आरक्षण का काम पूरा होते-होते, अपनी निर्माण संस्था एबी कॉर्प की नयी फिल्म बुड्ढा होगा तेरा बाप के लिए इकट्ठी तारीखें दे दी थीं। यह फिल्म उन्होंने तेलुगु के सुपरहिट डायरेक्टर चवालीस वर्षीय पूरी जगन्नाथ को लेकर शुरू की। पुरी जगन्नाथ दक्षिण के सिनेमा में लगभग एक दशक पहले की आमद हैं जिन्होंने लगभग पन्द्रह फिल्मों का निर्देशन किया है और बहुतेरी फिल्में सुपरहिट रही हैं। उन्हीं की निर्देशित एक फिल्म पोक्करी को प्रभु देवा ने हिन्दी में वाण्टेड नाम से बनाया जिसके हीरो सलमान खान थे। दर्शक जानते हैं कि वाण्टेड को भी हिन्दी में खासी सफलता मिली थी।

बहरहाल लम्बे समय से सुपरहिट सफलता के लिए प्रतीक्षारत दोनों बच्चन नायकों में से एक छोटे, अभिषेक बुड्ढा होगा तेरा बाप के निर्माता बने और नायक बनकर आये अमिताभ बच्चन। इस फिल्म में रवीना टण्डन, हेमा मालिनी, मिनीषा लाम्बा, सोनू सूद आदि ने काम किया है। यह फिल्म अमिताभ बच्चन की पिछले एक दशक में निभायी जा रही लगभग सभी भूमिकाओं से अलग एक भूमिका में उनको पेश कर रही है। एक तरह से प्रमाणित यही करना चाहा गया है कि अब आप चालीस-पैंतालीस साल की चुस्ती-फुर्ती में महानायक को देखिए। बच्चन साहब इसमें अपने उसी रंग में हैं जो लगभग उनका दिवंगत रमेश बहल की फिल्म पुकार या मनमोहन देसाई की फिल्म मर्द में रहा है।

इस फिल्म का नाम, बुड्ढा होगा तेरा बाप, अपने आपमें बड़ा भदेस है। आमतौर पर फिल्मों के नाम इस तरह के होते नहीं मगर नाम के संकट से जूझ रहा हिन्दी फिल्म जगत अंग्रेजी नामों से हिन्दी फिल्में बनाता हुआ अब इस तरह के नामों की शरण में है। विडम्बना यह है कि ऐसा नाम ऐसे कलाकार की फिल्म का है, जो भाषा, हिन्दी, साहित्य, शिष्टाचार और विनम्रता के संस्कारों के लिए फिक्रमन्द रहते हैं। बहरहाल, यह फिल्म है, इसका जवाब हो सकता है। अमिताभ बच्चन ने इस फिल्म को अत्यन्त कम समय में पूरा कराने के साथ ही इसके प्रदर्शन की तारीख भी जुलाई में मुकर्रर कर दी है। इधर उनके एक और निर्देशक प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण अगस्त की 12 तारीख को रिलीज होना तय है।

ज्यों-ज्यों आरक्षण का प्रदर्शन नजदीक आ रहा है, त्यों-त्यों बच्चन साहब के किरदार को लेकर जिज्ञासाएँ बढ़ रही हैं, इस बीच इसी हाइप में उन्होंने पहले अपने बैनर की फिल्म रिलीज कर देना सभी दृष्टि से ज्यादा मुनासिब समझा है, जिसमें खासतौर पर व्यावसायिक पक्ष और माहौल में अपनी फिल्म को सुरक्षित निकाल ले जाना निहित है। अगर बुड्ढा होगा तेरा बाप, बड़ी सुपरहिट हो गयी तो उसका सकारात्मक असर आरक्षण पर दिखेगा, नहीं होने पर विपरीत असर भी सम्भावित है। आरक्षण से ज्यादा बुड्ढा होगा तेरा बाप में बच्चन साहब की रुचि शायद बेटे को अब एक निर्माता के रूप में भी स्थापित करने का एक और प्रयास लगता है।

सिद्धेश्वर अवस्थी : नौटंकी के मर्मज्ञ सिद्धे गुरु


 
बीसवीं सदी की आंचलिक नाट्य कला नौटंकी के लिए अपना जीवन समर्पित कर देने वाले पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी की अब स्मृतियाँ शेष हैं। हाल ही 4 जून की दोपहर सत्यासी वर्षीय बहुआयामी कला मर्मज्ञ ने जीवन की अन्तिम साँस ली। वे काफी समय से पक्षाघात से ग्रस्त थे मगर अपने काम, स्मृतियाँ और घटनाएँ उनके जहन में सब की सब ज्यों की त्यों थीं। मुख्य रूप से नौटंकी विशेषज्ञ के रूप की अपार प्रतिष्ठा और मान-सम्मान रहा है, तथापि उनका जीवन सर्जना के विविध आयामों से सम्पृक्त रहा है। वे कानपुर में सांस्कृतिक पत्रकारिता के जनक होने के साथ-साथ चित्रकार, शिल्पकार और उपन्यासकार भी थे। उन्होंने नीलकण्ठ नाम के एक उपन्यास की रचना भी की थी। शिल्पकार के रूप में उनकी बनायी मूर्तियाँ सराही और संग्रहीत की जाती थीं। विशेषकर बड़े जटाधारी नारियल पर शिव की आकृति उत्कीर्ण करने का उनका कौशल अनूठा था।

पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी का जन्म 18 मार्च 1924 को फतेहपुर उत्तरप्रदेश के ग्राम भिटौरा में हुआ था। वे बड़ी छोटी उम्र में अपनी माता से इसलिए प्रभावित थे क्योंकि उनका कण्ठ बहुत मधुर था और वे उस समय प्रचलित रीति-रिवाजों के अनुसार धार्मिक कार्यक्रमों, पारिवारिक और मांगलिक उत्सवों में बहुत अच्छे गीत और भजन गाया करती थीं। वे अपनी आरम्भिक प्रेरणा अपनी माँ को ही मानते थे और कहते थे कि उनकी आवाज और संगीत दोनों से मुझे लिखने और उस आनंद को समझने का रुझान विकसित हुआ।

युवावस्था में पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी संगीत कार्यक्रमों में एक जिज्ञासु और एक रसिक की तरह जाया करते थे। यहीं के अनुभवों और रसानुभूति ने उनको राग-रागिनियों के प्रति अनुराग तक पहुँचाया। इस रुझान के साथ ही नौटंकी के प्रति उनका आकर्षण भी युवावस्था में ही बढ़ा। नौटंकी वे देखते थे और खासतौर पर संवाद अदायगी, नक्कारे की ध्वनि और गीत रचनाओं का सम्मोहन उन्हें प्रभावित करता था।

आधुनिक हिन्दी रंगमंच और नौटंकी से वे इस तरह जुड़े। जब वे उन्नीस वर्ष के थे तब ही कृष्ण विनायक फडक़े के बाल रंगमंच आन्दोलन से उनका नाता बना। यहीं पर उन्होंने बच्चों के लिए अनेक नाटकों का निर्देशन भी किया। पच्चीस वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने जीवन का पहला नाटक खेला जिसका निर्देशन, रंग-रूप सज्जा, संगीत आदि की जवाबदारियों का निर्वहन उन्होंने किया। इसके दो साल बाद ही स्वरचित काव्य नाटक यशोधरा का मंचन भी सराहनीय प्रतिक्रियाओं के साथ उन्होंने कानपुर में किया। 1960 में दिल्ली में हुए अखिल भारतीय लोकनाट्य समारोह में उनके निर्देशन में रत्नावली नौटंकी का मंचन अत्यन्त महत्वपूर्ण था। यह अप्रतिम संस्कृत नाटककार श्रीहर्ष के संस्कृत काव्य नाटक रत्नावली का रूपान्तर था।

पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी नौटंकी के क्षेत्र में अपनी दृढ़ता, अभिरुचि के साथ आये तो थे मगर परिवार के प्रबल विरोध और नाराजगी के बाद। लेकिन लगातार उनकी प्रतिबद्धता ने उनकी गम्भीरता को प्रमाणित किया और वे नौटंकी के ही होकर रह गये। वे समय-समय पर प्रसिद्ध लोकनाट्यकार स्वर्गीय श्रीकृष्ण पहलवान की संगत में थे, उनसे नौटंकी कला को लेकर उनका निरन्तर विचार-विमर्श और संवाद हुआ करता था। श्रीकृष्ण पहलवान के इस विधा में सघन अनुभवों का लाभ भी उनको मिला।

बाद में पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी प्रसिद्ध नाट्य संस्था दर्पण से जुड़े तो मास्साब अर्थात डॉ. सत्यमूर्ति जो दर्पण के संस्थापक थे, उनसे मिलकर उनकी रंगयात्रा और परवान चढ़ी। दर्पण से जुडक़र सिद्धेश्वर अवस्थी ने कई नौटंकी रूपान्तरण जो हिन्दी नौटंकियों, देशी भाषाओं की कहानियों, नाटकों पर आधारित थे, उनके खेला और प्रसिद्धि पायी। उनकी प्रसिद्ध उपन्यासकार और रंगमंच से जुड़े नाट्य शिल्पी पण्डित अमृतलाल नागर से गहरी मित्रता रही जिनका सान्निध्य वे हमेशा पाते रहे। नागर जी ने अपनी आत्मकथा में एक चेप्टर पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी पर लिखा है। यह उल्लेखनीय है कि आधुनिक रंगमंच और नौटंकी में उनकी सारी गतिविधियाँ और रचनात्मक सक्रियताएँ मंच परे ही रहीं हैं। दर्पण संस्था में वे नाट्यालेख, स्टेज निर्माण, वेशभूषा, रंगसज्जा, संगीत इत्यादि में परामर्शदाता और विशेष सहयोगी के रूप में अपनी गहन भूमिका निबाहते थे।

नाटक-नौटंकी में रम जाना, पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी के लिए जीवन भर संघर्ष का पर्याय भी रहा। विवाहित और भरेपूरे परिवार के मुखिया के रूप में अपनी जिम्मेदारियों से वे कभी पीछे नहीं हटे। अपने बारे में एक बार उन्होंने बताया था कि मेरे पिता कानपुर कचहरी में मामूली स्टाम्प वेण्डर थे। मैं वयस्क होने के बाद पारिवारिक जीवन निर्वाह के लिए तमाम फुटकर कार्य करता था, जैसे पुस्तकों के कवर डिजाइन करना, अपनी छोटी सी दुकान में मैनपुरी तम्बाकू बनाकर बेचना, चित्रकला, मूर्तिकला का काम, शादी-विवाह मण्डपों में पुष्प सज्जा और आकल्पन का काम, चूरन और मंजन बनाने का काम।

लिखने-पढऩे से मिलने वाला मानदेय भी परिवार के लिए बड़ा काम आता था। खुद अपना घुमन्तू और बेपरवाह जीवन, एक मस्त-मलंक आदमी की तरह हमेशा प्रसन्नचित्त और बात-बतकहाव के धनी पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी अपनों में सिद्धे गुरु के रूप में जाने, पहचाने और बुलाये जाते थे। कानपुर के अपने कचहरी रोड वाले घर से सुबह निकले तो चौक होते हुए रेल बाजार, जहाँ नौटंकी कलाकार रहते थे, वहाँ से होते हुए कब लखनऊ चले जायेंगे, गये हैं तो कब आयेंगे, इसको लेकर उन्होंने सभी अपनों को बेफिक्र कर रखा था। वे दैनिक जागरण अखबार में कला-संस्कृति पृष्ठ के सम्पादक के रूप में वर्षों काम करते रहे लेकिन अपनी मुक्त मगर जिम्मेदार उपस्थिति के साथ।

पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी की प्रकाशित रचनाओं में उपन्यास नीलकण्ठ, गीत नाटक कृष्णलीला, नौटंकी अग्रिव्याल, सोने का फूल, मेघदूत का वस्तु शिल्प और उसका मूलाधार शामिल हैं। उनकी लगभग दस से ज्यादा अप्रकाशित नौटंकी कृतियों के अनेक बार मंचन हुए जिनमें रत्नावली, सल्तनत के दावेदार और चन्द्रगुप्त शामिल हैं। उत्तरप्रदेश संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से वे दो बार पुरस्कृत हुए। पाँच मौलिक गीत-काव्य और चार रंगीन छाया नाटक भी मंचन में खूब चर्चित रहे थे। मशहूर नौटंकी कलाकारों स्वर्गीय गुलाब बाई, स्वर्गीय कृष्णा बाई, नक्कारा वादक मरहूम रशीद खाँ वारसी आदि के वे मार्गदर्शक, परामर्शदाता और शुभचिन्त रहे हैं।

लगभग अस्सी वर्ष की उम्र तक सिद्धे गुरु स्वस्थ और सक्रिय रहे हैं। अचानक पक्षाघात ने उनको छ: वर्ष शारीरिक-संत्रास में रखा। यह उनका स्वाभिमान था कि अनेक आग्रहों के बावजूद उन्होंने सरकारी सहायताएँ, कलाकार पेंशन आदि न मांगी न कुबूल की। उनका निधन अपूरणीय क्षति है। जीते-जी भी और अब जब उनकी स्मृतियाँ शेष हैं, कभी भी नौटंकी पर कोई सारगर्भित बात, बिना पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी के जिक्र या योगदान का स्मरण किए बगैर पूरी नहीं हो सकती।

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बुधवार, 8 जून 2011

रामू, देवा और सायकल किक

बेशक सुभाष घई ने युवराज के बाद काफी समय से कोई फिल्म नहीं बनायी है मगर वे एक अच्छा काम ये कर रहे हैं कि इस कठिन समय में कुछ अच्छी फिल्मों के निर्माण में आगे आये हैं। उन्होंने भाषायी फिल्मों में और खासतौर पर किसी प्रतिष्ठित निर्देशक के साथ जुड़े युवाओं की प्रतिभा को ढूँढ़ा है और उन्हें फिल्म निर्माण का काम सौंपा है। अभी कुछ ही दिनों पहले हमने अपने स्तम्भ में घई द्वारा निर्मित फिल्म नौका डूबी की चर्चा की थी जो टैगोर की कहानी पर ऋतुपर्णो घोष ने निर्देशित की थी, यह फिल्म हिन्दी में कश्मकश के नाम से भी आयी थी।

एक दूसरा उपक्रम सुभाष घई ने सायकल किक नाम की फिल्म का निर्माण करके किया है जो अगले सप्ताह प्रदर्शित हो रही है। यह बात अलग है कि जिस तरह इस फिल्म का नाम है, कोई सितारा पहचान वाला कलाकार नहीं है, कैसे यह फिल्म दर्शकों को आकृष्ट कर पायेगी लेकिन एक मर्मस्पर्शी, जीवन मूल्यों और आत्मविश्वास की प्रेरणा देने वाली यह फिल्म दूसरी तमाम निरुद्देश्य और स्तरहीन फिल्मों से सायकल किक बहुत अलग है। सायकल किक का फिल्मांकन दक्षिण के सुदूर अंचल में एक छोटे से खूबसूरत गाँव में हुआ है, जहाँ अच्छे-अच्छे घर बने हैं, सडक़ें हैं, स्कूल हैं और आसपास का वातावरण सुरम्य है।

यह दो ऐसे भाइयों की कहानी है जिनके माता-पिता नहीं हैं। रामू बड़ा है और देवा छोटा। रामू, देवा को बहुत प्यार करता है, अपनी जिम्मेदारी समझता है। स्वयं वह सुबह जल्दी उठकर काम पर जाता है और दोपहर कॉलेज की पढ़ाई करता है। रामू ने देवा को एक अच्छे स्कूल में दाखिल करा रखा है जहाँ वो अच्छे पढऩे वाले छात्रों में गिना जाता है। अपने कंधे पर छोटे भाई को बैठाकर रामू हर कहीं ले जाता है, उसकी जरूरत की चीजें दिलाता है, उसका ख्याल रखता है। एक बार दोनों भाइयों को एक सुनसान जगह पर एक टूटी-फूटी सायकल मिलती है। दोनों भाई उसके पुर्जे-पुर्जे उठा लाते हैं और जोडक़र सायकल खड़ी कर लेते हैं। यह सायकल उनके जीवन पर खुशियाँ और परिवर्तन लाती है। अब रामू ज्यादा काम कर सकता है, जल्दी अपने भाई के पास पहुँच जाता है।

एक दिन उसकी सायकल चोरी हो जाती है, वह जानता है चोर कौन है पर जिसने सायकल चुरायी वह वह कॉलेज का साथी उसे लौटाने को तैयार नहीं है। अब फैसला एक मैच से होना है, फुटबाल मैच से। कोच सच्चाई को जानता है और हौसले तथा जीतने के जज्बे के साथ रामू को खड़ा करता है। सायकल किक एक संवेदनशील फिल्म भी है। घई ने ही कुछ वर्ष पहले श्रेयस तलपदे और नसीर के साथ इकबाल बनायी थी। दर्शकों को इस फिल्म तक जाना चाहिए। चर्चित फिल्म मॉर्निंग रागा के एसोसिएट डायरेक्टर रहे निर्देशक शशि सुदिगला ने विषय का निर्वाह बड़ी जिम्मेदारी के साथ किया है।

मंगलवार, 7 जून 2011

नकारात्मक भूमिकाएँ करने वाले कलाकार

छबि से किसी इन्सान का आकलन किया जा सकता है, बहुत से लोग कहेंगे किया जा सकता है और बहुत से कहेंगे, नहीं किया जा सकता। सामाजिक जीवन में तो खैर यह अब बड़ा मुश्किल होता जा रहा है, चेहरा कई बार दिल की पहचान होता है तो वही कई बार मुखौटा साबित होता है। टी. प्रकाश राव की फिल्म इज्जत में मोहम्मद रफी साहब ने परदे पर अभिनेता धर्मेन्द्र के जरिए यही फरमाया है, क्या मिलिए ऐसे लोगों से जिनकी फितरत छिपी रहे, नकली चेहरा सामने आये, असली सूरत छिपी रहे।

चोट खाये, पछताए लोगों के लिए यह गाना मन की भड़ास निकालने के लिए काफी है। क्रोध और छलावे को कम करने के लिए पर्याप्त है। बात समाज के माध्यम से सिनेमा तक जाती है, प्रश्र यही उठता है कि परदे पर नकारात्मक भूमिकाएँ निभाने वाले कलाकार क्या वाकई वैसे ही बुरे, मन के काले और कुत्सित होते हैं? दर्शकों के मन में इस तरह के भ्रम खड़े होते हैं। खासकर छोटी उम्र के नासमझ दर्शक बुरे किरदारों के साथ अपना आकलन जोड़ लिया करते हैं और फिर उनका मानना होता है कि यह आदमी सारी जिन्दगी इसी तरह का ही होगा या रहेगा।

नकारात्मक भूमिकाएँ करने वाले बड़े पक्के कलाकारों की हिन्दी सिनेमा में लम्बी परम्परा रही है। कन्हैयालाल हमेशा कुटिल मुनीम के रूप में हीरो के परिवार से लेकर पूरे गाँव वालों से गलत कागज पर अँगूठा लगवाकर उनकी जमीन-जायदाद हड़प कर लेने वाले आदमी के रूप में बदनाम रहे। मदनपुरी से सबको डर लगता रहा कि यह आदमी कभी भी खटका दबाकर बटनदार चाकू निकाल सकता है। जब यह हीरो को नहीं छोड़ता तो हम क्या चीज हैं? कृष्ण निरंजन सिंह यानी के.एन. सिंह कसीनों चलाने वाले, ब्लैक मार्केटिंग करने वाले खलनायक के रूप में हमेशा हीरो को अपने से बांधे रखने वाले बुरे आदमी रहे जिसकी वजह से हीरो अच्छी राह पर चल ही नहीं पाया।

रसूखदार खलनायक के रूप में रहमान का शायद कोई विकल्प न हुआ। रंजीत और प्रेम चोपड़ा की आँखों में हमेशा वासना के डोरे कुत्सित अन्दाज में दिखायी देते थे। प्राण साहब के बारे में तो हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म गुड्डी में जया बच्चन, धर्मेन्द्र से कहती भी हैं कि उस आदमी से घड़ी क्यों ले ली, न जाने उसके मन में क्या होगा? अमजद खान एक जल्लाद खलनायक के रूप में शोले से आये वहीं अमरीश पुरी ने खलनायक किरदारों को एक अलग ही भयाक्रान्त कर देने वाले एहसासों के साथ स्थापित किया।

अनिल शर्मा ने अपनी फिल्म हुकूमत, फरिश्ते, ऐलाने जंग आदि में सदाशिव अमरापुरकर को एक भयानक खलनायक के रूप में पेश किया। दिलचस्प सच्चाई यही है कि ये सभी कलाकार मानवीय और अच्छे दिल के इन्सान रहे हैं जिनकी अपने उन सभी नायकों से खूब दोस्ती रही जिनके साथ परदे पर इन्होंने विश्वासघात किया।

सोमवार, 6 जून 2011

बहन से अम्माँ जी तक फरीदा जी

दिलचस्प प्रोमो के साथ एक धारावाहिक, अम्माँ जी की गली का प्रचार सम्बन्धित चैनल के साथ-साथ शहरों में भी जगह-जगह है। शुरू में अम्माँ जी कौन होंगी, इस बात को जाहिर नहीं किया गया था, लेकिन बाद में बहुत से किरदारों को अलग-अलग प्रचार में पेश करने के साथ ही अम्माँ जी को भी शामिल किया गया। पहचानने वालों ने धीरे-धीरे पहचान लिया है कि ये अम्माँ जी और कोई नहीं हिन्दी फिल्मों की चिर-परिचित कलाकार फरीदा जलाल हैं जो पिछले पाँच दशक के अनुभवों से समृद्ध हैं और इस धारावाहिक में वे केन्द्रीय भूमिका में कुछ अलग करने जा रही हैं।

फरीदा जलाल ने टेलीविजन के लिए जिन धारावाहिकों में काम करना मंजूर किया उनमें से देख भाई देख, शरारत और बालिका वधू के बारे में दर्शक जानते हैं। तीनों ही धारावाहिकों में उनकी भूमिकाएँ अहम थीं। आज लगभग बासठ वर्ष उम्र की फरीदा जलाल ने दस-ग्यारह वर्ष की उम्र में पहली बार चौदहवीं का चांद फिल्म में बाल कलाकार के रूप में काम आरम्भ किया था। इस फिल्म में गुरुदत्त और वहीदा रहमान की प्रधान भूमिकाएँ थीं। मोहम्मद सादिक निर्देशित इस फिल्म में वे बेबी फरीदा के रूप में नजर आयी थीं। यहाँ से उनका सफर जो शुरू हुआ तो फिर शायद दो-तीन सौ फिल्में होंगी, जिनमें उन्होंने काम किया।

वे सत्तर के दशक से नायक की बहन के रूप में खूब जानी गयीं। उस समय के सभी लोकप्रिय नायकों राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, जितेन्द्र, विनोद खन्ना सभी की सफल फिल्मों में फरीदा जी की भूमिकाएँ उस समय के युवा दर्शकों को याद होंगी। हालाँकि उस समय कहा जाता था कि नायिकाओं की भूमिकाओं की उनको चाह रही पर उस क्षेत्र में सफलता न मिल पाने के कारण उन्होंने बहन के रोल करने शुरू किए। हालाँकि वे बहन-लुक में उस समय की सबसे ज्यादा पहचानी जाने वाली कलाकार थीं।

नब्बे के दशक के बाद उनको इस तरह की भूमिकाएँ मिलनी बहुत कम हो गयीं। बाद में जब हिन्दी सिनेमा में शाहरुख खान, अक्षय कुमार, सलमान खान जैसे सितारों का आगमन हुआ तब फरीदा जी को निर्माताओं ने माँ की भूमिका के लिए लेना फिर शुरू किया। यह उनकी एक तरह से वापसी जैसी थी। फिर इसी बीच श्याम बेनेगल ने मम्मो फिल्म में उनको मम्मो मौसी की भूमिका दी जो बहुत ही मर्मस्पर्शी थी। इस दौर में एक बार फिर फरीदा जी की पूछ-परख बढ़ी और वे सक्रियता के साथ काम करती चली गयीं।

फिल्मों से ज्यादा उन्होंने इस समय के टेलीविजन धारावाहिकों के अच्छे प्रस्तावों में रुचि ली और यहाँ लोकप्रिय धारावाहिकों में काम करते हुए वे, अम्माँ जी की गली से एक बार फिर घर-घर अपने नये अन्दाज से जानी जायेंगी।

रविवार, 5 जून 2011

चन्द्रकान्ता के साथ भव्यता की वापसी

छोटे परदे पर भव्यता अपनी एक अलग तरह की स्पर्धा के साथ एक दशक पहले तक दिखायी देती थी। पौराणिक और ऐतिहासिक धारावाहिकों के साथ खर्चीले प्रयोग शुरू हुए थे। रामायण से महाभारत, महाभारत से चाणक्य और चाणक्य से भारत एक खोज। लम्बे-लम्बे धारावाहिक, कथ्य की प्रामाणिकता और यथार्थ के लिए विराट नगर फिल्म स्टूडियो में खड़े किए जाना, मँहगी कास्ट्यूम्स, गहने और प्रभाव से लकदक प्रॉपर्टियाँ सबका एक अनूठा प्रभाव घरेलू दर्शकों के आकर्षण के लिए धारावाहिक बनाने वालों ने कभी रचे थे।

यह परम्परा बीच में टूट सी गयी थी जब अतिव्यावसायिक दृष्टि और सम्पर्क वाले धारावाहिकों का दूसरे चैनलों ने प्रादुर्भाव किया। भव्यता आधुनिक और समृद्ध परिवारों की जीवनशैली पर आकर स्थिर हो गयी। इन सबके बीच बहुत से अच्छे धारावाहिकों की याद विस्मृत हुई जिनमें से एक चन्द्रकान्ता सन्तति भी था। इस धारावाहिक को भी प्रसारण के समय परिवेशजनित भव्यता और चकाचौंधभरा वातावरण देने की कोशिश की गयी थी। बाबू देवकीनन्दन खत्री का यह दुरूह उपन्यास फिल्मांकन के लिए आसान नहीं था लेकिन इसके निर्माता और निर्देशक ने चुनौती के रूप में इस काम को स्वीकार किया।

सुनील अग्निहोत्री ने जो कि उस समय धारावाहिकों के बहुत सफल और मूल्यवान निर्देशक समझे जाते थे, इस धारावाहिको को सुरुचिपूर्ण और दिलचस्प बनाया। प्रेम, धोखा, छल, षडयंत्र और दाँवपेंच से भरी यह कथा छोटे परदे पर अपनी छाप छोडऩे में कामयाब रही थी। दर्शकों मेें लोकप्रिय होने के बावजूद यह धारावाहिक हालाँकि पूर्णता तक नहीं पहुँच सका था पर एक लम्बे अन्तराल में भूल गये दर्शकों को यह अन्दाज न होगा कि जहन में अपनी मुकम्मल स्मृतियों के साथ कहीं ठहरे इस धारावाहिक के फिर एक बार शुरू होने और आगे बढऩे की स्थितियाँ आयेंगी। यह इच्छाशक्ति है सुनील अग्रिहोत्री की जिन्होंने कहानी चन्द्रकान्ता की, के नाम से दर्शकों में इसकी स्मृतियों को पुन: जाग्रत करने का उपक्रम किया है। सोमवार से इसका प्रसारण फिर आरम्भ होना इस उपक्रम की पुष्टि करता है।

सुनील ने इसको दोबारा शुरू करते हुए निर्माता भी खुद ही बनना उपयुक्त समझा। उनको अपने वही सारे कलाकार फिर सहयोग करने को तैयार हो गये जो पहले उनके साथ थे, विन्दु दारासिंह, राजेन्द्र गुप्ता, शिखा स्वरूप, मामिक, कृतिका देसाई आदि। पुनीत इस्सर, रूपा गांगुली, अर्जुन, निशिगन्धा आदि कलाकारों ने भी खुशी-खुशी इसका हिस्सा बनना स्वीकार किया। इस धारावाहिक में दर्शकों की एक बड़ी दिलचस्पी का कारण तिलिस्म, जादू, चमत्कार थे जो विभिन्न किरदारों, चरित्रों, प्रवृत्तियों से अधिरोपित हुआ करते थे। परदे पर ऐसी कहानियों का निर्वहन अत्यन्त जटिल होता है। तकनीक और आधुनिक संसाधनों के साथ-साथ अब कम्प्यूटर ग्राफिक्स का प्रयोग धारावाहिकों से लेकर रोबोट फिल्म तक हमने देखा है।

कहानी चन्द्रकान्ता की, इस नये समय, नये संसाधनों और नयी इच्छाशक्ति के साथ एक बार फिर शुरू हो रहा है। देखना होगा, हम समय से जितना आगे आये हैं, उस दूरी को पाटने में इसकी विशेषताएँ क्या हैं.. .. ..?

शनिवार, 4 जून 2011

अमिय चक्रवर्ती की यादगार फिल्म पतिता

इस रविवार 1953 में प्रदर्शित अमिय चक्रवर्ती निर्देशित यादगार फिल्म पतिता की चर्चा विशेष रूप से नैतिक मूल्यों, अन्तरात्मा को झकझोरकर रख देने वाली परिस्थितियाँ और बहुत मर्मस्पर्शी कहानी को अच्छे कलाकारों से निबाहने के निर्देशकीय कौशल को याद करते हुए की जाना प्रासंगिक लगता है। प्रासंगिक या मौजूँ इसलिए क्योंकि ऐसे विषय या ऐसे उद्देश्य अब हमारे सिनेमा में नजर नहीं आते। यह फिल्म देव आनंद, ऊषा किरण, आगा, कृष्णकान्त और ललिता पवार के न भुलाये जा सकने वाले किरदारों के कारण मन में ठहर जाती है।

पतिता एक ऐसी औरत की कहानी है जो गरीबी और मुफलिसी का शिकार है, अपने वृद्ध और अपाहिज पिता के साथ जीवन गुजार रही है। वह भीख मांगती हुई नायक के सामने जाती है, फिल्म का ओपनिंग शॉट यही है और नायक उसे नसीहत देता है, भीख मांगकर जीना अच्छी बात नहीं कुछ काम करो। नायक रईस है, वह अपने मित्र का पता देकर उसकी मदद करता है और काम दिलाता है मगर किराये के घर से बार-बार निकाले जाने की धमकी और अय्याश मकान मालिक की बुरी नजर राधा का नसीब कहीं और ही ले जाती है।

राधा के पिता मर जाते हैं और हादसे का शिकार हुई यह स्त्री अविवाहित माँ का जीवन जी रही है। वह मर जाना चाहती है मगर एक सहृदय आदमी मस्तराम उसके प्राण बचाता है और बहन बनाकर अपने घर ले आता है। बिखरा हुआ जीवन फिर किसी तरह राधा समेटने का जतन करती है। इस बीच उसकी नायक से दोबारा मुलाकात होती है। नायक उसे धोखेबाज समझता है लेकिन वह नायक को सचाई बताती है। एक हादसा और घटता है जब नायिका के हाथ से अय्याश मकान मालिक का खून हो जाता है।

नायक उसको पहले ही बहुत चाहता था, अब विवाह करना चाहता था लेकिन नायक की माँ इसके लिए तैयार नहीं थी। राधा को इन स्थितियों से उबारने के लिए बेटे को बहुत चाहने वाली अपनी माँ के हृदय परिवर्तन के लिए नायक ऐसा कदम उठाता है कि फिर माँ राधा को बहू बनाकर घर लाने को तैयार हो जाती है। वह अदालत में अपनी गवाही से जज को सोचने पर मजबूर कर देती है।

फिल्म सुखान्त है। देव आनंद इस फिल्म में खूबसूरत युवा उम्र में और भी अच्छे लगते हैं। ऊषा किरण हादसे और वेदना को जीने वाली नायिका के रूप में गहरी छाप छोड़ती हैं। मसखरे आगा और ग्रे-शेड की ललिता पवार की भूमिकाएँ याद रह जाने वाली हैं। तलत महमूद, लता मंगेशकर, हेमन्त कुमार के गानों में जीवन, दर्शन और प्रेम अपनी श्रेष्ठताओं के साथ अहसास होते हैं, अंधे जहाँ के, है सबसे मधुर गीत, किसी ने अपना बना के मुझको मुस्कुराना सिखा दिया, मिट्टी से खेलते हो बार-बार किसलिए और याद किया दिल ने कहाँ हो तुम, गानों को शंकर-जयकिशन ने अपनी अमर संगीत रचना से अविस्मरणीय बना दिया है।



गुरुवार, 2 जून 2011

हेमलेट और विशाल भारद्वाज


विशाल भारद्वाज हमारे समय के एक प्रतिभाशाली फिल्मकार हैं, ऐसा बड़ी संख्या में दर्शक और सिनेमा पर संजीदा बात करने वाले लोग मानते हैं। हालाँकि आज के समय में उस तरह के श्रेष्ठ फिल्मकारों की ऐसी कोई श्रेणी नहीं है जहाँ पर एक साथ हम चार-पाँच नामचीन लोगों को एक साथ रखकर बात कर सकें, खासकर सक्रिय फिल्मकारों में। वरिष्ठ और महत्वपूर्ण फिल्मकारों की एक पूरी पीढ़ी इस समय काम नहीं कर रही है।

श्याम बेनेगल जरूर पिछले तीन-चार सालों में फिल्में फिर बनाने लगे हैं। गोविन्द निहलानी के सिनेमा को लेकर कोई नई खबर बहुत दिनों से नहीं आयी है। कुछ वर्ष पहले मुम्बई में जब उनके साथ बातचीत के लिए मिलना हुआ था तब वे एक बहुत खूबसूरत एनीमेशन फिल्म कैमलू पर काम कर रहे थे। केतन मेहता ने बरसों बाद रंगरसिया बनाकर रख दी है जो सिनेमाघर की तरह उम्मीदों भरी निगाहें रखे हुए है। सुधीर मिश्रा इस समय बहुत सारा अप्रासंगिक सिनेमा बना रहे हैं, उनको इस दौर में अचानक निर्माता और फायनेंसर मिल जो रहे हैं। प्रकाश झा जरूर इस परिदृश्य में अपने बड़े वजूद के साथ मौजूद हैं मगर अब उनमें अच्छा व्यावसायिक चातुर्य और आत्मविश्वास आ गया है। हानियों और जोखिमों से उन्होंने अपने को उबार लिया है।

विशाल भारद्वाज निश्चित ही इन सबसे ज्यादा जवाँ और ऊर्जस्व हैं। विदेशी लेखक, किताबें, कहानियाँ उनको नयी फिल्म के लिए प्रेरणाएँ दिया करती हैं। अच्छी और चुनौतीपूर्ण कहानियाँ चुनना और फिल्म बनाना उनका गहन शौक बना हुआ है। मैकबेथ की कृति पर मकबूल और ऑथेलो पर ओमकारा बनाने विशाल ने रस्किन बॉण्ड की कहानी पर ही सात खून माफ भी बनायी। अब उनका ख्वाब हेमलेट पर फिल्म बनाने का है। अगर यह बनी तो हिृतिक रोशन नायक होंगे। गुलजार को अपना गुरु मानने वाले विशाल उनकी फिल्मों के संगीत निर्देशक हुआ करते थे लेकिन उन्होंने गुरु जैसा सिनेमा नहीं बनाया, हाँ गुलजार ने विशाल के लिए गीत खूब लिखे और लिख रहे हैं।

विशाल के बारे में एक बात यह कहना बहुत अच्छा लगता है कि वे अपनी फिल्म की संगीत रचना खुद करते हैं। भारतीय सिनेमा में केवल सत्यजित रे ही ऐसे फिल्मकार रहे हैं जिन्होंने अपनी फिल्म का लगभग सब काम किया, अभिनय के सिवा, लेखन, निर्देशन, संगीत, कला निर्देशन, टाइटिल लेखन आदि। अपनी कल्पनाशीलता को पूर्ण स्वरूप और आकार देने के लिए यह गुण कहें, विशेषता या दक्षता, बहुत मायने रखती है। विशाल अपनी फिल्मों के परिवेश और समय के अनुरूप संगीत को रचते हैं। उनका संगीत हमेशा चिन्हित होता रहा है, उसको कभी खारिज नहीं किया गया। पिछली फिल्म सात खून माफ में उनका डॉर्लिंग गाना उनकी गहन दृष्टि और गहराई का प्रमाण है।

अपनी फिल्मों को बनाने का काम वे करते जरूर एडवेंचर की तरह हैं मगर काम करते हुए जिस सहजता और सादगी को विशाल जीते हैं, वह उनको उनके सभी समकालीनों से अलग रखती है।

बुधवार, 1 जून 2011

सिनेमा, सपने और राजकपूर


2 जून राजकपूर की पुण्यतिथि है। अब से तेईस वर्ष पहले उनका निधन हुआ। जीवन के यथार्थ को लेकर उनके विचार उनका अपना दर्शन था। बहुत सारे उनके फलसफे आरम्भ से लेकर आखिरी तक हमने उनके सिनेमा में गढ़ते और परिष्कृत होते देखे। वे अपने दो और समकालीनों देव आनंद और दिलीप कुमार के साथ गाढ़ी मैत्री रखते हुए उनके साथ स्वस्थ और स्वच्छ स्पर्धा में अपनी सक्रियता प्रमाणित करते थे। दिलीप कुमार निर्देशक नहीं थे, केवल अभिनेता। देव आनंद अभिनेता और निर्देशक भी थे मगर आरम्भ से काफी समय तक उनके लिए सिनेमा विजय आनंद और गुरुदत्त निर्देशित करते रहे।

राजकपूर अभिनेता भी थे और निर्देशक भी। तीनों ही कलाकार अपनी-अपनी जगह विलक्षण और हिन्दी सिनेमा में लगातार अपनी सक्रियता के बीच श्रेष्ठ प्रतिमान के पर्याय बने। हम इन सारी बातों को करते हुए जब राजकपूर पर एकाग्र होते हैं तो फिर उनकी अभिनीत, निर्देशित और पाश्र्व में उनके प्रभावी और रचनात्मक हस्तक्षेप के प्रभाव से सामने आयीं अनेक फिल्मों के नाम जहन में उभरते हैं, नाम उभरते हैं तो कथ्य सामने आता है, कलाकार दृश्यबद्ध होते हैं, गीत-संगीत चलने लगता है जो अपने समय का इतना असरदार और माधुर्य चेतना से भरा हुआ कि आज भी रोम-रोम उसकी अनुभूतियों में डूबने लगता है।

बहुत सारी फिल्मों में काम करते हुए राजकपूर ने एक फिल्म सपनों का सौदागर में भी काम किया था। इस फिल्म का यहाँ जिक्र बस इसलिए कि यही राजकपूर जिन्दगी में प्रेम और संवेदना को एक खूबसूरत सपने की तरह अपने सिनेमा में सृजित करते थे। राजकपूर का सिनेमा चाहत की अतल गहराइयों में मर्म को छू लेने वाली कविता और गीत गढ़ता था। नैतिक मूल्यों के आसपास उनके सिनेमा का पथविस्मृत नायक जब आत्मावलोकन करता है तब उस दृश्य की मजबूती देखते ही बनती थी। आवारा, आह, आग, अनाड़ी, श्री चार सौ बीस, जागते रहो जैसी फिल्मों में ऐसे बहुत से सशक्त दृश्य हैं। उनकी फिल्मों के खलनायक खूँखार नहीं होते थे मगर उन किरदारों के सामने नायक की अग्रिपरीक्षा के दृश्य विस्मित करने वाले होते थे।

राजकपूर का नायक जमाने की आबोहवा, लोभ-लालच में अक्सर राह भटका करता था मगर किस तरह कोमल और विनम्र प्रेम उसे पतन के अन्तिम छोर से लौटा लाता है, यह फिलॉसफी रोमांचित कर दिया करती है। राजकपूर की फिल्मों के क्लायमेक्स और अन्त की अपनी अनुभूतियाँ हैं जिनमें जीवन को जीने, अपने हित और नैतिकता में बरतने की गहरी सीख है। हमने ऐसे निर्देशक को राजकपूर के सिवा कहीं और नहीं जाना जो अपने गीतकार, अपने संगीतकार, अपने गायकों के साथ दिनों-महीनों बैठक करके अपने सिनेमा के लिए गाना बनाकर रचनात्मक सन्तुष्टि पाता हो। राजकपूर, मुकेश को अपनी आवाज मानते थे मगर उनके ही सिनेमा में मन्नाडे और मोहम्मद रफी के यादगार गाने भुलाये नहीं जा सकते।

राजकपूर के नहीं रहने के बाद वह सारी की सारी क्लैसिकी वहीं ठहरकर रह गयी है। गनीमत है कि इस खराब दौर में भी कुछ संजीदा और बेचैन दर्शक अपनी तृप्ति के लिए स्वयं को उतने पीछे ले जाकर उस आनंद का पुनरावलोकन करते हैं।