हमारे यहाँ बुजुर्गों की खैर-खबर लेते रहने का कोई नैतिक सिद्धान्त नजर नहीं आता। अपने माता-पिता से दूर रहने वाली सन्तानें भी कई-कई दिनों में उनसे मिलने जा पाती हैं। ऐसी लापरवाही और बेरुखी का ही नतीजा, अकस्मात हादसे और घटनाएँ होती हैं, जिनसे जीवनभर पछताना होता है। कला-संस्कृति-साहित्य-सिनेमा में भी और समाज सक्रियता के अन्य तमाम आयामों में काम करने वालों के साथ भी ऐसा ही है। अचानक खबर बनते हैं तब मीडिया से लेकर सभी सन्दर्भ ढूँढने और जुटाने में लग जाते हैं मगर तब केवल श्रद्धांजलि ही दी जाती है, श्रद्धा प्रकट करने का अवसर जा चुका होता है।
सिनेमा में हम देखते हैं कि कुछ दिन पहले पेज की सुर्खियाँ बने रहने के बाद अब रजनीकान्त की सेहत का समाचार दर्शक-पाठकों को कई दिनों से नहीं मिल पाया है। रजनीकान्त एक ऐसे कलाकार हैं जिनसे दक्षिण भारत सहित देश के सभी दर्शक बहुत प्यार करते हैं। सिंगापुर जाने के बाद से सिर्फ एक बार उन्होंने अपने दर्शकों के लिए पचास सेकेण्ड की रिकॉर्डिंग अपनी सेहत को लेकर जारी करायी है कि वे जल्दी ही लौटेंगे मगर स्पष्ट चित्र नहीं है और अफवाहें उनकी सेहत को लेकर कई तरह की आये दिन फैला करती हैं। हिन्दी फिल्मों में कई कलाकार ऐसे हैं जिनके बारे में मुम्बई के फिल्म पत्रकार भी जानने की फिक्र नहीं करते।
दिलीप कुमार साहब बिस्तर पर हैं, प्राण साहब बिस्तर पर हैं, अवतार कृष्ण हंगल की स्थिति खराब है, डॉ. श्रीराम लागू बिस्तर पर हैं, खैयाम साहब सक्रिय नहीं हैं, गीतकार योगेश कहीं गुमनामी की जिन्दगी जी रहे हैं, सुलोचना जी का स्वास्थ्य खराब है, शम्मी कपूर साहब अस्वस्थ हैं, उनके भाई शशि कपूर भी बहुत कमजोर हो गये हैं, अभिनेत्री शम्मी की तबियत ठीक नहीं रहती, जय सन्तोषी माँ बनाने वाले निर्माता कलाकार आशीष कुमार और उनकी अभिनेत्री पत्नी बेला बोस सक्रियता एवं स्वास्थ्य की जानकारियाँ नहीं हैं। देव आनंद हिम्मतभर सक्रिय हैं मगर बाहर कम निकलते हैं, वहीदा रहमान बैंगलोर से मुम्बई बरसों पहले रहने आ गयी हैं और अस्वस्थ रहती हैं।
पौराणिक फिल्मों के यादगार कलाकार और अपनी कद-काठी से नकारात्मक भूमिकाओं के लिए खासे जाने, जाने वाले विष्णु कुमार मगनलाल व्यास अर्थात वी.एम. व्यास बिस्तर पर हैं। सिनेमा की शताब्दी की बेला में ऐसे पितृ-पुरुषों की खबर ली जाना चाहिए। दरअसल जिनके सहारे हम अपने सिनेमा पर गर्व कर सकते हैं, वो इनकी ही भागीदारी से सम्भव हुआ है। समाचार और दूसरे चैनलों के मुम्बई दफ्तरों को इस बारे में सोचना चाहिए। सुर्खियाँ और सनसनी तो इफरात हैं अब के दौर में पर अब बहुत से मूर्धन्यों के पास वक्त बहुत कम है, जो उम्रदराज हैं, उनका ख्याल सौ साल के सिनेमा को सेलीब्रेट करने वाले समय में किया जाना चाहिए।
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