मंगलवार, 21 जून 2011

सफलता-विफलता के प्रारब्ध


सिनेमा के क्षेत्र में अपने-अपने दाँव लगाने का खेल बड़ा मुश्किल होता है। पिछले कुछ समय से इस खेल में भव्यता और खर्च की परवाह नहीं की जाती। लॉबिंग और अपना खेमा या टीम बनाकर भी बरसों-बरस आजमाइशें जारी रहती हैं। कोशिश करने वालों में या इस रास्ते में भी हिम्मत न हारने वालों के हौसले की दाद है कि वे हार नहीं मानते। बार-बार खारिज होने और भविष्य में भी सम्भानाओं की गति पता नहीं लगने के बावजूद धन, समय और हौसले की बरबादी जारी रहती है।

इधर दर्शक है कि वह अब सिरे से ही नकार दिया करता है, चेहरों को, सिनेमा को और उसके पूरे के पूरे रूपक को जो बे-मतलब गढ़ा जाता है। राजेन्द्र कुमार के बेटे कुमार गौरव पहली सुपरहिट लवस्टोरी फिल्म के बाद कहाँ हैं, पहचान में ही नहीं आते। शशि कपूर के बेटे कुणाल कपूर और करण कपूर का भी पता नहीं है। राजकुमार के बेटे पुरु राजकुमार का भी पता नहीं है। अब इधर लाइन में लगे हैं अभिषेक बच्चन, तुषार कपूर और न जाने क्यों इस श्रेणी में जुड़ते दीख रहे इमरान खान। हालाँकि इमरान खान के लिए आमिर खान के हौसले बुलन्द हैं। लगान बना लेने के बाद कुछेक फिल्मों में निर्माता के रूप में आमिर ने सराहना और सफलता दोनों हासिल की है।

इसी भरोसे उनको लगता है कि वे इमरान के लिए भी रास्ता बना लेंगे मगर लगता है कि दर्शक ने इमरान को ऐसी तवज्जो दो-तीन फिल्मों में काम कर लेने के बावजूद नहीं दी है जिससे उनका भविष्य उज्जवल दिखायी देने लगे। अभी एक और फिल्म इमरान की आ रही है मगर उसका हाल भी अन्दाजे में आ गया है। तुषार कपूर ने अपनी सफलता के लिए बहुत हाथ-पैर मारे। कितनी ही तरह की भूमिकाएँ जी-जान एक करके निभायीं मगर दर्शक उनके लिए इतना आश्वस्त है कि उत्साहित होने को उत्सुक ही नहीं दीखता। तुषार कपूर, यश चोपड़ा के बेटे उदय चोपड़ा की तरह ही हिम्मत न हारने वाले कलाकार हैं मगर दर्शक अन्तत: दर्शक है, वह व्यर्थ मुलायम होने के फेर में नहीं पड़ता क्योंकि अब फिल्म देखना भी दस गुना मँहगा सौदा हो गया है और खराब फिल्म देखना बड़े हादसे से कम नहीं है।

अभिषेक बच्चन को लेकर अब एक मजाक यह चलने लगा है कि उनकी एक ही फिल्म और उसके तमाम सीक्वेल सुपरहिट हैं, पूछा जाता है, कौन से, जवाब मिलता है, नो आइडिया। आइडिया और अभिषेक ही एक-दूसरे के खेवनहार हैं अब, ऐसा लगता है। अस्थिर बाजार में सिनेमा का स्वरूप सबसे अनिश्चित है। यह बिल्कुल अनुमान लगा पाना कठिन है कि सिनेमा में सुरुचि की कोई भरोसेमन्द नदी अब कभी उस प्रवाह से बहेगी जो बीसवीं सदी के सातवें दशक तक बहा करती थी।

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