बीसवीं सदी की आंचलिक नाट्य कला नौटंकी के लिए अपना जीवन समर्पित कर देने वाले पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी की अब स्मृतियाँ शेष हैं। हाल ही 4 जून की दोपहर सत्यासी वर्षीय बहुआयामी कला मर्मज्ञ ने जीवन की अन्तिम साँस ली। वे काफी समय से पक्षाघात से ग्रस्त थे मगर अपने काम, स्मृतियाँ और घटनाएँ उनके जहन में सब की सब ज्यों की त्यों थीं। मुख्य रूप से नौटंकी विशेषज्ञ के रूप की अपार प्रतिष्ठा और मान-सम्मान रहा है, तथापि उनका जीवन सर्जना के विविध आयामों से सम्पृक्त रहा है। वे कानपुर में सांस्कृतिक पत्रकारिता के जनक होने के साथ-साथ चित्रकार, शिल्पकार और उपन्यासकार भी थे। उन्होंने नीलकण्ठ नाम के एक उपन्यास की रचना भी की थी। शिल्पकार के रूप में उनकी बनायी मूर्तियाँ सराही और संग्रहीत की जाती थीं। विशेषकर बड़े जटाधारी नारियल पर शिव की आकृति उत्कीर्ण करने का उनका कौशल अनूठा था।
पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी का जन्म 18 मार्च 1924 को फतेहपुर उत्तरप्रदेश के ग्राम भिटौरा में हुआ था। वे बड़ी छोटी उम्र में अपनी माता से इसलिए प्रभावित थे क्योंकि उनका कण्ठ बहुत मधुर था और वे उस समय प्रचलित रीति-रिवाजों के अनुसार धार्मिक कार्यक्रमों, पारिवारिक और मांगलिक उत्सवों में बहुत अच्छे गीत और भजन गाया करती थीं। वे अपनी आरम्भिक प्रेरणा अपनी माँ को ही मानते थे और कहते थे कि उनकी आवाज और संगीत दोनों से मुझे लिखने और उस आनंद को समझने का रुझान विकसित हुआ।
युवावस्था में पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी संगीत कार्यक्रमों में एक जिज्ञासु और एक रसिक की तरह जाया करते थे। यहीं के अनुभवों और रसानुभूति ने उनको राग-रागिनियों के प्रति अनुराग तक पहुँचाया। इस रुझान के साथ ही नौटंकी के प्रति उनका आकर्षण भी युवावस्था में ही बढ़ा। नौटंकी वे देखते थे और खासतौर पर संवाद अदायगी, नक्कारे की ध्वनि और गीत रचनाओं का सम्मोहन उन्हें प्रभावित करता था।
आधुनिक हिन्दी रंगमंच और नौटंकी से वे इस तरह जुड़े। जब वे उन्नीस वर्ष के थे तब ही कृष्ण विनायक फडक़े के बाल रंगमंच आन्दोलन से उनका नाता बना। यहीं पर उन्होंने बच्चों के लिए अनेक नाटकों का निर्देशन भी किया। पच्चीस वर्ष की उम्र में उन्होंने अपने जीवन का पहला नाटक खेला जिसका निर्देशन, रंग-रूप सज्जा, संगीत आदि की जवाबदारियों का निर्वहन उन्होंने किया। इसके दो साल बाद ही स्वरचित काव्य नाटक यशोधरा का मंचन भी सराहनीय प्रतिक्रियाओं के साथ उन्होंने कानपुर में किया। 1960 में दिल्ली में हुए अखिल भारतीय लोकनाट्य समारोह में उनके निर्देशन में रत्नावली नौटंकी का मंचन अत्यन्त महत्वपूर्ण था। यह अप्रतिम संस्कृत नाटककार श्रीहर्ष के संस्कृत काव्य नाटक रत्नावली का रूपान्तर था।
पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी नौटंकी के क्षेत्र में अपनी दृढ़ता, अभिरुचि के साथ आये तो थे मगर परिवार के प्रबल विरोध और नाराजगी के बाद। लेकिन लगातार उनकी प्रतिबद्धता ने उनकी गम्भीरता को प्रमाणित किया और वे नौटंकी के ही होकर रह गये। वे समय-समय पर प्रसिद्ध लोकनाट्यकार स्वर्गीय श्रीकृष्ण पहलवान की संगत में थे, उनसे नौटंकी कला को लेकर उनका निरन्तर विचार-विमर्श और संवाद हुआ करता था। श्रीकृष्ण पहलवान के इस विधा में सघन अनुभवों का लाभ भी उनको मिला।
बाद में पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी प्रसिद्ध नाट्य संस्था दर्पण से जुड़े तो मास्साब अर्थात डॉ. सत्यमूर्ति जो दर्पण के संस्थापक थे, उनसे मिलकर उनकी रंगयात्रा और परवान चढ़ी। दर्पण से जुडक़र सिद्धेश्वर अवस्थी ने कई नौटंकी रूपान्तरण जो हिन्दी नौटंकियों, देशी भाषाओं की कहानियों, नाटकों पर आधारित थे, उनके खेला और प्रसिद्धि पायी। उनकी प्रसिद्ध उपन्यासकार और रंगमंच से जुड़े नाट्य शिल्पी पण्डित अमृतलाल नागर से गहरी मित्रता रही जिनका सान्निध्य वे हमेशा पाते रहे। नागर जी ने अपनी आत्मकथा में एक चेप्टर पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी पर लिखा है। यह उल्लेखनीय है कि आधुनिक रंगमंच और नौटंकी में उनकी सारी गतिविधियाँ और रचनात्मक सक्रियताएँ मंच परे ही रहीं हैं। दर्पण संस्था में वे नाट्यालेख, स्टेज निर्माण, वेशभूषा, रंगसज्जा, संगीत इत्यादि में परामर्शदाता और विशेष सहयोगी के रूप में अपनी गहन भूमिका निबाहते थे।
नाटक-नौटंकी में रम जाना, पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी के लिए जीवन भर संघर्ष का पर्याय भी रहा। विवाहित और भरेपूरे परिवार के मुखिया के रूप में अपनी जिम्मेदारियों से वे कभी पीछे नहीं हटे। अपने बारे में एक बार उन्होंने बताया था कि मेरे पिता कानपुर कचहरी में मामूली स्टाम्प वेण्डर थे। मैं वयस्क होने के बाद पारिवारिक जीवन निर्वाह के लिए तमाम फुटकर कार्य करता था, जैसे पुस्तकों के कवर डिजाइन करना, अपनी छोटी सी दुकान में मैनपुरी तम्बाकू बनाकर बेचना, चित्रकला, मूर्तिकला का काम, शादी-विवाह मण्डपों में पुष्प सज्जा और आकल्पन का काम, चूरन और मंजन बनाने का काम।
लिखने-पढऩे से मिलने वाला मानदेय भी परिवार के लिए बड़ा काम आता था। खुद अपना घुमन्तू और बेपरवाह जीवन, एक मस्त-मलंक आदमी की तरह हमेशा प्रसन्नचित्त और बात-बतकहाव के धनी पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी अपनों में सिद्धे गुरु के रूप में जाने, पहचाने और बुलाये जाते थे। कानपुर के अपने कचहरी रोड वाले घर से सुबह निकले तो चौक होते हुए रेल बाजार, जहाँ नौटंकी कलाकार रहते थे, वहाँ से होते हुए कब लखनऊ चले जायेंगे, गये हैं तो कब आयेंगे, इसको लेकर उन्होंने सभी अपनों को बेफिक्र कर रखा था। वे दैनिक जागरण अखबार में कला-संस्कृति पृष्ठ के सम्पादक के रूप में वर्षों काम करते रहे लेकिन अपनी मुक्त मगर जिम्मेदार उपस्थिति के साथ।
पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी की प्रकाशित रचनाओं में उपन्यास नीलकण्ठ, गीत नाटक कृष्णलीला, नौटंकी अग्रिव्याल, सोने का फूल, मेघदूत का वस्तु शिल्प और उसका मूलाधार शामिल हैं। उनकी लगभग दस से ज्यादा अप्रकाशित नौटंकी कृतियों के अनेक बार मंचन हुए जिनमें रत्नावली, सल्तनत के दावेदार और चन्द्रगुप्त शामिल हैं। उत्तरप्रदेश संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से वे दो बार पुरस्कृत हुए। पाँच मौलिक गीत-काव्य और चार रंगीन छाया नाटक भी मंचन में खूब चर्चित रहे थे। मशहूर नौटंकी कलाकारों स्वर्गीय गुलाब बाई, स्वर्गीय कृष्णा बाई, नक्कारा वादक मरहूम रशीद खाँ वारसी आदि के वे मार्गदर्शक, परामर्शदाता और शुभचिन्त रहे हैं।
लगभग अस्सी वर्ष की उम्र तक सिद्धे गुरु स्वस्थ और सक्रिय रहे हैं। अचानक पक्षाघात ने उनको छ: वर्ष शारीरिक-संत्रास में रखा। यह उनका स्वाभिमान था कि अनेक आग्रहों के बावजूद उन्होंने सरकारी सहायताएँ, कलाकार पेंशन आदि न मांगी न कुबूल की। उनका निधन अपूरणीय क्षति है। जीते-जी भी और अब जब उनकी स्मृतियाँ शेष हैं, कभी भी नौटंकी पर कोई सारगर्भित बात, बिना पण्डित सिद्धेश्वर अवस्थी के जिक्र या योगदान का स्मरण किए बगैर पूरी नहीं हो सकती।
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