शुक्रवार, 28 जून 2013

प्रसून जोशी होने का अर्थ




इस समय भाग मिल्खा भाग का एक गीत फिल्म प्रमोशन के चैनलों पर अच्छी पकड़ बना रहा है, ओय हवन कुण्ड, मस्तों का झुण्ड, ऐसी रात, रख दिल पे हाथ, हम साथ-साथ, बोलो क्या करेंगे, हवन करेंगे, हवन करेंगे, हवन करेंगे। इस गाने में आगे है, ओय जीव-जन्तु सब सो रये होंगे, भूत-प्रेत सब रो रये होंगे, ऐसी रात, सुन सारी रात, रख दिल पे हाथ, हम साथ-साथ बोलो क्या करेंगे, हवन करेंगे, हवन करेंगे, हवन करेंगे। 

इसी में आगे है, नहाता, धोता, सुखाता, सारे ऑर्डर बजाता, परेड थम, तभी तो फौजी कहलाता, परेड थम। दौड़ दौड़ के लोहा अपना बदन करेंगे, हवन करेंगे, हवन करेंगे, हवन करेंगे। ओय जंगली आग सी भड़कती होगी, लकड़ी दिल की भी सुलगती होगी, ऐसी रात, सुन सारी रात, रख दिल पे हाथ, हम साथ-साथ बोलो क्या करेंगे, हवन करेंगे, हवन करेंगे, हवन करेंगे। 

यह गीत प्रसून जोशी का लिखा हुआ है जिसके संगीतकार शंकर एहसान लॉय हैं। दिव्य कुमार ने इसको गाया है। स्क्रीन पर हम देखते हैं, मिल्खा सिंह बने फरहान अख्तर ने इसे खूब जिया है, अपने फौजी साथियों के साथ। यह एक मस्ती का गीत है जो फौजी फुर्सत के मौके पर साथ इकट्ठा होकर गा रहे हैं। बनियान और खाकी हाफ पैण्ट में सभी फौजी उस पूरी रात को जमकर जी रहे हैं जिसमें दिमाग एकदम मुक्त है और जोश सिर चढ़ा हुआ। प्रसून ने इस गाने को जिस मूड के लिए लिखा है, उनको सलाम करने को जी चाहता है।


 प्रसून हमारे समय के एक ऐसे गीतकार हैं जिनके गीत सीधे मन को छू जाते हैं। उनके गीत प्रेमियों की जुबाँ बनते हैं, संवेदना को एक अलग ही कविताई अन्दाज में पेश करते हैं और रिश्ते-नातों की बात भी बला की खूबसूरती के साथ कहते हैं। हमारे आसपास गीत और कविता का जो समय है उसके बहुत सारे आयाम और भेद-विभेद है। इन सबके बीच प्रसून जोशी की कविता हमारे मन की कविता है। अहम बात यह है कि यह सिनेमा से पिछले लगभग एक दशक से इस खूबसूरती के साथ जुड़ी है कि आप उन्हें याद करके फिल्म को भी याद करते और याद रखते हैं। भाग मिल्खा भाग राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म है जिनके लिए प्रसून ने रंग दे बसन्ती और दिल्ली छः के गीत भी लिखे थे, ससुराल गेंदा फूल जैसे। 

आमिर खान के चर्चित टेलीविजन शो सत्यमेव जयते के लिए भी प्रसून जोशी ने मर्मस्पर्शी गीतों की रचना की थी। वे इस समय महत्वपूर्ण निर्देशकों के चहेते गीतकार हैं। हम तुम, ब्लैक, रंग दे बसन्ती, फना, तारे जमीं पर, गजनी, लन्दन ड्रीम्स जैसी फिल्मों में उनके लिखे गानों की अलग-अलग व्याख्या है। तुझे सब है पता, मेरी माँ गाना सभी के मन के करीब है। प्रसून खूबियों से भरे, मौलिकताओं के पारखी गीतकार हैं। भाग मिल्खा भाग के उल्लेखित गीत में उन्होंने कमाल किया है, ऐसा कि उसे पूरा याद कर लेने को जी चाहता है।

    

शनिवार, 22 जून 2013

राँझणा, दीवानगी और जज्बात की एक नयी परिभाषा


कुछ महीनों से फिल्म प्रचारक चैनलों पर राँझणा के रंगों ने लगातार आकृष्ट किया था। नायक के रूप में निहायत साधारण चेहरा भी आकर्षित कर रहा था। यूँ तो कोलावरी डी के इस गायक और पहचान को समृद्ध करने के लिए एकदम सीधे दक्षिण के सुपर स्टार रजनीकान्त के दामाद के रूप में धनुष को हम जानने की कोशिश कर रहे थे लेकिन बहुतेरों को इतना मालूम नहीं था कि तमिल सिनेमा में चार-छः साल से यह युवा ठीकठाक जमा हुआ है। इधर बहुतायात में तमिल और तेलुगु की सुपरहिट फिल्मों की कहानी और पटकथाएँ मुम्बइया सिनेमा में आयातित हो रही हैं। आमिर खान, सलमान खान और अक्षय कुमार का सितारा इसीलिए बुलन्दी पर है। इसी परिप्रेक्ष्य में खास पूर्वोत्तर की पृष्ठभूमि पर गढ़ी जाने वाली देसी प्रेमकथा के लिए धनुष को निर्देशक ने नायक लेना चाहा, यह गौरतलब है।

फिल्म में यह जता भी दिया गया है कि किस तरह नायक के पूर्वज दक्षिण से बनारस आकर बसे और पीढ़ी दर पीढ़ी पुजारी के रूप में अपना जीवनयापन करने लगे। अपने स्वभाव से मस्त और खिलन्दड़ यह हीरो छुटपन में ही रावण फूँकने का चन्दा इकट्ठा करता हुआ नायिका के घर पहुँच जाता है और उसे देखकर मोहित हो जाता है। कहानी यहीं से परवान चढ़ती है। प्रेम को हर हाल में हासिल करने के तीस साल पुराने फार्मूले से ही नायक को सफलता मिलती है लेकिन जिस तरह फिल्म यह प्रमाणित करती है कि छः-सात साल की उम्र में भी प्रेम हो सकता है उसी तरह फिल्म यह भी प्रमाणित करती है कि पाँच साल का बिछोह नायिका का प्रेम जैसे विषय में स्मृतिलोप कर देता है। नायक उसे इशारे से एक मिनट में सभी चीजों का पाँच सौ फीट दूर से स्मरण करा देता है।

राँझणा में नायक-नायिका के बीच प्रेम का तीसरा एंगल अभय देओल का किरदार है जो उन्हीं पाँच सालों में नायिका के हृदय पर काबिज होता है। इस किरदार की सीमित मगर कहानी और उजला असर देने वाली उपस्थिति तक ही फिल्म बढि़या चली आयी है। किरदार की मृत्यु के बाद नायक के प्रायश्चित, नायिका की प्रेम-निष्ठा से कहानी पटरी उतरती है। बनारस से पंजाब और पंजाब से कहानी का दिल्ली आना उस पूरे अनुभूतिपरक असर को व्यर्थ करना शुरू करता है जो हम बनारस के घाट पर, गंगा के तट पर, बनारस की पहचान वाले मूलभूत स्थानों, घरों, छलों और उड़ती पतंगों के साथ-साथ रामबारात, आरती, ध्वनियाँ, त्यौहारों के समय सजता शहर और ऐसे ही प्रसंगों के साथ जीते आये हैं। अच्छी सिनेमेटोग्राफी को इसका श्रेय है। धनुष तो खैर नायक हैं, चार अवगुन उनके नायकत्व पर कुरबान सही लेकिन स्वरा भास्कर, मोहम्मद जीशान अयूब आदि कलाकार अपने किरदारों के साथ बेहतर न्याय करते हैं, वे अधिक आश्वस्त भी लगते हैं। धनुष का विश्लेषण करते हुए रजनीकान्त को दिमाग से निकाल देना चाहिए। 


राँझणा के प्रेम-विजय के लिए किए जाने वाले उपक्रम यथार्थ में बेहद अविश्वसनीय हैं लेकिन चटख संवाद और उनका देशज आनंद देता है। उस तरह की गालियों की छूट भी ली गयी है जो अब हमें घर में भी बोलने (बकने) की लगभग स्वतंत्रता हो गयी है जिस पर नोटिस लिया नहीं जाता। साँप के फन से पिछवाड़ा खुजाने का जोखिम जैसा संवाद नायक मंत्री को बोलकर अपना शत्रु बना लेता है। संवादों में, अन्त के उस आधे घण्टे में एलीट मेच्योरिटी दिखायी देती है जब कहानी दिल्ली पहुँच जाती है और जेएनयू के उन प्रतिवादी छात्रों के आसपास ठहर जाती है जिनके मुखिया अभय देओल हैं जिनके मन में अदम्य राजनैतिक महात्वाकांक्षा है। इस जमीन पर हम जो दृश्य देखते हैं उनमें ही मूलभूत कहानी कहीं खो जाती है। नुक्कड़ नाटकों, नारेबाजियों और प्रदर्शनों के बीच राँझणा का भटकाव बोझिल करता है।

इरशाद कामिल की गीत रचनाएँ और ए.आर. रहमान का संगीत बहुत अच्छा है। गानों में रूमानी एहसास प्रबल महसूस होते हैं। सोनम कपूर के बारे में यह कहा जा सकता है कि उनको एक अच्छी फिल्म मिली है, अपने किरदार को इससे बेहतर अदा कर भी नहीं सकती थीं। अभय देओल की उपस्थिति के बारे में पहले लिख ही दिया गया है।  फिल्म की शुरुआत पूर्वदीप्ति (फ्लेश-बैक) से होती है और वह भी प्राण छोड़ते नायक के अवचेते आत्मकथ्य से, वह अपने अति-साधारण रूप-रंग पर भी बोलता है और जब अंत में फिल्म पुनः उसकी आवाज़ से पूरी हो रही होती है, एक पराजय सी लेकर वह दुनिया छोड़ रहा है, थोड़ा अवसाद महसूस होता है। 

फिल्म की शुरुआत पूर्वदीप्ति (फ्लेश-बैक) से होती है और वह भी प्राण छोड़ते नायक के अवचेते आत्मकथ्य से, वह अपने अति-साधारण रूप-रंग पर भी बोलता है और जब अंत में फिल्म पुनः उसकी आवाज़ से पूरी हो रही होती है, एक पराजय सी लेकर वह दुनिया छोड़ रहा है, थोड़ा अवसाद महसूस होता है। 

शुक्रवार, 14 जून 2013

अलविदा तार.........


आज से तार भेजे जाने का रिवाज बन्द हो रहा है। अंग्रेजों के जमाने में चिट्ठी से पेश्तर सूचना पहुँचाने का तंत्र तार के रूप में विकसित किया गया था एक सौ अट्ठावन वर्ष पहले। अमूमन चिट्ठी पहुँचने में एक सप्ताह का समय लगा करता था और तार एक दिन से लेकर दो या तीन दिन में पहुँच जाया करता था। फर्क यह होता था कि चिट्ठी पोस्टकार्ड, अन्तर्देशीय या लिफाफे में विस्तार की अलग-अलग सम्भावना के साथ भेजी जा सकती थी जबकि तार में अधिक से अधिक एक वाक्य में आप सारी सूचना कह दो या कह देने की प्रतिभा का परिचय दो। धीरे-धीरे लोग इसमें भी दक्ष और कुशल हो गये क्योंकि नासमझी में बड़े सन्देश भेजना खर्चीला हो जाता था वजह तार में गणना शब्दों के आधार पर होती थी, प्रति शब्द शुल्क लगा करता था।

साठ-सत्तर के दशक के सिनेमा में तार का आना पूरी कहानी और घटनाक्रम को बदल देने का काम करता था। नायक या नायिका अक्सर अपने माता-पिता को इस तरह का तार भेजा करते थे, खासतौर पर दूर देश से पढ़ाई करके जब धर्मेन्द्र के घर लौटने का तार पिता नजीर हुसैन को मिलता था तो वे पूरे बंगले में खुशी से दौड़ते नजर आते थे, बेटा विदेश से आ रहा है, अजी सुनती हो.........! पत्नी से शेष परिवार और घर के नौकर-चाकरों तक को छोटे साहब के आने की खबर हो जाती थी और सब खुशी से झूम उठते थे। हीरो के आने की खबर से नायिका के भी ओंठ गुलाबी हो जाया करते थे। कई बार नजीर हुसैन को किसी दुखद घटना का तार मिलता था तो तुरन्त उनके सीने में दर्द होने लगता था और वे हाथ रखकर बेचैन होने लगते थे।

सिनेमा से लेकर जीवन तक तार के बहुत सारे भावनात्मक आयाम रहे हैं, हालाँकि मूल में तार का आना दिल के तेज धड़कने का सबब बन जाता रहा। हमेशा किसी अनिष्ट की सूचना तार से जुड़ी रही है। तार के सन्दर्भ में लोग इस बात का मजा लेकर आज हँसते हैं कि तार आने की खबर और उसे काँपते हाथों से हस्ताक्षर कर ग्रहण किए जाने तक ही रोना-धोना मच जाता था, फिर भले ही उसमें परिवार को नाना-नानी या दादा-दादी बनने की सूचना दी गयी हो, नौकरी लगने की बात कही गयी हो या प्रमोशन होने की।

तार सत्तर के दशक में क्रान्तिकारी युवाओं ने प्रेम विवाह करने के बाद अपने माता-पिता को भी दिया। अचानक दो-चार दिन की अनुपस्थिति और उसके बाद में आने वाला तार जिसमें लिखा है कि हम खुशी से शादी कर रहे हैं। आपका आशीर्वाद चाहिए। उसके कुछ दिन बाद जोड़े से आकर पाँव छुए और आशीर्वाद प्राप्त किया। माता-पिता के आगे भी फिर स्वागत समारोह आयोजित किए जाने के सिवा कोई विकल्प नहीं बचता था। इस तरह तार ने प्रेमियों के पक्ष में भी अपना बड़ा रोल अदा किया।

समय और तकनीकी विकास के साथ तार की यात्रा धीरे-धीरे समृद्ध हुई। संचार और आपसी सम्पर्क के दूसरे तीव्र संसाधनों के बाद तार की वकत जरा कम हुई फिर भी परीक्षा में सफलता के लिए बधाई देने वाले तार बहुत आते-जाते रहे। दुखद घटना में सांत्वना और ढाँढस बंधाने वाले तार खूब किए जाते रहे। वैवाहिक जीवन की सफलता की शुभकामनाओं के तार भी लोग किया ही करते रहे। चुनाव जीतने, विधायक या सांसद बनने और मंत्री बनने पर भी निकटवर्तियों ने तार भेजकर अपनी उपस्थिति दर्ज करा लेना हमेशा जरूरी समझा है।

स्थूल अर्थों में देखा जाये तो तार सभी को जोड़ने वाली उस व्यवहारिकी का नाम है जिसका माध्यम या जरिया सुगम है, उसकी अपनी निजता है, यह ठीक है कि आप भेजते हैं और पाने वाला पढ़ता है, पर उसकी अपनी गोपनीयता उन तमाम माध्यमों से आम होते हुए फिर गोपनीय स्वरूप में गन्तव्य तक जाती है। अमूमन दब्बू और झेंपू लोगों ने अपने प्यार का इजहार भी सैकड़ों-हजारों बार तार से किया होगा जिन्हें कहने में जान पर बनती होगी। बहरहाल सकल जगह में ऐसी बहुत सी चीजें हैं, बातें हैं जो हमारी उपेक्षा या उदासीनता का शिकार रोजमर्रा के जीवन में हुआ करती हैं, हम अचानक तब उनका मूल्य समझते हैं या उन पर तब एकाग्र होते हैं जब उनका अवसान होता है या हमारे जीवन से उनकी विदाई होती है।

आज तार की विदाई पर भी कुछ ऐसा ही लग रहा है...................................