डॉ. श्रीराम लागू को हमने लम्बे समय से परदे पर नहीं देखा है। कुछ वर्ष पहले वे मराठी नाटक नटसम्राट के माध्यम से लम्बे अन्तराल के बाद मंच पर अवतरित हुए थे। उनके बारे में कहा जाता था कि उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, ज्यादा मिलते-जुलते भी नहीं हैं। उम्र काफी हो चुकी है, उनकी सक्रियता को लेकर कोई जानकारी भी नहीं है। ऐसे ही समाचारों और कयासों के बीच वे पुणे में जब नटसम्राट के माध्यम से मंच पर दिखायी दिए तो सुखद विस्मय होना स्वाभाविक था।
हम जैसे हिन्दी दर्शकों ने जिन्होंने डॉ. लागू को हिन्दी सिनेमा के परदे पर ज्यादातर देखा है, वो उन्हें उतना ही जानते हैं और उतनी ही उनकी जानकारी है कि परदे पर कमजोर या शारीरिक रूप अस्वस्थ दिखायी देने वाले किरदार करने वाले इस शख्स की सीमा यहीं तक होगी। लोग नहीं जानते होंगे कि डॉ. श्रीराम लागू का मतलब है मराठी रंगमंच की समृद्ध परम्परा और उस परम्परा के वटवृक्ष हैं डॉ. लागू जो हो सकता है फिल्मों में काम न करने का निर्णय पूरी तरह ले चुके हों लेकिन रंगमंच उनके प्राण है या रंगमंच में उनके प्राण बसते हैं। यही कारण है कि जब नटसम्राट नाटक उन्होंने किया था तब परिवेश का रंग-जगत अचम्भित था और उनकी मंच उपस्थिति पर गौरवान्वित था।
19 नवम्बर को डॉ. श्रीराम लागू ने छियासीवें वर्ष में प्रवेश किया है। उनकी उपस्थिति न केवल मराठी रंगमंच बल्कि मराठी और हिन्दी सिनेमा के भी समृद्ध इतिहास का सम्बल है। हिन्दी सिनेमा के दर्शकों में उनका पहला परिचय सम्भवतः घरौंदा से है जिसमें उनकी भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। वे बड़ी उम्र के हृदयरोगी पति मोदी की भूमिका में थे जिसकी पत्नी का अपने प्रेमी से यह वचन है कि पति के नहीं रहने के बाद वो उसके पास धन-सम्पदा के साथ चली आयेगी। अभाव और सपनों के वशीभूत एक स्त्री किस तरह पति के अर्थ को समझती है, इस बात को छाया की भूमिका निबाह रही जरीना वहाब ने क्लायमेक्स में अपने एक वाक्य के उत्तर से व्यक्त भी किया था, जाना होता, तो आती ही क्यों!!
डॉ. श्रीराम लागू ने इसके बाद बहुत सारी हिन्दी फिल्मों में काम किया। तब के सभी नायकों और नायिकाओं में उनका बहुत आदर रहा है। वे गुलजार के साथ किताब, किनारा, मीरा आदि फिल्मों में आये। सावन कुमार ने उनको फिल्म सौतन में उस समय की उनकी तमाम आम हो चुकी भूमिकाओं से हटकर पद्मिनी कोल्हापुरे के पिता की भूमिका दी। वे प्रकाश मेहरा की फिल्म लावारिस में इसलिए बेहद प्रभावित कर गये क्योंकि उन्होंने अपनी छबि से विपरीत एक संवेदनहीन शराबी गंगू गनपत की भूमिका निभायी। उनकी उल्लेखनीय हिन्दी फिल्मों में एक दिन अचानक, मुकद्दर का सिकन्दर, मंजिल, जुर्माना, सरगम, गजब, देस परदेस आदि शामिल हैं वहीं मराठी फिल्मों में सामना, सिंहासन, पिंजरा आदि का भी जिक्र होता है। डॉ. श्रीराम लागू बीसवीं सदी में सिनेमा और रंगमंच की जीती-जागती अनमोल विरासत हैं। समाज अपने पितृ-पुरुषों को सदैव याद करे, उनका आदर करे यह बहुत जरूरी है। हम सबके बीच उनका होना अत्यन्त मूल्यवान है।
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