हिन्दी सिनेमा में कुछ अच्छे और प्रतिभाशाली कलाकार निरन्तर छटपटाहट में रहते हैं। स्वाभाविक रूप से अपनी आमद वे मुम्बई में नायक बनने के ख्वाब और ख्वाहिशों के साथ ही देते हैं लेकिन सभी के लिए नायक बन पाना सम्भव नहीं होता। नायक के बराबर प्रतिभा रखते हुए कई बार उन्हें लोकप्रिय और बिकाऊ नायकों की सोहबत स्वीकारनी पड़ती है। वे मुख्य किरदार के सहायक होकर पूरी फिल्म में अपनी उपस्थिति को मायने देने का काम करते हैं लेकिन इसका अर्थ यह कतई नहीं हो पाता है कि सहनायक बने प्रतिभाशाली कलाकार कभी किसी फिल्म को अकेले ही सफलता के दरवाजे तक ले जायेंगे। अब इसे जोखिम कहा जाये या प्रयोग कहा जाये, कभी-कभार इस तरह के कलाकार एकल उपस्थिति के साथ किसी फिल्म को हासिल करने में सफल भी हो जाते हैं तो सफलता का जोखिम सिर पर तलवार की तरह लटका करता है। बेशक निर्माता दाँव पर लगा रहता है मगर नायक भी आसमान को निहारते हुए सर्वोच्च सत्ता से मेहरबानी की कामना किए रहता है।
शरमन जोशी के लगभग पन्द्रह साल के कैरियर को देखते हुए इस तरह का ख्याल आना स्वाभाविक है। अभी वे चर्चा में हैं क्योंकि उनकी फिल्म, जिसमें वे हीरो हैं, वार छोड़ न यार, इस हफ्ते रिलीज होने जा रही है। फराज हैदर की लिखी और निर्देशित की गयी इस फिल्म में जावेद जाफरी और सोहा अली भी प्रमुख भूमिकाओं में हैं। वार छोड़ न यार को देश की पहली वार कॉमेडी फिल्म के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। देखा जाये तो इस फिल्म का भार पूरी तरह शरमन जोशी के कंधों पर है। शरमन जोशी को पिछली फिल्म फेरारी की सवारी भी नायक के रूप में मिली थी लेकिन व्यावसायिक रूप से इसे सफलता नहीं मिली थी। श्रेष्ठता के मापदण्डों पर भी फेरारी की सवारी को खास सराहना नहीं मिली थी। शरमन उसके पहले राजकुमार हीरानी की फिल्म थ्री ईडियट्स में से एक ईडियट बनकर तारीफ हासिल कर चुके हैं। वास्तव में उस फिल्म की पटकथा, संवाद, निर्देशकीय दृष्टि और आमिर खान का अभिनय इतना मुकम्मल था कि अपने समय की सबसे ज्यादा विचारोत्तेजक फिल्म होने का उदाहरण थ्री ईडियट्स के साथ जुड़ा।
शरमन जोशी, राकेश ओमप्रकाश मेहरा की फिल्म रंग दे बसन्ती के भी सहनायक रह चुके हैं, यो उन्होंने अब तक लगभग पन्द्रह फिल्मों में काम भी किया है। किसी भी फिल्म में अकेली उपस्थिति एक बड़े कैनवास पर जब तक अपनी क्षमताओं की समग्रता में प्रभावी नजर नहीं आती तब तक उसको लेकर किसी भी बात का दावा नहीं किया जा सकता। शरमन जोशी उस तरह से इतने सक्षम दिखायी नहीं देते कि एक पूरी फिल्म को सफलता का पर्याय खुद से बनाकर दिखा सकें। वार छोड़ न यार उनके लिए फेरारी की सवारी की विफलता के बाद फिर एक परीक्षा है। सहनायक बनकर रह जाने की मनोवैज्ञानिकता से वे कैसे बाहर आयें, यह उनके लिए खुद चिन्तन का विषय है।
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