फिल्म समारोहों के साथ विवादों का गहरा रिश्ता है। शायद ही कोई साल ऐसा जाता हो जब सरकारी फिल्म समारोह को किसी न किसी प्रकार की आलोचना का सामना न करना पड़ता हो। दरअसल सरकारी समारोहों में अब फिल्म से जुड़े सक्रिय लोगों ने रुचि लेना बन्द कर दिया है इसीलिए आयोजक खाली बैठे बीते कल के कुछ सामान्य से परिचित किस्म के चेहरों के साथ अपनी गतिविधियों की खानापूर्ति करते हैं और जैसे-तैसे समारोह को एक मुलम्मा देकर समाज के सामने पेश कर देते हैं। समारोहों में चयन किया हुआ ही दिखाया जाता है, चयन किस आधार पर किया गया, किस आधार पर श्रेष्ठ का आकलन किया गया, किस पूर्वाग्रह-दुराग्रह पर श्रेष्ठ होते हुए भी श्रेष्ठ को दरकिनार कर दिया गया, इस बात का कोई आधारभूत तर्क भी नजर नहीं आता।
किसी समय फिल्म समारोहों में श्रेष्ठता का चयन, उसका मानक और आकलन का अपना स्तर हुआ करता था। हालाँकि और जैसा कि जिक्र शुरू में हुआ, विवाद तब भी हुआ करते थे मगर बहुत से लोग चयनित सिनेमा को परदे पर देखते हुए उसकी श्रेष्ठता से सहमत भी होते थे। शीर्ष फिल्मकारों की भागीदारी लगभग कर साल होती थी। दक्षिण के चारों राज्यों, उड़ीसा, असम, पश्चिम बंगाल से अच्छी फिल्में देखने वालों तक पहुँचा करती थीं। उन फिल्मों के प्रदर्शन वक्त-वक्त पर दूरदर्शन भी करने में रुचि लेता था मगर बाद में यह सब होना बन्द हो गया।
गोवा में समारोह भेजकर एक अच्छे उपक्रम को एक तरह से काला पानी दे दिया गया है। पिछले चार-पाँच सालों से मुम्बई फिल्म जगत में आज के अपने फुरसत के वक्त हो अपनी बीते कल की पहचान से लाभ लेते हुए सरकारी समर्थन और अवसरों को तलाश करते हुए पर्सनैलिटियाँ इन समारोह में हैलो-हाय करती दिखायी देने लगी हैं।
अब इस बात की उत्सुकता नहीं रह जाती कि फिल्म समारोह का शुभारम्भ किस बड़ी फिल्म हस्ती की उपस्थिति में होगा, इस बात का आकर्षण भी नहीं रह गया कि मुख्य अतिथि को दीप जलाने में कौन सी बड़ी और गरिमामयी अभिनेत्री सहयोग करेगी। यश चोपड़ा ने व्यथित होकर इस बार के फिल्म समारोह में यह बात कह दी है कि गोवा अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म समारोह के लायक नहीं है।
यहाँ एक अच्छा कन्वेन्शन हॉल नहीं है, जिस तरह से आज के समय की मांग है, बारह स्क्रीन का सिनेमाघर आज तक गोवा में बन नहीं पाया जबकि लगभग एक दशक होता आ रहा है, समारोह यहाँ आये हुए। इसके विपरीत पुणे और मुम्बई में संस्थाएँ अपने संसाधनों से ज्यादा उत्कृष्ट और अच्छे फिल्म समारोह आयोजित कर पाती हैं। पण्डित जवाहरलाल नेहरु की रुचि पर जो फिल्म समारोह लगभग छ: दशक पहले 1952 में प्रारम्भ हुआ था, वह जितनी आलोचनात्मक प्रतिक्रि याओं का शिकार हो रहा है, वह दुखद है।
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