सितारा स्टेटस का बने रहना या खतरे में पडऩा दोनों ही मामले कलाकार के लिए चिन्ताजनक होते हैं। जिसका बना रहता है वह येन केन प्रकारेण उस पर कायम रहना चाहता है और जिसका खतरे में पड़ता है, वह हर तरह से खिसकती जमीन को थामने की कोशिश करता है। छठवें दशक तक मुश्किलें नहीं थीं। शेर और बकरी सभी एक घाट से पानी पी सकते थे। अशोक कुमार के समय में भी दिलीप कुमार, देव आनंद और राजकपूर के लिए जगह थी। इनकी बनी जगहों के बीच भी राजेन्द्र कुमार, जॉय मुखर्जी, शम्मी कपूर, सुनील दत्त, राजकुमार और गुरुदत्त जैसे कलाकार सुरक्षित थे। इन सबके बीच ही मोतीलाल, राजेन्द्रनाथ, जॉनी वाकर, मेहमूद जैसे कलाकारों ने अपना एक स्थान बना रखा था।
अच्छा सिनेमा सबकी जरूरत हुआ करती थी। कोई किसी की रस्सी पर सरौता लगाने का काम नहीं करता था। सबको काम करने का मौका था। सभी श्रेष्ठ फिल्मों के निर्माण में अपनी अहम रचनात्मक भूमिका अदा किया करते थे। राजेश खन्ना युग से एक नया ही मौसम हमारे सामने आया जब सितारे ने सचमुच सितारा स्टेटस हासिल की। वह देर से उठने से लेकर सेट पर देर से आने के लिए भी प्रसिद्ध हुआ। बड़े से बड़े कलाकार उसका इन्तजार किया करते। इतना ही नहीं उसके मूड की भी फिक्र किया करते, मूड के पूरब या पश्चिम होने के अन्देशे को लेकर घबराया करते।
हृषिकेश मुखर्जी ने आनंद और बावर्ची फिल्म राजेश खन्ना के ऐसे ही रवैये के बीच किस तरह पूरी की, ये वो ही जानते थे। तब युवतियों में अपनी अदा और अन्दाज से खन्ना ने अपनी मजबूत जगह बनायी थी। इस जगह को हृषिकेश मुखर्जी, यश चोपड़ा, सलीम-जावेद, प्रकाश मेहरा और मनमोहन देसाई जैसे निर्देशकों, लेखकों ने अमिताभ बच्चन के माध्यम से हिलाने का काम किया। इन्हीं नामों ने रूमानी सिनेमा का राजेश खन्ना युग समाप्त सा कर दिया।
अमिताभ बच्चन गम्भीर, प्रतिबद्ध और अनुशासित होकर फिल्मों में आये। उस समय वे निर्देशकों के नायक थे। सत्तर का दशक अमिताभ बच्चन के उत्थान का दशक रहा। बाद में आमिर, सलमान और शाहरुख आये। अजय देवगन, अक्षय कुमार, हिृतिक रोशन आये। सबके पास अपना-अपना समय था, जितनी श्रेष्ठ फिल्में वे कर सके, जितना लगन से वे अपना किरदार निभा सके, उतना उन्होंने दर्शकों के दिलों में राज किया। आज पहले नम्बर पर रणवीर कपूर का नाम है, दूसरे नम्बर पर नील नितिन मुकेश अपनी जगह टिके रहने का प्रयास कर रहे हैं मगर सभी की जगहें अस्थिर हैं।
ऐसा लगता है कि आने वाले समय में स्थायी तो दूर, कुछ स्थिर समय में भी कोई सितारा अपनी जगह पर बना रहने की सुरक्षा प्राप्त नहीं कर सके गा। दर्शक अब सिनेमा को उसकी समग्रता में परखकर उसकी श्रेष्ठता के मानक तय करने लगा है।
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