गुरुवार, 11 नवंबर 2010

सिनेमा का इतिहास कहाँ है?

भारत का सिनेमा धीरे-धीरे अपनी शताब्दी की ओर बढ़ रहा है। 2012 से सिनेमा का सौवाँ साल शुरू होगा। एक वर्ष तक सिनेमा का सौवाँ वर्ष मनाया जायेगा। इस सफर के आयाम विस्तारित हैं। बहुत सारी विविधताओंं में बड़ी दूर तक जाकर सिनेमा का आकलन करना होगा तब समग्रता में सौ साल की यात्रा पर बात हो सकेगी। हमारे देश में सिनेमा का सपना देखने वाले दादा साहब फाल्के का व्यक्तिगत जुनून था सिनेमा। यह बात सच है कि विलक्षण काम जुनून से ही सम्भव हो पाते हैं। दादा साहब फाल्के ने रतलाम में आकर लिथोग्राफी का प्रशिक्षण हासिल किया था, सिनेमा के पितामह से जुडऩे का एक श्रेय मध्यप्रदेश को इस तरह है। उन्होंने फिल्म बनाने की तैयारी बहुत सारा ज्ञान और विधियाँ अर्जित करके की। जीवन में जो संघर्ष किए उनकी बात बहुत कम सुनने में आती है।

भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चन्द्र बनाने वाले फाल्के का बाद का जीवन बड़ी कठिनाइयों और अभावों में व्यतीत हुआ। उनके नहीं रहने के बाद उनके सामान, उपकरण आदि सब लावारिस हालत में मिले थे। यश चोपड़ा ने हाल ही बातचीत में बताया था कि अभिनेता जयराज को जब दादा साहब फाल्के पुरस्कार मिला था, तब उनको कहीं से मालूम हुआ था कि फाल्के का परिवार दुखद दिन व्यतीत कर रहा है, तब जयराज ने पुरस्कार की राशि ले जाकर उनके परिवार को दे दी थी और कहा था कि अब जाकर मुझे सच्चा सुकून मिला है। फाल्के बुनियाद थे और अब सिनेमा अपने पैरों पर ही नहीं खड़ा बल्कि सरपट दौड़ रहा है। बाज-वक्त कभी किसी आयोजन के अवसर पर कृत्रिम सी श्रद्धांजलि सिनेमा जगत के लोग अपने पितृ पुरुषों को देते हैं, ऐसे लोग दामले, फ त्तेलाल को नहीं जानते कि उनका सिनेमा के लिए क्या योगदान रहा है।

सिनेमा को पढऩे के लिए आज की पीढ़ी के पास कोई आदर्श किताब नहीं है। वरिष्ठ फिल्म समीक्षक मनमोहन चड्ढा ने बीस साल पहले हिन्दी में एक किताब हिन्दी सिनेमा का इतिहास लिखी थी जिसे राष्ट्रपति के स्वर्ण कमल पुरस्कार से भारत सरकार ने नवाजा था। यह हिन्दी की सिनेमा के इतिहास को मुकम्मल प्रामाणिकता के साथ बताने वाली अकेली किताब थी जो अब दुर्लभ है। इधर इस पुस्तक के लेखक मनमोहन चड्ढा पुणे फिल्म इन्स्टीट्यूट से पहले डिप्लोमा लेने, फिर अध्यापन करने के बाद देहरादून में रह रहे हैं। उनको सिनेमा की शताब्दी की बेला में शेष बीस सालों के इतिहास को भी इस किताब की पाण्डुलिपि में समाहित कर लेना चाहिए और हिन्दी का कोई प्रकाशक भी इसे प्रकाशित करने के काम को तवज्जो दे। यह जरूरी है।

सार्थक ज्ञान और जानकारियों के अभाव में ही बुद्धिहीनता की खतरतवारें उग जाया करती हैं। सिनेमा पर अज्ञान के साथ बात न हो, इसके लिए सिनेमा के सौ साल के इतिहास का मुकम्मल पुनर्लेखन जरूरी है।

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