सोमवार, 15 जून 2015

हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा : छाया (1961)

मैं एक बादल आवारा.........


अपनी निर्देशकीय सक्रियता के पाँचवें साल में हृषिकेश मुखर्जी ने फिल्म छाया का निर्देशन किया। इसके निर्माता दक्षिण के थे, ए. वी. मयप्पन, निर्माण संस्था थी एवीएम प्रोडक्शन्स जिसकी ख्याति पारिवारिक, सामाजिक फिल्मों के निर्माण के लिए फैल रही थी। इस फिल्म की कहानी भी कुछ उसी तरह की थी जिसमें एक गरीब परिवार की विधवा स्त्री को अपनी बेटी एक अमीर के घर की सीढि़यों पर रखनी पड़ती है और बाद में वह उसी घर में आया की तरह रहकर बेटी की परवरिश करती है। सेठ जगत नारायण चैधरी नजीर हुसैन लखनऊ के अपने घर की सीढि़यों में पड़ी रोती बच्ची को अपनी बेटी बनाकर मुम्बई ले आते हैं साथ ही बेसहारा आया को भी। इधर सेठ जगत नारायण के यहाँ उनकी दूर के रिश्ते की बहन रुक्मिणी ललिता पवार और उसका बेवकूफ सा बेटा लाली मोहन चोटी अपनी विपदाएँ बताते हुए रहने को आ जाते हैं। रुक्मिणी लोभी-लालची और बात-बात में घर में विध्वंस के बहाने खोजा करती है जिसका शिकार प्रायः आया हुआ करती है। आया दरअसल मनोरमा निरुपा राय है जिसके पति कृष्ण धवन की दुर्घटना में मृत्यु हो जाती है और नन्हीं बच्ची की परवरिश के लिए उसके पास सिवा इसके कोई चारा नहीं होता कि उसकी जिम्मेदारी किसी तरह कोई ले ले। सेठ जगत नारायण के यहाँ यह बच्ची लाड़-प्यार से पलकर बड़ी होती है। सेठ अपनी बेटी सरिता आशा पारेख की पढ़ाई और संगीत की शिक्षा के लिए शिक्षक की तलाश में हैं। 

एक बेरोजगार, पढ़ा-लिखा, गरीब शायर-लेखक अरुण सुनील दत्त, सरिता का शिक्षक बनकर आता है। अरुण राही के नाम से कविताएँ लिखता है और सरिता राही की प्रशंसक है। ऐसे में अरुण अपनी शायर वाली पहचान छिपाकर रखता है। नायिका के सामने एक प्रत्यक्ष व्यक्तित्व अरुण का है और कल्पनाओं में राही। अरुण सरिता को यह भी बताता है कि राही उसका अच्छा दोस्त है। सरिता के लिए अरुण को दो चरित्र जीना होते हैं। अरुण के घर में उसकी एक बड़ी और एक छोटी बहन भी हैं जिनके साथ घर की भी जवाबदारी उसी की है। अरुण के लिए तब मुश्किलें होती हैं जब सरिता उससे राही से मिलने की जिद करती है। हकीकत को छुपाने के कारण कुछ विसंगतियाँ भी खड़ी होती हैं। एक दिन अपने जन्मदिन के दिन सरिता, अरुण को अपमानित करती है तब अरुण एक गाना गाकर अपने दिल का दर्द बयाँ करता है। अगले दिन जब सरिता, अरुण से माफी मांगने उसके घर जाती है तब उसको अरुण की छोटी बहन से पता चल जाता है कि अरुण ही राही है। सच जानने के बाद अरुण और सरिता में प्रेम हो जाता है। सरिता की माँ, आया बनी मनोरमा भी चाहती है कि अरुण की शादी सरिता से जाये। इधर अरुण की बड़ी बहन अचला सचदेव, उसके और सरिता के रिश्ते की बात करने सेठ जगत नारायण के पास जाती है तो वे अमीरी-गरीब का हवाला देकर, उसे बेइज्जत करते हैं। सेठ, मनोरमा के समझाने पर उससे भी नाराज होकर उसे अपनी हैसियत में रहने को कहते हैं।

सेठ सरिता का रिश्ता बड़ी जगह अपनी हैसियत के मुताबिक करना चाहते हैं पर यह पता चलने पर कि सरिता उनकी बेटी नहीं है, रिश्ता टूट जाता है। ऐसे में सेठ जगत नारायण को अपनी गल्ती का एहसास होता है और वे अरुण को मनाने जाते हैं। अरुण शुरू में अपनी बहन के अपमान की बात का जिक्र करके शादी को तैयार नहीं होता लेकिन मान-मनौव्वल के बाद राजी हो जाता है। शादी के मौके पर ही आया मनोरमा का सच भी सामने आता है कि वो सरिता की माँ है। फिल्म का सुखद अन्त होता है।

छाया की कहानी डी. एन. मुखर्जी ने लिखी है। सचिन भौमिक ने फिल्म की पटकथा। संवाद एवं गीत लेखन राजेन्द्र कृष्ण ने किया है और संगीत सलिल चैधरी ने दिया है। इस फिल्म की कहानी भी हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म सृजन प्रक्रिया की परिपाटी का ही अनुसरण करती है जिसमें किसी तरह का घुमाव नहीं है। एक गरीब दम्पत्ति, मुखिया जिसे नौकरी की तलाश है, नौकरी मिलने के दिन ही उसका दुर्घटनाग्रस्त हो जाना और उसके बाद बेसहारा औरत का अपनी बच्ची के साथ दर-दर भटककर बेटी को एक अमीर के घर की चैखट पर छोड़ देने का कदम उठाना। कहानी यहीं से आगे बढ़ती है। सुनील दत्त अपने किरदार को दूसरे भेद के साथ बखूबी जीते हैं। उनके साथ आशा पारेख के पढ़ाई और पढ़ाई के बहाने शेरो-शायरी और राही की बात-प्रसंग वाले दृश्य बहुत अच्छे हैं। इस फिल्म के गाने मुख्यतः तलत महमूद की मखमली आवाज के कारण बहुत प्रभावित करते हैं। नायिका के लिए स्त्री स्वर लता मंगेशकर का है। एक गाना मुकेश के साथ और एक गाना मोहम्मद रफी ने भी गाया है। इतना न मुझसे तू प्यार बढ़ा, आँसू समझ के क्यूँ मुझे आँख से तुमने गिरा दिया, आँखों में मस्ती शराब की गाने वाकई तलत की आवाज का मुरीद बना देते हैं। सुनील दत्त के ऊपर ये गाने उनके व्यक्तित्व, किरदार और दृश्य में भद्र उपस्थिति के साथ बड़े समरस होते हैं। सलिल चैधरी ने सभी गानों को मद्धम लय का प्रवाह देकर संगीतबद्ध किया है जो उनके सांगीतिक सरोकारों से सीधा जोड़ता है। इस फिल्म में भी जयवन्त पाठारे सिने-छायाकार हैं मगर साथ में एक नाम टी. वी. सीताराम भी जोड़ा गया है। फिल्म में असित सेन, अखबार के सम्पादक दर्द और बेवकूफ भान्जे की भूमिका में मोहन चोटी वातावरण को हल्का किए रहने का काम करते हैं। निर्देशक ने मनोरमा-सरिता, अरुण और उसकी बड़ी-छोटी बहनों के बीच कुछेक भावनात्मक दृश्य रखे हैं जो रिश्तों और उनके मूल्य को रेखांकित करते हैं।

छाया को एक मनोरंजक पारिवारिक फिल्म की श्रेणी में रखा जा सकता है। हृषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में नायक अपने मूल्यों और भद्रता से खूब पहचाने जाते हैं, अनाड़ी में महफिल के बीच सब कुछ सीखा हमने गाने का फिल्मांकन हो या अनुपमा में या दिल की सुनो दुनियावालों या फिर छाया में आँसू समझ के क्यूँ गाने का फिल्मांकन हो, दृश्य पहचाने और परिचय के लगते हैं, जाहिर है, सुखद लगते हैं। उनकी फिल्मों में प्रायः खलनायक की उपस्थिति नहीं होती बल्कि परिस्थितियाँ ही खलनायक होती हैं। उनकी फिल्मों के रसूखदार आदमी भी हद दर्जे के सख्त नहीं होते बल्कि उनके हृदय में भी कोई न कोई कोना संवेदनशीलता का होता है। यही कारण है कि असली नकली हो या छाया हो दादा हों या पिता हो, अन्त में गरीब के घर जाकर अपनी भूल का प्रायश्चित करता है और फिल्म को एक अच्छे उपसंहार तक ले आता है। छाया उस दृष्टि से एक अच्छी फिल्म है। 

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