यह तो बात हम अपने स्तम्भ में अक्सर किया करते हैं कि इस समय फिल्मों की सफलता जितनी संदिग्ध है उतना ही बड़े निर्माता-निर्देशक और सितारे सामने आने से बचने की स्थितियों में लगे हुए हैं। इस पूरे खाली स्थान का लाभ ले रहे हैं छोटे निर्माता-निर्देशक और ऐसे फिल्म व्यावसायी जो किसी तरह अच्छे स्क्रिप्ट रायटर और अवसर की तलाश में जुटे प्रतिभाशाली युवा निर्देशकों को काम दे रहे हैं और उनसे अपनी फिल्में बनवा रहे हंै।
अभी पिछले कुछ दिनों से यदि कुछेक दम मारो दम और थैंक्यू टाइप फिल्मों को छोड़ दें तो बहुत सारी छोटे बजट की फिल्में रिलीज हुई हैं। इन फिल्मों की सफलता या असफलता दोनों ही सिनेमाघर में अधिकतम दो सप्ताह की होती है। इस अवधि में जो भी लाभ आता है वह या तो लागत के बराबर होता है या लागत से जरा ज्यादा। अपनी फिल्म को हिट मानने के लिए इतना मुगालता काफी है और इसी आधार पर सुपर हिट और बिग हिट मानकर मुम्बई में निर्माता अपने निर्देशक और सितारों को पार्टियाँ दे दिया करता है। यह फार्मूला इस समय खूब जोर पकड़ रहा है।
ऐसी बहुत सी फिल्में महानगरों में रिलीज हो रही हैं मगर दूसरे शहरों में नहीं। इन फिल्मों की रिलीज की नौबत आते-आते, इन शहरों में सिनेमाघर कॉपी वीसीडी बिकना शुरू हो जाती है। यह ऐसा बाजार है जो अपनी तरह, अपनी रफ्तार से ऐसे ही चल रहा है। पिछले सप्ताह तारे जमीं पर वाले दर्शील सफारी की एक फिल्म जोक्कोमोन महानगरों में रिलीज हो गयी, इसके अलावा आय एम के साथ दो डब फिल्में गुलामी की जंजीर और बारूद भी मगर और शहर इनसे वंचित रहे।
अप्रैल का आखिर सप्ताह भी ऐसा ही है। कितनी फिल्में नजर आती हैं, पता नहीं पर प्रदर्शित होने वाली फिल्मों में नॉटी एट फॉट्टी, शोर इन द सिटी और चलो दिल्ली का नाम है। इसमें गोविन्दा की नॉटी एट फॉट्टी का हश्र पूर्वभासित है। शोर इन सिटी के प्रचार और खासकर तुषार कपूर की ग्रे-शेड में उपस्थिति को लेकर आभास होता है, कि यह उससे ज्यादा कारोबार करेगी, जितना इसके निर्माण में खर्च हुआ है।
चलो दिल्ली, भी कम बजट की फिल्म है मगर इसके रोचक प्रोमो देखकर लगता है कि लारा दत्ता और विनय पाठक की उपस्थिति नुकसान में नहीं रखेगी। चलो दिल्ली, एक दिलचस्प सफर है, हालाँकि यह शीर्षक राजनीति में दिल्ली में धरना और प्रदर्शन के लिए इस्तेमाल होता आया है। इस नाम का सिनेमा देखना छोटी-मोटी ही सही मगर एक अच्छी जिज्ञासा तो है ही।
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