भरतनाट्यम नृत्याँगना लीला सेमसन संगीत नाटक अकादमी की चेयरपरसन के साथ ही सेंसर बोर्ड की चेयरपरसन भी बन गयी हैं। मुख्य रूप से वे भारत के प्रधानमंत्री की सांस्कृतिक सलाहकार भी हैं। वे शायद पहले से संसूचित नहीं थीं कि उनको सेंसर बोर्ड का चेयरपरसन भी बनाया जा रहा है। इस खबर को उन्होंने आश्चर्य की तरह लिया और यह भी कहा कि उन्हें सिनेमा में कोई रुझान नहीं है। सिनेमा उस तरह से देखने का उनको शौक भी नहीं रहा है लेकिन लीला जी ने इस पद पर अपनी नियुक्ति को स्वीकार जरूर कर लिया यह कहकर कि वे सेंसर के मसलों को अपने सहयोगियों के साथ मिलकर हल किया करेंगी, उनके परामर्श से और अपने विवेक से।
सेंसर बोर्ड की उपयोगिता और उसके हाल के साथ-साथ उसकी परवाह न करने वाले सिनेमा के परस्पर सरोकार उसी तरह के हैं जैसे सिपाही के सामने जेबकतरा और रंगदार निर्भीक होकर अपना काम किया करते हैं। हमारे यहाँ ट्रैफिक का सिपाही चौराहे से नियम तोडक़र जाते हुए दुपहिया-चौपहिया वाहन चालक को सीटी बजाकर सचेत करता है तो जवाब में वाहन चालक हेकड़ी के साथ उसे घूरता हुआ निकल जाता है। सेंसर और सिनेमा भी इसी तरह के हैं। सेंसर की नाक के नीचे ही सेंसर को धता बताने वाला सिनेमा बना करता है।
वास्तव में सेंसर बोर्ड की बरसों से चली आ रही परिपाटी और घिसे तथा निष्प्रभावी कठिन नियम और धाराओं को व्यवहारसंगत बनाये जाने की आवश्यकता है। नियम और उप-नियमों की कठिन और अपेक्षाकृत शिथिल भाषा और प्रभाव से हटकर आज के सन्दर्भ में इसे देखा जाना चाहिए। सेंसर बोर्ड की नयी चेयरपरसन यदि इस दिशा में सार्थक पहल करना चाहती हैं तो उन्हें चार अच्छे फिल्मकारों, गम्भीर और संजीदा कलाकारों के साथ-साथ सृजनात्मक माध्यम के प्रतिबद्ध लोगों और सामाजिक प्रतिनिधियों के साथ कुछ बैठकें करके एक व्यवस्थित खाका तैयार करना चाहिए और ऐसे नियम गढऩे चाहिए जिसकी हद में सिनेमा रहे।
यह आसान काम नहीं है, हालाँकि मगर साल-छ: महीना लगाकर भी इस दिशा में सच्चा और सर्वसम्मत आधार बन सके तो यह एक बड़ी पहल होगी। संस्थाओं और व्यवस्थाओं में केवल नियुक्त हो जाना ही काफी नहीं होता। यदि विश्वास व्यक्त किया गया है तो अपनी छाप छोडऩा, अपनी दृष्टि और सक्रियताओं से उत्तरदायित्वों के निर्वहन की मिसाल कायम करना एक बड़ी चुनौती होती है। लीला जी का चयन जितना विरोधाभासी है उतना ही सम्भावना से भरा हुआ भी। शेष समय बयाँ करेगा।
2 टिप्पणियां:
यह काफी गंभीर विषय है क्योंकि किसी पीढ़ी के बिगड़ने में कठपुतली, औपचारिक सेंसर बोर्ड भरपूर योगदान कर रहा है। जिन्दा लोगों के लिए बने कानूनों में समय समय पर प्राण फूंकते रहना आवश्यक है।
आपने बिल्कुल सही कहा राजे शा जी। लीला जी की गरिमापूर्ण सक्रियता पर उम्मीद की जा सकती है। यह टिप्पणी उनको भी मेल की है।
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