हमारे समय में सिनेमा की सिनेमा बनाने वालों ने एक नयी परिभाषा विकसित की है। वे कहते हैं कि सिनेमा मनोरंजन के लिए होता है। मनोरंजन को अंग्रेजी में वे इन्टरटेनमेंट कहते हैं। निर्देशक से लेकर कलाकार तक यही कहते हैं कि वे दर्शकों के मनोरंजन के लिए काम करते हैं, कर रहे हैं। मनोरंजन को अंग्रेजी में जो कहा जाता है, वे वही कहते हैं।
अंग्रेजी का मसला दरअसल हिन्दी सिनेमा में भी इस तरह घर कर गया है कि अब उसका उस अन्त:चक्र से बाहर आना सम्भव नहीं लगता। वह उसी घुटन में रहेगा भले ही उसे तमाम नकली सुगन्ध अपने आसपास छिडक़ कर अपने प्राण बचाना पड़े। अपनी फिल्मों को लेकर अब हर कलाकार, समाज को अंग्रेजी में ही बताता है। नाक खुजाते हुए सब के सब बड़े दार्शनिक अन्दाज में अपने काम को, अपनी समझ को, सामने वाले की समझ के समानान्तर प्रमाणित करते हैं।
हिन्दी सिनेमा के बारे में अंग्रेजी में सवाल-जवाब करने वालों को कलाकार जल्दी समय भी दे देता है और उससे जमकर बात भी करता है, उसे भाव भी देता है मगर हिन्दी अखबार का हिन्दी में लिखने वाला सिने-पत्रकार अपने तथाकथित पिछड़ेपन और अपनी हीनता पर आखिरकार ऐसी स्थिति में जाकर खड़ा हो जाता है, जहाँ से उसके साहस खुद जवाब दे जाते हैं। अंग्रेजी मेें जानकारियों और सवालों, खासकर जिज्ञासाओं की अपनी कोई परिपक्वता भले न नजर आये, कलाकार को उस पर चहक-चहककर जवाब देने में अलग ही रस आता है। हिन्दी के समझदार पत्रकार से कलाकार बात करना ही नहीं चाहता। हिन्दी फिल्मों की लगातार विफलता का यह एक बड़ा कारण बन गया है, यह बात शायद बहुत कम फिल्मकार, कलाकार जानना-या-समझना चाहते हैं।
देश का बड़ा दर्शक समाज, सिनेमा की अंग्रेजी पत्रिकाओं में आवरण कथा या लेख या गप्पबाजी पढक़र सिनेमा देखना या नहीं देखना तय नहीं करता। हिन्दी सिनेमा जो दर्शक वर्ग बहुतायात में देखने जाता है, वह अपने दायरे से लेकर दायरे के बाहर तक हिन्दी में ही बात करता है, हिन्दी के अखबार पढ़ता है और सिनेमा के बारे में भी ज्यादा से ज्यादा हिन्दी में ही जानने की जिज्ञासा भी रखता है। सिनेमा जगत ने पिछले दो दशकों में हिन्दी के प्रकाशनों की बड़ी उपेक्षा की है। खासतौर पर तवज्जो में विरोधाभासी फर्क किया है। चैनलों में अंग्रेजीदाँ सिनेमा पर सहज सुलभ कलाकारों से उनकी आने वाली फिल्मों पर, निर्देशकों से उनके किए काम पर जो बात करते हैं उसको वो दर्शक कितने प्रतिशत देखता होगा, जो फिल्में देखने या नहीं देखने का फैसला करता है, यह बात जानी जाये तो उसका फर्क साफ समझ आयेगा।
हिन्दी सिनेमा जिन बहुत से कारणों से उपेक्षित हुआ है, उसमें ये कारण सबसे बड़ी भूमिका निबाहते हैं।
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