सोमवार, 18 मई 2015

दर्शक को अच्छा सिनेमा चाहिए

Bombay Velvet अनुराग कश्यप की नयी बहुचर्चित फिल्म को लेकर तत्काल कुछ समीक्षात्मक टिप्पणियाँ उसे बहुत अच्छी फिल्म दर्शाती दिखी थीं। अक्सर तीन सितारों से आगे जाकर नवाज़ देना बड़ी उम्मीद जगाता है और तब लगता है कि जरूर बाॅलीवुड का तेज़ी से आवाजाही करते सिनेमा में से कुछ अपेक्षा से ज़्यादा बेहतर नज़र आने वाला है। लेकिन देखते हुए उसका साक्ष्य वैसा नहीं होता। अपेक्षाएँ भी पूरी नहीं होतीं जो बहुत जल्दबाज़ी में की गयी टिप्पणियों से यकायक पनप गयी होती हैं। अनुराग कश्यप की फिल्म बाॅम्बे वेलवेट के सम्बन्ध में यह बात खासतौर पर महसूस की गयी है। सुबह जिस तरह की उत्तेजना दिखायी दी वह शाम होते-होते शनिवार-इतवार की छुट्टियों के भरोसे ठहर गयी, दर्शक अब क्या तय करने वाला है?

Anurag Kashyap के लिए बाॅम्बे वेलवेट भरपूर आर्थिक संसाधनों से बनायी गयी वो फिल्म है जिसका बजट, उनकी बनायी गयी पिछली फिल्मों से बहुत ज्यादा है। अस्सी करोड़ या लगभग सौ करोड़ की लागत से फिल्म बनाने वाले फिल्मकार के पास अपनी तरह की स्वतंत्रता होना स्वाभाविक है। वे गैंग आॅफ वासेपुर का पहला भाग बनाकर जो सुर्खियाँ और चमक अपनी मुस्कुराती छबि पर बतौर समृद्ध प्रभाव पाते हैं उससे आगे दूसरा भाग बनाकर दो कदम पीछे हटते उन्हें देखा जाता है। एक प्रभावी और कसे हुए पूर्वार्ध पर बनी गैंग..... उत्तरार्ध में आशाओं पर खरी नहीं उतरती। लेकिन सफलता और उपलब्धियों का अपना आशावाद है, होना भी चाहिए, भले ही आत्मविश्वास और अतिरेक में कुछ चीज़ों की तरफ ठीक से ध्यान न जा पाये।

बाॅम्बे वेलवेट समय से पीछे जाकर विषय और परिवेश का चुनाव करते हुए फिल्म बनाने के शगल का अब लगभग वो अन्तिम हिस्सा माना जाये जिसके और पीछे कोई जाना नहीं चाहेगा। फराह खान ने जब ओम शान्ति ओम बनायी तो उन्होंने बखूबी अपनी देखीभाली स्मृतियों से सत्तर के दशक का परिवेश गढ़ा और बाज़ार के लिहाज से एक सफल फिल्म रची। व्यतीत कालखण्ड के प्रति यह आकर्षण फिर और कुछेक फिल्मों में नजर आया जब डिस्को से लेकर बेलबाॅटम तक हमारी स्मृतियों के आज में फिर दोहराया गया। कुछ फिल्में सफल हुईं कुछ विफल। अभी दम लगा के हइशा में नब्बे का दौर बड़े दिलचस्प ढंग से याद किया गया। जनता का कैसेट्स प्रेम, चुनिन्दा गानों की कैसेट्स रिकाॅर्डिंग करवाकर घर के टेप रेकाॅर्डर में सुनने का शगल और उसी दौर में एक कहानी। यह प्रयोग भी सफल हुआ। अनुराग कश्यप ने लगभग वो समय चुन लिया जब भारत का सिनेमा इतिहास और समाज के आसपास अपनी धारा तलाश कर रहा था और विश्व सिनेमा में विशेष रूप से अपराध और एक्शन को लेकर कुछ समास गढ़े जा रहे थे। एकदम से कुछ विदेशी फिल्में याद भी आती हैं हमें जैसे सिटीज़न केन, कासाब्लांका इत्यादि। हमारे यहाँ हावड़ा ब्रिज या काला बाजार।

बाॅम्बे वेलवेट को बनाने में स्वाभाविक तौर पर कल्पनाशीलता का प्रयोग किया गया है, मेहनत भी है लेकिन फिल्म को उस पूरे समय के अनुकूल ढालकर प्रस्तुत करने में कई तरह की चुनौतियाँ खड़ी होती हैं, विशेष रूप से परिवेश के स्तर पर आर्ट डायरेक्टर के लिए, वेशभूषा के स्तर पर कास्ट्यूम डिज़ायनर के लिए, एक्शन के स्तर पर एक्शन डायरेक्टर के लिए, दृश्यबंधों के स्तर पर सिनेमेटोग्राफर के लिए। इन बुनियादी बातों के साथ-साथ फिर कलाकारों का उस पूरे समयविशेष को समझना और बरतना एक बड़ा काम है। स्वाभाविक है रणवीर कपूर के लिए अपने दादा और परदादा के जमाने के सिनेमा की कल्पना करना और उनके तथा उनके ही जैसे श्रेष्ठ कलाकारों के द्वारा निभाये गये किरदार को जीवन्त करना। ऐसे बहुत से धरातलांे पर फिल्म कई जगह असन्तुलित हो गयी है। सशक्त पटकथा जिसकी जरूरत थी, उत्तरार्ध में बिखरती सी लगती है। महात्वाकांक्षाओं के रास्ते में लक्ष्य जो है वो रोमांस के टापू पर जाकर भटक जाता है। प्रेम की अभिव्यक्ति से लेकर कई जगह बातचीत और सशक्त दृश्यों के साथ सम्पन्न होने वाले प्रसंगों में पचास और साठ का दशक और तब का देशकाल पहचान में ही नहीं आता।

अच्छा सिनेमा बनाने वाले, अपने अच्छे सिनेमा से उम्मीद जगाने वाले फिल्मकार नागेश कुकूनूर, नीरज पाण्डे, टिग्मांशु धूलिया, सुधीर मिश्रा लगता है आर्थिक रूप से बहुत अधिक निश्चिंत होकर दर्शकों की उम्मीदों पर प्रायः वज्रपात कर दिया करते हैं। इन सभी फिल्मकारों ने समय-समय पर दर्शकों को ही बहुत जाग्रत किया है। दर्शक अब इनके प्रति अधिक आश्वस्त हो गया है। उन आश्वस्तियों और अपेक्षाओं के धरातल पर अपने काम का पूर्वावलोकर इन्हें करना चाहिए ऐसा लगता है। हालाँकि आशय यह नहीं है कि इन विभूतियों को हम सब कोई सिनेमा बनाना सिखा सकते हैं फिर भी बुनियादी तौर पर जो बाद बहुत मुखर होकर दिखायी देती है, उसके नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता। बाॅम्बे वेलवेट का अच्छा खासा प्रचार, गोवा में भरपूर आतिथ्य से लेकर रणवीर और अनुष्का का चैनल-चैनल घूमना फिल्म के पक्ष में उतना काम न आया जिसके लिए ये सारी जद्दोजहद की गयी, यहाँ तक कि दोनों भले सितारों ने अपने निजी रिश्तों के प्रश्नों पर भी उत्तर दिए। दरअसल दर्शक को अच्छा सिनेमा चाहिए, इसको लेकर भ्रम खड़े नहीं होने चाहिए।

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