शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

किस सिनेमा को सफलता आखिर?



विफल सिनेमा, असावधानियों की ओर इशारा करता है। विफल सिनेमा इस बात के भी संकेत देता है कि दर्शक अन्तत: डुबो देने और पार लगाने का फैसला देता है। फिल्म बनाने का सीधा-सादा रास्ता जैसे अब रह ही नहीं गया है। दवाएँ यदि शरीर को फायदा पहुँचाएँ तो चाहे जितनी भी कड़वी या कसैली हों, मरीज पी ही लेता है। नहीं पीता तो उसके खिदमतगार प्यार से या जिदपूर्वक पिला दिया करते हैं मगर कई बार ऐसी दवा बड़ी त्रासद हो जाती है जो कड़वी और कसैली तो होती ही है लेकिन बीमारी दूर नहीं कर पाती। ऐसी दवा पीने वाला किस तरह की मुसीबत का सामना करता है, यह वही बता सकता है।

हिन्दी फिल्मों के साथ अब धीरे-धीरे इतनी अविश्वसनीयता जुड़ गयी है कि दर्शक सिनेमाघर को दूर से ही सलाम करता है। एक साल में दो सौ से ज्यादा फिल्में रिलीज होती हैं मगर अपनी पाँचों उंगलियों के पन्द्रह खाने भी पूरे नहीं होते, अच्छी या सफल फिल्म के नाम लेने के लिए। पिछले शनिवार को आरक्षण फिल्म का दूसरा दिन था और दोपहर के शो में एक सिनेमाघर में दस दुपहिया गाडिय़ाँ खड़ी थीं। शायद पच्चीस-तीस लोग फिल्म देख रहे होंगे। पचास कदम पर एक दूसरा सिनेमाघर था जिसमें चार हफ्ते से सिंघम फिल्म लगी हुई है। वहाँ दो सौ से अधिक लोग भीड़ लगाये खड़े थे। दर्शक हमारा जैसे चुटकियाँ बजाकर फैसले देता है। वह फिल्मकार के किसी प्रोपेगण्डा से प्रभावित नहीं होता। जितनी तेजी से प्रोपेगण्डा भी व्यर्थ और नाहक खड़ा किया साबित होता है वह भी दर्शकों में विश्वसनीयता पर असर डालता है।

सफल सिनेमा के अनेक सार्थक फार्मूले भी होते हैं। पता नहीं क्यों, फिल्मकार उस रास्ते पर चलना चाहते? जाने कैसे ऐसे फिल्मकार भी उस श्रेणी में जाकर खड़े हो गये जिन पर बड़ी उम्मीदें रही हैं। सिनेमा के सौवें साल की बेला में हमको इस बात पर खूब ध्यान देना चाहिए कि फिल्में बन किस तरह की रही हैं, आ किस तरह की रही हैं? सिनेमा में अब मौलिकता चलो, माना नहीं ही है, होना हो सकता है मुश्किल भी हो मगर प्रेरणा, अनुसरण या एक हद तक नकल करके भी कुछ हद तक ही सही कभी-कभार सफल सिनेमा बनाया जा सकता है। लेकिन वहाँ भी अब दृष्टि का अभाव ही दीखता है। पिछला सप्ताह ऐसी ही खीज और झुंझलाहट से भरा रहा है।

अन्ना हजारे के आन्दोलन ने प्रदर्शित फिल्मों के विवाद, उनकी सार्थकताओं और अर्थ को स्मरण या चिन्ता के दायरे से ही बाहर कर दिया। दर्शकों को आश्चर्य होगा कि किस तरह इस बदहवासी में एक दिलचस्प भले ही कम सफल फिल्म, पर देखी जा सकने वाली चतुर सिंह टू स्टार आकर लग गयी है। वाकई में इस वक्त यह थ्री स्टार वाली फिल्म का काम कर रही है।

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