कुछ समय पहले जब गोविन्द निर्मलकर के देहान्त की खबर मिली तो मन में यही आया कि छत्तीसगढ़ी नाचा के शीर्ष कलाकारों की श्रेणी के ये लगभग आखिरी प्रतिनिधि भी चले गये। मदनलाल, भुलवाराम यादव, रामचरण निर्मलकर, माला बाई, फिदा बाई, देवीलाल नाग सभी एक-एक करके।
हबीब तनवीर के रंगकर्म का ये सब कलाकार अनिवार्य, अपरिहार्य सा हिस्सा थे, मैं उनके सारे ही प्रमुख नाटक और उनमें से कई एकाधिक बार देखे थे। आकर्षण कुछ ऐसा था कि मैं इन सारे ही कलाकारों की चमत्कारिक अभिव्यक्ति क्षमता से चकित हो जाया करता था, लिहाजा प्रतीक्षा रहती कि भोपाल फिर कब इनके नाटक का आना हो और मैं देखूँ। इसका आकर्षण सूत्र दरअसल श्याम बाबू की फिल्म चरणदास चोर रही जो बीसियों बार देखी और अब भी देखा करता हूँ। वह इन कलाकारों को लेकर ही बनी थी। एक बार आप अपने आपको इस फिल्म के हवाले कर दो देखते हुए तो फिर लगता है, दो घण्टे जमकर जीने का मजा आया, खैर।
चरणदास चोर, कामदेव का अपना वसन्त ऋतु का सपना, लाला शोहरत राय, आगरा बाजार, देख रहे हैं नैन, मिट्टी की गाड़ी आदि नाटकों की बड़ी पक्की स्मृतियाँ दिमाग में हैं। अपने आपसे जिद विफल होती है, काश उतना पीछे जाया जा सकता, इन सब प्रस्तुतियों के संसार में, जो अब सम्भव नहीं है। हाँ, गोविन्द निर्मलकर बाद में चरणदास चोर नाटक में चोर का किरदार करने लगे थे जो लम्बे समय तक करते रहे। छूटा तब जब उनको लकवा हो गया। चरणदास चोर नाटक का एक दृश्य है जिसमें चरणदास चोर पुलिस को चकमा देने के लिए लकवाग्रस्त होने का स्वांग करता है, पुलिस के सामने से निकल जाता है और सिपाही जान नहीं पाते। अजीब बात कही जा सकती है कि इस भूमिका को करने वाले दीपक तिवारी को भी यही बीमारी हुई और गोविन्द बाबा को भी।
छत्तीसगढ़ में उनको मिले सम्मान और बाद में भारत सरकार से पद्मश्री ने उम्र के संध्याकाल में रुग्णता के बावजूद थोड़ा खुशी देने वाली हल्की सी स्फूर्ति उनको दी थी। जब वे नईदिल्ली इस सम्मान को ग्रहण करने गये तो मित्र बालेन्द्र और उनके साथ अनूप रंजन पाण्डे के समन्वय से हमने यह योजना बनायी कि वापसी में गोविन्द बाबा को भोपाल उतार लें और यहाँ उनके साथ छोटा सा अनौपचारिक कार्यक्रम करके उनका सम्मान करें। हमारे औघड़ दोस्त प्रेम गुप्ता इसके लिए तत्काल न केवल तैयार हुए बल्कि अपनी संस्था में इस कार्यक्रम को बहुत अच्छे से संजोया। यह एक भावनात्मक तथा अविस्मरणीय उपक्रम था जिसमें गोविन्द बाबा अपनी धर्मपत्नी के साथ मंच पर बैठे, अपने अनुभव साझा किए, वे रोये, विनोद किया, अपने नाटकों और किरदारों के बारे में बताया। वह याद आज भी ताजा है। बीच-बीच में उनकी बीमारी की सूचनाएँ मिला करती थीं, शायद अस्सी पार उनका निधन हुआ।
मुझे याद आता है, एक बार हबीब साहब ने अपने सभी कलाकारों को भोपाल बुलाकर कुछ नाटक पुनर्संयोजित किए थे, पृथ्वी थिएटर, मुम्बई के उत्सव के लिए। तब मैं इन कलाकारों के ठहरने के ठिकाने पर भुलवाराम यादव से एक लम्बी बातचीत के इरादे से टेप लेकर गया था, दोपहर का वक्त था। भुलवा दादा दोपहर का खाना खाकर और देसी रसरंजन करके आराम कर रहे थे। उस वक्त गोविन्द बाबा, यद्यपि रसरंजन किए थे मगर विकल्प में बातचीत करने को सहर्ष तैयार हो गये थे, तब उनसे लम्बी बातचीत की थी जो चौमासा पत्रिका में शायद दस-बारह पेज में प्रकाशित हुई थी। भुलवाराम जी से बातचीत फिर अगले दिन हुई और कई दिन कई-कई बार हुई।
गोविन्द निर्मलकर से वह साक्षात्कार और भोपाल सम्मान का कार्यक्रम रह-रहकर याद आता है। वास्तव में उन जैसे, ग्रामीण किसान मजदूर और सारी जिन्दगी असाधारण योग करते हुए भी बस दो रोटी भर के रह जाने वाले कलाकारों के बारे में जितना समृद्ध देखा है, अपना हर कहा उस वजन का नहीं लगेगा, ये लोग सचमुच अपनी देह में जाने कौन सा विलक्षण जादू लेकर आये थे कि मंच पर किरदार को ऐसे जिन्दा करते थे बात ही क्या थी.......
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