शनिवार, 16 अगस्त 2014

जीभ लुपुर-लुपुर होना

शंकरदत्त मामा की स्मृतियाँ लगभग तीस साल पुरानी हैं। बड़ी दूर रेल्वे स्टेशन के समीप उनका घर था, एक बार उनकाे लेकर मित्रों के बीच कुछ यादें साझा की हैं। हफ्ते दस दिन में वे कभी अपनी साइकिल से घर आया करते थे। फिर शाम रात तक खाना खाकर ही मम्मी उन्हें जाने देतीं। वे पूछ लेती थीं, कि भैया क्या खाओगे, सब्जी कौन सी आदि। मामा बता दिया करते। पूड़ियाँ पसन्द करते थे फिर सब्जी भी बताते, बैंगन, भिण्डी भरवाँ या मसाले का कटहल या गोभी-आलू या परवल-आलू उन्हें सुहाते थे। मम्मी का बनाया उनको पसन्द भी बहुत आता था।

मामा चूँकि दोपहर या दोपहर बाद आ जाते थे तो टाइम पास करने के लिए मुझे और मुझसे छोटी को पढ़ाया करते थे। पढ़ाना यानी मुसीबत। वे हमारे पाठ या पाठ्यक्रम से अलग संसार का पढ़ाते थे लेकिन हमारी ही किताबें सामने रखकर जिनसे हमारा कोई साबका नहीं। हमारे पास उत्तर नहीं होता था तो मम्मी से शिकायत करते थे। उनमें पर्याप्त मसखरी के तत्व भी मौजूद होते थे। कहते थे, अब तुम्हारी मम्मी को बताता हूँ कि तुम लोगों को कुछ नहीं आता, सप्लीमेंट्री भी नहीं आयेगी, अभी पुजवाता (पिटवाता) हूँ। लेकिन मम्मी जानती थीं कि भैया ये शैली है, मामा कहते भी थे, मैं इनकी जड़ें मजबूत कर रहा हूँ।

बैठक में मम्मी, पापा, मामा और हम सब बैठा करते थे तो मामा सबकी नजर बचाकर हम लोगों को जीभ चिढ़ाया करते थे, हम इस बात से चिढ़ते थे, चिल्लाने पर उल्टे हमें ही डाँट खानी पड़ती क्योंकि मम्मी पापा कौन मानेंगे कि मामा जीभ चिढ़ा रहे हैं।

कई बार मामा आने के बाद हलवा बनाने की फरमाइश करते, मम्मी बनाती जब तो जरा देर में खुश्बू आने लगती। हम भाई बहन खुश होते कि हमको भी मिलेगा तो मामा कहते धीमे से, क्यों बड़ी जीभ लुपुर-लुपुर कर रही है......! हम उस बात पर फिर चिढ़ते तो मामा तुरन्त ऐसे संयत होकर बैठ जाते जैसे उन्होंने कुछ किया ही न हो। उनकी इस मजे लेने की आदत में हमें और बहन को अक्सर मुँह की खानी पड़ती।

हाँ, हमारे छोटे भाई को जो उनके हाथ नहीं आता था, उसको वो पास बैठाना चाहते, बात करना चाहते पर वो उनको लकड़ी-फुटा वगैरह मारकर भाग जाया करता था, उसको वे, बेताज बादशाह कहा करते थे। कल से मामा के कुछ ऐसे ही बोल याद आ रहे हैं, जीभ लुपुर-लुपर होना जबकि उस समय पापा, मामा के लिए कहते थे कि भैया बड़े स्वादिल हैं, उनकी जीभ लुपुर-लुपर किया करती है। बताइये मामा खुद जैसे, वैसा हमें कहते थे जबकि उनकी खातिर में एक छोटी सी कटोरी चम्मच के साथ हमारा भी भला हो जाया करता था।

मामा ऐसे छुट्टी के दिनों में दिन भर आकर रहा करते थे। शाम तक हम लोगों की खैर नहीं होती थी, रात जब जाते थे तब हम लोग याने भाई-बहन चैन की साँस लेते थे..........................

कोई टिप्पणी नहीं: