गुरुवार, 6 नवंबर 2014

केतन मेहता और रंगरसिया


कला और मनोरंजन का संसार अनूठा है। इस संसार में उत्कृष्टता और श्रेष्ठता की चुनौतियाँ सर्जक और सृजन दोनों ही स्तरों पर निरन्तर बनी रहती हैं। किसी समय यह मापदण्ड दोनों ही स्तरों पर लीक से अलग हटकर और आकृष्ट किए जाने की स्थिति तक प्रायः उदाहरण बना करता था। एक लम्बा समय लगा इस यथार्थ को स्थापित हुए और एक चरम या शीर्ष पर पहुँचकर वैकल्पिक धरातलों पर या सरलतम सृजनमार्ग पर फिर एक लोकप्रिय जगत को सिरजना उस मूल भाव के विपरीत व्यापक हुआ जिसकी साधना या सरोकार अक्षुण्ण रहे थे। हमारे सामने दूसरी परम्परा का आना और उसमें एक बड़े जिज्ञासु समाज का समरस होना एक दूसरी घटना थी जिसने अच्छे मिथकों को भी चुनौतियाँ दीं। सर्जना के मूलभूत तत्व ही दूसरी परम्परा का माध्यम बने, वे औजार जिन्हें मनुष्यता ने खुद गढ़ा था, आगे चलकर मनुष्य के ही गढ़े दूसरे औजारों से पिछड़ गये। सर्जना श्रेष्ठता के अपने मानक धरातल पर ही विभाजित होने लगी। देखते ही देखते एक समानान्तर स्थान विकसित हो गया, प्रतिष्ठापनाएँ यहाँ की ज्यादा चकाचैंधभरी नजर आने लगीं। हमारे सामने श्रेष्ठजनों को आदरणीयों का स्थान प्राप्त हो गया और उनका चरण स्पर्श भर करके हमने उनको उतने ही तक सीमित कर दिया।

यह एक लम्बी बहस का विषय हो सकता है कि जो ऊष्मा समूचे परिवेश को ताम्बई आभा दिया करती थी, जो ताप हमने बड़ी दूर रहकर भी अपने व्यक्तित्व में अनुभूत किया उसी के बरक्स हमने आधुनिक धारा का एक और दौर अस्तित्व में आते देखा जिसकी सीमाओं ने यद्यपि स्वर्णिम दौर को स्वर्णिम बने रहने दिया लेकिन उसको सीमित भी कर दिया। 

केतन मेहता की रंगरसिया प्रदर्शन के परिणाम तक पहुँच सकती थी इसका अनुमान नहीं रह गया था क्योंकि वे इसे पाँच साल से बनाये बैठे थे। केतन मेहता पिछली सदी में आठवें दशक के एक महत्वपूर्ण फिल्मकार हैं जिनकी दृष्टि पर भरोसा किया ही जा सकता है क्योंकि बाद के भटकाव को छोड़कर प्रारम्भ में उनके सभी काम अच्छे थे, अच्छे थे अर्थात स्पर्धी दौर में श्याम बेनेगल, गोविन्द निहलानी, सईद मिर्जा, प्रकाश झा और सुधीर मिश्रा के कामों के बीच चर्चा में आते थे। पहले पैराग्राफ में जो बात आयी, केतन मेहता उसी तरह के समय के मारे कहे जायेंगे। जी चैनल पर उनका एक धारावाहिक प्रधानमंत्री ध्यान में आता है जो शायद चाचा चौधरी धारावाहिक के बाद उनका आखिरी अच्छा प्रयोग था। मंगल पाण्डे को लेकर कुछ ठीक से कहते नहीं बन रहा है लेकिन जब राजा रवि वर्मा जैसे व्यक्तित्व के साथ उन्होंने अपनी नयी फिल्म की कल्पना प्रस्तुत की तब लगा कि वे हताशा के बड़े समय में भी अपनी रचनाधर्मिता में थोड़ा ताप बचाये हुए हैं।

रंगरसिया को बना चुकने के बाद केतन को इतने बड़े समय में कई बार यह लगा होगा कि शायद इसका प्रदर्शन न हो पाये। बहरहाल उस निर्माण संस्था को जरूर धन्यवाद देना चाहिए जिसकी वजह से यह फिल्म सिनेमाघरों तक आ रही है। सैकड़ों करोड़ों के क्लब में दौड़-फांदकर जा पहुँचने के इस अजीबो गरीब समय में रंगरसिया को कुछ हजार संजीदा दर्शक देखते हैं तो यह बड़ी बात होगी। भारतीय कला परम्परा में राजा रवि वर्मा का व्यक्तित्व और कृतित्व अपनी जगह महान हैं। महान व्यक्तियों पर अथवा उनसे जुड़ी प्रतिभासम्पन्नता पर काम करना उत्साह और चुनौती के साथ संवेदनशील भी होता है। 

यह जरूर अचरज से भरा है कि इस फिल्म का प्रचार-प्रसार जन-आकर्षण की दूसरी जिज्ञासाओं के साथ हो रहा है। रचनात्मक रूप से एक बड़े कलाकार पर फिल्म बनाते हुए पूरे विषय को किस तरह बरता गया है, कैसे राजा रवि वर्मा के सृजनात्मक जीवन और जगत में सजगता और दक्षता के साथ प्रवेश किया गया है, यह केतन मेहता की ओर से इस बीच प्रदर्शन के इन पाँच-सात दिनों में सामने आना था। बहरहाल शुक्रवार को फिल्म प्रदर्शित हो रही है, देखना महत्वपूर्ण होगा कि भवनी भवई और मिर्च मसाला वाले केतन मेहता सिने-सर्जक के मूलभूत कलाकौशल पर अभी भी कितना स्थिर हैं, कितना डिग चले हैं..........?

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