शुक्रवार, 14 नवंबर 2014

॥ स्वीटी के बच्चे ॥


उसका नाम स्वीटी था नहीं लेकिन उसके नियमित आते रहने से किसी न किसी नाम से पुकारना ही था सो सब यह कहने लगे। दरअसल किसी तीसरे मुहल्ले की वह पालतू है पर जाने वो अपना घर खाली करते समय उसे नहीं ले गये या कुछ और वह एक दिन घर आ गयी। उसे कुछ खाने को दिया जिससे यह हुआ कि प्राय: आने लगी लेकिन सफेद रंग की यह साफ सुथरी स्वीटी देखते हुए इतना आल्हाद व्यक्त करती थी कि मन खुश हो जाता था। मेरे पास का वह सब खा लिया करती थी, बिस्कुट, मूँगफली, चने कुछ भी।

कुछ दिन में उसकी आदत ऐसी बन गयी कि वो घर में ज्यादातर समय बैठी रहती, आँगन में। आते-जाते सब पर मुफ्त का रुआब, भौंकने पर सब डरते, अन्दर आने से। घर से बाहर जाओ तो वह ऐसे देखती है जैसे उसकी जवाबदारी है सब। लौट कर आने तक आँगन में ही रहती। जब आओ तो मुँह ऊपर करके एक लम्बा सुर भी निकालती, जैसे वेलकम कर रही हो।बहरहाल इसी स्वीटी ने कुछ समय पहले तीन सन्तानों को हमारे ही आँगन के एक कोने में जन्म दिया। तीनो ही जेण्ट्स। अच्छे अच्छे रंगों वाले, सफेद में कुछ खाकी चित्ते-चकत्ते के साथ। इस समय पन्द्रह-बीस दिन के हो गये हैं, पहले पाँच सात दिन पड़े रहे, आँखें नहीं खुली थीं, जब आँखें खुल गयीं तब से सयाने हो गये हैं, अपनी उम्र के मुताबिक।

इन दिनों खूब कूदते-फाँदते और मस्ताते हैं, छोटा मुँह बड़ी बात टाइप पुक-पुक करके भूँकते भी हैं आपस में कुश्ती लड़ते हुए। इनमें सबसे छोटा गब्दू टाइप है और शेष दो जरा स्मार्ट फिटनेस का ख्याल रखने वाले। सुबह और शाम, कई बार रात में भी इनकी मस्तियाँ देखने को मिलती हैं। कई बार लिखते-पढ़ते पैरों के पास आ जाते हैं और जीभ से उंगलियाँ-छुँगलिया चाटने लगते हैं, ओह याद करके गुदगुदी महसूस होती है। मैं उन्हें ज्यादा लड़ियाता नहीं पर वे उसके लिए निमंत्रण की परवाह भी नहीं करते।

जीवन की आपाधापी में कई बार आपको अनुभूत करने वाली खुशी और सुख किस तरह मिलता है, इस पर मैं सोचने लगता हूँ। अनेक जगहों से खिजे-पिटे और बुझे लौटकर आने के बाद ये प्राणी, निश्छल और आत्मीय कैसे आपको एक अलग ही संसार में ले जाने आ जाते हैं। ये अबोले केवल प्रेम की भाषा जानते हैं, जो बोलते हैं वो कई भाषाओं के धनी होते हैं, उस दुनिया से इस दुनिया में कितना अन्तर है, थोड़ी देर इस दुनिया में रहकर लगता है बहुत सारी तकलीफें कम हुई हैं............................

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