रिवाल्वर
रानी को देखना एक दिलचस्प अनुभव है। यह कंगना के लिए क्वीन के बाद वाकई एक
और महत्वपूर्ण फिल्म है जो उनकी पहचान को इस वक्त में और समृद्ध करने काम
करेगी। इस फिल्म का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि यह सचमुच हिन्दी सिनेमा के
विभिन्न श्रेष्ठ मानकों से अलग एक अपना मध्यमार्ग लेकर चलती है और दर्शकों
के मन को छू जाने वाले और कई बार तनाव में भी बनाये रखने वाली खासियतों के
साथ अंजाम तक पहुँचती है।
साई कबीर फिल्म के निर्देशक हैं जिन्होंने इसे भोपाल से लेकर ग्वालियर और वहीं आसपास के अंचलों में फिल्माया है। फिल्म की भाषा-बोली बुन्देलखण्ड से प्रेरित है, हालाँकि बहुत से कलाकार, जिनमें नायिका भी शामिल है, पूरी तरह उस भाषा को निबाह नहीं पाते फिर भी उनके प्रयत्न अच्छे हैं और वे दस्यु जीवन, राजनैतिक यथार्थ और अपराध के गठजोड़ के बीच शह और मात के खेल को सशक्त पटकथा और संरचना के साथ साकार करने में काफी हद तक कामयाब होते हैं।
रिवाल्वर रानी की केन्द्रीयता में भटकाव नहीं है। शत्रुता प्रत्यक्ष है और निभाने का ढंग भी जबरदस्त लेकिन उसी संघर्ष में हीरो बनने के एक महात्वकांक्षी युवक और रिवाल्वर रानी के बीच प्रेम की फिलॉसफी दीवानगी के साथ रची गयी है। रिवाल्वर रानी यानी अलका सिंह के अपने वजूद और भय के बावजूद उसके भीतर का अकेलापन, उसकी ख्वाहिशें और उसका प्रेम उस चरित्र को संवेदना प्रदान करता है। कंगना ने सचमुच अन्देशे से भरी, जोखिमपूर्ण जिन्दगी से जूझती मगर भीतर से एक कोमल सी औरत को बखूबी जिया है।
इस फिल्म को पीयूष मिश्रा, कुमुद मिश्रा, जाकिर हुसैन, वीर दास आदि कलाकार अपने-अपने किरदारों से यादगार बनाते हैं। किस तरह आस्थाएँ बदलती हैं, धारणाएँ बदलती हैं, कैसे छल अपने इर्द-गिर्द साथ-साथ चलता है, कैसे क्रोध का अतिरेक, संवेदनशीलता में तब्दील हो जाता है, ऐसी बहुत सारी स्थितियाँ फिल्म के साथ हैं। फिल्म का अन्त बहुत मार्मिक है जब जली-झुलसी अलका सिंह बिस्तर पर पड़े-पड़े ट्रांजिस्टर में अपनी मौत का समाचार सुन रही होती है, उसकी आँख से बहकर निकला आँसू उसके व्यतीत को करुणा के साथ व्यक्त करता है...........
फिल्म के गाने माहौल के अनुकूल हैं, मगर दृश्यों के साथ केन्द्रित करते हैं, ऊषा उत्थुप, आशा भोसले, पीयूष मिश्रा के स्वरों में वे गाथा की तरह घटित होती हैं, प्रसंगों के अनुकूल...........
साई कबीर फिल्म के निर्देशक हैं जिन्होंने इसे भोपाल से लेकर ग्वालियर और वहीं आसपास के अंचलों में फिल्माया है। फिल्म की भाषा-बोली बुन्देलखण्ड से प्रेरित है, हालाँकि बहुत से कलाकार, जिनमें नायिका भी शामिल है, पूरी तरह उस भाषा को निबाह नहीं पाते फिर भी उनके प्रयत्न अच्छे हैं और वे दस्यु जीवन, राजनैतिक यथार्थ और अपराध के गठजोड़ के बीच शह और मात के खेल को सशक्त पटकथा और संरचना के साथ साकार करने में काफी हद तक कामयाब होते हैं।
रिवाल्वर रानी की केन्द्रीयता में भटकाव नहीं है। शत्रुता प्रत्यक्ष है और निभाने का ढंग भी जबरदस्त लेकिन उसी संघर्ष में हीरो बनने के एक महात्वकांक्षी युवक और रिवाल्वर रानी के बीच प्रेम की फिलॉसफी दीवानगी के साथ रची गयी है। रिवाल्वर रानी यानी अलका सिंह के अपने वजूद और भय के बावजूद उसके भीतर का अकेलापन, उसकी ख्वाहिशें और उसका प्रेम उस चरित्र को संवेदना प्रदान करता है। कंगना ने सचमुच अन्देशे से भरी, जोखिमपूर्ण जिन्दगी से जूझती मगर भीतर से एक कोमल सी औरत को बखूबी जिया है।
इस फिल्म को पीयूष मिश्रा, कुमुद मिश्रा, जाकिर हुसैन, वीर दास आदि कलाकार अपने-अपने किरदारों से यादगार बनाते हैं। किस तरह आस्थाएँ बदलती हैं, धारणाएँ बदलती हैं, कैसे छल अपने इर्द-गिर्द साथ-साथ चलता है, कैसे क्रोध का अतिरेक, संवेदनशीलता में तब्दील हो जाता है, ऐसी बहुत सारी स्थितियाँ फिल्म के साथ हैं। फिल्म का अन्त बहुत मार्मिक है जब जली-झुलसी अलका सिंह बिस्तर पर पड़े-पड़े ट्रांजिस्टर में अपनी मौत का समाचार सुन रही होती है, उसकी आँख से बहकर निकला आँसू उसके व्यतीत को करुणा के साथ व्यक्त करता है...........
फिल्म के गाने माहौल के अनुकूल हैं, मगर दृश्यों के साथ केन्द्रित करते हैं, ऊषा उत्थुप, आशा भोसले, पीयूष मिश्रा के स्वरों में वे गाथा की तरह घटित होती हैं, प्रसंगों के अनुकूल...........
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें