सुभाष
घई की नयी फिल्म पर मिश्रित प्रतिक्रियाएँ हैं। व्यक्तिश: मुझे उनसे कुछ
अधिक ही आशा बनी रहती है जो लगभग ताल तक पूरी होती रही, पता नहीं बाद में
यादें, किसना, युवराज से क्या हो रहा है? काँची की कहानी, पटकथा, संवाद और
निर्देशन सभी कुछ उनके हैं। मध्यान्तर के पहले जब तक यह कहानी नैनीताल के
नैसर्गिक सौन्दर्य में एक नोकझोंकभरी प्रेमकथा की तरह परवान चढ़ती है,
सुहाती है लेकिन जैसे ही मध्यान्तर से दस
मिनट पहले नायक को मारने के बाद फिल्म मुम्बई में आगे बढ़ती है, पटकथा शिथिल
होती प्रतीत होती है। दो तरह के स्थानापन्न-विभाजन, नैनीताल और मुम्बई और
शायद रस्मपूर्ति के लिहाज से अन्तिम दृश्य में वापस मूल स्थान पर फिल्म को
इति प्रदान करना, फिल्म को लेकर कोई धारणा स्थापित कर पाने में असहज ही
रहा। नायक की मृत्यु का दृश्य जितने प्रभाव से फिल्माया गया है, उतने ही
वजन के साथ यह दर्शकों को आगे के लिए व्यावधानित कर देता है। फिर वे बेमन
से नायिका के साथ कहानी को बदले के साधारण रोमांच के साथ देखते हैं।
फिल्म में मिथुन का चरित्र उनके द्वारा संवाद में प्राय: बोले शब्द "पद्धति" के साथ ही उनको प्रभावी नहीं होने देता, उनके दोनों तरफ गाल किस लिए फुला दिये गये, समझ में नहीं आया, संवाद बोलने का लहजा भी जबकि ऋषि कपूर अपने नकारात्मक किरदार में प्रभावित करते हैं। नायक कार्तिक की सराहना के साथ हमदर्दी भी व्यक्त करनी पड़ेगी क्योंकि निर्देशक को अपनी कहानी में शायद उसकी जरूरत उतनी ही थी। नायिका मिष्टी को क्षमता से अधिक वजन या दायित्व मिला है, परिपक्व उम्र के अभाव में चेहरे पर भाव नहीं आ पाते, उग्रता के स्वभाव को ही प्राय: अभिव्यक्ति का आधार बनाया गया है। नताशा रस्तोगी, चंदन राय सान्याल, मीता वशिष्ठ जैसे परिपक्व कलाकार अपने काम बेहतर कर जाते हैं लेकिन मुख्य धारा में भटकाव उत्तरार्ध में फिल्म को कमजोर करता है।
इरशाद कामिल के गाने, दो संगीतकारों इस्माइल दरबार और सलीम-सुलेमान का संगीत कुछ गानों में सुरुचिपूर्ण लगता है, टाइटिल ट्रेक भी अच्छा है। "कम्बल के नीचे" गाना एक बुरा प्रयोग है जिसको सुनकर पंक्तियों में सुभाष घई की पिछली फिल्मों के नाम-गाने याद आते हैं पर उसका प्रस्तुतिकरण नहीं सुहाता। सुधीर के चौधरी, सिनेमेटोग्राफर की दृष्टि भी मध्यान्तर तक सुहावनी है, बाद में घटनाक्रम के लिहाज से बहुत चमत्कार की गुंजाइश भी नहीं रहती, फिर भी मुम्बई में ट्रेन के आसपास नायिका और खलनायक के बॉडीगार्ड से संघर्ष अच्छा फिल्माया गया है, रोमांचक खासकर।
फिल्म में मिथुन का चरित्र उनके द्वारा संवाद में प्राय: बोले शब्द "पद्धति" के साथ ही उनको प्रभावी नहीं होने देता, उनके दोनों तरफ गाल किस लिए फुला दिये गये, समझ में नहीं आया, संवाद बोलने का लहजा भी जबकि ऋषि कपूर अपने नकारात्मक किरदार में प्रभावित करते हैं। नायक कार्तिक की सराहना के साथ हमदर्दी भी व्यक्त करनी पड़ेगी क्योंकि निर्देशक को अपनी कहानी में शायद उसकी जरूरत उतनी ही थी। नायिका मिष्टी को क्षमता से अधिक वजन या दायित्व मिला है, परिपक्व उम्र के अभाव में चेहरे पर भाव नहीं आ पाते, उग्रता के स्वभाव को ही प्राय: अभिव्यक्ति का आधार बनाया गया है। नताशा रस्तोगी, चंदन राय सान्याल, मीता वशिष्ठ जैसे परिपक्व कलाकार अपने काम बेहतर कर जाते हैं लेकिन मुख्य धारा में भटकाव उत्तरार्ध में फिल्म को कमजोर करता है।
इरशाद कामिल के गाने, दो संगीतकारों इस्माइल दरबार और सलीम-सुलेमान का संगीत कुछ गानों में सुरुचिपूर्ण लगता है, टाइटिल ट्रेक भी अच्छा है। "कम्बल के नीचे" गाना एक बुरा प्रयोग है जिसको सुनकर पंक्तियों में सुभाष घई की पिछली फिल्मों के नाम-गाने याद आते हैं पर उसका प्रस्तुतिकरण नहीं सुहाता। सुधीर के चौधरी, सिनेमेटोग्राफर की दृष्टि भी मध्यान्तर तक सुहावनी है, बाद में घटनाक्रम के लिहाज से बहुत चमत्कार की गुंजाइश भी नहीं रहती, फिर भी मुम्बई में ट्रेन के आसपास नायिका और खलनायक के बॉडीगार्ड से संघर्ष अच्छा फिल्माया गया है, रोमांचक खासकर।
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