मुगल ए आजम फिल्म का चर्चा एक बार फिर दुनिया में हुआ है। इसे ब्रिटेन के अखबार ईस्टर्न आइ ने अपने सर्वेक्षण में हिन्दी सिनेमा की सर्वश्रेष्ठ फिल्म माना है। यह सर्वेक्षण भारतीय सिनेमा के सौ साल पूरे होने पर अखबार द्वारा किया गया है। सिने इतिहास की एक उत्कृष्ट फिल्म एक बार सुर्खियों में आयी है। यों निर्विवाद रूप से भी हमारे यहाँ इस फिल्म को सौ साल के सिनेमा की मुख्य प्रतिनिधि फिल्म माना जाता है।
मुगल ए आजम की बात करना केवल फिल्म इतिहास से ही किसी एक खास विषय को छूना ही नहीं बल्कि उस वैभव का स्मरण करना है जिसे बरसों की मेहनत से गढ़ा गया, भारतीय सिनेमा के इतिहास में अमिट हस्ताक्षर कही जाने वाली हस्तियों ने उसमें काम किया, गीत से लेकर संगीत तक, कला से लेकर कलाबोध तक एक-एक चीज में महान कल्पनाशीलता और दृष्टि का परिचय दिया गया। इस फिल्म को बनने में उतना वक्त लगा था जितना वक्त आज यदि किसी फिल्म में लगे तो निर्माता-निर्देशक जाने कहाँ जायें? लेकिन मुगल ए आजम को बनाने में किसी की हिम्मत टूटी और न ही किसी की हिम्मत ने जवाब दिया।
मुगल ए आजम भारतीय सिने-अस्मिता की भी मुख्य फिल्म है। इस फिल्म पर बात करते हुए काफी विस्तार में जाने से हम बहुत सी चीजें जान पाते हैं मसलन फिल्म के निर्माण में लगा लगभग आठ साल का वक्त, उन आठ वर्षों में कलाकारों की पर्सनैलिटी का एक जैसा बने रहना, प्रस्तुतिकरण की भव्यता के लिए कोई भी समझौता निर्देशक द्वारा न किया जाना, निर्माता शापोर जी पालन जी मिस्त्री से निर्देशक के. आसिफ की लम्बी जद्दोजहद, सहमतियों-असहमतियों के बावजूद निर्माता का निर्देशक केे प्रति विश्वास बने रहना क्योंकि आसिफ साहब की निष्ठा असंदिग्ध थी और मुगल ए आजम फिल्म से उनका लगाव बेहद था।
पृथ्वीराज कपूर, दिलीप कुमार, मधुबाला, दुर्गा खोटे, अजीत, निगार सुल्ताना जैसे कलाकारों, अमान, वजाहत मिर्जा, कमाल अमरोही और एकसान रिजवी जैसे पटकथा-संवाद लेखक, आर. डी. माथुर जैसे सिनेमेटोग्राफर, शकील बदायूँनी जैसे गीतकार, नौशाद जैसे संगीतकार और फिल्म के संगीत को लेकर उनके जतन सभी का अपना इतिहास है। फिल्म की कोरियोग्राफी लच्छू महाराज की थी और उनके सहायक थे शम्भू महाराज और गोपीकृष्ण। एक-एक बात के साथ घटनाएँ जुड़ी हैं जैसे नौशाद साहब का उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ साहब को उनकी आवाज के लिए मनाना वह भी उनकी गरिमा और उनके मानदेय पर, ऐसा बहुत कुछ जुड़ता है इस फिल्म के साथ। फिल्म में लता मंगेशकर, शमशाद बेगम और एक खास ऐलानी गाने (ऐ मोहब्बत जिन्दाबाद) के लिए मोहम्मद रफी की आवाज भी यादगार है।
मुगल ए आजम और भव्यता शब्द दोनों एक-दूसरे का पर्याय लगते हैं जब हम यह फिल्म देख रहे होते हैं। कल्पना की जा सकती है किसी फिल्म की जिसकी टिकिट खरीदने के लिए चार दिन पहले से लोग लाइन लगाकर तैयार रहें! सजे-सँवरे हाथी पर जिस फिल्म का प्रिंट रखकर लाया जाये!! फिल्म की चर्चा करते हुए छोटे-छोटे इतने विवरण मिलते हैं कि हम उन सभी के संज्ञान में इस फिल्म की परिकल्पना करते हुए चकित हो जाते हैं। मुगल ए आजम दरअसल हर कालखण्ड में प्रासंगिक है।
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