रविवार, 1 जनवरी 2012

बेहट का रास्ता


बेहट, ग्वालियर से लगभग चालीस-पैंतालीस किलोमीटर दूर संगीत सम्राट तानसेन की जन्म स्थली है। ग्वालियर में हर साल आयोजित होने वाले तानसेन समारोह के अन्तिम दिन सुबह की एक सभा बेहट में भी आयोजित की जाती है। यह एक लम्बी परम्परा है और लम्बे समय से ही इसका निर्वाह किया भी जा रहा है। एक समय रहा है जब शास्त्रीय संगीत के बड़े कलाकारों ने बेहट की सभा में गाने या वादन करने को ज्यादा महत्व दिया है। इसके पीछे उनका संवेदनशील और भावुक आग्रह यह रहा है, कि एक महान कलाकार की पुण्य भूमि पर अपनी आदरांजलि का आत्मसुख अलग और अनूठा है। मुख्य स्थल की सभा सुबह और शाम मिलाकर पाँच होती हैं जिनमें कलाकारों की परम्परागत शिरकत होती ही है। 

इस बार इस समारोह के लिए एक अलग स्थल का चयन कतिपय कारणों से करना पड़ा लेकिन यह शहर के मध्य ही स्थित था, बैजाताल। बरसों पहले संजोये एक छोटे से ताल के बीचों-बीच प्रस्तुति के लिए मंच है। सामने से देखने के लिए सीढिय़ाँ। सम्भागायुक्त कार्यालय के ठीक सामने इस स्थल पर एक सप्ताह पहले से मंच और परिसर आकल्पन का काम शुरू हुआ तो दिलचस्प बात यह देखने में आयी कि शहर के लोगों ने दिन-प्रतिदिन होते इस निर्माण कार्य को सुरुचि से देखा। रात बारह बजे तक परिवार यह देखने आते थे कि किस तरह मंच परिकल्पित किया जा रहा है। आकल्पन करने वाले कलाकार चमन भट्टी ने अपने सहयोगियों के साथ इस काम में दिन-रात एक किया और एक सुन्दर मंच बनकर तैयार हुआ। मूर्धन्य कलाकारों ने यहाँ गायन और वादन किया जिसमें तानसेन सम्मान से सम्मानित सविता देवी सहित आरती अंकलीकर, अश्विनी भिड़े, व्यंकटेश कुमार, पण्डित रोनू मजूमदार, विश्वजीत रायचौधुरी और संजय गुहा आदि शामिल थे। 

ग्वालियर में तानसेन समारोह के पहले दिन मौसम एकदम सामान्य सा था। बरसों से तानसेन समारोह में शामिल हो रहे लोगों का कहना था कि हमें चार डिग्री तापमान तक की तो याद है पर इस बार न जाने कैसा मौसम है, कुछ पता ही नहीं चल रहा सर्दी का। अगली शाम ऐसा लगा जैसे मौसम ने इन बातों पर कान दिया, यही वजह रही थी, एकदम सर्दी बढक़र गयी और ठिठुरन में तब्दील हो गयी। बताया गया, कहीं हिमपात हुआ है। बहरहाल ऐसे ही सिसियाते अनुभवों में अच्छे और प्रतिबद्ध कलाकारों को सुना, दाद उनकी कला की और सबसे ज्यादा डूबकर गाने और वादन करने का ऐसा आलम कि मौसमी अनुभूति से जैसे ऊबरे हुए महसूस हुए, सचमुच धन्य हैं वे सभी जिन्होंने ठण्ड, आसपास ताल में संग्रहीत पानी और गहरी रात में अपने होने को सम्पूर्ण रचनात्मकता के साथ सार्थक कर बताया।

समारोह के आखिरी दिन छठवीं सभा बेहट में नियत थी ही, बेहट जाने की बात वहाँ संस्कृति विभाग के अधिकारी और शिल्पकार अनिल कुमार, उस्ताद अलाउद्दीन खाँ संगीत अकादमी के कार्यक्रम अधिकारी राहुल रस्तोगी और हम मिलकर दो दिन पहले से कर रहे थे। बेहट, मेरा जाना पहली बार हो रहा था। मन में कौतुहल था, एक महान गायक की जन्म स्थली देखने का। अनिल कुमार ने बताया था कि बरसों से वे बेहट की सभा के साक्षी हैं, बड़े-बड़े कलाकार वहाँ गाते और वादन करते रहे हैं। जहाँ कार्यक्रम होता है, उसके पीछे ही शिव मन्दिर है जो देखने में एक तरफ से टेढ़ा दिखायी देता है। इसके बारे में किम्वदन्ती है कि तानसेन यहीं मन्दिर में आकर संगीत साधना किया करते थे। एक बार उन्होंने ऐसी तान लगायी कि उसके असर से मन्दिर टेढ़ा हो गया। यह सरोकार तानसेन के संगीत के प्रति समर्पण और अन्त:स्थल से कण्ठ तक आने वाली संगीत सलिला से जुड़ते हैं। उस मन्दिर को जाकर देखना बड़ा सुखद रहा और देखते हुए लगातार साधक का छबि-स्मरण होता रहा।

इस बार धु्रपद गायक अफजल ने वहाँ गाया और अपनी आदरांजलि पेश की। ग्वालियर से बेहट जाते हुए रास्ते में दोनों ओर सरसों के पीले फूल दूर तक अपनी स्वर्णिम आभा से आच्छादित दिखायी दे रहे थे। यह पूरा क्षेत्र और मुरैना के आसपास के ग्रामीण अंचल सरसों की खेती और तेल की पिराई के लिए प्रसिद्ध हैं। एक मशहूर ब्राण्ड सरसों का तेल भी यहीं का है। सडक़ मार्ग का वाहन से एक-डेढ़ घण्टे का यह सफर अनेक अनुभवों भरा साबित हुआ। पन्द्रह-बीस किलोमीटर जब बेहट रह गया था, वहीं से आसपास के रहवासियों का जैसे रेला आयोजन स्थल की तरफ बढ़ा चला जा रहा था। जाने कितने लोग तेजी से पैदल जा रहे थे, उनमें हर उम्र और अवस्था वाले शामिल थे, बड़े बुजुर्ग भी।

बेहट में दूध-मावे की जमी हुई बरफी बड़ी स्वादिष्ट मिलती है। छोटी-छोटी दुकाने हैं जहाँ बेचने वाले अपनी विश्वसनीयता और सहजता के साथ आपको बरफी तौलकर देते हैं। मिठाई की दुकान में बिना चखे रहा नहीं जाता, शहरी दुकानदार मांगने पर मुँह बनाकर एक टुकड़ा हाथ में पटक देता है मगर यहाँ एक पूरी बरफी देकर चखाने का दिल और साहस है, कि देख लो माल चोखा है। वाकई बरफी थी भी शानदार। बेहट की सभा वाले दिन गाँव में ही हजार-पन्द्रह सौ लोगों के भोजन का प्रबन्ध होता है, इस बार भी था, मगर हमें वापसी में जल्दी ग्वालियर पहुँचना था, लिहाजा मटर, आलू और टमाटर की रसेदार सब्जी, पूड़ी, गुलाब जामुन और बरफी हम लोगों के लिए पॉलीथिन में दे दी गयी। बीस-बाइस किलोमीटर दूर जाकर एक गाँव में सडक़ किनारे घर के सामने चबूतरे पर हम पाल्थी लगाकर बैठ गये, घर से बरतन मांग लिया और जमकर खाया, संगत में रोजमर्रा से ज्यादा खा गये लेकिन जो मजा आया वह अभी भी वैसा का वैसा ही है। वहीं जिनका घर था, उन्होंने बताया कि साहब जरा आगे जाकर उल्टे हाथ तरफ ही आपको ऊदल की तलवार मूठ तक गड़ी मिलेगी, उसे उतरकर देखना मत भूलिएगा। हम जिज्ञासा और कौतुहल में पूछते-पूछते गये और उस स्थान पर ठहर गये जहाँ, मूठ की आकृति का विशाल पत्थर जमीन में गहरे धँसा था। और भी लोग अचम्भित भाव से उसे देख रहे थे, हम भी शामिल थे। बेहट से लौटते हुए ये अनुभव जहन में लगातार बने रहे। तानसेन, मन्दिर, मिठाई, देशज भोजन चटखदार नाक, कान और गला खोल देने वाला, ऊदल की तलवार आदि, आदि।
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2 टिप्‍पणियां:

vrinda ने कहा…

Bahut khub Mishrji!!1 Gwalior ke kan-kan mein bharat ke mitti ki khushboo aur hamari prachin sanskriti ki shaan hai. Apne jo aatithyashilta ka anubhav kiya wohi to yahan ka abhimaan hai. Aapane itne sunder shabdome uska bakhan kiya hai, iske liye aabhari hoon.

सुनील मिश्र ने कहा…

वृंदा जी, आपका आभारी हूँ, आपने हमारी टिप्पणी को पढ़ा और सराहा। आशा है ऐसी ही आत्मीयता हमेशा रखेंगी। नव वर्ष की शुभकामनाएं।