शनिवार, 14 जनवरी 2012

लापतागंज में सन्यास का रोग


शुक्रवार की रात लापतागंज धारावाहिक की कड़ी में देर रात का एक दृश्य नजर को ठिठकने पर मजबूर करता है जिसमें मौसी, हनुमान जी की मूर्ति के पास बैठी रो रही हैं और अपने भाई छोटू, लापतागंज के मामा को सद्बुद्धि देने की प्रार्थना कर रही है। 

दरअसल बातों के धनी और स्वभाव से आलसी मामा को एक दिन एक गाड़ीवान एक बाबा के सान्निध्य में क्या ले गया, मामा की दृष्टि ही अस्थायी रूप से विचलित हो गयी। शान्ति की तलाश, शान्ति की खोज में ओम शान्ति जपने वाले बाबा की गुडबुक में मामा जिस तरह से आ गये वह भी कम चमत्कार नहीं था। तीन-चार कडिय़ों में यह दिखाया गया था कि किस तरह बाबा के सामने हाथ जोड़े नेता, डॉक्टर, पुलिस और तमाम लोग बैठे हैं और सिनेमा के गाने और कलाकारों के संवादों के उदाहरणों से शान्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाले बाबा की हाँ में हाँ मिला रहे हैं।

लापतागंज के मामा जिन परिस्थितियों में बाबा का शिष्यत्व स्वीकार करते हैं उस समय उनके साथ दो तरह की समस्याएँ होती हैं, एक आराम-विश्राम की स्थितियाँ न बन पाना और दूसरा मनपसन्द भोजन-पकवान उपलब्ध न हो पाना। बाबा के आश्रम में दोनों ही सुख को अपने सामने देखकर मामा का मन डोल जाता है। सन्यास की तरफ बढ़ते मामा खुद लापतागंज में अपने बाबा की एजेंसी की तरह सक्रिय हो जाते हैं। आरम्भ में विरोध मगर जल्द ही बाबा के दसियों अनुयायी उनकी ताली के साथ ताली बजाने लगते हैं और एक माहौल बनने लगता है।

मौसी, मामा की बहन अपने भाई के इस खोये-खोये बरताव से भारी दुखी है, रो-रोकर बुरा हाल हुआ है उनका। उनको कभी लगता है, बीमारी है, कभी लगता है बाहर की व्याधि है। लल्लन जी मामा के शोरगुल से तंग आकर पुलिस बुला लेते हैं मगर वह भी मामा के पाँव छूकर चली जाती है। मामा से प्रेरित हो एलिजा, सुत्ती और चौरसिया पान वाला भी सन्यास ले रहे हैं। कुल मिलाकर अफरा-तफरी। सुत्ती की घरवाली मिरचा सन्यासिन बन सुत्ती का मोहभंग करना चाहती हैं मगर सुत्ती की आँखों पर मामा का मोहपाश जो है, परदे की तरह।

शुक्रवार को लापतागंज के समाप्त होते-होते एक कार आकर रुकती है जिसमें एक तरफ से बाबा अपने माडर्न रूप में और दूसरी तरफ से एक खूबसूरत युवती उतरते हैं। शायद सोमवार को खुलासा हो, कि एक तरफ मामा अपने चेलों के साथ सन्यास की तैयारी में हैं बाबा की प्रेरणा से उधर बाबा सन्यास त्याग कर मोह-मोहब्बत से अपनी जिन्दगी सँवार चुके हैं। देखते हैं क्या होता है......................

लापतागंज मनोरंजन का एक पूरा परिवेश गढ़ता है। उसको लगातार देखते हुए अच्छे मनोरंजन की चाहत वाले दर्शक उससे जुड़ ही जाते हैं। अनूप उपाध्याय अपनी अदायगी से एक अलग पासंग के साथ लोकप्रिय हो गये हैं। एक तरफ रोहिताश्व गौर मुकुन्दी की कद्र लापतागंज के सबसे समझदार व्यक्ति के रूप में है वहीं मामा अनूप उपाध्याय मामा बात-बात में पिताजी की दुहाई देते हुए हँसी का जैसे पिटारा खोल देते हैं। इन सब में श्रेष्ठ शुभांगी गोखले मौसी हैं जिनका स्नेहिल, छोटे भाई पर जान छिडक़ता चरित्र उभरकर सामने आता है। उनकी खूबी अपने किरदार में इस कदर डूब जाना है कि शुभांगी और मौसी एकाकार हो गये हैं। एक बातचीत में अनूप उपाध्याय ने कहा भी था कि लापतागंज में हमारी बहन का किरदार निभाते हुए वे मेरी सगी बहन ही लगती हैं।

फूहड़ और निरर्थक तथा चमचमाते मगर निहायत नकली धारावाहिकों के बीच ऐसे सार्थक धारावाहिकों का संघर्ष निश्चय ही कठिन है मगर यह भी उतना ही सच है कि शनै: शनै: ही सही लापतागंज ने अपने बड़ी संख्या में स्थायी दर्शक बना लिए हैं।

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