भारतीय सिनेमा के महानायक की एक बहुत ही निराशाजनक फिल्म के प्रदर्शन की खीज को कम करने के लिए हम उन्हीं की एक अच्छी फिल्म की चर्चा इस रविवार करना चाहेंगे। यह फिल्म है आनंद जिसका निर्देशन प्रख्यात फिल्मकार, सम्पादक हृषिकेश मुखर्जी ने किया था। लगभग चालीस साल पहले, 1970 में आयी इस फिल्म ने उस समय अच्छी सफलता, प्रशंसा और हमदर्दी प्राप्त की थी दर्शकों की।
आनंद अपने आपमें एक पूर्ण सम्वेदनशील फिल्म थी, जिसको देखते हुए दर्शक पहली ही रील से उससे एक आत्मीय जुड़ाव स्थापित हुआ पाता है। अन्त तक आते-आते दर्शक दुखान्त के कारण गहरे अवसाद में जरूर भर जाता है मगर यह हृषिदा की फिल्म की सार्थकता और सफलता है कि यह इस तरह हमारे मर्म को छूती है। आनंद, फिल्म के नायक का भी नाम है जो कैंसर की बीमारी से ग्रसित है। उसके पास डॉक्टरों के मुताबिक शायद छ: माह ही शेष है। आनंद की भूमिका राजेश खन्ना ने निभायी है जो उस समय के सर्वाधिक लोकप्रिय रोमांटिक सितारे थे।
अमिताभ बच्चन उस समय नये थे और अपनी आजमाइश की आरम्भिक कक्षाओं में क्षमताओं का पाठ पढ़ रहे थे और इम्तिहान दे रहे थे। उन्होंने डॉक्टर की भूमिका निभायी थी जिन्हें आनंद बाबू मोशाय कहता है। रमेश देव, सीमा देव की भूमिका इस फिल्म में यादगार है जिनके माध्यम से ही आनंद, बाबू मोशाय से मिलता है और डॉक्टर-मरीज के रिश्तों के बीच दो अलग-अलग स्वभावों के मित्र का रिश्ता भी कायम होता है। इस फिल्म की पटकथा बड़ी सशक्त है। आनंद, फिल्म की धुरि है जिसके आसपास सारे किरदार नक्षत्र की तरह घूमते हैं। नर्स का छोटा मगर दिल को छू जाने वाला किरदार ललिता पवार ने निभाया है जिनके आँसू याद रह जाते हैं। अतिथि कलाकारों में जॉनी वाकर और दारा सिंह लगता ही नहीं कि आनंद की कहानी की अपरिहार्यता न हों।
राजेश खन्ना अपनी भूमिका और निर्वाह में अमिताभ बच्चन को अपने आगे ठहरने ही नहीं देते। अपनी मृत्यु के दृश्य में वे सब लूटकर ले जाते हैं। फिल्म के गाने लिखे, संगीतबद्ध किए और गाये गये, सभी स्मरणीयता में आज भी मौजूद हैं, कहीं दूर जब दिन ढल जाये, मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने, जिन्दगी कैसी है पहेली हाय। कमाल योगेश, कमाल सलिस चौधुरी, कमाल मुकेश जी, मन्ना दा। आनंद फिल्म का शीर्षक, फिल्म देखते हुए दर्शकों की आँखों से निकले हुए आँसुओं में सार्थक होता है, हृषिकेश मुखर्जी की यह अनूठी सिने-कृति।
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