रविवार स्वर्गीय मोहम्मद रफी की पुण्यतिथि है। सिने-संगीत, वह भी अविस्मरणीय, मन और जीवन को भला लगने वाला और बहुत बार जीवन को कुछ न कुछ देने वाला गान सुनने के शौकीन लोगों के लिए 31 जुलाई का दिन श्रद्धा और आस्था प्रकट करने वाले एक ऐसे पर्व की तरह है जिसे हर साल उत्तरोत्तर आत्मीयता और भावना के साथ मनाये जाने का एक तरह से रिवाज सा चल पड़ा है। इस रिवाज में शामिल कलाकारों की संख्या खूब बढ़ती चली गयी है, इसी तरह पुण्य स्मरण के इस आनंद में डूबने वालों की तो कोई कमी ही नहीं है।
मोहम्मद रफी साहब 1980 में नहीं रहे थे, चार दशक से ज्यादा समय उनको हमारे बीच से गये हुए हो गया लेकिन आज बयालीसवें साल में हम जिस तरह से उनकी स्मृतियों को जवाँ होते देखते हैं, एक पूरा दिन उनकी याद में जीते हैं वो जैसे फिर हमारे लिए साल भर की खुराक का काम करता है। गायकों में ऐसा गायक भला और कौन होगा जिसको आज भी इतना प्यार, आदर और सम्मान मिल रहा हो। इस दुनिया में आने, रहने और जाने का सभी का समय मुकर्रर है मगर अपने होने की सार्थकता की चिन्ता कौन कितनी करता है? जिन्दगी ढर्रे में भी व्यतीत होती है और चार तरीके के चातुर्य-चपलताओं में भी।
हम जिन्दगी को इतनी सार्थक, जैसे रफी साहब ने जी, कि आज उनके नहीं होने के अस्तित्व को ही दुनिया का समूचा प्रशंसक वर्ग अपनी चाहत और जिद से जैसे नकार देता है, ऐसा बहुत कम इन्सानों के साथ होता है, वाकई। मोहम्मद रफी साहब ने अपनी साधना और स्वर से अपनी जगह को तो रेखांकित किया ही साथ ही गीत के मर्म में उतर जाने की जो अद्भुत क्षमता पायी, सदा जी और कण्ठ से व्यक्त की, उसका कोई सानी नहीं रहा।
कश्मीर से कन्याकुमारी तक विविध भारती से रेडियो सीलोन तक, बिनाका गीतमाला से सिनेमा के परदे तक मोहम्मद रफी का अपना ऐसा वर्चस्व मानिए जिसमें अ से अहा तक सभी मन के रमने की लिरिकल वजहें होती थीं।
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