इमरान हाशमी को बनाये रखने का जिम्मा भट्ट कैम्प का है। वे महेश भट्ट के भान्जे हैं। उनका आरम्भ महेश भट्ट की संस्था विशेष फिल्म से हुआ था जो उनके भाई मुकेश भट्ट संचालित करते हैं। महेश भट्ट ने समझदारीपूर्वक लगभग पन्द्रह वर्ष पहले सन्यास ले लिया था। एक जमाना था कि वे टेलीफोन पर निर्देश देने वाले निर्देशक माने जाते थे। एक साथ छ:-छ: फिल्में उनकी फ्लोर पर हुआ करती थीं।
बदलते समय और जीवन में रिश्तों की जटिलताएँ, वैवाहिक जीवन, विवाहेतर सम्बन्ध और इन सबसे उपजने वाले अवसादों को उन्होंने अपने अन्दाज में फिल्मों का विषय बनाया। उस समय महेश भट्ट का प्रस्तुतिकरण निजी रिश्तों की रसज्ञता को फिल्माने का उनका सोफेस्टिकेटेड अन्दाज दर्शकों को भाता था। वे एक ही वक्त में विविध विषयों को उठाते थे। आशिकी बनाने वाले महेश भट्ट ही सारांश भी बनाते थे और अर्थ बना चुकने के बाद हम है राही प्यार के जैसी फिल्म भी उन्हीं की होती थी।
उनका सन्यास दरअसल बे-मन से लिया गया सन्यास था इसीलिए वे फिल्मों से दूर नहीं हो पाये। सन्यासी होकर भी सिनेमा अनुरागी बने रहे, इसीलिए फिल्मों पर खूब डिबेट में हिस्सा लिया, विशेष फिल्म्स के बैनर पर बनने वाली फिल्मों को लेकर बात की, विवाद होने पर काट के लिए भी आगे आये। बाद में जब इमरान हाशमी के नायक बनने की उम्र आयी तो फिर एक तरह से वे उनके पीछे ही खड़े हो गये, अपना सम्बल, समर्थन देने के लिए। दर्शक जानते हैं कि इमरान हाशमी में प्रतिभा का गहरा अभाव है। उनकी पर्सनैलिटी नकारात्मक छबि का साथ देती है। अविश्वसनीय किरदार, अन्तरंग दृश्यों में यथार्थ की हद तक डूब जाने वाले इमरान हाशमी एक खास किस्म के दर्शक वर्ग की ही पसन्द बने। मर्डर उनकी सफल फिल्म थी, वही ठप्पा उनके साथ लगा रहा।
मर्डर का दूसरा भाग दर्शकों के आकर्षण का विषय नहीं बना। दरअसल ऐसे सिनेमा में एक्सपोज होने के लिए आज की तथाकथित नवजात हीरोइनों की कमी नहीं है पर निरर्थक सिनेमा में अब यह ऊब और झुँझलाहट का विषय है। दर्शक अब फार्मूले खारिज कर रहा है, वे फार्मूले जो सफलता की गारण्टी हुआ करते थे। हिन्दी सिनेमा, खासकर बाजार का सिनेमा बनाने वालों की पोटली-पिटारी का सामान अब खत्म हो चुका है, खाली डमरू की आवाज से मजमा जमता नहीं है। पता नहीं ये वे कब समझेंगे?
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें